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वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४२ कि.१
जनवरी-मार्च १९८९
इस अंक में
१
क्रम
विषय १. अन्तः प्रकृति बनाम विश्व-प्रकृति-डा० सविता जैन २. कनकनन्दि नाम के गुरु
-स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ३. श्री कुन्दकुन्द का असली नाम क्या था?
-श्री रतन लाल कटारिया ४. नथमल बिलाला का भक्ति काव्य
-डॉ. गंगा राम गर्ग ५. महाराष्ट्र में जैन धर्म-डा० भागचन्द्र भास्कर ६. गिरिनार की चन्द्र गुफा में.....
-डॉ. लक्ष्मीचन्द्र जैन ७. सोनागिर मन्दिर अभिलेख"
-डॉकस्तूरचन्द 'सुमन' ६. सुख का उपाय-पं० मुन्नालाल प्रभाकर ६. श्री कुन्दकुन्द का विदेह गमन ११. सल्लेखना अथवा ममाधिमरण
-डॉ० दरबारी लाल कोठिया १२. आवश्यक और दिगम्बर मुनि
-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, दिल्ली १२. जरा सोचिए :
-सम्पादक
प्रकाशक:
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
७-०.
जनसम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत मौर प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना मे प्रलंकृत, सजिल्द । ... जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन
अन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टो सहित। सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५.०० समाधितन्त्र पौर इष्टोपवेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित
५-५. भवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण न ... जैन साहित्य पोर इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहसुस : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो मोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े को पक्की जिल्द ।
२५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. पावक धर्म संहिता : श्री वरयावसिंह सोषिया
५.०० धन लक्षणावली (तीन भागों में): स० पं. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पमचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पवन्द्र शास्त्री
२.०० Jaina Bibliography - Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
Per set 600-00 सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामग्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५
BOOK-POST
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वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४२: कि० १
जनवरी-मार्च १९EE
इस अंक में
१
क्रम
विषय १. अन्तः प्रकृति बनाम विश्व-प्रकृति-डा. सविता जैन २. कनकनन्दि नाम के गुरु
-स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ३. श्री कुन्दकुन्द का असली नाम क्या था?
-श्री रतन लाल कटारिया ४. नथमल बिलाला का भक्ति काव्य
-डॉ. गगा राम गर्ग ५. महाराष्ट्र में जैन धर्म-डा० भागचन्द्र भास्कर ६. गिरिनार को चन्द्र गुफा मे...."
-डॉ० लक्ष्मीचन्द्र जैन ७. सोनागिर मन्दिर अभिलेख.........
-डॉ. कस्तूरचन्द 'सुमन' ८. सुख का उपाय-पं० मुन्नालाल प्रभाकर ६. श्री कुन्दकुन्द का विदेह गमन १०. सल्लेखना अथवा समाधिमरण
-डॉ० दरबारी लाल कोठिया ११. आवश्यक और दिगम्बर मुनि
-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, दिल्ली १२. जरा सोचिए : -सम्पादक
प्रकाशक:
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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क्या सब ठीक हो रहा है ?
शब्दानामनेकार्था:--शब्दो के अनेक अर्थ होते है। यह एक प्रसिद्ध वाक्य है और मुक्तावली-विश्वलोचन आदि ऐसे अनेक कोश हैं जिनमे एक-एक शब्द के अनेक अर्थ दिए गये हैं। इसी परम्परा मे हमारे समक्ष अभी 'समयसार' शब्द के भी अनेक अर्थ आए है। यद्यपि अभी तक ये अर्थ अनेकार्थक कोशो में नहीं आ सके है पर, यदि जनता का रुझान इन वर्तमान अर्थों की ओर रहा तो सन्देह नही कि इन्हें भी कोशों में स्थान मिल जाय ।
आचार्य कन्दकन्द ने समयसार लिखा और उनका पूरा कथन आत्मा के परिप्रेक्ष्य मे रहा। और अन्य व्याख्याकारो ने भी 'समय' शब्द को षड्दव्यो के निर्देश मे बतला, उनमे से सारभूत आत्मा को ही स्व-ग्राह्य मामा । तथाहि-'स्व-स्वगुणपर्यायाप्रति सम्यक् प्रकारेण अयन्ति गच्छन्ति इति ममयाः पदार्थाः । तेषा मध्ये सार: ग्राह्य. समयसार: आत्मा इत्यर्थ.।'-अर्थात् जो भले प्रकार से अपने गुणो और पर्यायो को प्राप्त होते रहते है वे समय यानी पदार्थ हैं और उन पदार्थों मे (जीव को) प्रयोजनीभूत--ग्राह्य होने से आत्मा मात्र ही सार हैइसके सिवाय अन्य सभी द्रव्य जीव के लिए असार है, अग्राह्य है।
'समयसार' शब्द के अर्थ प्रसग मे एक सज्जन ने हमे यह भी बताया कि 'समयसार' तो ए .. ग्रन्थ का नाम है। जब कोई कहता है-'समयसार लाओ' तो कोई उसे आत्मा थोड़े ही पकड़ा देता है। वह तो अल्मारी खोलकर अन्य ही तो लाता है और स्वाध्यायकर्ता उस ग्रन्थ को आसन्दी पर विराजमान कर उसका स्वाध्याय कर लेता है। और फिर कुन्दकुन्द ने भी तो शास्त्र ही रचा था-आत्मा को तो रचा नही। सो हम तो जितना बनता है कुन्दकुन्द के समयसार ग्रन्थ का उपयोग कर लेते हैं। अमृतचन्द्र और जयसेन आदि आचार्यों ने भी समयसार शास्त्र की ही व्याख्या की है। इससे भी सिद्ध होता है कि-'समयसार' एक शास्त्र विशेष का नाम है।
तीसरा अर्थ जो हमारे सामने है वह आधुनिक है और लोगो का उससे लगाव भी दिखता है । यानी अाज का मुनि और श्रावक अधिकांशतः (सभी नही) समझ रहा है कि-समय यानी टाइम (Time) ! और टाइम (वर्तमान) का जो सार है या वर्तमान टाइम में जो सार (ग्राह्य) माना जा रहा है वह समयसार है-पैसा ।
और आज अर्थ-युग माना जा रहा है । हर आदमी अर्थ के पीछे दौड रहा है। उसको पूर्ण विश्वास हो गया है कि पैसे से कोई भी काम कराया जा सकता है। जबकि जैनधर्म इसका अपवाद है और वह पैसे को परिग्रह में शुमार कर उसे पाप कह रहा है हेय कह रहा है । ऐसा क्यो ? इस प्रकार के अनेक प्रश्न उलझन मे डाल रहे है।
हमारी दृष्टि मे उक्त तीनो अर्थों में से प्रथम दो अर्थ आगमानुकूल और धर्म सम्मत है। प्रथम अर्थ सर्वथा उपादेय है और दूसरा अर्थ उस उपादेय में साधनभूत है। यानी जब ग्रन्थ का स्वाध्याय करेंगे तब मार्ग मिलेगा और बाद मे शुद्ध अत्मतत्वरूप समयसार में आया जा सकेगा। अब रही तीसरे अर्थ (पैसा) रूप अर्थ की बात, सो जैन की दृष्टि से तो पैसे की पकड़ तो पतन का ही मार्ग है । पैसा परिग्रह है और शास्त्रो मे परिग्रह को पाप कहा है। जैन शास्त्रो मे जो 'जल मे भिन्न कमल' और 'भरत जी घर ही मे वैरागी' जैसे कथानक है वे स्पष्ट कह रहे है कि यदि पैसा आदि वैभव मे सार होता तो तीर्थकर आदि उसे क्यो त्यागते ? जब कि आज का गृहस्थ ही नहीं, कई त्यागी तक पैसे से चमत्कृत हो रहे है और किसी मे अकुश लगाने की हिम्मत नहीं हो रही कि त्यागी का काम चन्दा-चिट्ठा करना-कराना नही-वे ऐसी प्रवृत्तियो से विराम लें, आदि । क्या, यह सब ठीक हो रहा है ? जरा सोचिये!
-सम्पादक
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मोन पहन
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परमागमस्य बोचं निषिधनात्पन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥
वर्ष ४२ किरण १
।
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संवत् २५१५, वि० सं० २०४५
जनवरी-मार्च
१९८६
"अन्त:-प्रकृति बनाम विश्व-प्रकृति" में अब तक जान नहीं पायो, है सागर को गहराई कितनी ? मन के सम्मुख सागर भी, लगता है मुझको उपला-उथला ॥ हिम आच्छादित शैल-शिखर भी, छोटा लगता भान-शिखर से। तप्त सूर्य पिघलाता हिम को, पर मानी का मान न गलता ।। दावाग्नि जब-जब जलती है, भस्म कर देती वन उपवन को। क्रोधाग्नि के सम्मुख वह भी, लगती फोकी फोकी क्यूं है ? घन आच्छादित हो रवि-किरणें, यों छिपती तम के पटलों में। मोह तिमिर के सम्मुख जैसे, जान-ज्योति आलोक रहित हो ॥ तृष्णा नागिन जब-जब डसती, लहर जहर परिग्रह को उठती। बंद-बंद सागर को भरती, पर मनः कप की प्यास नबुझती॥ आखिर अब तो मान चुकी में, मन की तह को छान चकी मैं। उद्दाम वेग अन्तः प्रकृति का, लज्जित करता विश्व-प्रकृति को।
-डॉ. सविता जैन 7/35 दरियागंज, नई दिल्ली-2
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कनकनन्दि नाम के गुरु
0 स्व० डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
(श्री रमाकान्त जैन के सौजन्य से)
जैन शिलालेख संग्रह, एपिग्राफिका कर्णाटका, इण्डियन ६५० ई० अनुमानित है। [प्रेमी जी का जैन साहित्य एण्टीक्वेरी; वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित पूरातन जैन और इतिहास पृष्ठ २७१: पुरातन जैन-वाक्य सूची वाक्य सूची, र्थ पी. बी. देसाई कृत जैनिज्म इन माउथ पृष्ठ १०८] इण्डिया, श्री बी ए. साल्तोर की पुस्तक मैडिवल जैनिज्म, (४) देसीगण के कनकनन्दि भट्टारक अष्टोपवासि, पं. नाथाम प्रेमी का जैन साहित्य और इतिहास और जिन्हे १०३२ ई० मे चालुक्य सम्राट जगदेकमल्ल प्रथम ने अपनी पुस्तक प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाये जगदेकमल्ल जिनालय के लिए दान दिया था। [जैन अादि में ७वी शती ईस्वी से १३वी शती ईस्वी के मध्य शिलालेख संग्रह, भाग चार, शिलालेख १२६; श्री देसाई हए कनकनन्दि नाम के गूरुओ के १६ उल्लेख मिलते है। को उक्त पुस्तक पृष्ठ ३६४] इन कनकनन्दि नाम के गुरुओं के सम्बन्ध मे कभी-कभी (५) सब्बिनगर के धोर जिनालय के आचार्य कनकनाम साम्य के कारण एकाधिक गुरुओं को अभिन्न मान नन्दि । इनके समाधि-मरण करने पर इनका गृहस्थ शिष्या लेने अथवा भिन्न-भिन्न स्थानो पर उल्लेख होने के कारण भागियब्बे ने १०६० मे उनकी निसिधि (समाधि-स्मारक) एक ही गरु को भिन्न-भिन्न समझ लेने की भ्रान्ति होने बनवायी थी। [जैन शिलालेख संग्रह, भाग चार, शिलाका परिहार करने के उद्देश्य से प्राप्त उल्लेखो का यथा- लेख ४.1 संभव कालक्रमानुसार सक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत किया
(६) हुम्मच के तैलप द्वितीय भुजबल सान्तर के गुरु जा रहा है।
कनकनन्दि । इन्हे उक्त राजा तैलप ने १०६५ ई० मे (१) तमिलनाडु मे मदुरै जिले के एक जैन गुहा स्वनिर्मापित भजबल-पान्तर जिनालय के लिए एक ग्राम मन्दिर की विशाल महावीर प्रतिमा के प्रतिष्ठानक अभि- दान किया था। [प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और नन्दन भट्रारक के गुरु कनकनन्दि भट्टारक । इनका समय महिलाये पृष्ठ १७३] लगभग ७वी शती ईस्वी अनुमानित है। [जैन शिलालेख (७) सरस्थगण-विश्कटान्वय के आचार्य सकलचन्द्र संग्रह, भाग चार, पृष्ठ २२, श्री देमाई की उपर्युक्त पुस्तक के सधर्मा कनकनन्दि मैद्धन्तिक जिनके शिष्य सिरिणदि पृष्ठ ५६]
(श्रीनन्दि) पण्डित की शिष्या आयिका हलियब्बाज्जिके ने (२) तमिलटे शस्थ करुण्डीतीर्थ के कनकादि परि- १०७१ ई० मे मरटवर (सोरटूर) स्थित बलदेव जिनालय यार । इनके शिष्य पूर्णचन्द्र थे। इनका समय लगभग के लिए दान को व्यवस्था की थी। [जैन शिलालेख संग्रह ७ वी.८वीं शती ईस्वी अनुमानित है। श्री देसाई की भाग चार, शिलालेख १५३; श्री देसाई की उक्त पुस्तक उपर्युक्त पुस्तक पृष्ठ ६६, मैडिवल जैनिज्म पृष्ठ २४५] पृष्ठ १४४]
(३) सत्व स्थान और विस्तर-सत्व विभगी अपरनाम (८) मूलसघ-सूरस्थगण-चित्रकूटान्वय के कनकनन्दि विशेषसत्ता-विभगी नामक प्राकृत ग्रन्थो के रचयिता भट्टारक, जिनके शिष्य उत्तरासग भट्टारका प्रशिष्य भास्ककनकनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती। यह चामुण्डराय (६७८ रनन्दि पंडित, श्रीनन्द भट्टारक और अरुहणदि भट्टारक ई.) के गुरु और गोम्मटसार आदि के कर्ता नेमिचन्द्र थे और श्रीनन्दि या अरुहनन्दि के शिष्य वह आर्यपडित थे सिद्धान्तचक्रवर्ती के विद्यागुरु थे। इनका समय लगभग जिन्हें राजा सोमेश्वर द्वितीय नै १०७४ ई० मे अरसर
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कनकनन्दि नाम के गुर
बसीद नामक जिनालय के लिए दान दिया था । संभवतया तीनों क्रमांको पर उल्लिखित गुरु-शिष्य परम्परा में कुछ यह कनकनन्दि क्रमांक (७) पर उल्लिखित कनकनन्दि से विसगति भी प्रतीत होती है, संभावना यही है कि इन अभिन्न हैं, यद्यपि क्रमाक (७) में श्रीनन्दि को उनका तीनो क्रमांको मे उल्लिखित कनकनन्दि विद्यदेव अभिन्न शिष्य और यहा प्रशिष्य बताया गया है। इन कनकनंदि हैं। इनका समय लगभग ११००-११ भट्टारक का समय क्रमांक (४) और (५) पर उल्लिखित अनुमानित है। कनकनन्दियों के मध्यवर्ती रहा प्रतीत होता है। [श्री देसाई (१२) श्रवण बेलगोल मे चामुण्डराय बसदि में प्राप्त को उक्त पुस्तक पृष्ठ १०७]
११२० ई. के एक शिलालेख मे उल्लिखित कनकनन्दि (8) कनकनन्दि विद्यदेव, जो शुभचन्द्रदेव की शिष्य मुनीश्वर जो मुल्लूर या मल्लूर (कुर्ग में) के निवासी थे परम्रा में हुए और उन मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव के गुरु थे और होयसल राज्य के प्रधान मन्त्री गंगराज की माता जिनका गृहस्थ शिष्य केतब्बे था जिसने १११० ई० मे पोचिकब्बे, जिसने ११२० ई० में समाधि-मरण किया था. भूमि, मकान, आदि दान किये थे। [एपीग्राफिका कर्णा- के पति, गंगराज के पिता और नपकाम होयसाल के मंत्री टका, भाग सात, ८९; जैन शिलालेख संग्रह, भाग दो, एवं सेनानायक एचिगांक अपरनाम बुधमित्र के गरु थे। शिलालेख २५१]
[जैन शिलालेख संग्रह, भाग एक, शिलालेख ४४, मैडिवल (१०) मूलसंघ-क्राणूरगण के अनन्तवीर्य सिद्धान्ति के जानज्म पृष्ठ ११६ प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष शिष्य और श्रुतकीर्तिबुध एवं मुनिचन्द्र अतिप के सधर्मा महिलाये पृष्ठ १४२] कनकनन्दि विद्य। मुनिचन्द्र के शिष्य माधवचन्द्र को
(१३) ११२३ ई. के एक शिलालेख में उल्लिखित
कनकनन्दि पण्डितदेव, जो देसीगण-पुस्तकगच्छ-कुन्दकुन्दा१११२ ई० में दान दिया गया था। इन कनकनन्दि के गुरु या (अधिक संभावना है) प्रगुरु प्रभाचन्द्रदेव १०६७ ई० वय को परम्परा में कोल्लापुर (कोल्हापुर) की श्री रूपमे विद्यमान थे। [एपीग्राफिका करर्णाटका, माग सात,
नारायण वसदि के आचार्य माघनन्दि सिद्धान्तक्रवती के ६४, जैन शिलालेख संग्रह, भाग दो, शिलालेख २६६]
शिष्य तथा श्रुतकीति विद्य, चन्द्र कीति और प्रभा चन्द्र
पण्डितदेव के सघर्मा, 'वादीभसिंह' आदि उपाधिधारी (११) ११२१ ई० के एक शिलालेख में उल्लिखित महावादी थे। [जैन शिलालेख मग्रह, भाग दो, शिलालेख कनकनन्दि विद्य । लेख मे उनको गुरु परम्परा इस प्रकार २८०; इंडियन एन्टीक्वेरी, भाग चांदह] मिलती है--मूलसघकोण्डकुन्दान्वय-क्राणूरगण-मेषपाषाण. (१४) देवकीति पडितदेव के ११६३ ई० के ममाधिगच्छ के महावादी प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य माघ
स्मारक लेख में उल्लिखित कनकनन्दि योगीश्वर, जो नन्दि सिद्धान्तदेव थे, जिनके शिष्य प्रभाचन्द्र द्वितीय, माघनन्दि विद्य, श्रतकोति, देवचन्द्र तथा उक्त देवकीर्ति अनन्तवीर्य और मुनिचन्द्र थे। मुनिचन्द्र के शिष्य या पन्डितदेव के सधर्मा थे। [जैन-शिलालेख संग्रह, भाग सधर्मा श्रुतकीति तथा वह कनकनन्दि विद्य थे। जिन्हें एक, शिलालेख ४०] राजदरबारो में त्रिभुवनमल्ल वादिराज' कहा जाता था। (१५) श्रवण बेलगोल की चामुन्डराय णिला पर इनके सधर्मा माधवचन्द्र थे जिनके शिष्य बालचन्द्र यतीन्द्र उत्कीर्ण एक नामांकित मूनि मुनि (काल अनिश्चित) मे थे । [जैन शिलालेख सग्रह, भाग दो, शिलालेख]
उल्लिखित श्री कनकनन्दि देवा [जैन शिलालेख संग्रह, यद्यपि ऊपर क्रमांक (१) पर कनकनन्दि विद्यदेव भाग एक, शिलालेख २५१] को मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव का गुरु, क्रमांक (१०) पर मुनि- (१६) कोल्लापूर (कोल्हापूर) के सामन्त जिनालय चन्द्र बतिय का मधर्मा और क्रमांक (११) पर मुनिचन्द्र के कनकनन्दि मुनि, जिनके शिष्य प्रभाचन्द्र थे (समय का शिष्य या सघर्मा उल्लिखित किया गया है। और इन १२७६ ई.)। [श्री देसाई की पुस्तक पृष्ठ १५१]
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श्री कुन्दकुन्द का असली नाम क्या था ?
क्या वे पल्लीवाल जाति के थे ?
0 श्री रतनलाल कटारिया
आ० कुन्दकुन्द के ५ नामों मे पद्मनंदि नाम तो जीवन चरित्र देते हुए लिखा है कि-इनका जन्म मालवा दीक्षावसर का है और कुन्दकुन्द नाम गांव के नाम का देश में बंदी कोटा के पास बारां मे हुआ था यह जाति के द्योतक है व्यक्ति नाम नहीं। जैसे "सर्वपल्ली राधा पल्लीवाल थे। चारित्रधर्मप्रकाश (सन् १९७६ सीकर से कृष्णन" मे सर्वपल्ली गाव का नाम है । प्रसिद्ध फिल्मकार प्रकाशित) के अन्त मे आचार्यों की पट्टावली दी है उसमें बी. शांताराम मे बी वणन्ने गांव का नाम है। अनेक प्राचीन आचार्यों की जाति बताते हुए कुन्दकुन्दादक्षिण मे गांव का नाम पहिले बोलने की पद्धति है। चार्य को भी पृष्ठ ३१० पर "पल्लीवाल" जाति का लिखा अतः कुन्दकुन्द (कोण्ड कन्द) गांव का नाम है इसके आगे है (यही बात प्रस्तावना पृ० ७ पर भी लिखी है) "महाव्यक्ति नाम रहता है वह बोलने की सुविधा-संक्षिप्ती वीर जयती स्मारिका १६८८" के पृ. २-६६ पर डा० करण से लुप्त हो गया है। इधर उत्तर प्रान्त मे गांव का कस्तूरचन्द जी काशलीवाल, जयपुर ने भी यही सब नाम जो गोत्रत्व को लिए हए है वह नाम के बाद में बोलते लिखा है। हैं जैसे पाटणी" "गदिया' आदि ।
किन्तु भगवान् कुन्दकुन्द दक्षिण देश (आन्ध्र-द्रविड पाटणी जी" बोलने से असली नाम का पता नही प्रदेश) में पैदा हुए है। उन्हें बारां (राजस्थान) का बताना लगता वैसे ही "कुन्दकुन्द" से सिर्फ गांव का नाम दयोतित किसी गहरी भूल का परिणाम है। उसका खुलासा इस होता है व्यक्ति नाम नही, दीर्घ काल से असली नाम लुप्त प्रकार है कि.... "ज वदीव पण्णत्ति" के कर्ता पद्मनन्दि वि० हो गया है उसकी खोज होनी चाहिए ।
सं० १०३४ मे हुए है वे बारा नगर के थे। इस विषय मे कुन्दकुन्द के शेष नाम-वक्रग्रीव, गृद्धपिच्छ, ऐला- पं० नाथूराम जी प्रेमी ने "जैन साहित्य और इतिहास" चार्य आदि भी सही प्रतीत नही होते कल्पित और अन्य (द्वि० सस्करण पृ० २५६) मे लिखा है कि---"ज्ञानप्रबोध से मबद्ध ज्ञात होते है।
नामक पद्य बद्ध भाषा ग्रन्थ मे कुन्दकुन्द की कथा दी है धोषेण वृषभसेन, कोण्डेशः शंकरश्च दृष्टान्ताः ॥११८॥ उसमे कुन्दकुन्द को इसी बारां के धनी कुन्दश्रेष्ठी और रत्नकरण्ड श्रा० के इस श्लोक मे जो शास्त्रदान के रूप मे कुन्दलता का पुत्र बताया है। पाठक जानते है कि कुन्द"कोण्रेश" का दृष्टान्त दिया है वह भी कन्दकन्द प्रभु से कुन्द का एक नाम पद्मनन्दि भी है। जान पडता है किही सबद है। यहाँ "कोण्डकन्द" ग्राम का सक्षिप्त नाम जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के कर्ता पमनन्दि को ही भ्रमवश कुन्दकोण्ड और उसके ईश --प्रभु इस प्रकार कोण्डेश." दिया कुन्द समझ कर ज्ञानप्रबोध के कर्ता ने कुन्दकुन्द का जन्मगया है। इसीलिए बाद के आचार्यों ने इसकी कथा मे स्थान कर्नाटक के कोण्ड कुन्दपुर के बदले बारा बतला कुन्दकुन्द के दीक्षा नाम पपनन्दि मुनि का उल्लेख किया दिया है। कुन्दकुन्द नाम की उपपत्ति बिठाने के लिए कन्दहै इससे यह दृष्टान्त कुन्दकुन्दाचार्य को सिद्ध करता है। श्रेष्ठी और कुन्दलता की कल्पना भी उन्ही के उर्वर इससे यह भी प्रमाणित होता है कि-कुन्दकुन्द, समन्त- मस्तिष्क की उपज है।" भद्राचार्य से पूर्व हुए है।
बारां मे इन्ही पद्मनन्दि की एक निषिद्या (चरणचिह्न) "बृहज्जैन शब्दार्णव" भाग १ (सन् १६२४) पृष्ठ भी है। कुछ विद्वानों ने भ्रमवश उसे भी कुन्दकन्द की ११८ पर "अगपाहुड" के वर्णन मे कुन्दकुन्दाचार्य का बता दी है। जब दक्षिण के कुन्दकुन्द को बारा (राजस्थान)
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श्री कुन्दकुन्द का असली नाम क्या था? क्या वे पल्लीवाल जाति के थे?
४
का कल्पित कर दिया तो राजस्थान की ही पल्लीवाल जिनशासन माहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥ जाति की भी उनके पाथ कल्पना कर दी गई। अन्यथा
-रत्नकरंड श्रा० दक्षिण में पल्लीवाल नाम की कोई जाति है ही नही
अज्ञानान्धकार के प्रसार को यथायोग्य दूर कर जो वहाँ तो अन्य ही जातिया है। यह सब गडबड़ पपनन्दि
जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना है वही सच्ची नाम-साम्य के कारण हुई है । ये सब इतिहास की भयंकर
प्रभावना है।)
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । भूलें है और आधुनिक भाषा-ग्रन्थ "ज्ञानप्रबोध" आदि के
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्यकार्यः परिग्रहः ॥ हरिभद्रसूरि कर्ताओ की गहरी नासमझी के परिणाम हैं। इन्ही के
(न जिनेन्द्र महावीर के प्रति पक्षपात है न कपिलादि आधार पर अब तक विविध भाषाओं मे विद्वानो ने कुंदकुद अजैनो के प्रति विद्वेष है-जिनके वचन युक्तियुक्त (सुसंगत) के जीवन चरित्र को लेकर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। जब इस हों उन्ही का ग्रहण करना चाहिए।) प्रकार मूल में ही भूले है तो वे सब ग्रन्थ कहां से प्रामाणिक "बारस अणुवेक्खा' को अन्तिम गाथा ११ मे कन्दहो सकते है। अतः नये शिरे से, गहरी छानवीन और कुन्दमुणिणाहे" लिखा है इस पर किसी विद्वान ने आचार्य ऊहापोह के साथ कुन्दकुन्दाचार्य का प्रामाणिक जीवन- वर पर स्वप्रशसा का आरोप लगाया है किन्तु उसका चरित्र लिखे जाने की सखन जरूरत है चाहे वह छोटा ही अर्थ कुन्दकुन्द मुनिनाथ न करके कुन्दकुन्द मुनि के नाथ हो किन्तु होना चाहिए सुसगत इतिहास ।
अर्थात् जिनेन्द्रदेव करना चाहिए। हुए न हैं न हो इगे अत्यूनम नतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् ।
मुनीद कुन्दकुन्द से ॥ निःसन्देह वेदयदाहुस्तज्ज्ञान मागमिनः ॥४२॥
__ कुन्दकुन्द के ग्रन्थ अत्यन्त सरल-सुस्पष्ट, सहज, मुक,
---रत्नकरण्ड श्रा० लाजवाब, बेमिसाल, सारभत और अद्वितीय हैं। मोक्षमार्ग (पदार्थ को जैसा का तैसा, न कम न ज्यादा, न गलत के लिए उनका खूब प्रचार होना चाहिए । इन्ही को न उल्टा, सन्देह रहित सही-सही जानना ही सच्चा ज्ञान बदोलत श्वेताबरादि दि० हुए है और आगे भी इन्ही के
ही प्रताप से होंगे। यह सब की एक मास्टर 'को' (चाबी) अज्ञान तिमिर व्याप्तिमपाकृत्य यथायथ ।
__ 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान- वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर मवा मन्दिर के निमित्त श्री बाबूलाल जैन, २ असारी रोड, दरियागज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय । प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक । सम्पादक-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय । मुद्रक-गीता प्रिटिंग एजेंसो, न्यू सीलमपुर, दिल्ली-५३ स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
बाबूलाल जैन
प्रकाशक
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नथमल विलाला का भक्तिकाव्य
] डा. गंगाराम गर्ग
अनेक काव्य रचनाओ के प्रणेता होने पर भी जैन कर्नाटक इक देस उदार, तहां पचीसौ जिनाल सार। साहित्य मे विस्मत माकवि नथमल "विलाला" अपने नगर मांहि पर गिर पं जोय, निति त्रिकाल तहं पूजन होय॥ समय के महान् शासक जाट राजा सूरजमल द्वारा प्रति- नगर मांहि उस देश मझार, धरम ध्यान बरतें इक सार। ष्ठित कवि थे। महाराजा सूरजमल ने अपने पोतदार तहां मिथ्याति लख्यो न कोय, नित्य धरम के उत्सव होय ॥ "बेनी' के कहने पर नथमल को आगरा से भरतपुर
नथमल की दासभक्ति :--- बुलवा कर अ ने खजाने पर नौकरी दी थी। “जीवन्धर
रीतिमल के शृगारी वातावरण में लिप्त जनमानस चरित" की प्रशस्त मे नथमल विलाला ने अपना जन्म
को अपने भक्तिभाव से प्रक्षालित करने की चेष्टा बनारसी स्थान, आगरा का जयसिंहपुरा बतलाया है। इनके पिता
दास, द्यानत राय, भूधरदास, हरीसिंह आदि अनेक जैन मह जेठमल शाह और पिता सोम चद थे।
कवियो ने की थी। इस परम्परा मे भरतपुर के नथमल "नेमिनाथ व्यालो" और 'अनन्त चतुर्दशी ब्रत कथा'
विलाला का योगदान भी सराहनीय है। नयमल विलाला के रचनाकाल क्रमश: सवत् १८१६ वि० एव १८२४ वि०
ने विलावल, सोरठ, बसत, रामकली, सारंग आदि कई होने के कारण इस अवधि मे कवि का भरतपुर नगर मे
राग-रागनियो मे ४०-६० पद 'सेवक' उपनाम से लिखे रहना सुनिश्चित है। भरतपुर में लिखी गई कवि की
है। इनके अधिकांश भक्तिपूर्ण पद ऋषभदेव, महावीर और अन्य रचनाएं "जिन गुणविलास (म । १८२२ वि०) और
पार्श्वनाथ तीनों तीर्थंकरो को सम्बोधित करके लिखे गए 'चीठी' है। नथमल ने गिद्धान्तसार दीपक (वि० सवत् है। जिनभक्ति से वादिराज का कोढ़ नष्ट होना, सेठ १८३४) और नागकुमार चरित (स० १८३७) की रचना
धनञ्जय के पुत्र का विष उतरना तथा मानतुंग का बंधनहिन्डोन मे की। माघ कृष्ण सप्तमी सवत् १८४३ वि.
