________________
जरा-सोचिए !
१. अहिंसा के पुजारी रक्षा करें
तु आत्मा को देख, पहिचान, तो भी अचंभा नही जबकि वे
स्वयं मे प्रात्मा से अजान और अन्तरग वहिरग दोनों जैनी सच्चा और जयनशील होता है। जैन आगमो
प्रकार के परिग्रहो मे मोही तक देखे जाते है। यदि अत्युक्ति में जैनी की परिभाषा मे बतलाया गया है कि जो जिन
नहीं तो हम तो अब तक अधिकांश ऐसा देख पाये हैं कि देव का भक्त और जिनोपदेश के अनुसार चले वह जैनी
आत्मा की चर्चा अधिकाशनः लोग बाह्याचार की उपेक्षा है। प्रामाणिक पूर्व जैनाचार्य, जैनी को परिभाषा मे खरे
करके भी कर रहे हैं और वह इसलिए कि इस चर्चा की उतरते रहे है और इसीलिए वे जैन धर्म को सुरक्षित
आड़ मे उनका परिग्रह पाप छिपा रह सके और वे धर्मात्मा रखने में समर्थ हुए है। आज जैसी स्थिति दृष्टिगोचर हो
कहलाएँ। और यह फलित भी हो रहा है। अर्थात् जो रही है वह सर्वथा विपरीत है। न तो वैसे जैनाचार्य है
चर्चा मन्द राग भाव मे करने की है उसे परिग्रही अपना और न ही वैसे धावक है। फलत. जैन धर्म ह्रासोन्मुख
बैठे है और बाहर से नग्न व्यक्ति परिग्रह के चक्कर में है। लोग धर्म प्रचार का ढोल भले ही पीटते रहे पर ऐसे मे रा जडे मा भी रहे हैं। मे धर्म सुरक्षित नहीं रह सकता।
____ क्या कभी आपने सोचा है कि-ग्रामा को देखनेभला, जब आज मून धर्म अपरिग्रह की उपेना है,
दिखान, पकड़न-पकड़ाने का प्रयत्न अन्तारक्ष के पकड़नेतब अहिंसा आदि धर्म भी कैसे पनप सकते है ? आगम मे
पकड़ाने के समान असम्भव है। पकड़ने के लिए बढ़ते स्पष्ट कहा है कि पापो का मूल परिग्रह है। और इसी
जाने पर अन्तरिक्ष दूर-ही दूर होता जाता है और कुछ लिए आत्म-कल्याणार्थी को परिग्रह के त्याग का प्रथम
हाथ नही लगता। जैसे अन्तरिक्ष अनन्त है वैसे आत्मा उपदेश है। लोक में मोक्षमार्ग के गमन के लिए भी प्रथम
भी अपने गुण-स्वभाव में अनन्त है। आत्मा का, आत्मा सीढ़ी मुनित्वरूप को स्वीकार करना बतलाया है
के गुणों का, संकोच-विस्तारण स्वभाव का कोई अन्त नही । तीर्थकर भी सर्वप्रथम परिग्रह से निति लेते है और तब
-यह सूक्ष्म भी है और लोकपूर्ण भी है। अन्तरिक्ष और अहिंसादि महाव्रत धारण करते है । पर, आज तो लोग
आत्मा दोनो ही अरस, अरूप, अगन्ध है शब्द और स्पर्श अहिंसा का उपदेश पहिले देते है-परिग्रह परिमाण और
से रहित हैं -इन्द्रिय और मन के ग्राह्य नहीं। फलतः परिग्रह त्याग पर उनका ध्यान ही नहीं है ।
इनका साक्षात्कार निर्विकल्प और स्वानुभूति की दशा में यही कारण है कि आज परिग्रह सर्वोपार बन बैठा ही सम्भव है और ऐसा राग-भाव की अनासक्ति में है और वही धर्म की जड़ को खोखला किये दे रहा है । आज होता है। किसी भी वर्ग को देखिये वह परिग्रह से ही जुड़ा हुआ आत्मा के दर्शन करने कराने-पहिचानने पहिचनहै। और तो और, आज स्थिति ऐसी आ गई है कि घोर वाने और साक्षात्कार का जो मार्ग परिग्रहामनोवृत्ति में परिग्रही भी आत्म चर्चा मे लग रहा है और बाह्य वेष में अपना रखा है वह तीर्थकरो और कुन्दकुन्दादि के मार्ग से नग्न पुरुष आडम्बर और क्रियाकाण्ड में रप ले रहा है। सर्वथा विपरीत और चालू से तल निकालने के प्रयत्न की जव आचार्य बुन्दकुन्द सर्व परित्याग कर आत्मानुभव भाँति है उससे परमार्थ लाभ नहीं; लागतो राग के कृश कर सके-समयसार (आत्मा) के स्वरूप वर्णन के अधि. करने मे है। कारी बने, तब कई नामधारी आत्मार्थी घोर परिग्रह तीर्थकर की बाल्यावस्था में भी वे बड़े-से-बड़े विद्वानो से जकड़े हए, आत्मदर्शन मे लगे हो-वे कह रहे हो.- से भी बड़े ज्ञानवान थे। शुद्वात्म-प्राप्ति के लिये उन्होने