मुक्त होना आदि घटनाओं ने नथमल को जिन-शरण मे को स्वय के हाथ से लिखी गई एक प्रति के आधार पर
जाने की प्रेरणा दी हैकवि का हिन्डोनवास प्रमाणित है। सवत् १८४३ के
सरन तेरी पायो जिनराज, महिमा सुन हरषायो। पश्चात् कवि ने अपने अन्तिम दिन करोली मे व्यतीत
इन्द्र नरेन्द्र मनेन्द्र नमैं तुम, समरौं जिन सुख पायौ ॥ किए। यहां इन्होंने ३०५ छ-द के विशाल ग्रन्थ समवशरण
वादिराज युति करते ही प्रभु, छिन मैं कोढ़ नसायौ । मगल की प्रतिलिपि सवत् १८४८ वि० मे की है। करौली
सेठ धनंजय स्तवन कोयो, ता सुत विष उतरायो । नगर के पद्मविला मुहल्ले के पास स्थित विलालाओ की
मानतंग ने भक्ति करी जब, बंधन तुरत छड़ायो। हवेली उजड़े रूप में आज भी विद्यमान है।
इन्हें प्रादि यह सभी सुनत हो, 'सेवग' मन ललचायो । विभिन्न छन्दो मे चरितकाव्यो और सैद्धान्तिक ग्रन्थो मैं ह दीन, तारक तुम साहिब' का सम्बन्ध रखने के रचयिता नथमल दिलाला की भक्तिभावना बेजोड़ है। वाले नथमल अपने आराध्य के अनन्य भक्त रहे है । पुष्टजिनभक्ति से प्रभावित होकर ही कवि ने अपनी 'चीठी' मागियों की सी सर्वांग-सेवा का भाव उनमे भी विद्यमान नामक रचना मे सुदूरवर्ती कर्नाटक देश मे विद्यमान जैन हैमन्दिरों की हीरा-पुखराज, चाँदी व सोने की कलात्मक निस दिन तेरो ध्यान, मेरे काई की नहि कान । मूतियो और धार्मिक वातावरण का सजीव चित्र खीचा है। और देव सौं प्रीति न जोड़ो, तुम ही सौ पहचान ।
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नथमल विलाला का भक्ति काव्य
कर जुग जोरि चरन तुम पूजा, श्रवन सुनौं जिन वानी। जो प्रचंड दुति धरै, महामणि प्रति छवि वारी। नेत्र जुगल करि रूप निहारो, सीस नवाऊ प्रांन । कांच षंड के माहि, सोज दुति कहा तिहारी ॥२० तीन जगत के स्वामी तुम हो, तारन पोत समान :
हरि हर प्रादिक देव दोष मैं, भलो ज मान्यौ । 'सेवग' मन परतीति उपाई, जीय मैं करि सरधान ।।
वीतराग तुम रूप जिन्हौं, लखि के पहिचान्यो । दोषों को दूर करने की सतर्कता वैष्णव भक्तो की
तुम सरूप कौं देखि चित्त, तुम मांहो लुभाव। अपेक्षा जैन भक्तों में अधिक रही है। जिनेन्द्र की भक्ति
अन्य मनोहर रूप, भवांतर मैं न सुहावै ॥२१ भावना मे आकठ निमग्न रहने के आकाक्षी नथमल कषायों के नियन्त्रण सम्यक्त्रय की धारणा तथा जिनवाणी की समवशरण मे स्थित तीथंकर की छवि का भक्त नथ. अनुपालना के प्रति निरन्तर सचेष्ट है ...
मल ने कई छन्दों में बड़ा मनोरम चित्र 'जीचा है। सभी समझि सयाने हो लाल ।
दास्य भक्तो की तरह नथमल आराध्य की नाम महिमा नरभव कुल श्रावक को पायो, पापो क्यों न संभाल ।
को भी निष्ठापूर्वक प्रस्तुत करते हैकोष मान मद मोह विष छकि, रिज प्रातम लौ गाल । प्रलय पवन करि उठी अगिन, ता सम भयकारी। नरक मांहि तू जाइ परंगो, नाना दुख तोहि साल ।
निकसत सिषा फुलिंग, निरन्तर जलत दुषारी। दरसन ग्यांन चरन चित धरिक, जिन वानी जो पाल ।
किधौ जगत सब भसम करंगी, सनमुख आवत । तो सूधो सिवपुर को पहुंचे, मुकतिवघू बरनाल । नाम नीर तुम लेत अगिन सो, वेग नसावत ॥ श्रीगुरु सिष्या यो बतलाई, जो इस मारग चाल । फेर न भरमैं जग में भाई, 'सेवग' कहै दरहाल । सवत् १८१८ वि० से सवत् १८४८ वि• तक तीन 'सेवक विलास' में संग्रहीत पदो के अतिरिक्त नथमल
दशको म भरतपुर, हिन्डौन और करौली तीनो स्थानों की एक अन्य रचना 'भक्तामर स्तोत्र भाषा' हिन्डोन मे
पर सभी काव्यरूपो और विभिन्न छन्दो में काव्य रचना
करने वाले नथमल विलाला ब्रजभाषा और ब्रज संस्कृति स्थित महावीर जी क मन्दिर से अभी प्राप्त हुई है।
के कुशल चित्रकार है। मानतुगाचार्य के भक्तामर स्तोत्र से प्रभावित होने के 13 कारण इस काव्य की भाषा परिनिष्ठित है, किन्तु उसमे
रीतिकाल मे लिखित अपार जैन साहित्य का माधुर्य एवं तन्मयता देने वाली लय सर्वत्र विद्यमान है।
अपेक्षित मूल्याकन हिन्दी साहित्य के इतिहास को अमूल्य अन्य देवो की अपेक्षा वीतरागता ज्ञान और द्युति जिनेन्द्र
निधि होगा। प्रभु मे कवि ने अधिक देखी है..लोकालोक प्रकाश ज्ञान है, जो तुम मांही। हरि हर मादिक वेव विषै, सो किंचित नाही।
११०-ए, रणजीत नगर, भरतपुर (राज.)
मन्दिर भिक्षकों के लिए नहीं जैन धर्म एक विज्ञान है-कारण-कार्य सिद्धान्त पर वह अवलंबित है। जैसा बोओगे वैसा फल पाओगे, किन्तु आज जैनी धर्म विज्ञान को भूल गये हैं वे धन के लिए, पूत्र के लिये, यश के लिये मन्दिरों मे मनौती मनाते हैं। बैरिस्टर (चम्पतराय) साहब ने इस पर कहा था -- "जैन मंदिरों में भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं है--जैन मन्दिर भिखारियो के लिये नही है। जो मोक्षाभिलाषी हों निर्ग्रन्थ होना चाहते हों उन्ही के लिये जैन मदिर लाभकारी है।" (स्व० बा० कामता प्रसाद)
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महाराष्ट्र में जैन धर्म
डॉ. भागचन्द्र भास्कर डी. लिट.
महाराष्ट्र दक्षिण भारत का प्रवेशद्वार है। इसका इति- में मनुष्य जाति के तीन समुदायों मे से एक समुदाय दक्षिण हास बड़ा प्राचीन है । वुन्तल अश्मक और दक्षिणापथ शब्द और पूर्व के अधिकांश पर्वतीय प्रदेशों मे सीमित था जो इतिहास मे विश्रुत हैं जिनसे महाराष्ट्र के इतिहास का कला कौशल और औद्योगिक क्षेत्र में विशेष प्रगतिशील सम्बन्ध रहा है। साधारणतः सेतु से नर्मदा पर्यन्त सारा था। नाग, यक्ष, वानर आदि अनेक समुदायो-कूलो मे प्रदेश दक्षिणापथ कहा जाता था।' सेतु का संदर्भ कदा- विभाजित यह समुदाय कालान्तर मे विद्याधर के नाम से चित कृष्णा नदी से रहा होगा जो महाबलेश्वर (महाराष्ट्र) विश्रुत हुआ। इसी को द्रविड़ भी कहा जाने लगा। आदि की पहाड़ियों से उदभूत दक्षिण भारत की प्रसिद्ध नदी है। पुरुष तीथंकर ऋषभदेव के एक पुत्र का नाम भी द्रविड़ महाभारत (सभा ९-२०) मे कृष्णवेण्या का उल्लेख है पर था। सम्भव है। विद्याधर जाति से घनिष्ठ जाति सम्बन्ध शायद यह नदी कृष्णा नदी से भिन्न रही होगी। अतः स्थापित कर वे विद्याधरो के साथ ही बस गये हो और नर्मदा और कृष्णा के मध्यवर्ती भूभाग को दक्षिणपथ कहा उन्ही के नाम से उस भाग को द्रविड़ कहा जाने लगा हो। जा सकता है जिसमे महाराष्ट्र कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेशों जैन साहित्य में विद्याधर सस्कृति के बहुत उल्लेख मिलते को अन्तर्हित किया जाता है। शेष भाग सुदूर दक्षिण की हैं। महावश के अनुसार भी श्रीलका मे बौद्धधर्म के प्रवेश सीमा में समाहित हो जाता है।
के पूर्व यक्ष संस्कृति का अस्तित्व था । वृहत्कथा में विद्या___'महाराष्ट्र' शब्द का उल्लेख प्रदेश के रूप में न तो धर और जैन संस्कृति का सुन्दर वर्णन मिलता है। महावेदों में मिलता है और न रामायण महाभारत में, पर राष्ट्र मे शातवाहन कालीन भाजे गुफा मे एक भित्ति चित्र इसे पुराणो तथा जैन-बौद्ध ग्रन्थो में अवश्य देखा जा सकता मिला है जिसे विद्याधर से सम्बद्ध माना गया है। है। उसकी सीमा यद्यपि परिवर्तित होती रही है फिर भी ३१२ ई० मे उज्जनी को उपराजधानी बनाकर' विदर्भ, अपरान्त (कोंकण, विशेषत: उत्तरभाग) मोर चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणापथ की विजययात्रा सौराष्ट्र से दण्डकारण्य ये तीन भाग माने जाते हैं। वर्तमान महाराष्ट्र प्रारम्भ की जहां उसने जूनागढ़ मे सुदर्शन झील का मे दण्डकारण्य को छोड़कर शेष दो भाग सम्मिलित हैं। निर्माण किया । गिरिनार पर्वत पर तीर्थकर नेमिनाथ को चालुक्य सम्राट सत्याश्रय पुलकेशी द्वितीय महाराष्ट्र का वन्दना की और मुनियो के आवास के लिए एक चन्द्रगुफा सार्वभौमिक राजा था।' नानाघाट, भाजे, काले, कन्हेरी बनावाई । वहाँ से उसने महाराष्ट्र, तमिल और कर्नाटक आदि शिलालेखो में महाराष्ट्रियन पुरुषों के लिए महारठि प्रदेश पर आधिपत्य किया और उज्जैनी वापिस आ गया। और स्त्रियों के लिए महारठिनी शब्दों का प्रयोग हुआ है। यही कुछ समय बाद आचार्य भद्रबाहु भी ससघ पहुंचे और इससे महाराष्ट्र का अस्तित्व प्रमाणित होता है । प्रादेशिक अपने निमित्तज्ञान से बारह वर्षीय दुर्भिक्ष की आशंका विस्तार की दृष्टि से तो इसे महाराष्ट्र कहना स्वाभाविक जानकर उन्होंने दक्षिण की ओर जाने का निश्चय किया । है पर उसे महार अथवा नाग जाति से संबद्ध करने की चन्द्रगुप्त भद्रबाह की परम्परा का अनुयायी था। दुर्भिक्ष भी प्रबल सम्भावना बन जाती है।
की बात जानकर चन्द्रगुप्त ने २६८ ई० पू० में भद्रबाहु से महाराष्ट्र में जनधर्म कदाचित प्रारम्भिक काल से ही जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर ली और विशाखाचार्य नाम से रहा है। कहा जाता है, इतिहास के उदयकाल में भारत अभिहित हआ। सारा संघ महाराष्ट्र मार्ग से श्रवणवेल
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महाराष्ट्र में बनधर्म
गोल पहुंच गया जहां भद्रबाह ने कटवप्र पर्वत पर सल्लेखना विमलसूरि के पउमपरियं मे विदर्भ के एक पर्वत रामगिरि ग्रहण की और संघ के नेतृत्व का भार चन्द्रगुप्त (विशाखा- का सुन्दर वर्णन मिलता ही है। यह रचना प्रथम शताब्दी चार्य) पर छोड़ दिया। चन्द्रगुप्त ने दक्षिणवर्ती सारे देशों की होनी चाहिए। रामगिरि निश्चित ही रामटेक (नागमें जैनधर्म का प्रचार किया और अन्त में श्रवणवेलगोल में पुर जिले का) है।" यहा आज भी लगभग ११-१२वीं ही सल्लेखना पूर्वक मरण किया।'
शताब्दी के जैन मन्दिर हैं। तीर्थंकर शांतिनाथ को भव्य इस घटना के पुरातात्विक प्रमाण अवश्य उपलब्ध प्रतिमा यहां विराजमान है। इस काल के कुछ प्राचीन नहीं होते पर साहित्यिक प्रमाणो की भी उपेक्षा नहीं की शिलालेख भी उपलब्ध है। सम्भवतः इसके पूर्व का पुराजा सकती। कर्णाटक और तमिल क्षेत्र में लगभग उसी तत्व भूगर्भ मे छिपा होगा। पउमचरिय मे राम द्वारा काल में जैनधर्म का अस्तित्व मिलता है इसलिए इस रामगिरि पर चैत्य निर्माण करने का वर्णन उपलब्ध होता समूची घटना को ऐतिहासिक माना जाना चाहिए। श्री ही है । हरिवंशपुराण में भी इसका वर्णन मिलता है। लंका में भी इसी काल में जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण कलिंग खारवेल (राज्याभिषेक) १६६ ई० पू०) का मिलता है। पाण्डुकाभप राजा (३३७-३०७ ई०पू०) हाथीगुंफा शिलालेख भी इस सदर्भ मे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज ने अनुराधापूर में जोतिय निग्रन्थों के लिए एक चत्य है। उसमें एक स्थान पर कहा गया है कि सातवें वर्ष में बनवाया। इसका उल्लेख महावश में आया है। वही गिरि कलिंग खारवेल की बज्रगृह की रानी को मातृपद मिलानामक निर्ग्रन्थ भी रहता था।
"अनुग्रह-अनेकान्ति सत सहसानि विसजति पारे जनचन्द्रगुप्त और भद्रबाहु की यह घटना तथा श्रीलका
पद [1] सतम च बसं [पसा] सतो वजिरघर...' मे जैनधर्म का अस्तित्व इस तथ्य का पर्याप्त प्रमाण है कि
स मातुपदं [कु] . .. म [1] अठमे च बसे महतासेन महाराष्ट्र में जैनधर्म ई० पू० द्वितीय-तृतीय शती में काफी
[1] गोरधगिरि.....।" लोकप्रिय हो गया था अन्यथा ये दोनों महापुरुष इतने बड़े
इसी शिलालेख की चतुर्थ पक्ति में कहा गया है कि संघ को दक्षिण में एकाएक ले जाने का साहस नही करते। खारवेल की सेना कष्णवेणा (कण्डवेणा) नदी पर्यत पूना के समीपवर्ती ग्राम पाले में एक प्राचीनतम गुहाभि
पहुंची।" महाभारत (६.२०) में उल्लिखित कृष्णवेणा लेख भी मिलता है जिसका प्रारम्भ नमो अरहतानम्' से भी शायद यही कष्णवेणां होगी। डॉ. मिराशी ने इस होता है । पूरा अभिलेख इस प्रकार है
कृष्णवेणा की पहिचान नागपुर की समीपवर्ती कन्हान या (१) नमो अरहंतानं कानुन (.)
वैनगंगा नदी से की है। वजिराघर गांव रायबहादुर (२) द भदंत इंदरखितेन लेन
हीरालाल के मत से चांदा जिले का वैरागढ़ होना चाहिए। (३) कारापित (.) पोढि च साहाकाहि
पंक्ति छह में रथिक और भोजक का उल्लेख है। इनका (४) सह ।
सम्बन्ध क्रमशः खानदेश (नासिक, अहमदनगर, पूना) एव ऐसा मंगलाचरण मथुरा के आयागपट्ट, जैन मूर्तिलेख विदर्भ से माना जाता है। जैसा वाकाटक नरेश प्रवरसेन व उदयगिरि के अभिलेख में भी मिलता है । इनका समय
द्वितीय के चम्मक दानपट्ट से स्पष्ट है, भोजकट प्रदेश में ई० प्रथम है । इसमें इन्द्ररक्षित का भी नाम है।
विदर्भ का एलिचपुर जिला सम्मिलित रहा है।" महाविदर्भ महाराष्ट्र का प्राचीनतम और प्रमुखतम भाग राष्ट्र के काफी भाग पर कलिंग का आधिपत्य रहा है, यह रहा है। वहदारण्यकोपनिषद् में वैदर्भी कौण्डिल्य ऋषि उपर्युक्त उल्लेखों से असदिग्ध है।
नाम आता है। रामायण (किष्किन्धाकाण्ड) महा- पुरातात्विक सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि महाभारत (वन पर्व ७.३.१) हरिवशपुराण (६०.३२) तथा राष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र मे मध्यकाल मे जैनधर्म की सुदृढ़ जैन साहित्य (समवायोग, ६.२३२.१; सूयगडांग चूरिण, स्थिति थी। नागपुर एलिचपुर, चांदा, बर्धा अमरावती, पृ० ८० आदि) में विदर्भ के पर्याप्त उल्लेख माते हैं। वाशिम, भडारा आदि स्थानों पर प्राचीन जैन मूर्तिया,
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१०, वर्ष ४२, कि.
भनेकान्त
प्रभिलेख, वास्तुशिल्प आदि पर्याप्त परिमाण मे भूगर्भ से मलखेड़ मूअ केन्द्र था जहां से उसकी दो शाखायें स्थापित उत्खनन में प्राप्त हुए हैं जो इस तथ्य के दिग्दर्शक हैं कि हुई-कारजा और लातूर । इस गण के साथ सरस्वतीअभी भी न जाने कितनी जैन सांस्कृतिक संपदा जमीन के मच्छ का विशेष सम्बन्ध रहा है। समीपवर्ती अकोला नीचे छिपी पड़ी है। यहा उत्खनन अभी बहुत शेष है। जिले के खिनखिनी ग्राम में सरस्वती की एक प्रतिमा उपजो भी हुआ है उसके आधार पर यह निश्चित रूप से लब्ध हुई है जिसके शिरोभाग मे जैनमूर्ति विद्यमान है। कहा जा सकता है कि जैनधर्म महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कारजा मे भी सरस्वती मूर्ति है। यहां का काष्ठ शिल्प बहुत फला-फूला है।
भी उल्लेखनीय है। नागपूर का समीपवर्ती ग्राम केलझर लगता है, जैन अकोला जिले के शिरपूर स्थित अंतरिक्ष पार्श्वनाथ संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। यहां से जैन उपासक का जैन मन्दिर उत्तर मध्यकाल के वास्तुशिल्प का अच्छा की एक सुन्दर प्रतिमा मिली है। वृषभदेव आदि की भी नमूना है। यहा प्राप्त एक संस्कृत शिलालेख के अनुसार कुछ मूर्तियां प्राप्त हुई है जो लगभग ११वीं शती की इसका निर्माण स० १३३४ (ई. सन १४१२) मे हुआ होनी चाहिए। नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा संचालित था। इसी जिले के खिनखिनी गांव के कुएं से अनेक जैन १६६७ के उत्खनन म पवनार (वर्धा जिला) से भो दो प्रतिमायें प्राप्त हई है-जिनके लेखों के आधार पर वे प्रस्तर जिन मूर्तिया प्राप्त हुई है जिनका समय सातवी- लगभग नवी शती की सिद्ध होती है। ऋषभनाथ और आठवी शताब्दी माना जा सकता है। पवनी (वाकाटक) पार्श्वनाथ की सरस्वती सहित सपरिवार मूर्ति विशेष राजधानी प्रवरपुर है।"
उल्लेखनीय है। इनकी यक्ष मूर्तियां अपेक्षाकृत अधिक भंडारा जिले के पदमपुर गांव मे सप्तफणधारी पार्श्व- अलकृत है। प्राचीन तीर्थमाला में इसे एलचपुर के अन्तर्गत नाथभूति तथा अन्य जिन प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं। जो दिगम्बर सम्प्रदाय का गढ बताया गया है। अकोला के उत्तर-मध्यकाल की प्रतीत होती है । देव-टक (चादा से ६६ पास ही पात र गाव से प्राप्त एक और जैन लेख सन् मोल दूर) मे एक प्राचीनतम अभिलेख मिली है। जिसमें ११८८ का मिला है जो वर्तमान मे नागपुर संग्रहालय मे अहिंसा का उपदेश दिया गया है। रायबहादुर हीरालाल सुरक्षित है। ने इसे अशोक के शिलालेखो से मिलान किया है और ई. अमरावती जिले मे ही एक कुडिनपुर गांव है जिसका पू० तृतीय शताब्दी का ठहराया है।" लिपि के आधार अधिपति महाभारत का भीम माना गया है।" कालिदास पर वैसे इसे कलिंग के साथ भी बैठाया जा सकता है। ने इन्दुमती को विदर्भराज भोज की बहिन और विदर्भराज कलिंग का सम्बन्ध विदर्भ से रहा भी है। जनरल कनिंघम को कण्डनेश कहा है। हरिषेण के वृहत्कथाकोष के अनुऔर प्रयागदत्त शुक्ल के उल्लेखो से भी पता चलता है कि सार यह गांव प्राचीनकाल में जैनधर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र चादा जिले मे जैन मन्दिर और मूर्तिया प्राचीन काल में होना चाहिए। डा. दीक्षित द्वारा किये गये उत्खनन विद्यमान थी।
कार्य से भी यह तथ्य सामने आता है । १२ बुलढाना जिले के सातगाव में उपलब्ध जैन मूर्तियां अचलपर भी मध्यकाल मे जैन संस्कृति का प्रख्यात वहां की प्राचीनता की कथा बताती है।" मेहकर और केन्द्र रहा है। धनपाल ने अपनी "धम्म परिक्खा" यही रोहिणखड भी इसी तरह एक अच्छे जनकेन्द्र रहे होगे।" पूरी की थी। हेमचन्द्र सूरि ने भी अचलपुर का उल्लेख ___ कारजा (अमरावती) भी मध्यकाल का एक अच्छा करते हुए यह सकेत किया है कि यहा के निवासियों के जैन केन्द्र था। यहा का समृद्ध ग्रन्थ भंडार इसका साक्षी उच्चारण में च और ल का व्यत्यय हो जाता है। आचार्य है। अपभ्रश महाकवि पुष्पदत का सम्बन्ध इस गांव से जयचन्द्रसूरि (नवी शती) ने अपनी धर्मोपदेशमाला में था। उनके अनेक ग्रन्थ यहां के भंडार मे उपलब्ध हुए है। अचलपुर के अरिकेशरी नामक दिगम्बर जैन नरेश का यह स्थान बलात्कार गण का केन्द्र होना चाहिए। वैसे उल्लेख किया है-"अयलपूरे दिगम्बर भत्तो अरिकेसरी
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कहाराष्ट्र में जैनधर्म
राजा।" यहां सप्तम शती का एक ताम्रपत्र भी प्राप्त माना जाये तो एलोरा का काल लगभग प्रथम शती सिद्ध हुआ है। अचलपुर के पास ही लगभग ८ मील दूर मुक्ता हो जाता है। पर इस बीच का कोई इतिहास उपलब्ध गिरि नामक जैन सिद्धक्षेत्र है। यद्यपि यह वर्तमान में नही होता। राष्ट्रकूट वश जैनधर्म का सरक्षक रहा है। वेतूल (म०प्र०) जिले के अन्तर्गत आता है पर यह मूलतः महाराष्ट्र के कुछ भाग पर भी उनका अधिकार था। अचलपुर का ही भाग होना चाहिए। यह जैन ग्रन्थों मे उनकी एक शाखा लातूर में स्थापित हुई जो ६२५ ई० मेंढागिरि (मेधागिरि) आदि नामो से जाना जाता है। मे एलिचपुर (अचलपुर) मे स्थानातरित हो गई। इसका आज भी यहां लगभग पचास जैन मन्दिर एक रम्य पहाड़ी प्रथम ज्ञात शासक दन्तवर्मन् वातायी चालुक्यों का करद पर अवस्थित हैं।
सामंत था। उसके उत्तराधिकारियो मे दन्तिदुर्ग ने ७४२ ये विदर्भ के प्रमख जैन नगर हैं, जिनके उल्लेख जैन में एलोरा पर अधिकार किया और उसे अपनी राजधानी ग्रन्थों में बहधा उपलब्ध होते है। पुरातात्विक प्रमाणो से बनाया। धर्मोपदेशमाला (८५८ ई०) से भी ज्ञात होता है भी यह सिद्ध हो चुका है । इनके अतिरिक्त कुट्टी गोदिया कि समयज्ञ नामक एक जैन मुनि भगुकच्छ से चलकर आदि अनेक ऐसे भाग है जहां जैन पुरातत्त्व के प्रमाण एलोरा के दिगम्बर जैन मन्दिर मे रुके । यही से दन्तिदर्ग उपलब्ध हो सकते है। भद्रावती (चादा जिला) ऐसा हो ने नासिक को अपने अधिकार में किया, वातापी चालुक्य नगर है जहां तीनो संस्कृतियों के पुरातात्विक प्रमाण उप- का अंत किया और कोशल, मालवा आदि देशो के राजाओं लब्ध होते हैं । यहा चीनी यात्री युवानच्यांग ६३६ ई० में को भी पराजित किया। उसने चिन्नकटपूर के श्रीवल्लभ पहुंचा था। उस समय भद्रावती का राजा सोमवशी सूर्य- राहप्पदेव को भी हराया, जिसका भाई वीरप्पदेव वीरसेन घोष था जिसने अनेक गृहामन्दिरों का निर्माण कराया। नाम से पचस्तूपान्वयी मुनि के रूप में प्रसिद्ध हा। वे पाचीन वैदिक वास्तशिल्प के भी उदाहरण मिलते हैं। राष्ट्रकूट राजधानी के ही समीपवर्ती वाटनगर मे आ बसे सरोवर के किनारे जैन मन्दिर भी हैं जिसके आसपास जैन और वही के चन्द्रप्रभ जैन मन्दिर तथा चामरलेण के पुरावशेष प्राप्त हुए है।
गुहामन्दिरों में अपना विद्याकेन्द्र स्थापित किया। राष्ट्रचांदवड या चद्रवट नगर का नाम भी उल्लेखनीय है, कूट नरेश ध्रव के शासनकाल में ही उन्होने जयधवला जिसकी नीव यादववशी राजा दीर्घपन्नार ने डाली थी। महाधवला जैसे महाग्रन्थो की रचना की।
ई. से १०७३ ई. तक यादवों का राज्य रहा। एलोरा की अन्तिम गुफा कैलाश जैन गुफा है जो इसी की समीपवर्ती चार हजार फुट ऊंची पहाड़ी पर चरणाद्रि पर्वत के उत्तरी भाग में है। उसके दो भाग
चरणादि पर्वत के उत्त रेणुका देवी का मन्दिर है जो वस्तुतः जैन गुहा मन्दिर
उत्खनन से प्रकाश में आए है-इन्द्रसभा और जगन्नाथहोना चाहिए, क्योकि उसकी दीवार मे तीन तीर्थकरो की
सभा । इन्द्रसभा बारह खभों पर खड़ा दो भाजल का एक मूर्तियां उत्कीर्ण है। जैन साहित्य में चांदवड का प्राचीन
मन्दिर है जिसे २०० फीट नीचे पर्वत काटकर बनाया नाम चन्द्रादित्यपुरी मिलता है।
गया है। इसमे दाईं ओर एक सुन्दर हाथी बना है। विदर्भ के समान अपरान्त और दक्षिणी भाग में भी बरामदे मे हाथी सहित इन्द्र की मूर्ति है जो वास्तुशिल्प जैन धर्म काफी लोकप्रिय रहा है। औरंगाबाद से १४ का बेजोड़ नमूना है । कला की दृष्टि से इन्द्रामा सर्वोत्तम मील दूर चरणाद्रि शैल गुफा मन्दिरों के लिए विख्यात भाग है । जगन्नाथसभा इन्द्रसभा से छोटा भाग है जिसमे एलोरा ग्राम है जिसे इतिहास मे एल्डर इल्वलपुर अथवा महावीर की मूर्ति विराजमान है। ऊपर के भाग मे सोलह एलागिरि के नाम से जाना जाता है। यहां जैन बौद्ध और फुट की पार्श्वनाथ प्रतिमा है। इस गुफा में प्राप्त शिलावैदिक तीनों संस्कृतियों का वास्तुशिल्प दिखाई देता है। लेखों के आधार पर इसका समय आठ से तेरहवी शती इस गांव की स्थापना इलिचपुर के राजा यदु ने आठवी तक ठहराया जा सकता है। हवी-१०वी शताब्दी के कछ शती में की थी। एलाचार्य कुन्दकुन्द से यदि इसे सम्बद्ध लेखो में यहां नाग द, दीपनदि आचार्यों तथा उनके शिष्यो
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१२, बर्व ४२, कि.१
बनेकान्त
के नाम उल्लिखित हैं। यहां का एक अन्य लेख राष्ट्रकूट के विविधरूप यक्ष-यक्षी, चौमुखी देवियां, गजलक्ष्मी, राज्यकाल के बाद का १३वीं शती का है जिसमे गुहा- अम्बिका आदि के रूप मे उकेरी गयी हैं जो काफी परिमाण मन्दिर निर्माता चक्रेश्वर की बड़ी प्रशंसा की गई है। में यहां मिलते हैं।
एलोरा पहाड़ी का सम्बन्ध चारणो से रहा होगा। दन्तिदुर्ग के बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम अकाल दक्षिण मे एक तिरुच्नत्तुमल नाम की एक और पहाड़ी है वर्ष शुभतुंग सिंहासन पर बैठा जिसने दक्षिणी कोकण में जिसका भी सम्बन्ध चारणो से जोड़ा गया है। ये चारण शिलाहार सामंतो को नियुक्त किया। उसी ने पर्वत काट कौन होंगे? यह प्रश्न अभी भी समाधान की अपेक्षा रखता कर ७६६ ई. में यह कैलाश मन्दिर बनबाया। राष्ट्रकूट है। लगता है, दक्षिण प्रदेश विद्याधरो का स्थान रहा है नरेश ध्रव की पत्नी चालुक्य राजकुमारी शीलभहारिका इसलिए उनको ही चारण कहा गया है। उन्ही विद्याधरों जनधर्मावलम्बी और उच्चकोटि की कवयित्री थी।
सन्दर्भ-सूची १. सेतु नर्मदा मध्य सार्घसप्तलक्ष दक्षिणापथं पालयामास १३. के. एन. दीक्षित, Journal of Asiatic Society विष्णुवर्धन अभिलेख, (Epi. Ind. Vel. IV page of Bengal, Numismatic Supplimate, ख 29, 305).
p. 159, संशोधन मुक्तावलि, मिराशी 2, page २. अगमदधिपतित्व यो महाराष्ट्रकाणाम् नवनति सहन 177-187.
ग्राम भाजां त्रयाणाम् (I.A.A.V. 8 P. 241). १४. संशोधन मुक्तावलि, मिराशी 1, p. 87. ३.प्राचीन महाराष्ट्र, डॉ० श्रीधर वेंकटेश केतकर भाग १५. Incriptions in C.P.& Beror, 16, p. 15. १, पृ० १६४।
१६. वही २६४, पृ० १५५। । ४. देखिये, जूनागढ़ में प्राप्त रुद्रदामन का अभिलेख ।
१७. वही, २६३, पृ० १५५, मोरेश्वर दीक्षित, पुरातत्व ५. अशोक शिलालेख तथा अमुलनार, परणार और
की रूपरेखा, पृ. २८। प्रयागदत्त शुक्ल, रविशकर श्रवणवेलगोल शिलालेख।
शुक्ल अभिनदन ग्रंथ साहित्य खंड पृ० १४ । विशेष ६. तिलोयपण्णत्ति, ४, १४, २१, श्रबणवेलगोल शिलालेख नं० १०८, हरिषेणकथाकोश १३१ ।
देखिए--विदर्भ का जैन पुरातत्त्व, डॉ० चन्द्रशेखर
गुप्त, जैनमिलन, दिसम्बर १६७०, पृ० ५७-५८ । ७. महावंश, पृ० ६७ देखिए लेखक का ग्रंथ Jainism ____in Buddhist Literature. प्रथम अध्याय ।
१८. Epi. Indica, Vol. 8, p. 82. ८. Epigraphy of Indica, Vol. 38, p. 167.
१६. Ancient Jain Hymns. p. 28. ६. रामेण अम्हा भवरणोत्तमाणि जिणिन्द
२०. अत्र पूव्वं अर्द्धच्छाला-परम-पूश्कल-स्थान-निवासिभ्यः चंदाण निवेसियाणि ।
भगवद् अर्हत् महाजिनेन्द्र देवतभ्यः एको भागः द्विती. तथेव तुगे विमलप्पमाणि तम्हा जणे रामगिरी प्रसिद्धो॥ ऽहंत प्रोक्त सद्धर्म-कारण-परस्य श्वेतपट-भटाश्रमण
-चालीसवां पर्व सधोपभोगाय तृतीयो निर्ग्रन्थ महाभमण सधोपभागाय १०. डॉ. मिराशी, मेघदूत मे रामगिरि अर्थात् रामटेक, ....... fleet, Sanskrit and old cannarese विदर्भ संशोधन मंडल, नागपुर ।
Inscriptions, 9. A. VII, p. 35; The Kada. ११. अनुग्रह अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरजनपदं[1]
mba Kula, by George M. Moraes, p. 35. सतम च वसं [पसा] सतो वजिरघर' स मातुकपदे
२१. इन्द्र नन्दि श्रुतावतार, ६१-६६ । [कु]"म[1] अठमे च वसे महता सेन [1] गोरध
२२. जैन शिलालेख संग्रह,भाग ४, लेख न. ६१, पृ. ३६ । गिरि..." १२. Journal of the Royal Asiatic Society २३. भारतीय इतिहास एक दृष्टि, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन,
ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९६१ ।
p.329.
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गिरिनगर को चन्द्रगुफा में होनाक्षरी और घनाक्षरी का क्या रहस्य था ?
0 प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्र जैन
षट्खण्डागम ग्रंथों और उनकी धवला टीका ग्रन्थों का विख्यात कहा है। प्राचार्य धरसेन इन्ही के शिष्य थे। प्रकाश प्रायः पचास वर्षों पूर्व फैलना प्रारम्भ हुआ । उनको पट्टावलियों में आचार्य माधन्दि के पश्चात आचार्य जिनचंद्र अवतरण कथा पढ़ी और सुनी गई किन्तु एक सारभूत और उनके शिष्य के रूप में प्राचार्य पद्मनन्दि कन्दकन्द रहस्य हीनाक्षरी और घनाक्षरी पर विचार विमर्श का का उल्लेख किया जाता है। श्री धरसेनाचार्य अत्यंत अवसर नहीं पा सका। भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को विद्यानुरागी थे, जिनवाणी की सेवामे उनका अपित जीवन उनके प्रथम शिष्य गोतम गणधर द्वारा गुंथा गया, द्वादशांग अंत तक एकाकी रहा। वे अन्य व्यामोहों से दूर रह वाणी का यह रूप आचार्य परम्परा से क्रमशः हीन होता जिनवाणी की अवशिष्ट धरोहर को हृदय में संजोये रहे हआ धरसेन माचार्य तक आया। उन्होंने महाकर्म प्रकृति- और अंतिम दिनों उक्त आगम ज्ञान को लिपिबद्ध कराकर प्राभत पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को किस प्रकार सुरक्षित करा लेने में समर्थ सिद्ध हये। उन्होने सदर पढ़ाया इसका एक कथानक है। उसकी पृष्ठभूमि में यह गिरनार की गफाओ को अपनी साधना स्थली बनाया था भी तथ्य है कि षटखण्डागम ग्रन्थों पर आचार्य कुन्दकु.द, और अवशेष जिनागम की संपूर्ण सुरक्षा का ध्येय उन्होने समन्तभद्र, शागकन्द, तुम्बुलूर एवं बप्पदेव ने जो टीकायें बना लिया था। स्वाभाविक है कि उनकी यह प्रवृत्ति देख लिखी थीं वे अब अनुपलब्ध हैं।
आचार्य माधनन्दि के इतर शिष्य आचार्य जिनचन्द्र ने आचार्यों को पवित्र परम्परा में भगवान महावीर के पट्टामीन होकर अपने शिष्य कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा अपनी ६१४ वर्ष पश्चात आचार्य माघनन्दि के शिष्य आचार्य सघनायक परम्परा को निरंतर अनवरत रखने का उपक्रम धरसेन पट्टासीन हुए थे । इन दोनों के कथानक प्रसिद्ध है। किया होगा। आचार्य धरसेन श्रुत के प्रति अत्यन्त विनयशील, निष्ठा- गिरि नगर को प्रकाशवान चंद्र गफावान थे तथा वे अग परम्परा के अन्तिम ज्ञाता माने अल्ल आय से रह जाने पर आचार्य धरसेन ने कुशल गये। बे बडे कशल निमित्त ज्ञानी और प्रभावशाली मत्र- निमित्त ज्ञान बल से अपना सुझाव महिमा नगरी में हो ज्ञाता आचार्य थे । आचार्यपद ग्रहण करने के चौदह वर्ष पूर्व रहे दिगम्बर साधुओ के विशाल सम्मेलन को प्रेषित किया ही उन्होने "योनि प्राभूत" नामक मत्र शास्त्र सबन्धी एक होगा। संभवतः प्रत्येक पाचवे वर्ष 'युग प्रतिक्रमण' के अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना कर ली थी। कहा जाता रूप में होने वाला यह सम्मेलन उस वर्ष महिमा नगरी में है कि उन्हें मत्र शास्त्र का यह ज्ञान कूष्माण्डिनी महादेवी अपने उस सन्देश को प्रोज्ज्वलित न कर होनाक्षरी और से प्राप्त हुआ था। यह प्रथ ८०० श्लोक प्रमाण प्राकृत घनाक्षरी विद्याओं द्वारा उक्त अवशिष्ट आगमाश को गाथाओं में अब अनुपलब्ध है पर इसका उल्लेख धवला मे
सुरक्षित रखने के अभिप्राय को समझ गया होगा। उन्होंने प्राप्य है।'
आचार्य श्री धरसेन के संदेश को पूरा सम्मान दिया, उन्हें आचार्य अर्हद्बलि के प्रमुख शिष्य माधनन्दि बहुत भक्ति पूर्वक स्मरण किया, उनके आलेख को गुरु आज्ञा के महान श्रुतज्ञ थे। जब दीप पण्णत्ति के कर्ता आचार्य पप- समान स्वीकार किया। तदनुसार उक्त मुनि समुदाय ने नन्दि ने उन्हें रागद्वेष एवं मोह से रहित, श्रुतसागर के अपने मध्य अत्यन्त शील श, कु० जाति से शुद्ध, सकल पारगामी, मतिप्रगल्भ, तप और सयम से सम्पन्न तथा कलाओ मे पारंगत, क्षमतावान, धैर्यवान, विनम्र, अटल
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१४ वर्ष ४२० १
श्रद्धायुक्त दो विद्वान साधुओं को इस महान्तम कार्य के लिए निर्वाचित किया। दो मुनि और दो विद्यायें इस कार्य को सम्पन्न करने में लगी होंगी ।'
अनेकान्त
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जब ये मुनि युगल पुरुषवंत और भूतबलि जो इस नाम से बाद में प्रसिद्ध हुये, अविलम्ब गिरनार की चद्र गुफा की ओर प्रस्थित हुए है। उधर पहुंचने को हुए तब उसी पूर्व रात्रि मे आचार्य धरणे ने स्वप्न देखे स्वप्न में भी दो धवल एव विनम्र बैल आकर उनके चरणों में प्रणाम कर रहे थे स्वप्न देखते ही आचार्य श्री की निशा भंग हुई और 'जय सुददेवता'" देवता जयवन्त हो" कहते हुए उठे। उसी दिन ही उक्त दोनो साधु आचार्य श्री घरसेन के पास पहुचे । अति हर्षित हो उनकी चरण-वन्दनादिक कृति कर्म कर उन्होने दो दिन का विधान किया। तीसरे दिन उन्होने अपना प्रयोजन आचार्यश्री के सम्मुख प्रस्तुत किया। आचार्य श्री भी उनके वचन सुनकर प्रसन्न हुए और "तुम्हारा कल्याण हो" ऐसा आशीर्वाद दिया।
आचार्य श्री के मन में विचार आया होगा कि पहिले इन दोनो नवागत साधुओ की परीक्षा करनी चाहिए कि वे श्रुत ग्रहण और धारण करने आदि के योग्य भी है या नही क्योंकि स्वच्छन्द बिहारी व्यक्तियो को विद्या पढ़ाना ससार और भय को बढ़ाने वाला होता है। यह विचार कर उन्होने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया । तदनुसार आचार्य श्री धरसेन ने उक्त दोनो साधुओं को दो मंत्र विद्यायें साधन करने के लिये दी। उसमे से एक मन्त्र विद्या हीन अक्षर वाली थी और दूसरी अधिक अक्षर वाली । दोनों को एक-एक मन्त्र विद्या देकर उन्होने कहा कि इन्हें तुम लोग पष्ठोपवास (दो दिन के उपवास) से सिद्ध करो।' दोनों साधु गुरु से मन्त्र विद्या लेकर भगवान् नेमिनाथ के निर्वाण होने वाले शिला पर बैठकर मन्त्र साधने लगे। मन्त्र साधना करते हुए जब उनको वे विचाएं सिद्ध हुयी, तो उन्होने दिया की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एकदेवी के दांत बाहिर निकले हुए हैं और दूसरी
कानी है।'
देवियों के ऐसे विकृत अंग देखकर उन दोनो साधुओं ने विचार किया कि देवताओ के तो विकृत अग होते नही हैं। अतः अदृश्य ही मंत्र मे कही कुछ अशुद्धि होना चाहिए। इस प्रकार उन दोनों ने विचार कर मंत्र सबन्धी व्याकरण
(वि + आकरण ) शास्त्र मे कुशल उन्होने अपने अपने मंत्रों को शुद्ध किया और जिसके मंत्र मे अधिक अक्षर थे उसे निकाल कर । तथा जिसके मंत्र में अक्षर कम थे। उसे मिलाकर उन्होने पुनः अपने-अपने मंत्रों को सिद्ध करना प्रारम्भ किया ।
तब दोनों विद्यादेवियाँ अपने स्वाभाविक सुन्दर रूप मे प्रकट हुई। वे बोली, "स्वामिन आज्ञा दीजिये, हम क्या करे। तब इन दोनो साधुओ ने कहा, आप लोगों से हमे कोई ऐहिक या पारलौकिक प्रयोजन नहीं है। हमने तो गुरु की आज्ञा से यह मंत्र साधना की है। यह सुनकर वे देवियाँ अपन स्थान को चली गयी। मत्र साधना से प्रसन्न होकर वे आ. धरसेन के पास पहुचे और उनकी पाद वन्दना करके विद्या-सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृतांत निवेदन किया । आचार्य धरसेन अपने अभिप्राय की सिद्धि और समागत साधुओ की योग्यता देखकर बहुत प्रसन्न हुए, 'बहुत अच्छा' कहकर उन्होंने शुभतिथि शुभनक्षत्र और शुभ वार में प्रथ का पढ़ाना प्रारम्भ किया। इस प्रकार क्रम से व्याख्यान करते हुए आ. घरसेन ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वाह्न काल मे प्रथ समाप्त किया। विनयपूर्वक इन दोनों साधुओ गुरु से ग्रथ का अध्ययन सम्पन्न किया है, यह जानकर भूतजातिके व्यन्तर देवों ने उन दोनो मे से एक की पुष्पावली से शखतुर्य आदि वाढों को बजाते हुये पूजा की। उसे देखकर घरसेनाचार्य ने उनका नाम 'भूतबलि' रखा। तथा दूसरे साधुकी अस्त-व्यस्त स्थित दंत पंक्ति को उखाड़ कर समीकृत करके उनकी भी भूतों ने बड़े समारोह से पूजा की यह देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम 'पुष्पदन्त' रखा।
अब हम उपर्युक्त कथानक को वैज्ञानिक परिदृष्टि से विश्लेषण करना चाह सकते हैं। द्वादशांग श्रुत के १२वें दृष्टिवाद अग के पाप भेद है, उनमें भेद पूर्वगत के चौदह भेद है। उन भेदो मे से दूसरा भेद अग्रणीय पूर्वं है जिसमे १४ वस्तुये हैं जिनमें पाचवी वस्तु चयनलब्धि के
० प्राभृत हैं । उनमें से चौथे कर्म प्रकृति प्राभूत के २४ अनुयोगद्वार है जिनमें से पहले और दूसरे अनुयोग द्वार से प्रस्तुत षट्ण्डागम का चौथा वेदना खट निकला है। धन नामक छठे अनुयोग द्वार से चार भेदों में से प्रथम
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गिरिनगर को चन्द्रगुफा में होनाक्षरी पोर घनाक्षरी का क्या रहस्य था?
भेव बंध से, तथा तीसरे, चौथे और पांचवें अनुयोगद्वार को मिलता है। अंत में यह केशववर्णी की "गोम्मटसार की से पांचवां वर्गणाखंड निकला है। बन्धन अनुयोगद्वार के कर्णाटक वृत्ति" तथा मुनि नेमिचंद्र की गोम्मटसार की तीसरे बन्धक भेद से दूसरा खंड खट्टाबंध निकला है। सस्कृत टीका एव पडिन टोडरमल की गोम्मटसार एवं इसी अनुयोगद्वार के बंध विधायक नामक चौथे भेद से लब्धिसार की सम्यकज्ञान चद्रिका टीका के अर्थ सदष्टि महाबध नाम का छठा खण्ड निकला है। इसी प्रकार अधिकारों में दिखाई देता है। यहां बीजो ग्रादि के मध्य बन्धन नाम छठे अनुयोगद्वार के बंध विधान नामक चौथे अथवा परिकर्माष्टक करण (गणित) के नियमों से गंथी भेद से बन्ध स्वामित्व विचय नामका तीसरा खड और भाषा है। सूत्रबद्ध प्ररूपण मे व्याकरण के नियमों से गुंथी जीवस्थान नामक प्रथमखंड के अनेक अनुयोगद्वार निकले है। भाषा है जो घनाक्षरी कहलाई जा सकती है।
अत: महाकर्मप्रकृति प्राभूत के चौबीस अनुयोग द्वारो यदि इन हीनाक्षरी का दूसरा अर्थ निकालें तो यह हो मे से भिन्न-भिन्न अनुयोग द्वार एव उनके अनन्तर अधि- सकता है, "अक्षरों के हीन अर्थ वाली"। यह भी ऐसी कारों से षट्खण्डागम के विभिन्न अगों की उत्पत्ति हई भाषा हो सकती है जिसमे अक्षरों से जो शब्द बनाये जाते हैं । इसका नाप खण्ड आगम पड़ा जिसमे छः खड क्रमश: हों उनका अर्थ बोध थोड़ा होता हो । इस प्रकार घनाक्षरी जीव स्थान, खुद्दान्ध, बंध स्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा का दूसरा अर्थ निकालें तो यह हो सकता है, "अक्षरों के और महाबंध है।
घन अर्थ वाली"। यह भी एक ऐसी भाषा हो सकती है होनाक्षरी और घनाक्षरी का रहस्य
जिसमे अक्षरो से जो भी वस्तु इगित य) अभिप्रेत होती यह सर्व विशाल रचना, उसकी विभिन्न टीकाये और हो उनका अर्थ वोध धन या अधिक या गभीर होता हो। उनके सार ग्रन्थो को टीकायें क्या इगित करती है। ऐसी दशा में प्रथम भाषा व्याकरण के नियम से बधी होगी इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है। केशववर्णीकृत और दूसरी भाषाकरण या परिकर्म के नियम से बधी होगी। "गोम्मटसार की कर्णाटक वृति' पर विशेष ध्यान देना इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दो प्ररूपण-व्याकरणीय है। उसके पूर्व संत कम्म पंजिया तिलोयपण्णत्ती, धवला. तथा करणीय, दो विद्याओ के रूप मे दिगम्बर जैन आगम टीका आदि पर भी विशेष अध्ययन आवश्यक है। मे हमें उन टोकाओ मे दिखाई देते है जो उपलब्ध है। ___ यदि यह मानकर हम चलें कि हीनाक्षरी और घना- एक व्याकरण विज्ञान की भाषा है तो दूसरी करण (गणित) क्षरी मत्र विद्याये मात्र हीनाक्षरी एव घनाक्षरी ऐसी दो या परिकर्म विज्ञान की भाषा है। कथानक मे दो विद्याओं विद्याये थी जिनका उपयोग उन्हें आगम अंश को अव- की सिद्धि को एक देवी रूप दिया गया है किन्तु उनका तरित करने में करना था तो क्या प्रयोजन निकलता है? कोई प्रयोजन होने की बात नही कही गई है। यह भी हीनाक्षरी का अर्थ हीन अक्षर वाली और घनाक्षरी का स्पष्ट है कि जो भी उक्त आगम को निबद्ध सूत्रों में, श्लोक अर्थ घन या अधिक अक्षर वाली निकाला जाता है। यदि आदि में करना, उसे इन विद्याओ मे पारगत होना चाहिए हीन अक्षर वाली कोई विद्या है तो उसका क्या उद्गम था। कारण कि इस महाकर्म प्रकृति प्रामृत विज्ञान मे वही होगा और क्या प्रयोजन हो सकता है, तथा उसका क्या दस माना जा सकता था जिसे न केवल व्याकरण का ज्ञान रूप हो सकता है ? यह प्रश्न सहज ही उठता है। क्या हो वरन् माथ ही करण या परिकर्म (गणित) का ज्ञान हो । षट्खंडागम की रचना में ऐसा कोई प्रयोग दिखाई देता है? इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्याकरणकी ओर ध्यान न महाबध मे अवश्य ही अनेक स्थानों पर अधूरे वाक्यांशो देने वाला सही अर्थ उस प्रथम भाषा का नहीं निकाल के आगे शून्य दिखाई देता है। तिलोयपण्णत्ती मे कई सकता है, तथा करण की ओर ध्यान न देने वाले सही अर्थ स्थानों पर हीन अक्षर युक्त प्रयोजन इस रूप में दिखाई उस द्वितीय भाषा का नहीं निकाल सकता है। इस प्रकार देता है कि स्थान-स्थान पर अंकगणितीय एवं बीज तथा किसी एक के प्रति भी असावधान, यथार्थ अर्थ तक नही रेखा गणितीय प्ररूपण साथ साथ चलता है । ऐसा थोड़ा पहुंच सकता है। वह अशुद्धियो के झमेले में पड़ सकता है। बहुत प्ररूपण संतकम्म पञ्जिया तथा धवल टीका में देखने सूत्र निबद्ध करना तो बहुत दूर की बात है।
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१६ बर्ष ४२ कि..
अनेकान्त
इस प्रकार प्रश्न उठता है कि क्या उक्त दोनों विद्वान् खंडागम कहां है ? यहां हमें संकेत मिलता है कि भाचार्य मुनियों ने अपने को इन हीनाक्षरी एवं घनाक्षरी विद्याओं कुन्दकुन्द ने षटखंडागम के प्रथम तीन खंडों पर परिकर्म में पारंगत न बनाया होगा? फिर अपने को इनमे पारगत नामक टीका लिखी थी। इसके गणितीय उल्लेखों का बनाकर क्या षट्खंडागम के दो रूप प्ररूपित न किये उतरण कई स्थानों में वीरसेनाचार्य की धवला टीका में होंगे? एक रूप तो हमारे सामने व्याकरणी है जो प्राकृत आता है। इससे स्पष्ट है कि षट्खंडागम के अनेक प्रकरण भाषा का है। यह पढ़ने और समझने में सरल है। किन्तु गोम्मटसार जैसे या लब्धिसार जैसे ग्रन्थों में आये अर्थइसके यदि दूसरे रूप की बात आती है तो उसे हम केशव- सदृष्टियो, अंक-संदृष्टियों एवं आकृतिरूप संदृष्टियों के रूप वर्णी की कर्णाटक वृत्ति में एक विशाल अप्रतिम अदभत में होने की संभावना है, जो धवल के पूर्व की टीकाओं में करणीय या परिकर्माष्टक (गणितीय) रूप में देखते हैं। उपलब्ध रहे होंगे और बहुत सम्भव है कि वह रूप अत्यदोनों रूप क्यो आवश्यक प्रतीत हुए यह भी एक प्रश्न है। धिक कठिन होने के कारण एक तरफ रख दिया गया ऐसे दोनो रूपो मे क्या आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने होगा-युग-युगान्तरों में जब लेख प्रति बनाने वालों को रचना न की होगी-यह प्रश्न उठता है। साथ ही यह अत्यधिक कठिनाई उन्हें साथ-साथ चलाने में प्रतीत हुई प्रश्न तब उठता है जबकि हम पंडित टोडरमल को सम्यक होगी, अनुभव मे आई होगी। ज्ञान चन्द्रिका टीका मे जुदे-जुदे रूप मे जुदी-जूदी जगह
उक्त कथानक हमें इस ओर प्रेरित करता है कि रखा हुआ पाते है । भाष। वनिका के लिए तो व्याकर- व्याकरणीय भाषा नहीं वरन गहन अर्थ पाने हेतु हमे णीय भाषा उपयुक्त है किन्तु गहन सूक्ष्म अध्ययन के लिए
गणितीय भाषा को ग्रहण कर उसमें पारंगत श्रेष्ठ विद्वानों संक्षिप्त करणीय या परिकष्टिक भाषा ही उपयुक्त प्रतीत की एक ऐसी परम्परा का निर्माण कर दें जो उक्त कथानक होती है।
के अनुरूप इस प्रकार की शोध मे जुट जाये। यही ध्येय इतिहास में यह कथानक इस प्रकार एक प्रश्नचिह्न लेकर यह आचार्य श्री विद्यासागर शोधसंस्थान स्थापित लगा देता है। प्राचीनकाल उस युग मे लगभग उसी समय किया गया है कि हम अपने प्राचीन रहस्यों को शोध कर कोलयुक्त वेबिलनीय भाषा में भी दो रूप देखने में आते है। शोधी प्रतिभाशील विद्यार्थियों द्वारा अपनी परम्परा को उस समय का गणित ज्योतिष विज्ञान इसी प्रकार की दो सुरक्षित रख सकें और उस घरोहर से जनता को प्रतिबोधित भाषाओ में लिखा गया है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि करते रहें । यदि व्याकरणीय रूप भाषा वाला षखंडागम हमे उपलब्ध
निदेशक (आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान) है तो करणीय रूप या परिकर्माष्टक भाषा वाला षट्
५५४ सराफा (सूर्य इन्पोरियम) जबलपुर
सन्दर्भ-सूची देखिये षट्खडागम, ब्र० पं० सुमतिबाई शाहा द्वारा
वीरात् ६०८ वर्ष पश्चात् योनिप्राभत की रचना की संपादित, संस्करण १९६५, प्रस्तावना, १.११०।
देखिये योनिप्राभूत का धवल में उल्लेख । षटखंडागा ग्रंथ के मूलग्रथकर्ता वर्धमान भट्टारक हैं।
३. ये आन्ध्र देश के वेन्नातट से संबंधित थे । अनुग्रंथकर्ता गौतम स्वामी हैं और उपग्रथकर्ता रागद्वेष
४. श्रीमन्नेमि जिनेश्वर सिद्धि सिलयां विधानतो विद्या
संसाधनं विदधतोस्तमी पुरतः स्थिते देव्यो ॥११६॥ मोहरहित भूतबलि पुष्पदंत मुनिवर है। षट्खडागम
(इन्द्रनन्दि श्रुतावतार)। पुस्तक १, पृ. ६७-७२ । पुष्पदत द्वारा १७७ सूत्र,
' ४. देखिये दो का अंक किस प्रकार यहां चल रहा है। भूतबलि द्वारा ६००० सूत्र रचित हुए।
५. एकाक्षी। २. आचार्य धरसेन काठियावाड़ मे स्थित गिरनार ७. कषायप्राभूत(कषायपाहुड) एवं षट्खंडागम की रचनाओं
(गिरनार पर्वत) को चन्द्र गुफा में रहते थे। देखिये की तुलना के लिये "कषायपाहुर सुत्त" सम्पादनादिवृहट्टिपणिका जं. सा. सं. १-२ परिशिष्ट योनिप्राभूत . हीरालाल जैन, कलकत्ता। (शेष पृ० १६ पर)
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सोनागिरि मन्दिर अभिलेख : एक पुनरावलोकन
डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' एम. ए. पी-एच. डी.
सोनागिरि चन्द्रप्रभ जैन मन्दिर में चन्द्रप्रभ प्रतिमा ४. पारी छत महराज की दोनों ओर पत्थर पर प्रशस्तियाँ अंकित हैं। प्रतिमा ५. तिया पति वाढस दारि की दाई ओर का लेख नागरी लिपि से हिन्दी भाषा में ६. फलफलै मन कि न उत्कीर्ण है। इसमें तेरह पंक्तियाँ और उनमें चार दोहे हैं। ७. मनीराम जी संगि आदि के तीन दोहे भट्रारक सम्प्रदाय नामक ग्रन्थ मे ८. पितु की आज्ञा पाइम संग्रहीत है। चौथे दोहे का दूसरा चरण प. बलभट जन ६. चपाराम (व) सह कार या ने "पुन्यो जीवनसार" पढ़ा है।
१०. वा सुषुदाइ वर ॥२॥ सवत सम्पूर्ण मूल पाठ निम्न प्रकार है
११. अष्टादस कहै तेरा १. ॥श्री ॥ दोहरा ॥ मदिर सह रा
१२. सी की साल लाला २. जत भए चदनाथ जिन ई
१३. लक्षिमीचंद ने पै ३. स पौष सुदी पूनिम दिना ती
१४. री श्री जिनमाल ॥३॥ ४. न सतक पैतीस ॥ ॥ मू
१५. प्रथम कियो प्रारंभ ५. ल संघ अरगण कहो बलात्
१६. मुनि मदिर जीर्णो
१७. द्वार श्रावक हिय ६. कार समुहाई श्रवणसेन अ ७. र दुसरे कनकसेन दुइ भाइ ।।
१८. हरषित भए सब मि ८. ॥२॥ वीजक अच्छिर वाचिकै ज
१६. लि करी समार ॥४॥ ६. . . . . . सदुए रचाइ' और लिखो तो व
२० विजयकीति जिन सूरि के सि १०. हुत सो सो नहि परौ लषाइ ॥३॥
२१. ष्य कर मतु सेषु परम सिष्य
२२. .........."देसे परिमे...... ११. द्वादस सतक वरुत्तरा पुनि नि १२ मपिन सार पार्श्वनाथ चरण
फाल्गुण सुदि १३ १३. नि तरै तामो विदी विचार ॥४॥
भावार्थ दमरा शिलालेख प्रतिमा की बाईं ओर अकित है। तेरह पक्ति वाले प्रथम लेख में तीसरे दोहे से प्रस्तुत अभिषेक के लिये सीठियां इन्ही शिलालेखों के नीचे बनाई हिन्दी लेख किसी अन्य लेख का सारांश ज्ञात होता है। गई है। यह प्रशस्ति अब तक अप्रकाशित है। इनमे चौथे दोहे से यह भी ज्ञात होता है कि सवत् १२१२ में बाईस पक्तियाँ है। आदि मे दो सोरठा और अन्त मे तीन पार्श्वनाथ प्रतिमा के चरणो मे बैठकर पुननिर्माण की दोहे है । सोरठा अंश तथा बाईसवी पक्ति अपठनीय है। योजना बनाई गई थी। इससे सिद्ध है कि सवत् १२१२ मूल पाठ निम्न प्रकार है
मे इस लेख का मूलपाठ अपठनीय हो गया था। उसमें १. श्री मणिचिरु
जो कुछ समझ में आ सका वह अंश प्रस्तुत लेख में दिया २. चंद्रनाथोय नम
गया है। ३. वंश वुदेल..........
दूसरे बाईस पक्ति वाले हिन्दी लेख में संवत् १८५३
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१५, वर्ष ४२, कि०१
अनेकान्त
के फाल्गुन मास की त्रयोदशी के दिन आयोजित उत्सव मे मे मूलपाठ से अंकित शिलाखंड का न मिलना ऐसा सोचने किन्हीं लाला लक्ष्मीचन्द्र के जिनमाल धारण किये जाने के लिए वाध्य करता है। का उल्लेख किया गया है तथा बताया गया है कि इस मन्दिर का निर्माण होने के पश्चात निर्माताओ ने समय सर्व प्रथम लाला लक्ष्मीचन्द्र ने मदिर के जीर्णोद्धार
सम्भवतः विघ्नहर पार्श्वनाथ तीर्थकर की प्रतिमा प्रतिका कार्य आरम्भ किया था।
ष्ठापित कराई थी, जिसकी फणावलि भग्नावशेष के रूप अभिलेख के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय तथ्य
में आज भी द्रष्टव्य है। अभिलेख मे संवत् १२१२ मे
पार्श्वनाथ-प्रतिमा विद्यमान रही बताई गई है। (१) मूलपाठ : प्रस्तुत लेख जिस मूलपाठ को पढ़कर
सवत् १८८३ मे इस मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया लिखा गया वह शिलालेख था या मूर्ति लेख यह खोज का
गया था। इस समय भी कोई अप्रत्यासित घटना अवश्य विषय है, कोई प्रमाणिक निर्णय नही लिया जा सकता।
घटित हुई है। पार्श्वनाथ-प्रतिमा को इस मन्दिर से (२) संवत् १२१२ मे मन्दिर का पुननिर्माण । अन्यत्र कही स्थानान्तरित किया गया तथा वर्तमान (३) संवत् १२१२ मे पार्श्वनाथ-प्रतिमा का विद्यमान प्रतिमा वहां प्रतिष्ठापित की गई। रहना ।
यह प्रतिमा स्कन्ध भाग पर केश राशि के अकन से शोधकण :
तीर्थकर आदिनाथ की प्रमाणित होती है। कुण्डलपुर
(दमोह) के बड़े बाबा की प्रतिमा भी ऐसी ही है। उस प्रथम लेख के प्रथम दोहे से यह तो निविवाद रूप से
प्रतिमा के स्कन्ध भाग पर भी केशराशि अकित की कहा जा सकता है सोनागिरि पर तीथकर चन्द्रप्रभ की प्रतिमा सवत् ३३५ के पूस मास की पूर्णिमा के दिन मदिर मे प्रतिष्ठिापित की गई थी।
अपने-अपने समय की चन्द्रप्रभ शोर पार्श्वनाथ प्रति
माएँ अन्वेषणीय है। आशा है विद्वान् अवश्य ध्यान देंगे। क्या वर्तमान प्रतिमा चन्द्रप्रभ तीर्थकर की है ? यह एक विचारणीय तथ्य है। इसके लिए आवश्यक है वर्त- सवत् १२१२ म आरम्भ किया गया मन्दिर का . मान प्रतिमा की पूर्ण जानकारी । ध्यातव्य विषय है- पुननिर्माण कार्य पूर्ण होने मे सम्भवतः एक वर्ष लगा था। (१) वर्तमान प्रतिमा की आसन पर तीर्थकर परि
पर्वत के नीचे मन्दिर क्रमाक १६ मे विराजमान मुनि
सुव्रत तीर्थंकर प्रतिमा को आसन पर अकित लेख मे चायक चिह्न का नहीं होना ।
प्रतिमा-प्रतिष्ठा का समय संवत् १२१: बताये जाने से (२) प्रतिमा के शीर्ष भाग पर फणावलि का अवशेष। सोनागिरि मे सवत् १२१३ मे प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ
(३) प्रतिमा के स्कन्ध भाग पर केश-राशि का अकन। ज्ञात होता है जिसमे उक्त पुननिर्मित मन्दिर की एक नई इन विशेषताओ के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान प्रतिमा मूल प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई थी। गोलापूर्व जैन इस प्रतिष्ठा नायक चन्द्रप्रभ तीर्थकर की प्रतिमा नही ज्ञात होती। महोत्सव मे आये थे तथा उन्होने यहा प्रतिमा-प्रतिष्ठा मन्दिर के पुननिर्माण के समय सवत् १२१२ में वह प्रतिमा कराई थी। प्रतिमा लेख निश्न प्रकार हैविद्यमान रही है। मन्दिर का पुननिर्माण कराते समय (१) सवत् १२१३ गोल्लापून्विये साधु सोढे सम्भवतः अति जीर्ण अवस्था मे रहने के कारण या कार्य तत्पुत्र साधु क्षीलण भार्या जिणा तयोः सुत सावु (साधु) कर्ताओं की असावधानी के कारण चन्द्रप्रभ प्रतिमा खडित वीलुण भार्या पल्हा सर्व । हो गई होगी। खण्डित-प्रतिमा पूज्य न रहने से उसे किसी २. जिननाथ नित्यं प्रणमति । जलासय में विसजित कर दिया होगा। मूलपाठ भी डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने यह निम्न प्रकार पढ़ा थासम्भवतः प्रतिमा को आसन पर अकित रहा है। वर्तमान "संवत् १२१३ गोल्लपल्लीवसे सा० सावू (साध) सोडो
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सोनागिरि-मम्बिर प्रभिलेख । एक पुनरावलोकन
साधु श्री लल्लूभार्या जिणा तपो सुत सावू (५) दील्हा होने की सम्भावना की थी। उन्होंने अभिलेख के 'दिन' भार्या पल्हासस जिननाथं सविनयं प्रणमन्ति"।
शब्द को रविवार का वाचक माना। वारेश के आधार
पर काल गणना करने से भी पौष सुदी पूर्णिमा संवत् संवत् ३३५ के परिप्रेक्ष्य में विद्वानों के अभिमत- १०३५ मे तथा उसी दिन रविवार भी उन्हें प्राप्त हुआ
पं० नाथूराम 'प्रेमी' ने संवत् ३३५ को संवत् १३३५ था।' बताया है। उन्होने हजार सूचक एक अंक बीजक पढ़ने अत: डा० शास्त्री को मान्यता उपयुक्त प्रतीत होती वालों को अपठनीय रहा माना है। प्रेमी जी की यह है। इस काल में जैन मन्दिर और प्रतिमाओं की अनेक मान्यता तर्कसंगत नही है। सवत् १२१२ मे मन्दिर का प्रतिष्ठाएँ हुई है। अहार, और खजुराहो जैसे प्राचीन जैन पुननिर्माण कराये जाने से निश्चित ही चन्द्रप्रभ मन्दिर धर्मस्थलों में सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाएं इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य और प्रतिमा दोनो इस संवत् के पूर्व विद्यमान थे । इस है। संवत् ३३५ की अब तक कोई प्रतिमा प्राप्त नहीं हुई सम्बन्ध में डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री की मान्यता भी विचार- है। अतः यह काल तो निश्चित ही अशुद्ध है। णीय है।
लेखों में 'न' के स्थान में अनुस्वार, रेफ के संयोग में डा० शास्त्री ने बलात्कारगण जिसका उल्लेख सोना
वर्ण का द्वित्व, श के लिए स, ख के लिए ष का व्यवहार गिरि लेख में हुआ है, नववी शती के पूर्ववर्ती वाङ्मय में
हुआ है। अनुपलब्ध होने से तथा प्रतिमा की रचना में प्राचीनता न होने से तीन सतक पतीस के स्थान में एक सहस पैतीस -प्रभारी-जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीर जी (राज.)
सन्दर्भ-सूची १. भट्टारक सम्प्रदायः जैन सस्कृति सरक्षक संघ, सोला- ३. भट्रारक सम्प्रदाय मे इस अपठनीय अंश मे "कियो सु पुर, ई० १६५८ प्रकाशन, लेखक ६४, पृ० ४१।।
४. अनेकान्त, वर्ष २१, किरण १, पृ० १० । २. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग ३, भा० दि० . जैन साहित्य और इतिहास, संशोधित साहित्यमाला
जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, हीराबाग, बम्बई-४ ई. १९७६ बम्बई, ई० १९५६ प्रकाशन, पृ० ४३५ । प्रकाशन, पृ०६६।
६. पने कान्त वर्ष २१, किरण १, पृ०१०।
(पृ० १६ का शेषांश) ८ १९५५, प्रस्तावना पृ. ५-६६ चूणिसूत्र में कषायपाहुड
द्वारा निर्मित “लिखित तच्चारणावृत्ति" से क्या में भी रिक्तस्थानों की पूर्ति हेतु शून्य संदृष्टि उपयोग आशय है, महत्त्वपूर्ण है। "स्वलिखित उच्चारण" किया गया है । कषायपाहुड एव षट्खंडागम दोनों ही इससे अलग है। वह कोई संक्षिप्त व्याख्या है। अभी व्याकरणीय नियमों मे सूत्रबद्धरचित है । कषायपाहुड
चणि और जयधवल ही उपलब्ध है। उच्चारण वृत्ति, में कितनी ही गाथायें बीजपद स्वरूप हैं, जिनके अर्थ
शामकुंडकृत पद्धति टीका और तुम्बुलू राचार्य कृत का व्याख्यान वाचकाचार्य, व्याख्यानाचार्य या उच्चा
चडामणि व्याख्या तथा बप्पदेवकृत व्याख्या प्रज्ञप्ति
वृत्ति उपलब्ध होती है। रणाचार्य करते थे । कषायपाहुडकार को पांचवे पूर्व
६. देखिये, ओन्युगेबाएर, "एस्ट्रानामिकल क्यूनिफार्म को दसवी वस्तु के तीसरे तेज्जदोस पाहुड का पूर्ण ज्ञान
टेक्ट्स" भाग १, लदन १६५३, इस्टीट्यूट फार एडप्राप्त था । अनि संक्षिप्त होते हये भी वह सम्बद्ध
वास्ड स्टडी, प्रिंसटन के लिए प्रकाशित)। इसी के क्रम को लिए है। यह रचना असदिग्ध, बीजपद युक्त,
अनुरूप ग्रानभाषा में इस लेख के लेखक ने लब्धिगहन और सारवान् संक्षिप्त रूप मे पदो से निर्मित सारादि ग्रंथो को निरूपित कर चार भागों में प्रस्तुत है। वीरसेनाचार्य द्वारा जयधवल मे बपदेवाचार्य किया है।
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सुख का उपाय
पं० मुन्नालाल जैन प्रभाकर
संसार के सभी जीव सुख चाहते हैं । वह सुख क्या है परिणमन करना या न करना इसके आधीन है और इसके और कहां है, इसके लिए छ ढाला में कहा है-'आतम लिए जीव स्वतंत्र है। उस समय जीव भेद ज्ञान का को हित है, सुख सो सुख आकुलता बिन कहहिए। आकु- सहारा लेकर ऐसा विचार करे कि संसार में जितने लता शिव माहि न तातें शिव भग लाग्यो चहिए ।' अर्थात् पदार्थ हैं वे सब अपनी-अपनी सत्ता लिए हुए अखण्ड रूप सुख नाम की कोई वस्तु नही, दुख के अभाव का नाम से विराजमान हैं एक अश भी अन्य का अन्य में नहीं ही सुख है । दुःख का स्वरूप आकुलता है और आकुलता जाता। यदि एक पदार्थ भी अन्य रूप हो जावे तो ससार मोक्ष मे नही है। इसलिए मोक्ष के मार्ग मे लगना चाहिए। का ही अभाव हो जावे, किन्तु ऐसा नहीं है। इसलिये क्योंकि पर द्रव्य का जो सयोग इस जीव के साथ अनादि जब यह जोव सात तत्वो के स्वरूप का विचार करता है काल से लगा है, उससे अपने को छुड़ाना चाहिए। वह तब जीव की इस ज्ञान शक्ति के द्वारा दर्शन मोह सम्बध अभेद रत्नत्रय के द्वारा ही छूट सकता है। जब (मिथ्यात्व) का गलन होता है। ऐसा जीव के विचार तक पुद्गल कर्म आत्मा से पृथक् नही होगे तब तक आत्मा और दर्शनमोह के गलित होने का निमित्त नैमित्तिक के साथ विसंवाद ही बना रहेगा। और जब अपने गुण सम्बन्ध है। इसके द्वारा वस्तु के सम्यक् आकार का पर्यायो से जो एकत्वपना है वह आ जायगा तब सुखी हो श्रद्धान, रुचि, प्रतीति या स्व का स्वाद लेना, हो जाता है जायगा । ऐसा कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार मे कहा है। जिसको सम्यग्दर्शन कहते है। यह सम्यग्दर्शन दर्शनमोह एकत्यपना कैसे प्राप्त हो उसका उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्- (मिथ्यात्व) के अभाव मे एक साथ ही पूर्ण होता है क्यो ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की एव ता बताई है । वह सम्यग्- कि यह जीव (आत्मा) अनादि वस्तु स्वभाव रूप से विपदर्शन कैसे हो इसके लिए सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित सात रोत होकर निज स्वभाव रूप से च्युत हो रहा था। अब तत्त्व और छः द्रव्यो का विचार करना चाहिए कि यह इसे सात तत्त्वों के विचार मे उपयोग लगाने से निज ससार छ द्रव्यो का समूह है जिनमे धर्म, अधर्म, आकास आत्मद्रव्य की सिद्धि तो हो गई, परन्तु अभी ज्ञान गुण तथा काल चार द्रव्य तो शुद्ध ही है तथा इनमें सदृश सम्पूर्ण शुद्ध नही हुआ। ज्ञान गुण की कुछ पर्यायें शुद्ध परिणमन ही होता है और जीव तथा पुद्गल इन दो द्रव्यो अवश्य हुयी। धीरे-धीरे समस्त ज्ञान गुण शुद्ध होगा। में विसदश परिणमन होता है। क्योंकि इन द्रव्यों में ज्ञान गुण का काम जानना मात्र है। और जानना मात्र विभाव शक्ति हैं। उसके द्वारा जीव तथा पुद्गल परस्पर आश्रा बन्ध का कारण नहीं है अपितु ज्ञान गुण का एक दूसरे का निमित्त पाकर विभाव भावो को प्राप्त होते विसदृश परिणमन ही बन्ध का कारण है और उस विसदश हैं। जिससे कमों का आश्रव होता है जिसके कारण जीव परिणमन का कारण उपयोग का पर पदार्थ मे जाना है। संसार में भ्रमण करता है। और जब यह जीव यह क्योकि अनादिकाल से यह जीव पर पदार्थ को जान कर विचार करता है कि यह विभाव भाव मेरे निजी भाव उनमे राग-द्वेष रूप परिणाम करता है और इसके ये नहीं है। हां, मेरे अन्दर पर-कर्म के निमित्त से हुए हैं। संस्कार अनादि से चले आ रहे है। इन संस्कारों को इसलिए सर्वथा मेरे नहीं है और इन विभाव भावों के रोकना आसान नहीं है। इसीलिए आगम में अपने उपयोग अनुसार मुझे परिणमन नहीं करना चाहिए। उस समय को अपने में लगाने का उपदेश दिया है। जब
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सुख का उपाय
इस जीव का उपयोग अपने मे जाता है तब विकारी परिणमन का प्रश्न ही नहीं खड़ा इतना अवश्य है कि छद्यस्थ का उपयोग ज्यादा अपने में नहीं टिकता परन्तु अपने अपने मे ले जाने का अभ्यास निरन्तर करते रहने से घातिया कर्मों के आश्रवबन्ध में विराम हो जाता है और पहिले के कर्मों का अभाव होता जाता है और इसी रीति से अनंत चतुष्टय रूप केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है। आगम में कहा भी है
राग-द्वेष रूप होता हाँ अन्तर्मुहूर्त से उपयोग को
भावयेद् भेद विज्ञान मिदमन्निधारा, तावत् यावत् परश्च्युित्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठति अर्थात् सम्यग्दर्शन (भेद विज्ञान) की भावना तब तक भावनी चाहिए जब तक ज्ञान स्वयं ज्ञान रूप ( केवल ज्ञान ) में प्रगट न हो जाय। जब तक इस जीव के साथ चारित्र मोहका सम्बन्ध है तब तक चाहे सम्यग्दृष्टी हो अथवा मिथ्या दृष्टि रागद्वेष हर्ष विषाद आदि विकारो का अनुभव होता है । हां, इतना अवश्य है कि मिथ्या दृष्टि जीव उन विकारी भावो के अनुसार परिणत हो जाता है, उनको जानकर उनको अपना मान लेता है। क्योकि उसके भेद ज्ञान का अभाव है । निन्तु भेद ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टी) भेद ज्ञान के बल से उनको जानता हुआ भी अपना नही मानता । ऐसा विचार करता है कि वे औपाधिक भाव है कर्म के उदय से हो रहे है मेरे निजी भाव नही है । उस समय विकारी भावो से होने वाली परिणति रुक जाती है आश्रव बंध में विराम लग जाता है और अपनी षट्गुनी हानि वृद्धि के बल से ज्ञान गुण कुछ निर्मल हो जाता है। बारम्बार अपने ज्ञान गुण ( उपयोग ) को अपनी आत्मा के स्वरूप की तरफ ले जाने से सवं मोह भी क्षय हो जाता है । और उसी षट्गुनी हानि वृद्धि के बल से समस्त घातिया कर्मों के नाश हो जाने से अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं। जिससे ज्ञान गुण पूर्ण शुद्धता को प्राप्त हो जाता है। इससे गुण तथा पर्याय तो शुद्ध हो गई परन्तु द्रव्य मे अभी भी मलिनता रहती है क्यों कि घातिया कर्मों के सदभाव रहने से आत्मा के प्रदेशों में कम्पता रहती है इसलिए द्रव्य मे भी अशुद्धता रहती है। इस कम्पना के कारण से जो आश्रव बध होता है उसमे
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कषायो के अभाव होने से एक समय मात्र की स्थिति होती है। उन अघातिया कर्मों का नाश कापू के समाप्त होने पर आपोआप हो जाता है। उस समय टकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावी एक अकेला आत्मा रह जाता है द्रव्य, गुण तथा पर्याय तीनों शुद्धता को प्राप्त हो जाते हैं । यही सिद्ध अवस्था कहलाती है। ऐसा धारमा हमेशा के लिए सुखी हो जाता है ऐसे सुख की प्राप्ति धर्म से होती है। कहा भी है - 'धर्म करत संसार सुख धर्म करत निर्वाण । धर्म पन्थ साधे बिना नर तियंच समान || श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी प्रवचन सार में कहा है। कि स्वरूप मे जो आचरण है उसी को स्वसमय प्रवृत्ति हैं, वही चारित्र है वही मोह क्षोभ रहित आत्मा के परिणाम साम्यभाव है तथा उसी को आत्मा का अभेद रत्नत्रय धर्म कहते है। स्वामी समंतभद्राचार्य ने भी कहा है'सद्वृष्टिज्ञानव्रतानि धर्मं धर्मेश्वरः विदुः । अर्थात् सम्यग् - दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र ही धर्म है और इससे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या परित्र अधर्म तथा संसार-मार्ग है उस धर्म स्वरूप अभेद रहनत्रयात्मक परमात्म स्वरूप आत्मा के एकत्व का आगम तर्क तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा दिखाने का कुन्दकुन्द आचार्य ने प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि वह आत्मा कैसी है तथा उसी आत्मा के स्वकीय स्वरूप का सवेदन कहा है। अहमिक्को, खलु शुद्धो दंसणा णाम- मइओ सदा रूबी गवि अस्थि मज्झ किचिवि अण्ण परमाणु मितं पि ||३८|| ऐसे आत्मा के स्वरूप के अनुभव के लिए कुछ काल की मर्यादा करके समस्त आरभ परिग्रह का त्याग करके एकांत स्थान मे जहां किसी प्रकार के बाह्य आडम्बर का समागम न हो पद्मासन लगाकर चितवन करें कि मैं एक हूं, अकेला हूं, मेरा कोई साथी सगा नही है, और अन्य द्रव्य का मेरे मे किंचित् भी समावेश नहीं है, मैं सभी अन्य ग्रन्थों से भिन्न हूं, दर्शन, ज्ञानमय हूं, अरूपी हू और अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है । ऐसी वस्तुस्थिति मे भी यह जीव अनादि काल से कर्म (मोह) मे लगा हुआ है। जिसके कारण चतुर्गति मे भ्रमण करता दुखी हो रहा है कर्म के कारण से पर द्रव्यो का समागम तथा वियोग होता है तथा जिन पर पदार्थों
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२२. वर्ष ४२, कि०१
अनेकान्त
का समागम इस आत्मा के साथ है उनको यह जीव अपनी रण करके साधारण जनता के सामने उपस्थित करें तो इच्छा के अनुकूल परिणमाना चाहता है। और जब कभी अवश्य ही सभी का लाभ होगा। वे पदार्थ इसकी इच्छा के अनुसार परणमते है तब यह हर्ष को प्राप्त होता है और जब इसकी इच्छा के विपरीत कहने का तात्पर्य यह है कि पर पदार्थों के संचय परिणमन करते है तब विषाद को प्राप्त होता है यह इस तया पंच इंद्रियो के विषय भोगने की जो इच्छायें उत्पन्न जीव की विकारी परिणति है जो आगामी कर्मों के बन्ध का होती है । उनके अनुसार प्रवृत्ति करने से ससार परिभ्रमण कारण होती है और वह बध ससार भ्रमण का कारण है। होता और ससार दुःख रूप है। कुछ लोग ऐसा भी कहते इसलिए कर्म के उदय के विकार को विकारी भाव जान- है कि लक्ष्मी तो पुण्य से आती है उसमे हमारा क्या दोष कर उसके अनुसार होने वाली परिणति को रोकना उसके लिए जरा विवारिये कि हमारा दोष है या नहीं चाहिए । यही ससार के दुखो से छूटने का परम उपाय है हाँ, इतना अवश्य है कि बिना पुण्य के कितना भी प्रयत्न इसलिए इन विचारो को भी रोक कर मात्र ज्ञायक रूप करो लक्ष्मी नहीं आवेगी। उसी प्रकार यदि हम लक्ष्मी के रहना चाहिए।
संचय रूप पापारम्स मे उपयोग को नहीं लगावेगे तब भी
पुण्य का उदय होने पर भी लक्ष्मी का संचय नहीं होगा और आगम मे ऐसा कहा है कि अपने उपयोग को बार- अपने उपयोग को अपने आत्म चिंतन मे लगावगे तो न किसी बार अपने ज्ञायक भाव म लगाने से जब मोह क्षय हो प्रकार की इच्छा होगी और न किसी विषयो के भोगने जाता है तब उपयोग अपने स्वरूप मे स्थिर हो जाता है। की प्रवृत्ति होगी तब हम कर्म बध से बचे रहेंगे इसलिये यही उपाय कुन्दकुन्द आचार्य महाराज ने अपने समयसार, हमारा यही कर्तव्य है कि हम अपने उपयोग को अपने प्रवचनसार आदि ग्रन्थो मे दर्शाया है । आज कल कुन्दकुन्द स्वरूप के विचार में लगाने का प्रयत्न करते रहें यही आचार्य का द्विसहस्राब्दि समारोह मनाया जा रहा है सुखी होने का सच्चा उपाय है। जिसमे कुन्दकुन्द स्वामी के जन्म की तिथि की खोज की गई है तथा गुणो की प्रशसा भी की गई है परन्तु जिस कुछ लोग ऐसा भी मानते है कि मिथ्यात्व अविरति चारित्र को स्वय धारण कर साधारण जनता के समक्ष आदि कर्म बंध के कारण नहीं है, मिथ्या आचरण बंध आचार्य महाराज ने प्रस्तुत किया था यदि वैसा आचरण का कारण है। यहाँ जानना चाहिए कि मिथ्यात्व आदि करके और उस आचरण के करने का उपाय जनता के के उदय के बिना तद्रूप आचरण हो ही नहीं सकता। सामने रखा जाय तो यह समारोह मनाना सार्थक होगा। यदि कर्म के उदय के बिना मिथ्या आचरण मानेंगे तो केवल आचार्य महाराज के गुण गाने मात्र से हमारा सिद्ध अवस्था मे जहा कमों का सर्वथा अभाव हो गया आत्मीक कोई लाभ न होगा। उनमें तो वे गुण है ही। वहा भी बन्ध मानना पड़ेगा जो आगम प्रतिकूल है। जैसे भूख के लगने पर बढ़िया भोजन बना कर उसकी इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नवीन आश्रय बंध का मात्र प्रशसा करने से तो भूख शान्त नही होती भूख तो मूल कारण मिथ्या अविरति आदि का उदय है। अतः भोजन के खाने पर ही शान्त होगी। हमारा कर्तव्य है कि हमारा कर्तव्य है कि कर्मों के उदय के अनुसार होने वाली
मानो परणति को रोके। परिणत होना न होना जीव के अपनाये अर्थात उस रूप आचरण करें तो हमारा कल्याण
आधीन है यही सच्चा पुरुषार्थ है और यही सुखी होने का अवश्य होगा, सुखी होने का यही सच्चा उपाय है। यदि उपाय है। इस समारोह के मनाने वाले हम इस आचरण को स्वयं
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श्री कुन्दकुन्द का विदेह-गमन ?
0 श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी (जून ८८ के “अनेकान्त" से आगे) श्री टोडरमल स्मारक के प्रकाशनों मे ही आचार्य विदेह मे गए थे यह प्रमाणित नही होता। कुन्दकुन्द के विदेह-गमन की चर्चा नही है किन्तु उससे मैं श्री बिरधीलाल जी सेठी और कटारिया जी दोनों पूर्व भी प्राय: सभी आधुनिक विद्वान और त्यागी इसके प्राज्ञों की गवेषणात्मक बुद्धि की अन्तस्त: प्रशन्सा करता समर्थक रहे हैं।
हूं। जैन दर्शन विज्ञानात्मक होने से समोचीन श्रद्धावान है।" जिस तरह आ० मानतंग को ४८ तालो में बन्द और भी अनेक विद्वानो की इसी प्रकार की सम्मति करने को किंवदन्ती प्रचलित है उसी प्रकार आचार्य आई है। आगम के आलोक मे विचार किया जाय तो कुन्दकुन्द के विदेह गमन की किंवदन्ती भी बुद्धि गम्य और इस विषय में "तिलोय पण्णत्ती" का एक और प्रमाण सेवा आगम समत प्रतीत नही होती। जन सामान्य अनेक तरह से प्रस्तुत करता हैसे श्रद्धा का अतिरेक करते रहते हैं किन्तु वे सिद्धान्त के चारण रिसीसु चरिमो सुपास चद्राभिधाणोय आगे नहीं टिकते।
॥१४७६।। अध्याय ४ आगमज्ञ, प्रमाण पुरस्सर लिखने वाले श्री जवाहर (चारण ऋषियों में अन्तिम सुपाश्र्व चन्द्र नामक लाल जी भीण्डर वालों ने इस विषय में अपनी सम्मति ऋषि हुए) ये वीर निर्वाण के १०० वर्ष मे हुए हैं। इसके इस प्रकार दी है
बाद कोई चारण ऋषि नही हए । यही से चारण ऋद्धि "कुन्दकुन्द विदेह में नही गये थे ऐसा जो कटारिया के ताला लग गया तब वीर निर्वाण के ५०० वर्ष बाद जी ने लिखा है वह अत्यन्त तथ्य, पूर्ण, सागम गहीत कुन्दकुन्दादि के चारण ऋद्धि बताना क्या आगम-सम्मत निर्णय, आगमानुकूल, तथ्य परक तथा सिद्धान्त रक्षक होने है? विज्ञ पाठक सोचें। से स्तुत्य एव मान्य ही है। तिलोयपण्णत्ती और महा- विचारक युक्त्यागमपूर्वक बुद्धि पुरस्सर प्ररूपणा करते पुराणादि के प्रमाण स्पष्ट है, सिद्धान्त सप्रमाण और है कोई पाग्रह और कषायवश नही । अन्यथा विचारकता निरपवाद होता है। एक प्रमाण को दूसरे प्रमाण की नहीं । इस कलिकाल मे कही चारणऋद्धि होने का शास्त्रों अपेक्षा नहीं रहती अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आयेगा। मे सैद्धान्तिक विधान हो तो बताया जाये अन्यथा निषेध अतः कुन्दकुन्द तथैव पूज्यपाद व उमास्वामी ये सब कथन को मान्य किया जाये।
XXXKXKXXXKKKKKKkkkkkkkkkkkkkkkk*
-संभाल के बिना भटकन'जैसे सांसारिक दुःखों से छुटकारे के लिए रत्नत्रय आवश्यक है वैसे ही रत्नत्रय पूर्ति
के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरु आवश्यक हैं। देव-शास्त्र-गुरु का सही रूप कायम रहने * से ही जिनधर्म और जैनी कायम रह सकेंगे। अतः अन्य सभी बखेड़ों को छोड़, पहिले
मन-वचन-काय, कृत-कारित-मोदन से क्रिया रूप में इनकी सभाल करनी चाहिए।
सच्ची प्रतिष्ठा भी यही है। अन्यथा, कही ऐसा न हो कि संभाल के बिना इनका सही * रूप हमसे तिरोहित हो जाय और जैन बेसहारा भटकता फिरे।' –सम्पादक XKKkkk*************************
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सल्लेखना अथवा समाधिमरण
0 डॉ० दरबारीलाल कोठिया
सल्लेखना : पृष्ठभूमि
मानते हैं। फलत: मन्तजन यदि अपने पोद्गलिक शरीर जन्म के साथ मृत्यु का और मृत्यु के साथ जन्म का के त्याग पर 'मृत्यु-महोत्सव' मनायें तो कोई आश्चर्य नहीं अनादि-प्रवाह सम्बन्ध है। जो उत्पन्न होता है, उसकी है। वे अपने रुग्ण, अशक्त, जर्जरित, कुछ क्षणो में जाने मत्यू भी अवश्य होती है और जिसको मत्यू होती है उसका वाले और विपद्-ग्रस्त, जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़ने तथा जन्म भी होता है। इस तरह जन्म और मरण का प्रवाह
नये शरीर को ग्रहण करने में उसी तरह उत्सुक एवं प्रमुतब तक प्रवाहित रहता है जब तक जीव की मुक्ति नहीं दित होते है जिस तरह कोई व्यक्ति अपने पुराने, मलिन होती। इस प्रवाह मे जीव को नाना क्लेशो और दुःखों जीणं और काम न ई सकने वाले वस्त्र को छोड़ने तथा को भोगना पड़ता है। परन्त राग-द्वेष और इन्द्रिय-विषयों नवान वस्त्र के परिधान में अधिक प्रसन्न होता है। में आसक्त व्यक्ति इस ध्र व सत्य को जानते हुए भी उससे
इसी तथ्य को दृष्टि मे रखकर सवेगी जैन श्रावक या मुक्ति पाने की ओर लक्ष्य नही देते' । प्रत्युत जब कोई पैदा
जैन साधु अपना मरण सुधारने के लिए उक्त परिस्थितियों होता है तो उसका वे 'जन्मोत्सव' मनाते तथा हर्ष व्यक्त
म सल्लेखना ग्रहण करता है। वह नहीं चाहता कि उसका करते हैं। और जब कोई मरता है तो उसकी मृत्यु पर
शरीर-त्याग रोते-विलपते, संक्लेश करते और राग-द्वेष की आँसू बहाते एवं शोक प्रकट करते है।
अग्नि में झुलसते हुए असावधान अवस्था मे हो, किन्तु दृढ़,
शान्त और उज्ज्वल परिणामों के साथ विवेकपूर्ण स्थिति पर समार-विरक्त मुमुक्ष सन्तो की वृत्ति इससे भिन्न
मे वीरों की तरह उसका शरीर छूटे । सल्लेखना मुमुक्षुहोती है। वे अपनी मृत्यु को अच्छा मानते है और यह
श्रावक और साधु दोनो के इसी उद्देश्य को पूरक है । सोचते हैं कि जीर्ण शीर्ण शरीररूपी पिजरे से आत्मा को
प्रस्तुत में उसी के सम्बन्ध मे कुछ प्रकाश डाला जाता है । छुटकारा मिल रहा है। अतएव जैन मनीषियों ने उनकी मृत्यु को 'मृत्युमहोत्सव' के रूप में वर्णन किया है। इस सहलेखना और उसका महत्त्व : वलक्षण्य को समझना कुछ कठिन नही है। यथार्थ में 'सल्लेखना' शब्द जैन-धर्म का पारिभाषिक शब्द है। साधारण लोग संसार (विषय-कषाय के पोषक चेतनाचेतन इसका अर्थ है-'सम्यक्काय-कषाय-लेखना सल्लेखना'पदार्थों) को आत्मीय समझते हैं। अतः उनके छोड़ने में सम्यक प्रकार से काय और कषाय दोनों को कृश करना उन्हें दुःख का अनुभव होता है और उनके मिलने मे हर्ष सल्लेखना है । तात्पर्य यह है कि मरण-समय में की जाने होता है। परन्तु शरीर और आत्मा के भेद को समझने वाली जिस किया विशेष मे बाहरी और भीतरी अर्थात् वाले ज्ञानी वीतरागी सन्त न केवल विषय-कषाय की शरीर तथा रागादि दोषो का, उनके कारणो को कम करते पोषक बाह्य वस्तुओ को ही, अपितु अपने शरीर को भी हए प्रसन्नतापूर्वक बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से लेखन पर-अनात्मीय मानते हैं । अतः शरीर को छोड़ने में उन्हें अर्थात कृशीकरण किया जाता है उस उत्तम क्रिया-विशेष दुःख न होकर प्रमोद होता है। वे अपना वास्तविक का नाम सल्लेखना है। उसो को 'समाधिमरण' कहा गया निवास इस द्वन्द्व-प्रधान दुनिया को नहीं मानते, किन्तु मुक्ति है। यह सल्लेखना जीवनभर आचरित समस्त व्रतों, तपों को समझते हैं और सद्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तर, त्याग, और संयम की संरक्षिका है। इसलिए इसे जैन-संस्कृति मे सयम आदि आत्मीय गुणो को अपना यथार्थ परिवार व्रतराज' भी कहा है।
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सल्लेखना अथवा समाधिमरण
अपने परिणामों के अनुसार प्राप्त जिन आयु, इन्द्रियों में उस शरीर को दुष्ट के समान छोड़ देना ही श्रेयस्कर और मन, वचन, काय इन तीन बलों के संयोग का नाम है।' ' जन्म है और उन्हीं के क्रमशः अथवा सर्वथा क्षीण होन को वे असावधानी एवं आत्मघात के दोष से बचने के मरण कहा गया है। यह मरण दो प्रकार का है-एक लिए कुछ ऐसी बातों की ओर भी सकेत करते है, जिनके नित्य-मरण और दूसरा तद्भव-मरण । प्रतिक्षण जो आयु द्वारा शीघ्र और अवश्यंभावी मरण की सूचना मिल जाती आदि का ह्रास होता रहता है व नित्य-मरण है तथा है। उस हालत मे व्रती को आत्मधर्म की रक्षा के लिए उत्तरपर्याय की प्राप्ति के साथ पूर्व पर्याय का नाश होना सल्लेखना मे लीन हो जाना ही सर्वोत्तम है। तद्भव-मरण है । नित्य-मरण तो निरन्तर होता रहता है, इसी तरह एक अन्य विद्वान ने भी प्रतिपादन किया उसका आत्म-परिणामो पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। है किपर तद्भव-मरण का कषायो एव विषय-वासनाओ की 'जिस शरीर का बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, न्यूनाधिकता के अनुसार आत्म-परिणामो पर अच्छा या भोजन उत्तरोत्तर घट रहा है और रोगादिक के प्रतिकार बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है : इस तद्भव-मरण को सुधा- करने की शक्ति नही रही है वह शरीर ही विवेकी पुरुषों रने और अच्छा बनाने के लिए ही पर्याय के अन्त मे को यथाख्यातचा रेत्र (सल्लेखना) के समय को इंगित 'सल्लेखना' रूप अलोकिक प्रयत्न किया जाता है। सल्ले- करता है"।' खना से अनन्त ससार की कारणभूत कषायों का आवेग मृत्युमहोत्सवकारकी दृष्टि मे समस्त श्रुताभ्यास, घोर उपशमित अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म-मरण का तपश्चरण और कठोर व्रताचरण की सार्थकता तभी प्रवाह बहुत ही अल्प हो जाता अथवा सूख जाता है। जैन जब मुमुक्ष श्रावक अथवा साधु विवेक जागृत हो जाने पर लेखक प्राचार्य शिवार्य सल्लेखना धारण पर बल देते हए सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग करता है। वे लिखते हैंकहते हैं
'जो फल बड़े-बड़े व्रती-पुरुषो को कायक्लेशादि तप, 'जो भद्र एक पर्याय मे ममाधिमरण-पूर्वक मरण करता
अहिंसादि व्रत धारण करने पर प्राप्त होता है वह फल
अन्त समय मे सावधानी पूर्वक किये गये समाधिमरण से है वह संसार मे सात-आठ पर्याय से अधिक परिभ्रमण नही
जीवों को सहज मे प्राप्त हो जाता है। अर्थात् जो आत्मकरता-उसके बाद वह अवश्य मोक्ष पा लेता है।'
विशुद्धि अनेक प्रकार के तपादि से होती हे वह अन्त समय आगे वे सल्लेना और मल्नेखना-धारक का महत्त्व मे समाधिपूर्वक शरीरत्याग से प्राप्त हो जाती। बतलाते हुए यहा तक लिखते हैं कि सल्लेखना-धारक
'बहुत काल तक किये गये उग्र तपो का, पाले हुए (क्षपक) का भक्तिपूर्वक दर्शन, वन्दन और वैयावृता आदि
ब्रतों का और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्रज्ञान का करने वाला व्यक्ति भी देवर्गात के सुखों को भोगकर अन्त
एक-मात्र फल शान्ति के साथ आत्मानुभव करते हुए मे उत्तम स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करता है !
समाधिपूर्वक मरण करना है।' तेरहवीं शताब्दी के प्रौढ़ लेखक पण्डितप्रवर आशा. विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के विद्वान स्वामी घरजी ने भी इसी बात को बड़े ही प्राजल शब्दो मे स्पष्ट समन्तभद्र की मान्यतानुसार जीवन मे आचरित तपो का करते हुए कहा है"
फल वस्तुतः अन्न समय मे गृहीन सल्लेखना ही है। प्रतः 'स्वस्थ शरीर पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण १
वे उसे पूरी शक्ति के साथ धारण करने पर जोर देते है। करने योग्य है तथा रुग्ण शरीर योग्य औषधियो द्वारा आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि भी सल्लेखना के महत्त्व उपचार के योग्य है। परन्तु योग्य आहार-विहार और और आवश्यकता को बतलाते हुए लिखते है कि 'मरण औषधोपचार करते हुए भी शरीर पर उनका अनुकूल किसी को इष्ट नहीं है । जैसे अनेक प्रकार के सोना-चांदी, असर न हो, प्रत्युत रोग बढ़ता ही जाय, तो ऐसी स्थिति बहुमूल्य वस्त्रा आदि का व्यवसाय करने वाले किसी व्या
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२६, वर्ष ४२, कि० १
अनेकान्त
पारी को अपने उस घर का विनाश कभी इष्ट नही है, बड़ा बल दिया गया है । जैन लेखकों ने अकेले इसी विषय जिसमें उक्त बहुमूल्य वस्तुएँ रखी हुई हैं। • यदि कदाचित पर प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में अनेकों स्वतत्र उसके विनाश का कारण (अग्नि का लगना, बाढ़ आ ग्रन्थ लिखे हैं। आचार्य शिवार्य की 'भगवती आराधना' जाना या राज्य में विप्लव होना आदि) उपस्थित हो इस विषय का एक अत्यन्त प्राचीन और महत्त्वपूर्ण विशाल जाय तो वह उसकी रक्षा का पूरा उपाय करता है और प्राकृत-ग्रन्थ है। इसी प्रकार 'मृत्यु-महोत्सव', 'समाधिजब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ दिखाई नहीं देता, मरणोत्साहदीपक', समाधिमरणपाठ' आदि नामों से सस्कृत तो घर में रखे हुए बहुमूल्य पदार्थों को बचाने का भरसक तथा हिन्दी मे इसी विषय पर अनेक कृतियां उपलब्ध हैं। प्रयत्न करता है और घर को नष्ट होने देता है। उसी
सल्लेखना का काल, प्रयोजन और विधि : तरह व्रत-शीलादि गुणो का अर्जन करने वाला व्रतीश्रावक या साधु भी उन व्रतादिगुणरत्नो के आधारभूत
यद्यपि ऊपर के विवेचन से सल्लेखना का काल और शरीर की, पोषक आहार-औषधादि द्वारा रक्षा करता है, प्रयोजन ज्ञात हो जाता है तथापि उसे यहा और भी अधिक उसका नाश उसे इष्ट नहीं है। पर देववश शरीर में स्पष्ट किया जाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने उसके विनाश-कारण (असाध्य-रोगादि) उपस्थित हो जाय, सल्लेखना-धारण का काल (स्थिति) और उसका प्रयोजन तो वह उनको दूर करने का यथासाध्य प्रयत्न करता है। बतलाते हुए लिखा हैपरन्तु जब देखता है कि उनका दूर करना अशक्य है ओर उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । शरीर की रक्षा अब सम्भव नही है तो उन बहुमूला व्रत- धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । शीलादि आत्म-गुणों की वह सल्लेखना द्वारा रक्षा करता
-रत्नकरण्डधा०५-१ है और शरीर को नष्ट होने देता है।'
'अपरिहार्य उपसर्ग, दुभिक्ष, बुढ़ापा और रोग-इन इन उल्लेखो से सल्लेखना की उपयोगिता, आवश्य- अवस्थाओ मे आत्मधर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का कता और महत्ता सहज म जानी जा सकती है। ज्ञात त्याग किया जाता है वह सल्लेखना है। होता है कि इसी कारण जैन-सस्कृति में सल्लेखना पर
(क्रमश:) सन्दर्भ-सूची १. 'जातस्य हि ध वो मृत्युव जन्म मृतस्य च।' ६. (क) पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि ७-२२ ।
-गीता २-२७। (ख) गद्धपिच्छ, तत्त्वार्थसूत्र ७-२२ । २-३. संमारासचित्ताना मृत्युभीत्यै भवेन्नणाम् । ७. अकलकदेव, तत्त्वार्थवात्तिक ७-२२ । मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिताम् ।। ८. एगम्मिभवग्गहणे समाहिमरणणजो मदो जीवो। -मृत्युमहोत्सव १७ __ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमत्तूण ॥
-भ० आ० । ४. मृत्युमहोत्सव श्लोक १० ।
६. सल्लेहणाए मूल जो वच्चइ तिब्वभत्तिराइण । ५. जीणं देहादिक सर्वं नूतन जायते यतः ।
भोत्तण य देवसुख सो पावदि उत्तम ठाण ।।-वही। स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातास्थितियथा।
१०. आशाधर, सागारधर्मामृत, ८-६ ।
-वही १५ ११. बहो, ८-१० । वासांसि जीर्णानि यथा बिहाय,
१२. आदर्श सल्लेखना, पृ० १६ । नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
१३. मृत्युमहोत्सव, श्लोक १, २३ । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
१४. आचार्य समन्तभद्र, रत्नक. श्रावका० ५.१ । सयाति नवानि देही ।।-गीता २-२२ १५. पूज्यपाद, सर्वार्थसि०७-२२ ।
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विचारकों के लिए :
आवश्यक और दिगम्बर मुनि
1) पप्रचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
एक बार हमने लिखा था---
काल मनाए जा सकते हैं। ऐसे निमित्तों से यदि जैनत्व "हम इकट्ठा करने में रहे और सब कुछ खो दिया।" को समझने और जीवन में उतारने के सही उपक्रम किए यह एक ऐसा तथ्य है जिसे लाखो-लाखों प्रयत्नो के बाद जाय तो ऐसे बहानों से स्थान-स्थान पर जो समारोह होते भी झुठलाया नहीं जा सकता। हम जैसे-जैसे, जितना है-हो रहे है व कुन्दकन्द की कृतियो के विषय में और परिग्रह बढ़ाते रहे, वैसे वैसे जैन हमसे उतना दूर खिसकता उनके जीवनाचार के तथ्य उजागर करने की जो पुनरागया और आज स्थिति यह है कि हम जैन होने के साधन- वृत्तिया हो रही है; उनसे अवश्य लाभ उठाया जा सकता भूत मुनि और श्रावकोचित् भाचार विचार मे भी शन्य है। यदि कुन्दकुन्द जैसे आचार को जीवन मे उतारा जाय, जैसे हो गए।
उनके उपदेशानुरूप आचरण किया जाय तो जैनत्व को लोगों ने जडों को खोजें की उन्होंने सारा ध्यान अब भी बचाया जा सकता है। परना, आज जैनत्व टूट-सा जड़ों पर शोध प्रबन्धो के लिखने मे केन्द्रित किया, उन्हें चुका है। लोग आज निस मात्रा मे जय-जयकार करने के प्रकाशित कराया और उन पर विविध लौकिक पारि- अभ्यासी बन चुके है यदि कही उसके शतांश भी कुन्दकुन्दतोषिक, डिग्रिया पाते रहे। आत्मा की कया करने वाले वत आचार-विचार के अनुसा होते तो जैन की जैसी बड़े-बड़े वाचक भी परिग्रह सचयन में लगे रहे और वे चिन्तनीय दशा प्राज है वैमी न होती। भी साधना, दान आदि के विविध आयामों के नाम से
विध आयामा क नाम से कुछ लोग कुन्दकुन्द को अध्यात्म उपदेष्टा होने के नाते विविध रूपो में परिग्रह संचयन और मान-पोषण आदि में अध्यात्म मात्र को ही आगे ला रहे है और व्यवहार शुभालीन रहे। जिससे वीतरागता का प्रतीक निर्ग्रन्थत्व-जैनत्व चार का लोप कर रहे है । पर, ध्यान से देखा जाय तो लुप्त होता रहा। हमारी दृष्टि मे 'अपरिग्रहबाद' को कुन्दकुन्द ने व्यवहार का भी वैमा ही प्ररूपण किया है अपनाने के सिवाय जैन के सरक्षण का अन्य उपाय नही। जैसा कि अध्यात्म का। उन्होने समयसार की भांति और अपरिग्रहवाद की मीढ़ी पर चढने के लिए शुद्ध- अष्टपाड भी रचे है। अष्ट पाहो मे वाह्याचार पर श्रावकाचार और साध्वाचार का पालन आवश्यक है।" जितना खुलकर लिखा गया है, शायद ही अन्यत्र हो ।
बात आचार्य कुन्दकुन्द की है। यद्यपि इनके समय इनमे श्रावको, मुनियो दोनो के आचारो का खुलकर वर्णन आदि के विषय मे श्री नाथूराम प्रेमी, डॉ० पाठक, डॉ० है। यदि मानसिक शिथिलाचारी होने के कारण कोई ए. चक्रवर्ती, प० जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ० उपाध्ये और व्यक्ति इन्द्रिय भोगो की सामग्री से चिपका रहे-परिग्रह डॉ० ज्योति प्रसाद प्रभूति विद्वानों के अपने मत रहे है को कृश न कर सके और वाह्य में अपने को धर्मात्मा तथापि वर्तमान मनीषियो के सद्विचार और प्रेरणानुसार बताने के लिए कोरे अध्यात्म की चर्चा करने लगे, तो उसे इन दिनो देश मे कुन्दकुन्द का (निश्चित) हिसहस्राब्दी मार्ग से भटका ही कहा जायगा। आज अध्यात्म के नाम वर्ष मनाया जा रहा है-हम इसका स्वागत करत है। पर एक छलावा जैसा भी होने लगा है। हमने अध्यात्म बहाना चाहे जो भी हो-हम समय आदि को, आदर्श के गीत गाने वालों में प्रायः ऐसों को अधिक देखा है जो जीवन और गुणो जितना महत्त्व भी नहीं देते। हमारी आकण्ठ परिग्रह और मोह माया में डूबे हो। उनमें ऐसे दृष्टि से तो महापुरुषो के निमित्त से धार्मिक उत्सव सदा- भी कितने ही हो, जिन पर अपार सम्पत्ति हो और आगे
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२८, बर्ष ४२, कि.१
अनेकान्त
भी सम्पत्ति संग्रह के जुगाड़ मे लगे हों-तब भी आश्चर्य परमजिन योगीश्वर के धर्मध्यानात्मक परम-आवश्यक नहीं। पर
होता है। प्रसंग मे जिन-योगीश्वर शन्द से जैन मुनि ही जब तक ऐसा चलता रहेगा और बाह्याचार पर समझना चाहिए। क्योकि जिन भगवान के धर्मध्यान न जोर न दिया जायगा, परिग्रह-लीन-प्रवृत्ति रहेगी, तब तक होकर शुक्लध्यान के अन्तिम दो पाये ही हो सकते हैं। जैन का ह्रास ही होगा। यदि श्रावक और मुनिगण इस इसके सिवाय जिन भगवान को सामायिक, स्तवनादि जैसे ओर अपनी-अपनी श्रेणी माफिक ध्यान दें और अवश्य- आवश्यको की आवश्यकता ही नही होती। करणीय को करें, तब भी बहुत कुछ हो सकता है। इस
टीकाकार ने गाथा १४३ की टीका मे लिखा हैप्रसंग मे यदि हम कन्दकन्द द्वारा प्ररूपित मात्र आवश्यक जो श्रमण अन्य के वश में रहता है उसके प्रावश्यक नहीं भर के लक्षण को ही देखें और विभिन्न आचायो कृन होता।-स्वस्वरूपादन्येषां परद्रव्याणा वशो भूत्वा....... विभिन्न टीकाओं को देखें तो भी यह स्पष्ट होते देर न द्रव्यलिङ्ग गहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन्...."जिनेन्द्रलगेगी कि कौन कहा से कहा आ गया, कितने परिग्रह में मन्दिरं वा तात्र
मन्दिरं वा तत्क्षेत्र वास्तुधनधान्यादिक वा सर्वमस्मदीयडूब गया?
मिति मनश्चकार इति ।'-जो निजात्मस्वरूप के अतिरिक्त साधारणत. आवश्यक शब्द का भाव प्रायः अवश्य
अन्य द्रव्यो के वशीभूत होकर'... "द्रव्यलिंग को ग्रहण करने योग्य, क्रिया से लिया जाता रहा है और श्रावक के करके स्वात्म कार्य से विमुख होकर'...."जिनमन्दिर लिए संसार-वधंक क्रिया से समय निकाल कर परमार्थ
अथवा उमके क्षेत्र बास्तु-धन-धान्यादि को अपना मानने को जनक क्रियाओ---(देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय, का मन बनाता है-वह पर-वश होता है। टीका में गहीत सयम, तप, दान) के करने को जरूरी बताया जाता रहा द्रव्यलिंगी शब्द वाह्यवेश का ही सूचक है।। है। उक्त षट क्रियाएँ श्रावको के छह आवश्यक है। क्या इसी नियमसार की गाथा १४२ की मूलाचार टीका कि श्रावक दशा में परायो की जिम्मेदारी होने से श्रावक और
मे वसुनन्दी आचार्य का अभिप्राय भी ऐसा ही है अर्थात विविध सकला-विकल्पो के जाल मे फैसा होता है। यदि जो पर के वश में न हो उसके ही आवश्यक होते है--'न वह समय निकाल कर इन क्रियाओ को करले तो वह वश्यः पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषत्कषायरागद्वेषादिआत्मा के प्रति आगे बढ़ता है। पर, आचार्य कुन्दकुन्द भिरनात्मीयकृतस्तस्यावशस्य यत्कर्मानुष्ठान तदावश्यकद्वारा किया गया आवश्यक शन्द का एक और अर्थ है जो मिति बोद्धव्य ज्ञातव्यम् .'-मूला. ७/१४. बडे गहरे मे है और मुनियो के लिए कहा गया मालूम इसी नियमसार को गाथा १४६ मे आचार्य कुन्दकुन्द होता है। उसमे श्रावकों की भाति समय निकाल कर ने इसे और भी खोला हैकरने की बात नही है। वहा तो 'स्व' के सिवाय अन्य मे 'परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । कभी जाने की कल्पना न होने से (मुनि के अ-वश होने से) अप्पबसो सो होदि ह तस्म दु कम्म भणंति आवासं ॥१४६ प्रति समय ही आवश्यक है । कुन्दकुन्द कहते है
जो पर के भाव को छोड़ कर निर्मल स्वभाव स्व. 'ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयति बोधव्वं ।' आत्मा का लक्ष्य रखता है वह स्वय में स्व-वश होता है
-नियमसार १४२ उसके कर्म (कार्य) को प्रावश्यक कहा जाता है। 'यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न- उक्त स्थिति के होने पर ही 'एकाकी निस्पृहः शान्तः गतः, अतएव अवश इत्युक्तः, अयशस्य तस्य परमजिनयोगी- पाणिपात्रो दिगम्बरः' जैसी स्थिति बनती है। वास्तव मे श्वरस्य निश्चय धर्मध्यानात्मक परमावश्यककर्मावश्यं तो आहारादि क्रियाएँ भी मुनि की परवशता को इगित भवति ।
-पद्मप्रभमलधारिदेव करती हैं । पर, चूकि शरीर के रहते हुए इनका परित्याग योगी आत्म-ग्रहण के सिवाय अन्य पदार्थों के वश मे शक्त्यनुसार ही हो सकता है जिसके त्याग के लिए मुनि नही होता है अतएव उसे 'अवश' कहा गया है। और अभ्यास भी करता है और जब तक वह परिपक्व नहीं
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मावश्यक और दिगम्बर मुनि
हो जाता–मजबूरी मे आहार लेता है। ऐसा आहार तप लगा जाय-मुनि इनसे कभी अलग न हो। आदि में सहायक होने से मुनि की 'अवशता' की पुष्टि ही आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा हैकरता है, क्योंकि मनि की उस गद्धता नही होती। कहा 'आबासं जइ इच्छसि अप्पमहावेसु कुणदि थिरभावम् । भी है---'ले तप बढावन हेत, नहिं तन पोषते तज तेण दु सामण्णगुणं संपुण्ण होदि जीवस्स ॥ रसन को।'
आबासएण हीणो पन्भट्ठो होदि चरणदो समणो । जब हम समयसार को पढ़ते है तो उसमे भी पद-पद पुव्वत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ।। पर आत्मा के अपरिग्रही-पर-निर्लेप और स्वतत्र आस्था आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अतरंगप्पा । करने की प्रेरणा मिलती है । आचार्य कहते है
आवासय परिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ॥' 'अहमिक्को खलु सुद्धो, दसणणाण मइओ सदाऽरूवी ।
-नियमसार १४७-१४६. ण हि मज्झ अत्थि किं चिवि, अण्ण परमाणु मित्त पि ॥'
यदि तू आवश्यककर्म को चाहता है तो अपने आत्मउक्त गाथा की विस्तृत व्याख्याएँ मिलती है। और स्वभाव मे अपने भाव को स्थिर कर, इसी के करने से सामान्य अर्थ से भी यही फलित होता है कि-आत्मा धमणगुण की सम्पूर्णता होती है। आवश्यक कर्म से हीन अकेला स्व मे एक है, टकोत्कीर्ण शुद्ध स्वभावी है, दर्शन श्रमण चारित्र से भ्रष्ट होता है; भ्रष्ट न होवे इसलिए और ज्ञानमय परिपूर्ण है, त्रिकाल मे स्वभावतः अरूपी है उसे पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक कर्म करना चाहिए -- 'अऔर अन्य परमाणमात्र–पर द्रव्य आत्मा का स्व-स्वरूप वश होकर रहना चाहिए । जो श्रमण (सदा) आवश्यकनहीं है। इसका आशय ऐसा भी है कि आत्मा अन्य कर्म से युक्त होता है वह श्रमरण अन्तरात्मा होता है और पदगल आदि से रहित सदाकाल दिगम्बर है। एसा शुद्ध जो आवश्यककर्म से रहित होता है वह श्रमण (द्रव्यलिंगी) आत्मा ही आकाश में स्थित होने के कारण 'दिगम्बर' नाम बहिरात्मा (मिथ्याष्टि) होता है। श्री दौलतराम जी ने पाता है। इसके सिवाय शरीर से नग्न-वस्त्र-रहित भी कहा है-'बहिरातम तत्व मुधा है।' ऐसा सब होना तो पुदगल की (निग्रंन्थता) नग्नता है -मात्र अन्त आचार्य कुन्दकन्द का अन्तरंग है इस पर ध्यान देना रग को इंगित करने को । जहाँ मैं स्वभाव से नग्न हू ऐसा चाहिए। व्यवहार भी होगा वहां भी 'मैं' से आत्मा ही ग्राह्य होगा।
आज स्थिति बड़ी विचित्र है। परिपाटी ऐसी बन शरीर से पृथक् आत्मा है, यह बात जगप्रसिद्ध है और
रही है कि-व्यक्ति अपने करने योग्य कार्यों को दूसरों से इसे अन्य भी मानते है। गीता मे वस्त्राणि जीर्णानि' आदि
कराने का अभ्यासी-सा बन गया है। जो सामाजिक से भी इस कथन की पुष्टि होती है-भले ही वहा आत्मा
व्यवस्थाएं उसे स्वयं करनी चाहिए थी वे कार्यकर्ताओं का स्वरूप कुछ भी क्यो न माना गया हो। अस्तु !
और नेताओ ने श्रमणो के ऊपर छोड़ दी। और इसमें उक्त प्रसग मे जिसको अ-बश कहा वह मुनि का ही कारण है उनकी स्वय की आचार हीनता। स्वय आदर्श रूप ठहरता है और मुनि को अ-वश होना ही चाहिए जब रूप न होने से जब समाज उनकी नही मानता तब वे ऐसा होगा तभी कुन्दकन्द-अन्दि सफल मानी जायगी। सहायता के लिए किसी श्रमण की दुहाई देकर उससे उस अन्यथा, कुन्दकुन्द की जय और आवश्यको के पालन की कार्य की सम्पन्नता चाहते है-उस पर दौड़े जाते हैं और बात कोरा दिखावा ही होगा। थोड़ी देर को यह भी मान श्रमण ऐसा करने-कराने से अपने आवश्यक कर्म से हट लिया जाय कि उक्त स्थिति अति उच्च अवस्था की है तो जाता है-सांसारिक प्रपंचो मे फंस जाता है। श्रमण का भी जो कर्म अवश होने की ओर ले जाते है उनकी ही कार्य स्व-हित प्रमुख है। जबकि आज मामला उल्टा हो पूर्ति कहा तक की जा रही है ? आवश्यको के कई भेद चुका है। इसे नेताओं और समाज को गहराई से सोचन बतलाए गए है ताकि एक के अभाव मे दूसरे म लगा चाहिए-आज यदि साधु में शिथिलता है, तो उस सबकी जाय और उसमे भी थकान होने पर तीसरे चौथे आदि में जिम्मेदारी से श्रावक बच नही सकता-उसे गुरु-पद की
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१०, वर्ष ४२, कि. १
अनेकात
निर्दोषता के प्रति सावधान रहना चाहिए---गुरु को घेरने ऐसा सब कुछ कर सकते हैं, आदि । पर, इसमें हमें निराशा से बचना चाहिए। आज की प्रथा मे तो साधु मलिए ही मिली-ऐसे उलेख न पा सके। अच्छा है कि वह हमारा प्रचारादि का काम कर रहा है। मुनि-श्रद्धालु होने के नाते हमारे मन ने यह भी प्रेरणा यदि हमारे मिशन मे वह सफलता दिलाता है, तो उसकी दी कि-'यदि अब भी लोग द्वि-सहस्राब्दि मनाकर भी जय बुलती है फिर चाहे वह आचार मे शिथिल ही क्यो कुन्दकुन्द के आगम वचनों पर न चल सकें तो हम न हो जाय-यानी श्रावक का साधू की विरागता से क्यों न भक्ति में अपने हम-सफर, मुनि-श्रद्धालु भक्तों, लगाव नहीं; वह संसार की ओर स्वयं दौड रहा है और नेताओं और धनपतियों से ऐसी अपेक्षा करें कि वे अपनी साधु को भी दौडा रहा है।
शक्ति का उपयोग उक्त प्रकार की खोजों के कराने में आचार्य कन्दकन्द ने साधु के स्थानादि के जो निर्देश ।
करे। हम तो असमर्थ है पर समर्थ भक्त तो इस निमित्त दिए हैं, उनसे भी मुनि के अवश होने की पुष्टि होती बड़ी राशियो के पुरस्कारो की घोषणा कर अर्थ-खोजी है। कड़ा गया है कि-मूनाघर, वृक्ष का मूल, उद्यान,
विद्वानों का उत्साह बढ़ाकर ऐसा (वर्तमान-मुनि-आचार मसान भूमि, गिरि की गुफा, गिरि का शिखर, बन अथवा
रूप) सब विधान तक प्रसिद्ध और निर्मित करा ही सकते वसति का इन स्थानों विष, मुनि तिष्ठे है। मुनिन करि है। आज इस युग मे पैसे के बल से सब कुछ होना शक्य आसक्त क्षेत्र, तीर्थ स्थान वैध कहे है। मुनि को पचमहा. हे और कई क्षेत्रो में तो मनमानी तक हो रही हैं। फिर व्रतधारी, इन्द्रियों में संयत, सभी प्रकार की सांसारिक यह तो धर्म का कार्य है। यदि उक्त प्रथाएँ सही ठहर वांछाओं से रहित और स्वाध्याय व ध्यान में लीन रहना जाती है तो वर्तमान का पूरा मुनिरूप सुरक्षित रह जाता चाहिए । इसी प्रकार के अन्य भी अनेको निर्देश है । और है और लोगों की श्रद्धा भी उक्त रूप मे रह सकती हैइन्ही से मुनि रूप की सुरक्षा है-अपरिग्रहीपना है। और पिरोधियो के मुह भी महज बन्द हो सकते है या
वर्तमान चलन के अनुरूप कोई विधान भी निर्मित कराया जब भांति-भांति की अफवाओ, चर्चायो प्रश्नावलियो
जा सकता है। वरना, जमाना खराब है और हमें स्मरण और समाचारो से विचलित मन ने विचार दिए-'हमारी।
है कि कभी विरोध को लक्ष्य कर, उस समय के सर्वोच्च श्रद्धा मच्चे मुनि-मार्ग में हैं और सच्चे मुनि आज भी है और सरल त्यागी वर्णी श्री पं० गणेशप्रसाद जी महाराज तथा हम भी कुन्दकुन्द के आदेशो-आदर्शों के समर्थक है। तक को एक बार इटावा से श्री ला० राजकृष्ण जैन को हम चाहते रहे हैं कि आज के सभी मुनियों मे हमारी
भेजे एक पत्र में यहां तक लिख देना पड़ा कि-'जैनमित्र श्रद्धा बनी रहे-हम उनके वर्तमान आचारो पर भी अंक २० मे जो लेख निरजनलाल के नाम से छपा है, आप शकित न हों। तब प्रसिद्ध अपवादो के निराकरणार्थ हम लोगो पढ़ा होगा। अब तो यहा तक आचार्य महाराज कई वर्षों से शास्त्रो मे इन प्रसगों की खोज में रहे कि के ये शिष्य लिखते है-'पीछी कमण्डलु छीन लो प्रादि ।' कहीं कुन्दकुन्द के चरित्र या आगमों मे ऐसे उल्लेख मिल पर, बहकाए मन की ऐसी अटपटी बातें हमारी बुद्धि जाय कि
को रास नहीं पाई। बुद्धि ने तो कुन्दकुन्द द्वारा प्ररूपित 'कोठियों, बगलो और गृहस्थो से सकुल ग्रहो मे ठह- 'आवश्यक' के लक्षण को ही आवश्यक और स्वीकार्य रना, चन्दा-चिट्ठा करना-कराना, भवन आदि बनवाना, समझा । अर्थात जो 'पर' किसी के वश मे न हो वही प्रसावधान होकर फोटू खिचवाना, नेताओ से घिरे रहना, वश, निर्मल और वन्दनीय दिगम्बर मुनि है और आवश्यक लम्बे काल जन-सकुल नगरो मे ठहरना, शीत-उष्णहर भी उसी के होते है। उपकरणो का प्रयोग करना, जत्र-मत्र, जादू-टोना, गण्डा- आवश्यक पालन में जो स्थिति मुनि की है, श्रावकों ताबीज आदि से जनता को सन्तुष्ट करना, कमंडलु का के षट-कर्मों के सम्बन्ध मे श्रावक की भी वैसी स्थिति पानी देना जैसे कार्य दिगम्बर मुनि को कल्प्य है अर्थात् वे
(शेष पृ० टा० ३ पर)
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जरा-सोचिए ! स्वर्गीयों की झांकी : एक स्वर्गीय को कलम से-- १. स्व. श्री अर्जुनलाल सेठी :
के कारण न हो मका उनके परिवार वालो को भी तीन 'सेठी जी जिन-दर्शन किये बगैर भोजन नही करत रोज के बाद सेठी जी की मृत्यु का सवाद मिला। थे। जेल मे जिन-दर्शन की सुविधा न होने के कारण, २. स्व. ब्र० सीतल प्रसाद जी : उन्होने भोजन का त्याग कर दिया और उस पर वे इतने 'न जाने ब्रह्मचारी जी किस धातु के बने हुए थे कि बृढ़ रहे कि सत्तर रोज तक निराहार रहे। अन्त मे
थकान और भूख प्यास का आभास तक उनके चेहरे पर सरकार को झुकना पड़ा और महात्मा भगवानदीन जी ने ।
दिखाई न देता था।' जेल में जिन-प्रतिबिंब विराजमान कराई, तब उनका
'उन्होने सनातन जैन समाज की स्थापना कर दी उपवास समाप्त हमा। भारत के राजनीतिक बन्दियों मे
थी। वे इसके परिणाम मे परिचित थे इसीलिये उन्होंने सेठी जी का यह प्रथम उदाहरण था, इसलिए भारतीय
उक्त सस्था की स्थापना से पूर्व सभी जैन-संस्थाओ से नेताओं ने भारत का जिन्दा मेस्वनी' कहकर उनका त्याग पत्र दे दिया था, जिनसे उनका तनिक भी संबध अभिनन्दन किया था।'
था। क्योकि वे स्वप्न मे भी उन सस्थाओ का अहित नही ___ 'जो सेठी जीवन भर गुरुडमवाद, पोपड़मवाद, सम्म
देख सकते थे, किन्तु जो अवतरित ही ब्रह्मचारी जी को दायवाद के विरुद्ध जीवनभर लड़ता रहा, मिटता रहा, मिटाने के लिए हुए थे, उन्हे केवल इतने से सन्तोष वही सेठी इन मजहवी दीवानो द्वारा इस तरह समाप्त न हुआ। वे ब्रह्मचारी जी के व्यक्तित्व को ही नही कर दिया जायगा। विधि के इस लेख को कौन मेट
अस्तित्व को भी मिटाने के लिए दृढ़ संकल्प थे। इस सकता था।'
भीष्मपितामह पर धर्म की आड़ मे प्रहार किए गए।' 'देश सेवा का व्रत लेने और जो भी अर्थ हाथ मे
___ 'इन्ही आधी तूफानो के दिनो (सन् २८ या २६) में आए, उसे देश सेवा मे ही न्योछावर कर देने के कारण
पानीपत मे श्री ऋषभ जयन्ती उत्सव था। ........."मैं सेठी जी स्वयं तो दारिद्रयव्रती थे ही, उनके परिवार को
सोच ही रहा था कि आज क्या खास सभा जम सकेगी भी यह सब सहना पड़ता था। परिवार के निमित्त मैंने
कि प० वृजवासीलाल बदहवास-से मेरे पास आए और कई रईसों से कुछ भिजवाने का प्रयत्न किया भी तो सब
एकान्त में ले जाकर बोल-गोयलीय अनर्थ हो गया, अब ब्यर्थ हुआ ।
क्या होगा ? मै घबराकर बोला-पडित जी, खैर तो है, 'राजनैतिक और आर्थिक दुश्चिन्ताओं के कारण सेठी।
___क्या हुआ? जी का मानसिक सन्तुलन आखिर खराब हो गया, और जब
वे पसीने को चाँद पर से पोछते हुए बोले- 'बाबा कही आश्रय न मिला तो ३० रुपए मासिक पर मुस्लिम
जी स्टेशन पर बैठे हुए हैं और यह कहकर ऐसे देखने लगे बच्चो को पढ़ाने पर मजबूर हो गये। अपने ही लोगो की
जैसे किसी भागी हुई स्त्री के मरने की खबर फैलाने के इस बेवफाई का उनके हृदय पर ऐसा आघात लगा कि
बाद, उसे पुन: देख लने पर होती । मुझे समझते देर उन्होंने घर आना-जाना भी तर्क कर दिया और २२ दिसम्बर
नही लगी कि ये बाबा जी कौन से है और क्यो आए है ? १९४१ को इस स्वार्थी संसार से प्रयाण कर गए।'
बात यह थी कि पानीपत में ब्रह्मचारी जी के भक्त काफी ___ जिस असाम्प्रदायिक तपस्वी की अर्थी पर कबीर थे उन्होंने आने के लिए उन्हे निमत्रण भी दिया था। की मैयत की तरह गाड़ने-फूकने के प्रश्न पर हिन्दु-मुस्लिम सभा का अध्यक्ष भी उन्ही को चुना गया तो एक दो संघर्ष होता। वह भी कुछ सम्प्रदायी मुसलमानो के षड्यत्र व्यक्तियो ने कुछ पक्षियों जैसी आवाज मे फब्ती कसी।
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१२, बर्ष ४२, कि..
अनेकान्त
........"उन दिनों में आर्य समाजी टाइप डंडा अपने साथ किया। ब० सीतलप्रसाद जी तो अध्यात्म क्षेत्र में भी रखता था, लपक कर उसे उठा लिया और आवेश भरे इतना दे गये जितना देना अन्य को सरल नहीं। उन्होंने स्वर में बोला-ब्रह्मचारी जी, आप पाख्यान देना कठिन-पागम भी सरल करके जनता को दिए जो प्राज प्रारम्भ कर दें, देखें कौन माई का ला.: आप तक बढ़ना भी उनकी गौरव-गाथा गा रहे हैं। श्री अर्जुनलाल सेठी है। ब्रह्मचारी जी मिहर से गए, बोले-भाई शान्त रहो, सा० की धार्मिक बढ़ता तो उनके ७० उपवासों से ही मेरा ब्याख्यान करा दो, फिर चाहे मेरा कोई प्राण ही स्पष्ट है कि-उन दिनों उनका श्रद्धान और प्राचरण निकाल दे।'
कैसा जैनधर्म परक था। खेद है कि इस पर भी अहिंसा, 'यह ऐसी आंधी का बवण्डर था कि इसमें पुलिस उपगूहन और स्थितिकरण का नारा देने वाले कुछ जैनियों की वछियो का सामना करने वाले जैन कांग्रेसी भी इन ने इनके साथ जैसा सलूक किया, वह उस समाज को तत्अहिंसको की सभा में बोलने का साहस न कर सके। कालीन मनोवृत्ति को धब्बा लगाने को काफी है। क्या, वैरिष्टर चम्पतराय जी और साहित्यरत्न ५० दरबारी तिरस्कार के सिवाय तब अन्य कोई उपाय नहीं था? लाल जी जैसे प्रखर और निर्भीक विद्वान साहस बटोर कहावत है कि 'कंकरी के चोर को कटार नहीं मारना कर गए भी पर व्यर्थ । उन्हे भी तिरस्कृत किया गया, चाहिए'-यदि कुछ समाज की दृष्टि से इनमें कोई दोष बेचारे मुंह लटकाये चले आए। सीतल प्रसाद को ब्रह्मचारी प्रतिभासित हुए हों, तब भी शास्त्र के इस वाक्य को तो न कहा जाय, उमे आहार न दिया जाय, धर्म स्थानों मे याद रखना ही चाहिए था कि-'जो एक दोष सुन लीजे। न घसने दिया जाय, उसे जैन संस्थाओ से निकाल दिया ताको प्रभु दण्डन दीजे।'--पार्श्वपुराण जाय, उसका व्याख्यान न होने दिया जाय, उसके लिखने
नारा तो हम देते हैं-'अहिंसा परमो धर्म:' और और बोलने के सब साधन समाप्त कर दिए जाय । यही
___ क्षमा वीरस्य भूषणम्' का। पर, कर्मठों के अपमान के उस समय के जैन धर्मोपयोगी नारे उस संघ ने तजबीज
समय तब ये नारे कहाँ चले गए थे जो अाज परिग्रह को किए थे।'
साथ लिए उभरते दिखाई दे रहे हैं ? अाज तो समाज में ब्रह्मचारी जी की मृत्यु पर पत्रों ने आँसू बहाए, शोक
खुले आम सभी पांचों ही पाप स्पष्ट घर किए जैसे दिखते सभाएं भी हुई । शीतल-होस्टल, शीतल वीर सेवा मन्दिर
हैं, फिर भी कोई किसी के कार्य तक का बहिष्कार नहीं और शीतल-ग्रन्थमाला की योजनाएं भी कुछ दिनो बड़ी
कर रहा-सभी क्षमा धारण किए है। गहरी नजर से सरगर्मी से चली, पर आखिर, सब सीतल-स्मारक शीतल
देखेंगे तो शायव प्रापको सार्वजनिक संस्थानों में, सभामों होकर रह गये।'
में, मंचों पर और यहां तक कि जैन नाम के गली-कूचों "बोह पल को पं आ ही गया बन के आंसू ।
तक में भी पाप करने वाले ऐसे लोग तनकर खड़े दिखाई जबां पर न हम ला सके जो फसाना ॥"-सहवाई
दे जाएंगे। शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र बाकी हो जहाँ इनकी -स्व० श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय
घस-पंठ न हो। ये हर जगह विद्यमान हैं-कहीं पैसे के (भा० ज्ञानपीठ प्रकाशन 'जैन जागरण के अग्रदूत' से) साथ, कहीं ज्ञान के मद को लिए, कहीं पत्र पत्रिका या
किसी सस्था या प्रान्दोलन के चालक होकर। तरह-तरह सम्पादकीय नोट-जैनधर्म में हिंसा, झूठ, चोरी के वेष धारिय
र के वेष धारियों में भी इनकी संख्या कम नहीं होगी। फिर प्रादि को पाप कहा है और इसके करने वाले को पापी। भी आश्चर्य है कि प्राज समाज ऐसों के बहिष्कार के उक्त दोनों हस्तियों के उक्त स्व-जीवन में ऐसा कछ नहीं प्रति मौन क्यों है ? समाज तब भी थी पोर प्राज भी लक्षित होता जो पाप हो । मालुम होता है इन्होंने जो भी समाज है । किया परहित-हेतु हो किया, भलाई को वृष्टि से हो षया लिखें, कहाँ तक लिखें? समाज की उक्त स्थिति
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और कर्मठों के प्रतीत अपमानों और नवीन गतिविधियों कटसत्य के लिए हमें क्षमा करेंगे। को पढ़ सुनकर कभी-कभी तो हमारा मन खीझ-सा उठता
हमारी तो दृढ़ धारणा है कि जैनधर्म त्यागरूप अपरिहै और सोचता है
ग्रही धर्म है। जब तक पैसे जैसे परिग्रह के बल पर धर्म 'करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराह । का स्थायित्व चाहते रहेंगे; भेटे, सम्मान प्रादि दे-लेकररे गंधी मति अंध तू, अतर दिखावत काह ॥' जयन्तियों, उत्सव, सेमीनार, यहाँ तक कि जय जयकार भी
पैसो के बल पर करते कराते रहेंगे तब तक -चाहे धर्मप्रसंग में हम यह भी कहना चाहेगे कि --जिन पर समाज का कोई ऋण नहीं है या जो ऋण से बेबाक हो
प्रचार के नाम पर कितनी ही यात्राएँ कर कितने ही चुके है उनकी बात दूसरी है -पेशेवर याचकों की जमात
भाषणों का, अखबारों, कैसिटों, रेडियो या टेलीविजनों से तो कछ कहना ही व्यर्थ है। हम तो अपनी जानते है--
_
का उ
का उपयोग क्यों न किया जाय; धर्म और धर्मात्मा कर्मठों हम पर समाज का ऋण है। हम इसी में बटे. पढे-लिखे का ह्रास ही होता रहेगा। और सदा इसी में काम करते रहे हैं और समाज ने अपने यदि धर्म और कर्मठों की इज्जत रखना है तो समस्त में रहकर जीने दिया तो समाधि भी इसी में चाहेगे। पाखण्डों को छोड---स्व-प्राचार पालन का मूर्त अान्दोलन सोचते हैं प्रायु का क्या भरोमा ? न जाने कब सांस छेड़ना होगा। जब नेता लोग, विद्वान, व्याख्याता, गृहस्थ निकल जाय। कही ऋणी होकर ही भव-भव मे भटकते और त्यागी कुन्दकन्द की वाणी रूप स्व-प्राचार में प्रवृत्त न फिरे। अत उऋण होने के प्रयास में सचाई बांट देते होंगे-तब धर्म स्वयं चमक कर सामने खड़ा दिखेगा और है। आशा है हमारी सद्भावना का ख्याल कर पाठक इस कन्दकन्द द्विसहस्राब्दि भी तभी सफल होगी।
(पृ० ३० का शेषाश) है। श्रावक समय निकाल कर अपनी शक्ति क अनुमार के पालन बिना हमारे मारे उपक्रम कही दो-नम्बर (यानी देव-पूजा आदि करे । पर, बहुन कम लोग ऐसे होगे जो इन नियम तोडने) के तो नहो ? जबकि जैन मात्र को दोधार्मिक कर्तव्यो को पूरा करते हो ! आज तो षट्कर्म नंबरी कामो से बचना चाहिए। जैन की वत्ति तो 'मन में क्या ? जब बहत से लोगों को माधारण नियमो-पानी होय सो वचन उचरिण, वचन होय मो तन सो करिए' छानकर पीने, रात्रि भोजन न करने, तीन मकारो का जैमी होती है न कि 'हाथी के दांत खाने के और, दिखाने त्याग करने आदि तक का ज्ञान नही। तब पट क्रियाओ के और जमी। अन इस अवसर पर हर जैनी का कर्तव्य के करने का प्रश्न ही कैसा ? जब श्रावको का ध्यान भी जैन के प्रारम्भिक नियमी है।
है कि वह अपने योग्य आवश्यकों का अवश्य पालन करे के पालन पर होगा, तभी द्विमहस्राब्दी मनाना गफल और आगे के जीवन में भी उनके निर्वाह करने की सही होगा। सोचना तो यह भी होगा कि कुन्दकुन्द के आदेशो प्रतिज्ञा करे । शुभमस्तु सर्व जगतः । -सम्पादक
कागज प्राप्ति : ---श्रीमती अंगूरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से ।
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० रु०
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३...
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
महित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्र। की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... अनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. प. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५... समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
५-५. श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन .. जैन साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो पोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मे । पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : सपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. भावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया
५-०० जन लक्षणावली (तीन भागों में) : स. ५० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०० जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पमचन्द्र शास्त्री, सात विषयो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०० मुल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
२.०० Jajna Bibliography Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
Per set 600-00 मम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मोचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक ----बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३
BOOK-POST
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वीर सेवा मन्दिर का प्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष २: कि०२
अप्रैल-जून १९८९
इस अंक मेंक्रम
विषय १. अध्यात्म-पद २. कुन्दकन्दाचार्य-डा. ज्योतिषसाद जैन ३. श्रुतदेवता की मूर्तियां खंडित होने से बचायें
___ --डा० गोकुल चंद जैन ४. आ० कुन्दकुन्द और उनकी साहित्य सृजन मे दृष्टि
-डा. कमलेश कुमार जैन ५. अमृत-कण-श्री शील चन्द्र जौहरी ६. आ० कुन्दकुन्द का अप्रकाशित साहित्य
-डॉ. कस्तूरचन्द काशलीवाल ७. बूद बूद रीते जैसे अजुलि को जल है
-श्री शान्तीलाल जैन कागजी ६. महाकवि बनारसीदास की रस-विषयक अवधारणा
-डॉ० प्रादित्य प्रचिण्डया 'दीति' ६. परमात्म प्रकाश एव गीता में आत्मतत्व
-डॉ. कपूर चन्द जैन, सस्कृत विभागाध्यक्ष १०. दिगम्बर मुनियो की जीवन चर्या । -कुमारी विभा जैन, एम. ए. शोध छात्रा ११. षखंडागम और गोम्मटसार
-श्री एम. एल. जैन, नई दिल्ली १२. सल्लेखना और समाधि मरण
-डॉ. दरबारी लाल कोठिया १३. समाज और जैन विद्वान्-श्री पवन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली ३१
प्रकाशक:
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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वीर सेवा मन्दिर के यशस्वी विद्वान् पं० श्री बालचन्द्र
शास्त्री वि. सं. १९६२-२०४६ __ श्री पं० बालचन्द्रजी शास्त्री जैन समाज के गिने-चुने जैन विद्या-मनीषियों में अग्रगण्य रहे। उन्होंने वाराणसी में अध्ययन कर जैन विद्याओं के अध्यापन, अध्ययन और अनुसंधान को अपना कार्यक्षेत्र चुना। इसमें वे जीवन भर लगे रहे और अपना अमूल्य योगदान कर जैनविद्याओं के इतिहास में अपना नाम अमर कर गए। उनके द्वारा लिखित, सम्पादित एवं अनुवादित लगभग दो दर्जन ग्रथ इसके प्रमाण है । इनमें 'जैन लक्षणावली' नामक अकेला एक ग्रंथ ही उनकी कोतिपताका को फहराता रहेगा। उन्होंने वीर सेवा मन्दिर में अत्यन्त निष्ठापूर्वक कार्य किया और इसके कार्यक्षेत्रको समृद्ध किया। उन्होने समाज मे पंडित की पंगुस्थिति का मानसिक अनभव भी किया। यही कारण है कि उन्होंने अपनी किसी भी पौध को इस क्षेत्र में नही आने दिया। उनका उदाहरण समाज में 'पंडित परम्परा' को संवद्धित करने की दिशा मे सोचने के लिए एक प्रेरक प्रसंग है।
पंडित जी के असामयिक निधन को वीर सेवा मंदिर की कार्यकारिणी ने समाज की अपुरणीयक्षति माना और अपनी बैठक में पडितजी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए दिवंगत आत्मा की सद्गति एवं शान्ति के लिए प्रार्थना और उनके कुटुम्बियों के प्रति संवेदना व्यक्त की।
सुभाष जैन महासचिव
वीर सेवा मन्दिर
विधान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते।
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प्रोम् अहम्
AMUHURU
पाBaunmum
AV
RRAN
Budd
17MIR
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५१५, वि० सं० २०४६
वर्ष ४२ किरण २
अप्रैल-जन १९८ह
।
अध्यात्म-पद चित चितके चिदेश कब, अशेष पर बम । दुखदा अपार विधि-दुचार-की चमूं दम ॥ चित० ॥ तजि पुण्य-पाप थाप आप, आप में रम । कब राग-आग शर्म-बाग दाघनी शमं ॥ चित० ॥ दग-ज्ञान-भान तै मिथ्या अज्ञानतम दमं । कब सर्ब जीव प्राणिभूत, सत्त्व सौं छम ॥ चित० ॥ जल-मल्ललिप्त-कल सुकल, सुबल्ल परिनमूं । दलके विसल्लमल्ल कब, अटल्लपद पमं ॥ चित०॥ कब ध्याय अज-अमर को फिर न भव विपिन भम। जिन दूर कौल 'दौल' को यह हेतु हौं नमूं ॥ चित० ॥
कविवर दौलतराम कृत भावार्थ-हे जिन वह कौन-सा क्षण होगा जब मैं सम्पूर्ण विभावों का वमन करूंगा और दुखदायी अष्टकर्मो को सेना का दमन करूँगा। पुन्य-पाप को छोड़कर आत्म में लीन होऊँगा और कब सुखरूपी बाग को जलाने वाली राग-रूपी अग्नि का शमन करूँगा । सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूपी मूर्य से मिथ्यात्व और अज्ञानरूपी अंधेरे का दमन करूँगा और समस्त.जीवों से क्षमा-भाव धारण करूंगा। मलीनता से युक्त जड़ शरीर को शुक्ल ध्यान के वल से कब छोडूगा और कब मिथ्या माया-निदान शल्यों को छोड़ मोक्ष पद पाऊँगा। मैं मोक्ष को पाकर कब भव-वन में नही घमंगा ? हे जिन, मेरी यह प्रतिज्ञा पूरी हो इसलिए मैं नमन करता हूँ।
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कुन्दकुन्दाचार्य 1) इतिहास मनीषी, विद्यावारिधि स्व० डा. ज्योतिप्रसाद जैन
कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन परम्परा के सर्वमहान, सर्वा- जिनवाणी की सर्वापेक्षिक श्रेष्ठता को प्रमाणित करने धिक प्रतिष्ठन एव प्रख्यात आचार्य है। महान सरस्वती सम्पूर्ण भरतक्षेत्र मे उसे प्रतिष्ठापित करने एव लोकप्रिय
आन्दोलन के नेताओ में प्रमुख और सम्भवतया आद्य जैन बनाने का प्रधान श्रे। इन्हे ही दिया जाता है, जैसा कि ग्रन्थ प्रणेता है। वे सम्प्रदाय भेद के विरोधी और अवि- निम्नलिखित श्लोक से विदित होता है - भक्त मूल सघ के परम समर्थक थे, साथ ही भद्रबाहु श्रुत- वन्द्यो विभु पिन कैरिह कौण्डकुन्दः केवली की दक्षिणापथ परम्परा को ही वे महावीर के
कुन्दप्रभा प्रणयि-कीतिविभूषिताशः । मूलसघ का सच वा एव एकमात्र प्रतिनिधि मानते थे और यश्चारु चारणकराम्बुज चञ्चरीकश्चके अपने समय में उसके प्रधान नेता थे। उनका महत्व उस
श्रुतस्य भरतेप्रयत. प्रनिष्ठाम् ।। सर्वपचलित मगल श्लोक से ही स्पष्ट है जो समस्त धार्मिक
(श्रवणबेलगोल शिलालेख सख्या ५४) एव मागलिक कार्यों की निर्विघ्न समाप्त के लिए उका
उनके उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्कार उनके ऋणी रहे है कायों के प्रारम्भ में पढ़ा जाता है--
और उनके कुछ ग्रन्थ तो परवती टीकाकारो को उपयुक्त मगल भगवान वीरो, मगल गोल मोगणी। उद्धरण प्रदान करने के लिए साक्षात कामधेनु सिद्ध हुए मगल कुन्दकुन्दाय) , जैनधर्मोस्तु मंगलम् ।।
है। उनकी अधिका। विनयाँ मतवाद एव सम्प्रदायवाद इस प्रकार स्वय भगवान महावीर और उनके प्रधान से अछूती है, विशेषकर उनके समयसार' की तो दिगम्बर, गणघर गोनम स्वामी ने माथ कन्दकन्द का नाम स्मरण श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि विभिन्न सम्प्रदायो वाल किया जाना है।
जनी ही नही बलि बहुत स अजैन भी भक्तिपूर्वक स्वाएनिमाफिया कर्णाटिका के द्वितीय खण्ड में एक श्लोक। ध्याय करते है। भौर्योत्तर एव पूर्व गु-तकालीन प्राचीन मिलता है
भारत के ये सर्वमहान आत्मवादी आध्यात्मिक सन्त थे । श्रीमती वर्धमानस्य वर्धमानस्य शासने । प्रायः समस्त उत्तरकालीन अध्यात्मवादियो, निर्गुणोपासको
श्री कोण्ड कुन्दनामाभू मूसिधाग्रणीःणी ।। अथवा रहस्यवादी भारतीय मन्तो के लिए कुन्दकु-द की जिगका तात्पर्य है कि श्रीमद् वर्धमान महावीर के उक्तियां ओपनिपादक साहित्य के समकक्ष ही प्रमुख वृद्धिगत धर्मशासन मे मूलसघ के अग्रणी (नेता) यी कोण्ड- आधार स्रोत रहता हो। कन्द नाम के गणी (मुनि) थे । भगवान महावीर के धर्म- आचार्य कुन्दकुन्द के जीवन से सम्बन्धित कई परम्परा शासन का वर्धमान करने वाले मूलमघ के अग्रणी इन कथाएं प्रचलित है, किन्तु व सब उनके समय से शतामुनिनायक कोण्डकुन्द का अन्बय (कुन्दकुन्दान्वय) अनेक ब्दियों पीछे गढ़ी गई प्रतीत होती है। इन पौराणिक शाखाओ प्रशाखाओ मे तार पाता हुआ देशव्यापी आख्यानो जैसी कुन्दकुन्द जीवन गाथाओ मे कितना तथ्याश हुआ। अधिकाश उत्तरकालीन दिगम्बर साधु अपने आप है यह कहना कठिन है। इन योगिराज मे अनेक चमत्कारी को कुन्दकुन्दान्वयी मान गौरवान्वित होते रहे है। दिगम्बर शक्तियों होन की भी अनुश्रुतियाँ प्रचलित है। कहा जाता आम्नाय के नन्दि आदि तीन बड़े-बड़े सघ अपनी-अपनी है कि उन्हे चारणऋद्धि प्राप्त थी जिसके द्वारा वे आकाश परम्परा को मूलत: इसी अन्वय से सम्बन्धित करते है। मार्ग से गमन कर सकते थे, उन्होंने विदेह क्षेत्र में सीमधर
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कुम्बकम्दाचार्य
स्वामी तीर्थकर के समवसरण में जाकर उनके दर्शन किये कुन्दकुन्द का ही अपरनाम प्रसिद्ध हो गया प्रतीत होता है। थे और साक्षात् केवली भगवान के मुख से धर्म श्रवण गृध्रपिच्छ कुन्दकु-द के शिष्य उमास्वामी के उपनाम के किया था, इत्यादि । किन्तु इन सब अनुतियो को ऐति- रूप मे भी प्रसिद्ध है। सम्भवतया दोनो ही प्राचार्यों ने हासिक घटनाएं सिद्ध करने का कोई साधन नही है। मयरपिच्छ के स्थान पर गधपिच्छ का उपयोग अल्पाधिक
कर्णाटक देश के शिलालेखो मे इन आचार्य का नाम काल के लिए किया हो इससे यह उन दोनो के लिए ही बहुधा 'कोण्डकुन्द' रूप में पाया जाता है। इसी का भ्रुति- विशेषणरूप से प्रयुक्त होने लगा हो। वक्रग्रीव नाम के मधुर संस्कृत रूप 'कुन्दकुन्द' है। देवसेन (विक्रम ६६० एक आचार्य (लगभग ५७५ ई.) द्रविड़सध के संगठनकर्ता अर्थात् सन् ६३३ ई०), इन्द्रनन्दि (लगभग १००० विक्रम वज्रनन्दि (५८२-६०४ ई.) के महयोगी थे। अत. अर्थात १०वी शताब्दी ई वी) और जयसेन (लगभग वि० निश्चय से नही कहा जा सकता कि किमी भूल के कारण १२००) ने इनका उलनेख 'पद्मनन्दि' नाम से किया है। अथवा कुन्दकुन्द का एक विशेषण होने के कारण यह नाम कुछ पूर्वमध्य एवं मध्यकालीन शिलालेखों एवं ग्रन्थकारो भी उनके लिए प्रयुक्त किया गया। एलाचार्य म तमिल ने वक्रग्रीव, गृध्रपिच्छ और एलाचार्य भी कुन्दकन्द के ही भाषा के प्राचीन सगम साहित्य मे पगिद्ध कुरल काव्य के अपरनाम रहे बनाये है। बट्ट केरि या बट्टके राचार्य भी मूलका का माना जाता है। कुछ विद्वानो की धारणा है उनका एक नामान्तर बताया जाता है। गिरनाट साहब कि उस अपूर्व काव्य के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द ही है। के अनुमार महामति भी उन्ही का एक नाम था। किन्तु सम्भवतया तमिल देश में धर्मप्रचार करते हुए उन्हे एलाससार देहभोगो से विरक्त ये तशेधन योगीपवर निर्ग्रन्था- चार्य नाम प्राप्त हुआ हो और इसीनिर बाद में इसका चार्य अपने सम्बन्ध में स्वय प्रायः कोई सूचना नही देत। प्रयोग उनके लिए शिलालेखादि में हुआ। मूलाचार के केवल उनकी 'बारस अणुवेक्वा' नामक एक रचना के कर्ता बट्टके राचार्य नाम से प्रसिद्ध है और अब इसमें कोई अन्त में उनका 'कुन्दकन्द' नाम उपलब्ध होता है और मन्देह नहीं रहा है कि वह ग्रन्थ कु-दकुन्द की ही कृति है।' 'बोधपाहुई' नामक एक रचना मे किय गय इस उल्लेख .. अत: यह (बट्टकेराचार्य,= वर्तकाचार्य अवर्तकाचार्म) उन्ही
सद्दवियारो हूओ भासा सुत्तेमु ज जिणे कहिय। का एक उपनाम रहा होगा। सो तहकहियं णाय सीमण य भद्दबाहस्स ॥
जहाँ तक उनके गुरुओं का प्रश्न है, पट्टावली के जिनसे प्रकट होता है कि उनके गुरु भद्रबाहु थे। उनके
चन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि कुन्दकीर्ति होने से जिनचन्द्र का, एक टीकाकार जयसेन ने तथा प्रभाचन्द्र (लगभग ११५० ।
जो कुन्दकुन्द के लगभग ५० वर्ष बाद हये है, उनके गुरु विक्रम अर्धात् सन् १०६३ ई०) ने कुन्दकुन्द के गुरु का ।
होने का प्रश्न ही नही है । कुन्दकन्द के मुख्य एवं दीक्षागुरु नाम कमारनन्दि बताया है। नन्दिसघ की एक पट्टावली भद्रबाह द्वितीय (विक्रम २०-४३ अर्थात ईसापूर्व ३७मे अर्हबलि के प्रशिष्य और गाघनन्दि के शिष्य जिनचन्द्र १४) ही रहे प्रतीत होते है। कमारनन्दि, जो कार्तिकेयाको कुन्दकुन्द का गुरु बताया है। शिलालेखों मे कुन्दकुन्द न्प्रेक्षा क क कुमार या स्वामी कुमार से तथा मथुरा का प्रायः भद्रबाहु के उपरान्त और उमास्वामी, समन्तभद्र, के वर्ष ६७ या ८७ (पूर्व शक सवत्) अर्थात् विक्रम ५८ सिंहनन्दि आदि के पूर्व उल्लेख किया गया है।
या ७९-सन् १ या २१ ईस्वी के शिलालेख में उल्लिखित जहाँ तक कुन्दकुन्द के विभिन्न नामो का सम्बन्ध है, कुमारनन्दी से अभिन्न प्रतीत होते है। सम्भव है उन्हे महामति तो विशेषण मात्र है-शिलालेखो से यह बात वयोवृद्ध होने के नाते कुन्दकुन्द गुरु तुल्य मानते हो--- स्पष्ट है । उसे भूल से ही उनका अपर नाम समझ लिया सम्भव है जब कुन्दकुन्द मथुरा (उत्तरी भारत) मे पधारे गया है। पपनन्दि उनके प्रशिष्य कुन्दकीति का अपर नाम हो उस समय ये कुमारनन्दि मथुग के तत्कालीन गुरुआ रहा प्रतीत होता है, कालान्तर में दोनो गुरुओ का भेद मे वृद्धप्रमुख हो और कुन्दकुन्द ने उनका गुरु तुल्य सम्मान भल जाने से और कुन्दकीति के विस्मृत हो जाने से यह किया हो। इसी आधार पर कालान्तर में उनका कुन्द
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४, वर्ष ४२, कि०२
अनेकान्त
कुन्द के गुरु रूप मे उल्लेख होने लगा हो।
कषायपाहुड के उद्धारकर्ता आचार्य मुणधर (लगभग ५०इसमें तो कोई सन्देह नहीं है कि आचार्य कुन्दकुन्द से ७५ विक्रम अर्थात् ई० पू०७-१८ ई.); षट्खण्डागम मूलतः दक्षिणापथ के निवासी थे-अधिक सम्भावना यही के उद्धारकर्ता आचार्य धरसेन (लगभग विक्रम ६७है कि वे द्रविड कन्नड प्रदेशो के मध्यवर्ती सीमा प्रदेश के १३२ अर्थात् सन् ४०--७५ ई०), भगवती आराधना के निवासी हो। कोण्डकुन्द नाम स्वय द्रविड़ झलक लिये कर्ता शिवार्य (लगभग ५७-१०७ विक्रम अर्थात सन् प्रतीत होता है पोर कन्नड प्रदेश का कोई स्थान नाम ०-५० ई०), पउमचरिउ के रचयिता विमलार्य (विक्रम जैसा लगता है। तुम्बलराचार्यआदि अन्य कई दक्षिणी ६० अर्थात् सन् ३ ई०), तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामी गुरुओं के नाम भी उनके जन्म ग्राम के नाम पर प्रसिद्ध (लगभग १००-१५० विक्रम अर्थात् सन् ४३-६३ ई.) हुए। वर्तमान गुन्टकल रेलवे स्टेशन से ४-५ मील दूर
आदि के प्रायः समसामयिक थे। जैन परम्परा में लिखित कोण्डकुन्द नाम का एक ग्राम आज भी विद्यमान है और
ग्रन्थ प्रणयन करने वाले प्रारम्भिक आचार्यों में प्रमुख थे । परम्पग विश्वास उमे कुन्दकुन्द के जीवन से सम्बन्धित
विक्रम १२३ (सन् ६६ ई०) में अर्हद्बलि द्वारा मूलसंघ
का नन्दि, सेन, देव, सिंह यादि सघों मे विभाजन करने करना है। इस ग्राम के निकटवर्ती पहाडी की गुफाओ मे
के तथा विक्रम १३६ (सन् ७६ ई०) मे दिगम्बर-श्वेताम्बर उन्होंने तपश्चरण किया था ऐसा विश्वास किया जाता
सम्प्रदाय भेद होने के पूर्व ही ये हुए प्रतीत होते हैं । है। इसी प्रकार नन्दी पर्वत नाम की एक अन्य पहाड़ी को
परम्परा लिखित एवं पौराणिक अनुश्रुतिया, साहित्यगत भी कुन्दकुन्द का तपस्या स्थान बताया जाता है । यह तो
एवं शिलालेखीय उल्लेख और क्रम, अन्य प्रसिद्ध जैनाप्राय: स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द सुदूर दक्षिण में उत्पन्न हुए
चार्यो एव ग्रन्थकारो से उनका पूर्वापर आदि सभी दृष्टियों थे, कर्णाटक देश को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया था,
से उनवा उपरोक्त समय ठीक प्रतीत होता है। अपनी पाण्ड्य-पल्लव आदि द्रविड देशो में भी उन्होने पर्याप्त
भाषा, शैली, विषय आदि की दृष्टि से भी वे आद्यकालीन प्रचार किया था और क्या आश्चर्य तमिल सगम (नमिल
ग्रन्थकार सूवित होते है। अन्य विद्वान भी उन्हें विक्रम जैन सध जो बाद में तमिल साहित्यिक सगम मात्र रह
की पहली-दूसरी शती का विद्वान अनुमान करते है। गया) की स्थापना एवं प्रगति में उन्होंने योग दिया हो।
कुन्दकुन्द अपने किसी ग्रन्थ में किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ या ऐसे महान युग प्रवर्तक आचार्य ने भारतवर्ष के अन्य भागो
ग्रन्थकार का उल्लेख नही करते-केवल गुरु परम्परा से मे भी विहार किया होगा और सुदूर होने पर भी उत्तरा
प्राप्त जिनागम या द्वादशांग श्रुत के ज्ञान को ही अपना पथ के तत्कालीन सर्वमहान जैन सास्कृतिक केन्द्र और
आधार सूचित करते है। उनके ग्रन्थो में अनेक गाथाएं सरस्वती आन्दोलन के स्रोत मथुरा नगर की भी यात्रा
ऐसी है जो श्वेताम्बर आगमो में भी पाई जाती हैंकी होगी।
इससे भी यह प्रमाणित होता है कि उन सबका कोई नन्दिसघ को पट्टावलियो से कुन्दकुन्द का समय वि०
अभिन्न प्राचीन मूल स्रोत था, दोनो ही परम्परा के '६-१०१ (ई०पू०५४४ ६०) प्रकट हाता विद्वानों ने उनके सरक्षण का प्रयत्न किया। है जो प्राय: ठीक ही प्रतीत होता है। वे भद्रबाहु द्वितीय
है। व भद्रबाहु ति परमपरा सम्मत एवं बहुमान्य मतानुसार आचार्य (विक्रम २०-४३ अर्थात् ई०पू० ३७-१४) के साक्षात
कुन्दकुन्द विक्रम सवत् ४६ अर्थात् ईसापूर्व ८ में आचार्य शिष्य या कम से कम प्रशिष्य अवश्य थे। मथुरा के पद पर प्रतिष्ठित हए, ५२ वर्ष पर्यन्त उस पद का उपभोग कुमारनन्दि (विक्रम ५८-७८ अर्थात् सन् १-२१ ई०), करके सन् ४४ ई० मे, ८५ वर्ष की आयु मे वह स्वर्गस्थ भद्रबाहु द्वितीय के पट्टधर लोहाचार्य (विक्रम ४.--६५ हुए। यह भी अनुभुति है उन्होंने बाल्यावस्था में ही अर्थात ई०पू० १४-३८ ई०). उनके उत्तराधिकारी एवं मुनि दीक्षा ले ली थी। मुनि दीक्षा के लिए न्यूनतम अविभक्त मूलसघ के मन्तिम सघाचार्य अर्हद्बलिगुप्तिगुप्त निर्धारित वय ८ वर्ष है, ऐसी मान्यता है। एक मतानुसार (विक्रम ६५---१२३ अर्थात् सन् ३८ ई०-६६ ई.), उन्होने ८ वर्ष की आयु में दीक्षा ली थी, दूसरे मत से ११
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वर्ष की आयु में दीक्षा ली थी, एक अन्य मत से उनकी
टीका-व्याख्या प्रादि सहित प्रकापूर्ण आयु ९५ वर्ष थी। किन्तु चूकि उनके आचार्यकाल के
शित हो चुके है। ईसापूर्व ८ से सन् ४४ ई० पर्यन्त रहा होने में प्रायः कोई २. प्रवचनसार -इसके भी अनेक सस्करण प्रकाशित मतभेद नहीं है, यह वृद्धि उनके जन्मकाल या मुनिदीक्षा काल मे ही सम्भव है। इस प्रकार आचार्य का जन्म
३. पंचास्तिकायमार-अनेक मस्करण प्रकाशित । ईसापूर्व ५१ या ४१ मे, अथवा उन दोनों तिथियो के बीच ४. नियमसार -प्रकाशित । किसी समय हुआ। उनकी मुनि दीक्षा भी ईसापूर्व ४३, ५. रयणसार
-प्रकाशित। ४०, ३३ या ३० मे हुई।
६. अष्टपाहु -प्रकाशित । मोखिक परम्परा से प्राप्त श्रतागम के आधार पर ७. बारस अणुवेक्खा--प्रकाशित । कुन्दकुम्दाचार्य ने ८४ पाहड (प्राणन) ग्रन्थ रचे कहे जाते ८. दशभक्ति --प्रकाशित । जाते हैं। उनके ग्रन्थो के शीर्षक प्रकरणात्मक है---उनके ६. मूलावार प्रकाशित । द्वारा वे अपने विषय मे निष्णात, प्रत्यक्षदाटा गुरु की नाई कुछ अन्य पाहुड भी प्राप्त हुए है। इनक ग्रन्थो पर महज भाव से धर्मोपदेश करते चले जाते है--उम ज्ञान उत्तरवर्ती प्रौढ आचार्यों ने अनेक टीकाप लिखी है। को वे स्वयं तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त ज्ञान मानते हैं। अत: कुन्दकुन्द की कृतियो के प्रसिद्ध टीकाकार हैं-अमृतचन्द्रास्वय अपना नाम कर्ता के रूप में देने को कहीं भी उन्हें चार्य (१०वी शती) और प० रूपचन्द, प० बनारसीदास, आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। यत्र-तत्र प्रसगवश
पाण्डे हेमराज, ५० जयचन्द्र (१६वी से १६वी शती के ऐतिहासिक व्यक्तियो एव घटनाओ की ओर भी दृष्टान्तरूप
मध्य) । से संकेत कर देते है।
विक्रम संवत् १४५५ के एक शिलालेख में अगपूर्वकुन्दकुन्दाचार्य के सुप्रसिद्ध उपलब्ध ग्रन्थ निम्न प्रकार
धारी आचार्यों के अन्तिम समूह के पश्चात् हुए आचार्यों
का उल्लेख करते हुए कौण्डकुन्द यतीन्द्र को प्रशस्ति दी गई १.समयसार प्राभृत--अनेक सस्करण विभिन्न भाषाओ है । कुन्दकुन्दाचार्य का महत्त्व इन सबसे स्वयं प्रमाणित है। मे मूल, अनुवाद, प्राचीन एव नवीन
(श्री रमाकान्त जैन के सौजन्य से)
सन्दर्भ-सूची १. अपनी 'दि जैन सोर्सेज ऑफ दि हिस्ट्री आफ एन्श्येन्ट ५. तमिलनाडु मे जन मान्यता यही है कि 'तिरुकुरल' के
इण्डिया' में पृ० १२? और १२२ पर डाक्टर साहब रचयिता तिरुवल्लुवर नामक कोई गृहस्थ सन्त थे, ने जयसन का समय ल० ११५० ई० अकित किया है किन्तु उक्त ग्रन्थ मे जैनधर्म का विशेष प्रभाव लक्षित किन्तु ऐतिहासिक व्यक्तिकोश की पान्डुलिपि में, होने और आद्य तमिल माहित्य के पुरस्कर्ता प्रायः जिससे उपर्युक्त लेख उद्धृत है, एक स्थान पर वि० जैन आचार्य होने के कारण अनेक तमिल विद्वान १२०० को काटकर उन्होने १०६८ ई० लिखा है। भी उसे जैन कृति मानने पर विचार करने लगे है। इस सशोधन का आधार अज्ञात है।
स्व. प्रो० ए० चक्रवर्ती ने अपनी 'जैन लिटरेचर इन २. तत्त्वार्थशास्त्रकर्तार गृध्रपिच्छोपलक्षितम् ।
तमिल' मे इस कृति के कर्ता का नाम लाचार्य वन्दे गणीन्द्र संजातमुमास्वामी मुनीश्वरम् ॥
बताया है और उसे आचार्य कुन्दकु. का अपरनाम --तत्त्वार्थ प्रशस्ति, पंचम १; एपिग्राफिया
बताया है। कर्णाटका द्वितीय खड तथा श्रवणबेलगोल शिलालेख ६४, १२७ व २५८.
दिल्ली के दिगम्बर जैन पचायती मन्दिर के शास्त्र ३. जैन सोर्सेज आफ हिस्ट्री आफ एन्श्येन्ट इंडिया पृ. २७४. भण्डार मे 'मूलाचार' की एक हस्तलिखित प्रति पर ४. वही ।
लेखक रूप मे कुन्दकुन्द का नाम दिया है। .
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सामयिक-प्रेरणा :---- श्रुतदेवता की मूर्तियाँ खण्डित होने से बचायें
L] डा० गोकुलचन्द्र जैन, अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग यह सांस्कृतिक चेतना का आह्वान है। विशेषरूप से धरसेन की चिन्ता और श्रुत सरक्षण का दायित्वबोध दिगम्बर परम्परा के अनुयायियों के समक्ष यह चुनौती है। 'तीर्थकर, जुलाई १९८८) शीर्षक निबन्ध मे हमने ऐसे अपनी नादानी और गैजम्मेदारी के कारण हम द्वादशाग कई विषयो की चर्चा की थी। कई ऐसे मुद्दो की ओर श्रुतज्ञान की अमुल्य निधि को सुरक्षित नही रख पाये। सकेत किया था, जिससे हमारे वर्तमान प्राचार्यों, साधुबौद्धो न बार-बार सगीतियो का आयोजन किया। भग- सन्तो, श्रावको, श्रीमन्तो, पण्डित-प्रोफेसरो की आँखें खलनी वान बुद्ध के उपदेशो का मगायन किया। इन प्रयत्नों के चाहिए। कुछ प्रतिक्रियाये हुई भी। पर उतना पर्याप्त फलस्वरूप विपिटक मे बुद्धवचन सुरक्षित हो गये और नहीं है। तीर्थकर के मम्पादक चाहते है कि जो लेख वह आज संसार भर में उपलब्ध है। प्रबताम्बर परम्पग ने छापे, उमे अपन भेजा जाये मैंने इसका निर्वाह किया। भगवान महावीर क 3 देशों को मृक्षित करने के लिए उस लेख को प्रत्येक दिगम्बर जैन के हाथों मे पहचना कई बार वाचनाएं आयोजित की। श्रुत परम्परा स जिस चाहिए । तीथकर के सम्पादक से मैं अनुरोध करूँगा कि जितना स्मरण रह पाया था, उसे सबके समक्ष प्रस्तुत वे इसका कोई मार्ग खोजे और इन ‘यक्ष प्रश्नो' पर गहरी किया। इस बात की समीक्षा की गयी कि कितना याद बहस करायें। रह गया है, कितना विस्मृत हो गया है। पाठ भेद भी
लगभग इसी लेख के क्रम में 'आचार्य कुन्दकुन्द पर सामने आय । | ॥र भी अन्तत. सामूहिक प्रयान फनीभूत
विद्यावारिधि की उपाधि' लिखा गया। एक से अधिक हुए । वलभी म आगमा को पुस्तकारूढ करके सुरक्षित कर दिया गया । हजारो वर्षों से साधु-सन्त और श्रावक
पत्रो में छपा। यह मात्र समाचार नही था। कतिपय उस पुस्तकारूढ श्रुत ज्ञान की सुरक्षा म निरन्तर सावधान
कडवी सच्चाइयां भी थी। काफी प्रतिक्रियाये आयी। कुछ रहे । उसो का मुफल है कि. श्वताम्बर परम्परा में आगम
ने अपनी दाढी ३ तिनके को सहलाया और फिर सावऔर आगमिक साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है।
धानी से उमी मे खोस लिया। आचार्य कुन्दकुंद ने लिखा
है कि 'अपराधी शकित होकर डरता हुआ घूमता है पर दिगम्बर परम्परा - द्वादशाग का सुरक्षा के लिए
निरपराधी नि.शंक घूमता है।' (समयसार) अब स्थिति प्रयत्न करने का एक भो सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता।
उलट गयी है। जो गलती कर रहा है, वह जान बूझकर श्वेताम्बर परम्परा में जिन वाचाओ के उल्लेख है, उनके
वैसा कर रहा है। इसलिए निडर है। वह नेता है, विषय में भी कोई जानकारी नही है। कारण जो भी रह
आचार्य है, श्रीमन्त है, पण्डित-प्रोफेसर है । युवा ऊर्जा को हो, पर परिणाम हमारे सामने है । दिगम्बर परम्परा मे
वह बहका सकता है । सब तरह से सशक्त और सन्नद्ध है। द्वादशांग श्रुतज्ञान या एक भी मूल आगम उपलब्ध नही
इमलिए निडर है। आचार्य कुन्दकुन्द कह सकते है कि है। क्या हम अपने पुरखो के इस अनुतरदायित्व की
कही चूक हो जाये तो उसे छल न समझें-'जइ चुक्केज्ज समीक्षा करेगे?
छल ण घेतव्व ।' आज जो भी लिखा जा रहा है, कहा श्रुतज्ञान की गुरक्षा के दायित्वबोध का सर्वप्रथम जा रहा है। उसका लेखक, सम्पादक प्रवक्ता, प्रवचनकर्ता उदाहरण आचार्य धरसेन का मिलता है। उसी के प्रति- मानता है कि उसे सर्वज्ञभाषित माना जाये। उसके सामने फल षट्खडागम इस पीढ़ी को उपलब्ध हो सका । 'आचार्य प्रश्न चिह्न लगाने का सवाल ही नहीं खड़ा होता ।
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श्रुतदेवता की मूर्तियों में खण्डित होने से बचायें
इस समय ताजा सन्दर्भ आचार्य कुन्दकुन्द का है। नन्दि की सस्कृत टीका है । मैंने वसुनन्दि के एक नये ग्रन्थ इसलिए मुख्यरूप से उन्ही के प्राकृत ग्रन्थों की बात यहाँ तच्चवियारों' का सापादन किया था और उसकी कहनी है। प्रसंगतः कतिपय अन्य ग्रन्थो की बात कहना प्रस्तावना मे वसुनन्दि के समय आदि कई विषयों पर भी अपेक्षित है। गत कुछ वर्षों में भगवती आराधना, नये ढग से विचार किया था। पण्डित जी को प्रस्तावना मलाचार, गोम्मटसार के नये सस्करण प्रकाशित हुए है। सुनाकर उनसे चर्चा कर रहा था। प्रसगन. मूलाचार की इतने प्रामाणिक, साफ-सुथरे, स्वय में प्रायः पूर्ण, इसके टीका की बात आयी। मैने पण्डितजी से पूछा कि 'टीका पूर्व प्रकाशित नही हुए। इनमें जो कुछ और करण य है की प्राचीन पाण्डुलिपियों में प्राकृन गाथाओ की संस्कृत या अपेक्षित था, उसे सम्पादक, ग्रन्थमाला तथा सम्पादक छाया है या नही ?' पण्डितजी चौके । मैंने कहा कि तथा अन्य सम्बद्ध विद्वान जानते थे, जानते है। अगले माणिकचन्द ग्रन्थमाला के सस्करण में छपी है । पण्डितजी संस्करणो मे इस सस्कार की आशा भी की जा सकती है। ने सोनकर कहा--"मेरी समझ से पाण्डुलिपियों में छांया कुछ सम्बद्ध तथ्यो को यहाँ प्रस्तुत कर देना उपयुक्त होगा। नही है। फिर भी देखना पडेगा। वर्णी सस्थान में दो
भगवती आराधना पर विद्यावारिधि की उपाधि के पाण्डुलिपियां भी है। देखना और मझे भी बताना ।" लिए हमने एक अनुसन्धाता का पजीयन कराया था। देखने पर पता चला कि टीका मे छाया नहीं दी गई है। इससे भगवती आराधना को एक बार पुन: सूक्ष्मता से सच तो यह है कि प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों में अनेक से परखने का अवसर मिला। नये सारण को भी पूरी पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त है, जिनकी संस्कृत लाया नहीं हो सावधानी से देखा । मूल ग्रन्थ की प्राकृत गाएँ सस्कृत सकती, व्याख्या ही हो सकती है। टीका मे प्रतीको के रूप मे सुरक्षित है। इ. रण मे भगवती आराधना और मलाचार दिगम्बर परम्परा प्रकाशित गाथाएँ टीका के प्रतीको से मेल नहीं खाती। मे बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते है। दोनो ग्रन्थो की पतासम्पादक का इस ओर ध्यान गया होगा और इस सम्बन्ध धिक गाथाएँ श्वेताम्बर ग्रन्थो में भी पायी जाती है। मे प्रस्तावना में चर्चा की गयी होगी, यह मानकर हमने मूलाचार की गाथाएँ कुन्दकुन्द में भी पर्याप्त संख्या मे प्रस्तावना को देखा । उसमे कही इसका उल्लेख नहीं था। पायी जाती है। कहीं-कही इसे कुन्दकुन्द का ही माना सम्पादक स्वर्गीय प० कैलाशचन्द्र शास्त्री तब यही वाराणसी गया है। इन सब दृष्टियो से दोनो ग्रन्थो के पूर्ण प्रामाणिक में थे, उन तक बात पहुंचायी। अब उनका भी ध्यान इस मूल पाठ उपलब्ध रहना आवश्यक है। और गया। उन्होंने बहुत सहज भाव से कहा- 'बहुत-सी इधर के दशको मे आचार्य कुन्दकुन्द की बहुत चर्चा बातो की ओर ध्यान गया, पर इस ओर ध्यान ही नहीं हुई है। इसलिए उनके ग्रन्थो के भी अनेक सस्करण प्रकागया।' स्पष्ट है कि टीकाकार के समक्ष भगवती आरा- शित हुए है। माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला, सनातन जैन ग्रन्थधना की उससे निम्न पोथी रही, जिसका पाठ मूल मे माला, राजचन्द्र जैन ग्रन्थमाला ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को छपा है। कुल मिला कर हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुचे प्रकाश में लाने का प्राथमिक पायोनियर कार्य किया। कि मल ग्रन्थ का नया संस्करण और अधिक पाठालोचन मोनगढ. भारतीय ज्ञानपीठ आदि से भी कई ग्रन्थ प्रकाशित के साथ प्रकाशित होना चाहिए । अन्य बाते अलग है। हए है। इधर के वर्षों में अन्य अनेक स्थानों से
इसी प्रकार मूलाचार के विषय मे कई बाते सामने के ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। डॉ० ए० एन० उपाध्ये का आयी । लगभग दो दशक पूर्व पण्डिन फूल चन्द्र सिद्धान्त- प्रवचनसार तथा प्रो० ए० चक्रवर्ती का समयसार और शास्त्री ने इसके सम्पादन का कार्य आरम्भ किया था। पचास्तिकायसार उनकी विस्तृत एव अध्ययनपूर्ण प्रस्तावकतिपय प्राचीन पाण्डुलिपियों के पाठान्तर भी लिए थे। नाओ के कारण बहुचचित हुए। डॉक्टर उपाध्ये जीवन के फिर अस्वस्थता तथा अन्य व्यस्तताओ के कारण यह कार्य अन्त तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के पूर्ण पाठालोचन पूर्वक रह गया। मुझे इसकी जानकारी थी । मूलाचार पर वसु- तैयार किये गये संस्करणो की बात करते रहे।
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८, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त सौभाग्य से उत्तर तथा दक्षिण भारत मे कुन्दकुन्द के जाती है। अब तो प्राचीन प्राकृत सिद्धान्त ग्रंथों को ग्रन्थों की शताधिक प्रतियाँ उपलब्ध है। इसके बावजूद व्याकरण और छन्दों के अनुसार बदलने का सिलसिला अभी तक एक भी ऐसा मामूहिक उपक्रम नहीं हुआ, भी शरु हो गया है । ग्रन्थ छपते है औ• निःशुल्क वितरित जिसमें विभिन्न कालो, विभिन्न क्षेत्रो और विभिन्न हो जाते है। वे अन्य ऐसे विद्वानो के पास नहीं पहुंचते, परम्परागो की चुनी हुई विशिष्ट पाण्डलिगियो को एक जो ईमानदारी से इन्हे पढे और कुछ गलत लगे तो उसे साथ रखकर मल पाठ का पर्यालोचन किया गया हो। माहस पूर्वक कह सके । यदि यह सिलसिला जारी रहा तो ऐसी कोई योजना भी अभी तक किसी सस्था की गोर से मात्र कन्दकन्द के ही नहीं दिगम्बर परम्परा के सभी सामने नहीं आयी।
प्राचीन मिद्धान्त ग्रन्थ बदल जायेंगे । तब वे सभी भगवान् ___ इसके विपरीत इन वर्षों में कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के जो महावीर मे एक हजार वर्ष बाद के स्वत: सिद्ध हो जायेंगे। संस्करण प्रकाशित हुए है, उनसे अब यह पता लगना
प्राचीन ग्रन्थो के सम्पादन के लिए पाठालोचन के कठिन हो गया है कि प्राकृत गाथाओं का मूल पाठ किसे
सिद्धान्त अब ससार भर में प्रसिद्ध हो चुके है। उन पर माना जाये। मब संस्करणो को माथ खे तो अब अलंग
पुस्तके प्रकाशित है। पाठालोचन के सिद्धान्तो को आधार अलग नामकरण अपेक्षित होगे। अभी तक तो सोनगढ के
बनाकर रामायण और महाभारत जैसे विशालकाय ग्रंथों बहु-प्रचार के कारण लोगो ने सोनगढी ही नामकरण किया
का भी सम्पादन हो चुका है। कुन्दकुन्द के ग्रंथो का पाठाथा, पर अब देहलवी, जबलपुरी, बम्बइया, इन्दौरी, उदय
लोचन असम्भव कार्य नही है ! परिश्रमसाध्य अवश्य है । पुरी, जयपुरी आदि किमम-किसम के कुन्दकन्द' नयी
व्यय और ममयसाध्य भी है। जय बोलने और जश्न मनाने पीढ़ी को सौगात मे मिलने शुरु हो गये है। अभी तक तो
से यह सम्भव नही है। उन पडितो, प्रोफेसरों से भी इसकी प्रवचनो और व्याख्याओ के आधार पर कुन्दकुन्द के ग्रयो
अपेक्षा नही की जा सकती जो गंगा जाकर गंगावास और को मन्दिरी में रखने और बाहर फेकने के आन्दोलन हो
जमुना जाकर जमनादास - जाते है । डॉ. हीरालाल जैन रहे थे, अब श्रुतदेवता की इन खण्डि। मतियो का विसर्जन
डॉ० ए एन. उपाध्ये, प. हीरालाल शास्त्री, पं. कैलाशकहाँ करेगे? हा हुजूम 'झडा ऊंचा रहे हमारा' कहता
चन्द्र शास्त्री, जैसे विद्वान अब नहीं रहे, जो इस महत् हुआ, दूसरे सभी को धकियाता हुआ आगे बढ़ जाना चाहता है। इसे पता नही कि जिस शून्य मे यह भीड़ बढ़
कार्य को अपने अनुभवी हाथो सम्पन्न करते । अब तो नयी
पीढी के विद्वानो और युवा नेतृत्व को इसके लिए आगे रही है, उसके छोर पर गहरा महासागर है। प्राचीन
आना होगा । विद्वान् आचार्यों और सन्तो को इस कार्य के सिद्धान्त ग्रन्थो के साथ यह खिलवाड जारी रही तो जिसे
लिए मार्गदर्शन करना होगा। नये नये समयसार और हम जिनवाणी कहते है, श्रुतदेवता कहते है, उसकी एक भी
महापुराणों को रचने का महारंभ त्यागकर श्रुतदेवता की मति अखडित नही बचेगी। इस स ट की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए।
मूर्तियों को खंडित होने से बचाने का संकल्प लेना होगा। आचार्य कुन्दकुन्द के इन प्रकाशनो के साथ जब श्रद्धेय आचार्य कुन्दकुन्द के ऐसे प्रकाशित ग्रन्थों के अशुद्ध आचार्यो, प्रतिष्ठित पण्डिो , प्रोफेमरो के नाम जुड़ जाते
__ और एक दूसरे सस्करणो के परस्पर विरोधी मूल पाठों को है, तब यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि यह सब
यहाँ दोहराना हम उपयुक्त नही समझते । स्वय पढ़े और क्या हो रहा है, क्यो हो रहा है, कैसे हो रहा है। हम मिलान करे तो स्थिति स्वतः स्पष्ट हो जायेगी। विपरीत जैसे अध्ययन अनुसन्धान कार्यो मे लगे लोग, जो एक ओर दिशा में बह रहे इस प्रवाह को रोकना होगा। इन परम श्रद्धेय आचार्यों और विद्वानो से जुड़े हो, दूसरी
-सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ओर अध्ययन-अनुसन्धान की वैज्ञानिकता के प्रति भी प्रति- आवासीय पता : ४६ विजयनगर कालोनी, भेलपुर, बढ हों, उनके समक्ष बड़े असमजस की स्थिति उत्पन्न हो
वाराणसी.२२१०१०
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आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी साहित्य-सृजन में दृष्टि
डा. कमलेश कुमार जैन, जैनदर्शन-प्राध्यापक
आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य के सन्दर्भ में प्रायः यह और हमें अपने ज्ञान के उथलेपन का सहसा आभास होने आम धारणा बन चुकी है कि उन्होंने जो भी साहित्य- लगता है। सृजन किया है, वह मुनियों को ध्यान में रखकर किया है, आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन समाज में केवल एक अथवा आध्यात्मिक है। किन्तु मेरे विचार से यदि विद्वानों नाचार्य के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं हैं, अपितु वे भगवान् ने उनके साहित्य के सन्दर्भ में उक्त प्रकार की धारणा कुन्दकुन्द के रूप में प्रतिष्ठित हैं । जब हम किसी महापुरुष बना ली है तो वह ऐकान्तिक ही होगी। क्योंकि आचार्य के नाम के आगे भगवान् विशेषण लगाते हैं तो हमारी यह कुन्दकुन्द के साहित्य को समग्र दृष्टि से देख पाना हम अपेक्षा होती है कि वे सर्व कल्याण की बात करें। लोक लोगों के लिए सम्भव नहीं है । उनके साहित्य पर विचार मङ्गल की बात करें। उनके द्वारा सृजित साहित्य में जन करते समय हमें आचार्य कुन्दकुन्द जैसी विस्तृत विशाल कल्याण की मङ्गल भावना समाहित हो । इस कसौटी पर दृष्टि को अपनाना होगा। हमें उनके अन्तस् में झांककर यदि हम आचार्य कुन्दकुन्द को प्रस्तुत करें तो हमे ज्ञात विचार करना होगा, तभी हम उनके साहित्य का मूल्यांकन होता है कि उनके समग्र साहित्य में महात्मा बुद्ध की तरह कर सकेंगे। अन्यथा उन कुन्दकुन्द मणियों को ऊपर से बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की भावना नहीं है, स्पर्श करके उनके चाकचिक्य आदि पर भले ही विचार अपितु उनके साहित्य में भगवान् महावीर के उपदेशो से कर लें, किन्तु उनका समग्र मूल्यांकन करना सामान्य अनुपाणित सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की लोकलोगों की बुद्धि के बाहर का विषय है।
कल्याणकारी मङ्गल भावना का पदे-पदे उद्घोष है। जब हम आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य को आध्यात्मिक जब वे अहिमा का उपदेश देते हैं तो वे सीधे-सीधे दृष्टि से देखते है तो हमें उनके साहित्य मे पदे-पदे अध्यात्म ग्रह कभी नहीं कहते कि हिंसा नही करनी चाहिए, अपितु के दर्शन होते है । जब हम तत्त्वज्ञान की दृष्टि से देखते है वे इस उपदेश मे भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए सर्वतो तत्त्वज्ञान के दर्शन होते है और इसी प्रकार जब हम प्रथम यह बतलाते हैं कि हिंसा के कौन-कौन स्थान हैं ? मुनियों के आचार-विचार की दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो मनुष्य के किन किन कार्यों से हिंसा सम्भव है आदि । और उनके साहित्य मे मुनियों के आचार-विचार के दर्शन होते अन्त में उनमे विरत होने का उपदेश देते हैं। क्योकि जब है। किन्तु ये सभी पृथक्-पृथक पहल हो सकते हैं । उनका
तक हम सम्यकरीत्या यह नहीं जान लेगे कि जीवों के एक-एक पक्ष हो सकता है, पर यह उनके साहित्य का कुल-पेद, उत्पत्ति स्थान अथवा योनि-भेद, जीवस्थान के समग्र मूल्याकन नहीं है।
भेद और मार्गणास्थान के भेद आदि कौन-कौन हैं ? तब हम लोगो के पास अपने-अपने पात्र हैं और हम लोग तक उनकी हिंसा से विरत होना सम्भव नहीं है। इन उन पात्रों की क्षमता के अनुरूप अपने-अपने पात्रो में ज्ञान- सबके भेद-प्रभेदों का विवेचन आचार्य पद्मप्रममलधारिदेव राणि संजो लेते है। वास्तविकता यह है कि जब हम उनके ने नियमसार पर लिखी गई तात्पर्यवृत्ति नामक अपनी द्वारा सृजित साहित्य की किसी एक भी गाथा को लेकर टीका मे विस्तार से किया है। उस पर चिन्तन करते हैं, मनन करते है, उसकी परीक्षा अब यहाँ दो पक्ष विचारणीय हैं । प्रथम पक्ष वह है, करते हैं तो हमारी बुद्धि की स्वयमेव परीक्षा हो जाती है जिसमे जीवो के स्थान आदि को जानकर उनसे विरत
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१०, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त रहने का उपदेश दिया है। इस पक्ष में जो जीव परजीवों अन्य प्राकृत अथवा प्राकृतों में परिवर्तन करना तत्कालीन के घातरूप हिंसा से विरत होता है, अथवा विरत रूप अथवा तद्देशीय संस्कृति का लोप करना है। अतः उपर्युक्त परिणामो का कर्ता होता है, उससे वह मुक्ति को प्राप्त प्रकार के परिवर्तन जनहित में नहीं है। साथ ही इस परिकरता है । यह आचार्य कुन्दकुन्द का आध्यात्मिक पक्ष है। वर्तन से हमारी सांस्कृतिक परम्परा का भी ह्रास होगा,
दूसरा पक्ष यह है कि जब आचार्य कुन्दकुन्द जीवो के विशेषकर विगम्बर संस्कृति का, इसमें सन्देह नहीं। उत्पनि स्थान आदि की विवेचना करते हैं तो उससे तीन
आचार्य कुन्दकुन्द जिस समय पैदा हुए उस समय लोक के जीवो की रक्षा एक सामान्य प्राणि अपने आचार
संस्कृत भाषा विद्वज्जन मान्य थी। अतः अपने को विद्वानो विचार अन्यया परिणामो के माध्यम से कैसे कर सकता
की श्रेणी मे लाने के लिए संस्कृत-भाषा में ग्रन्थ-रचना है ? इसका ममावेश है। यह आचार्य कुन्दकुन्द का लोक
करना गौरव की बात थी। किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कल्याण की भावना का उत्तम पक्ष है। यद्यपि जनदर्शन मे
वर्गविशेष की भाषा की उपेक्षा की और तत्कालीन जनसाधु को स्वार्थी-आत्मार्थी बनने का उपदेश दिया गया है,
भाषा, जो प्राकृत थी, उसमें अपने साहित्य का सृजन क्योंकि स्वार्थी-आत्मार्थी ही परमार्थी है, किन्तु चूकि हम
किया। यह उनकी भाषा विषयक क्रान्ति थी। इस क्रान्ति स्वयं लोक मे रहते हैं, इसलिए लोक कल्याण की भावना
के मूल मे आचार्य कुन्दकुन्द की लोकमगल भावना ही ही हमारे जीवन मे प्रमुख है। अत: लोककल्याण को
प्रधान थी। वे जन-जन के आचार्य थे। उनके विचार भ वना को उत्तम पक्ष कहना युक्तियुक्त है।
सामान्यजनो की भाषा मे सामान्यजनों के लिए थी। इसके अतिरिक्त और अनेकानेक पक्षो मे से एक अन्य उनके साहित्य के माध्यम से सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति पक्ष भी गम्भव है और वह है आचार्य कुन्दकुन्द का मनो.
भी आत्म-तत्त्व का बोधकर स्व-पर कल्याण के लिए प्रयत्न वैज्ञानिक पक्ष । वे जीव की मनोदशाओ का विश्लेषण
कर सकता था। करने में गिद्धहस्त है । अद्वितीय है। यह बात उनके द्वारा
उपर्युक्त कथन के माध्यम से हम इस निष्कर्ष पर किये गये जीवो के भाव विवेचन से स्पष्ट हो जाती है।। पहचते है कि आचार्य कुन्दकन्द का साहित्य अध्यात्म से
जिस भाषा के कारण आचार्य कुन्दकुन्द की विशिष्ट ओतप्रोत तो है ही. साथ ही लोकमंगल की भावना से भी पहचान है। जिम भाषा के लिए डॉ० पिशल ने एक अनस्यन है। विशेष प्रकार की प्रकार की प्राकृत घोषित करते हुए जैन आचार्य कुन्दकुन्द को द्रव्यानुयोग का विशेषज्ञ माना शौरसेनी प्राकृत नाम दिया उसी प्राकृत को अब हम परि- जाता है, किन्तु वस्तुतः वे चारों अनुयोगों के विशिष्ट वतिन कर सामान्य प्राकृतो का रूप दे रहे है और आचार्य
ज्ञाता थे । द्रव्यानयोग के अन्तर्गत लिखे गये साहित्य का कुन्दकुन्द + इस द्विगहस्राब्दि समारोह के अवसर पर जहाँ अन्तरङ्ग परीक्षण-अनुशीलन करने से यह बात और भी उनके भक्त हम लोग उनके नाम और काम को प्रकाश में स्पष्ट हो जाती है। लाने का प्रयास कर रहे है, कुछ लोग उनकी विशिष्ट
आचार्य कुन्दकुन्द का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी था। वे प्राकृत का परिवर्तन करके उनकी पहचान खोने में लगे आचार की चर्चा करते हा अन्त मे निश्चयनय के माध्यम है । यह खेद का विषय है।
से आत्मतत्त्व पर पहुच जाते हैं। वे अपने लक्ष्य के प्रति सम्प्रति विद्वानो द्वारा मान्य छः प्राकृत भाषाएं हैं, इतने सजग है, रचे-पचे है कि जाने और अनजाने में भी जिनकी उत्पत्ति काल-भेद अथवा त्यान-भेद के कारण हुई वे लक्ष्य से चकते नहीं हैं। लक्ष्यभ्रष्ट नहीं होते हैं। ये है। प्रतः तत् तत् प्राकृत भाषाओ मे तत्कालीन अथवा सभी आचार्य कन्दकन्द के अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के सबल तत्स्थानीय संस्कृति का समावेश है। ऐसी स्थिति में उन- प्रमाण है। उन प्राकृतो का किसी एक प्राकृत अथवा काल-विशेष की आचार्य कुन्दकन्द के साहित्य को स्थूल रूप से दो प्राकृत मे समावेश करना अथवा जैन शोरसेनी प्राकृत का भागो में विभाजित किया जा सकता है-आध्यात्मिक
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प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनकी साहित्य-सृजन में वृष्टि
साहित्य और तत्त्वज्ञान विषयक साहित्य । समयसार आ. भगवान् महावीर की आचार्य परम्परा से प्राप्त थी, किन्तु कुन्दकुन्द की विशुद्ध आध्यात्मिक रचना है। इस ग्रंथ का जिन सरल शब्दों मे गाथाओं के माध्यम से उन्होने प्रस्तुत प्रणयन भारतवर्ष के उस अतीत काल में हुआ है, जब किया है, वह स्तुत्य है। आध्यात्मिक विद्या पर सर्व साधारण जनों का अधिकार एक आदर्श आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित होने के बावनही था, अपितु वह विद्या कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों जद आचार्य कुन्दकुन्द एक स्थान पर कहते है कि यदि मे सिमटकर रह गई थी तथा जिसे वे ब्रह्मविद्या के नाम उनके कथन मे कही पूर्वापर विरोध हो तो ममयज्ञ-आत्मज्ञ से अभिहित करते थे। उनकी दृष्टि मे यह गढ़विद्या थी। ठीक कर लें।' यह कथन उनके निरभिमानी होने का अत. वे इसके रहस्यो को कुछ तथा कथित ब्रह्मज्ञानियों तक सूचक है। किन्तु इस बात से भी वे प्राणियो को सावधान ही सीमित रखना चाहते थे। उस ब्रह्मविद्या को साधारण करने से नहीं चूकते है कि ईविश कुछ लोग सुन्दर कार्य जनों से सुरक्षित रखने के लिए संस्कृत भाषा का कवच के की निन्दा करते हैं। अतः उनके वचनो को सुनकर जिनरूप मे योग किया जाता था, जो सर्वजनगम्य नहीं थी। मार्ग में अभक्ति न करें, जिनमार्ग की अवहेलना न करें।'
वस्तुतः जीव मात्र को आत्म-विकास का जन्मसिद्ध- आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा निबद्ध गाथाएं जहां समनसर्गिक अधिकार है। और न्याय प्राप्त इस अधिकार का वाय रूप से ग्रन्थविशेष का प्रतिनिधित्व करती है, वही सार्थक प्रयोग तभी सम्भव है, जब हमे अपने पूर्वजो द्वारा एक-एक गाथा मुक्तको का रूप भी धारण करती है । उस किये गये सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और विशेषकर गाथा को आप कही भी किसी भी रूप में प्रस्तुत करे, वह आध्यात्मिक प्रयोगो का लाभ समाज के द्वारा विरासत में अपने में समाहित समग्र अर्थ को एक साथ कह देगी। प्राप्त हुआ हो, अन्यथा यदि हमे अपने पूर्वजों द्वारा विरा- उसके लिए किसी पूर्वापर प्रसग की आवश्यकता नहीं है। सत मे ज्ञान प्राप्त नही होता है तो हम विकास के प्रथम प्रवचनसार की एक गाथा देखिएसोपान से आगे नहीं बढ़ सकते हैं।
आगम चक्खू साहू इदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । वह एक ऐसा समय था जब इन आध्यात्मिक गूढ़ देवा य ओहि चक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ।।" रहस्यों को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने पर न केवल अर्थात् साधु के लिए आगम नेत्र है, समस्त ससारी उन ब्रह्मवादियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता था, अपितु जीवों के लिए इन्द्रियाँ ही नेत्र है, देवताओं के लिए अवधिराजदण्ड भी प्राप्त होता था, जो कभी-कभी मृत्युदण्ड के ज्ञान नेत्र है और सिद्ध भगवान् सब ओर से नेत्र वाले है। रूप मे भी परिवर्तित हो जाता था। ऐमी नाजुक परि- इसी प्रकार प्रवचनसार की एक अन्य गाथा देखिए . स्थितियो मे जनता की भाषा प्राकृत भाषा में जनता के जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। चहेते आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा जनता के लिए आध्यात्मिक तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥" विद्या का उपदेश सचमुच एक क्रान्तिकारी कदम था, जो अर्थात् जो कम अज्ञानी व्यक्ति के सौ हजार करोड़ आचार्य कुन्दकुन्द के अदम्य शौर्य, साहस, निर्भयता और पर्यायों में विनष्ट होते हैं, वे ही कर्म ज्ञानी व्यक्ति के मन, आत्मशक्ति को प्रकट करता है। उनका व्यक्तित्व हिमालय वचन, काय की क्रिया के विरोध रूप त्रिगुपित सयुक्त होने के शिखरों की तरह उत्तुंग, सागर की गहराइयों की तरह १२ उच्छ्वास मात्र मे विनष्ट हो जाते है । गम्भीर और आकाश की तरह विराट् था। वे असाधारण इस प्रकार की सैकड़ो गाथाएं उदाहरण के रूप में वैदुष्य के धनी थे। वे मुनियों में मुनिपुङ्गव और प्राचार्यो प्रस्तुत की जा सकती हैं। के आचार्य थे। इसीलिए उनके प्रति बहुमान व्यक्त करने आचार्य कुन्दकुन्द के ये चिन्तन मूत्र निश्चय ही हिन्दू के लिए हम उन्हे आज भी भगवान् कुन्दकुन्द के नाम से शास्त्रों में उल्लिखित 'ऋषयः कान्तदर्शिनः' की लोकोक्ति सम्बोधित करते हैं।
को सार्थक करते हैं और एक श्रेष्ठ ऋषि की अनुभूतियो यद्यपि आचार्ष कुन्दकुन्द को यह समग्र ज्ञान-राशि को उजागर करते हैं।
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१२, वर्ष ४२,कि०२
भनेकान्त
पूर्व परम्परा से चाहे कितनी ही विपुल ज्ञानराशि अर्थात् कुन्दकुन्द मौर उनके साहित्य के सन्दर्भ में हमें क्यो न प्राप्त हो, किन्तु जब तक उसमें स्व की-निज उपर्युक्त पक्षों को प्रस्तुत करते हुए अन्त मे इतना विशेष की अनुभूति-निजानुभूति का अनुपान नही होगा, तब तक कहना चाहूंगा कि आचार्य कुन्दकुन्द के सा.ित्य में दृश्य उसको साधिकार कहना मुश्किल है। चूंकि कुन्दकुन्द के भले ही अनेक हों, किन्तु दर्शमीय एक है और वह है साहित्य मे स्वानुभूति का योग है, अतएव सर्वोत्कृष्ट है। निजात्मा। यदि कुन्दकुन्द के साहित्य में निजानुभूति का योग न होता तो उनके साहित्य के स्वाध्याय, चिन्तन और मनन से
।। जय कुन्दकुन्दाचार्य ।। मुक्ति की प्राप्ति हो सकती थी, मोक्ष-मार्ग की युक्ति की नही और मुक्ति की तो कदापि नही।
---काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
१. द्रष्टव्य, नियमसार, गाथा ४२ को टीका। ३. नियमसार, गाथा १८६ ।
सन्दर्भ-सूची
२. नियमसार, गाथा १८५। ४. प्रवचनसार,३/३४।
५. प्रवचनसार, ३/३८ ।
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अमत-कण
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आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है और यह जीव शरीर को ही आत्मा मान रहा है कि मैं ही यह हूँ। इसी भूल के कारण अनन्तानन्त * काल से संसार में भ्रमण कर रहा है। आत्मा तो अजर, अमर, अखण्ड व अविनाशी
है-रूप, रस, गध कुछ नही है-अरूपी है। एक क्षेत्रावगाही होते हुए भी अलग-२ 2 है। परम निरंजन, ज्ञाता-दृष्टा एक रूप है और स्वतंत्रद्रव्य है। हर एक आत्मा की
सत्ता निराली है, भेदविज्ञान द्वारा सर्वरागादि से अपने को जदा विचारने से स्वानुभव प्रकट होता है।
आत्म-ज्ञान चिन्तामणि रतन के समान है, सब आकुलताओं का अंत करने वाली है। आत्मा गुणों का समूह है। शुभ और अशुभ कर्मों के उदय के आने पर सावधान रहना चाहिए। शुभ के आने पर हर्ष और अशुभ के आने पर विषाद नही करना चाहिए। हर्ष और विषाद करने से नये कर्मो का बंध होता है। अपने परिणामों की हर वक्त संभाल रखनी चाहिए, ताकि नये कर्म न बंधे-स्वानुभति के समय पांचों इन्द्रियों का उपयोग नहीं होता, मन भी शान्त होता है। मन भी ज्ञान, ज्ञाता व ज्ञेय के विकल्प से रहित होकर स्वयं ज्ञानमय हो जाता है। आत्मा ज्ञाता, दृष्टा और ज्ञान-गुण का भण्डार है, स्वानुभूति के लिए तीनों समय दो-दो घरी ध्यान लगाना जरूरी है। ध्यान की सिद्धी से आत्मस्वरूप में लीनता होती है और आत्मलीनता से मुक्ति होती है।
___-शीलचन्द जैन जौहरी
११, दरियागंज, नई दिल्ली-२ Xxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkxx
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आचार्य कुन्दकुन्द का अप्रकाशित साहित्य
3 डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
आचार्य कुन्दकुन्द का सबसे विरक्षण उपहार उनका भाव पाहुड, ११. मोक्ख पाहुड, १२. लिंग पाहुड, १३. साहित्य है । जो विगत दो हजार वर्षों से सर्वाधिक चचिन शील पाहुड, १४. रयणसार, १५. सिद्ध भक्ति, १६. श्रत साहित्य रहा है। उनके समयसार प्रवचनसार जैसे ग्रंथों भक्ति, १७. चारित्त भक्ति, १८. गोगि भक्ति, १६. के नाम उनके बाद होने वाले सभी आचार्यों, साधुओं, आचार्य भक्ति, २०. निर्वाण भक्ति, २१. परमेष्ठि भक्ति भट्टारकों, पंडितों, कवियों, टीकाकारो एवं स्वाध्याय २२. थोस्सामि थुदि तथा २३. मूलाचार। प्रेमियो को याद रहे हैं और यही कारण है उनका स्वा
उक्त २३ ग्रंथों के अतिरिक्त तिरूकुरल को भी कुछ ध्याय, पठन-पाठन, लेखन-लिखावन, टीकाकरण, भाषा
विद्वान आचार्य कुन्दकुन्द की रचना मानते है । करण समी कार्य अबाध गति से होते रहे और आज उनका ढेर सारा साहित्य पाण्डुलिपियो एवं छपे हुए ग्रंथो के रूप
इन ग्रंथों पर सस्कृत टीकाओ के अतिरिक्त विभिन्न मे उपलब्ध हो रहा है । उनके ग्रथों में भी समयसार सबसे
विद्वानों ने हिन्दी भाषा में भी विषद टीकाएँ लिखी हैं। उत्तम ग्रंथ माना जाता है। इसलिए समयसार का स्वा
संस्कृत टीकाओ में अमृतचन्द्र एवं जयसेन की टीकायें ध्याय प्रवचन एवं मनन चिन्तन प्रत्येक साधक के लिए
प्रकाशित हुई हैं और हिन्दी टीकाओ मे केवल पं० राजआवश्यक माना गया है यही कारण है कि स्वाध्याय प्रेमी
महत एव पं० जयचन्द छाबडा की प्रकाशित टीकायें हो अपने पापको समयसारी कहलाने में गौरव अनुभव करने ।
हमारे देखने में आई है। प० बनारसीदास का समयसार लगे। आचार्य अमतचन्द्र, आचार्य जयसेन जैसे धाकड़ नाटक यद्यपि गाथाओं का हिन्दी रूपान्तर नही है लेकिन (प्रभावशाली) आचार्यों ने उन पर टीकाएं लिखकर उनको उसका भी आधार ममयसार ही है। समयसार नाटक भी लोकप्रिय बनाने मे सर्वाधिक योग दिया । इन टीकाजी के कई संस्करणो में प्रकाशित हो चुका है लेकिन उक्त प्रका. कारण समयसार एवं प्रवचनसार पचास्तिकाय जैसे प्रथो शित टीकाओ के अतिरिक्त अभी कुछ सस्कृत एव हिन्दी का और भी प्रचार प्रसार हो गया और इन टोकाओ के टीकायें और है जिनका प्रकाशन अभी तक नही हना है आधार पर उनका धड़ल्ले से स्वाध्याय होने लगा। यही और टीकाकारों के हार्द को जानने के लिए उनका प्रकाशन नही प्रवचन कर्ताओ ने अपने आत्मा-परमात्मा, निश्चय आवश्यक है। अभी समयसार का एक सुन्दर संस्करण व्यवहार, उपादान निमित्त, भेद विज्ञान जैसे विषयो को आचार्य जयसेन की संस्कृत टीका एव आचार्य ज्ञानसागर अपने प्रवचनों को मुख्य आधार बना।
जी की हिन्दी टीका तथा आचार्य विद्यासागर जी महाराज
के हिन्दी पद्यानुवाद सहित प्रकाशित हुआ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने यद्यपि ८४ पाहुड ग्रथों की रचना की थी लेकिन उनमें से अब तक २३ पाहुड अथ मिल सके
समयसार की संस्कृत टीकाओ मे भट्टारक शुभचन्द्र हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं :
की अध्यात्म तरगिणी, भट्टारक देवेन्द्रकीति की समयसार
टीका एव नित्य विजय की कलश टीका का अभी तक १. समयसार, २. प्रवचनसार, ३. पंचास्तिकाय, प्रकाशन नही हुआ है। यद्यपि ये टीकाये अमृतचन्द्र एव ४. नियमसार, ५. वारस-अणुवेक्खा, ६. बंसण पाहुड, जयसेन की टीकाओ के स्तर की नही हैं लेकिन प्रत्येक ७. चारित्त पाहुड, ८. सुत्त पाहुड, . बोध पाहुड, १०. टीका की अपनी-अपनी विशेषता होती है और उन
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१४ बर्ष ४२, कि०२
बनेका विशेषताओं को जानने के लिए उनका प्रकाशन आव. एवं पंचास्तिकाय इन तीनों पर अमृतचन्द्र एवं जिनसेन के श्यक है।
समान ही संस्कृत टीकाएँ लिखी थीं ऐसा उल्लेख भी समयसार पी हिन्दी टीकाओ मे कविवर दौलत राम मिलता है, लेकिन इन टीकाओं की अभी तक कोई पाण्डुकासलीवाल एव प. सदासुख दास जी कासलीवाल की लिपि उपलब्ध नहीं हो सकी है और जिनके खोज की टीकायें अभी तक अप्रकाशित हैं। दोनों ही विद्वान अपने आवश्यकता है। अपने युग के बहुत बड़े विद्वान थे। इसलिए उनकी
पंचास्तिकाय की महत्त्वपूर्ण हिन्दी टीकाओं में प० टीकाओं का प्रकाशन इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम
हेमराज, हीरानन्द और प० बुधजन की हिन्दी पद्य होगा।
टीकाएँ महत्त्वपूर्ण है लेकिन अभी तक किसी भी टीका को प्रवचनसार पर सस्कृत मे अमृतचन्द्र, जयसेन, प्रभा
प्रकाशन नही हुआ है। हेमराज एव हीरानन्द की हिन्दी चन्द्र एव मल्लिषेण ने टीकाये लिखी है। करीब ५० वर्ष
टीकाएँ १७वी शताब्दी की एव प. बुधजन ने १९वी पूर्व डा० उपाध्य ने प्रवचनसार का आचार्य अमनचन्द्र,
शताब्दी में पंचास्तिकाय का महत्त्वपूर्ण पद्यानुवाद किया जयसेन एव प० हेमराज की हिन्दी सहित अपनी खोजपूर्ण
था । ये सभी पद्यानुवाद अप्रकाशित है और प्रकाशन की प्रस्तावना के साथ प्रकाशित कराया था। इसके पश्चात
बाट जोह रहे हैं। अजमेर से आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने मूलगाथाओ को हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया था। प्रवचन- आचार्य कुन्दकुन्द का अष्ट पाहुड भी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मार पर प्रभाचन्द्र की सस्कृत टीका अभी तक अप्रकाशित है। अष्ट पाहुड पर पं० जयचन्द्र की हिन्दी गद्य टीका है। मल्लिषेण की सस्कृत टीका का डा. उपाध्ये ने मिलती है जो प्रकाशित हो चुकी है लेकिन षट् पाहुड की उल्लेख किया है लेकिन राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में हिन्दी पद्यानुवाद देवीसिंह छाबड़ा ने संवत् १८०१ में अभी तक इस टीका की उपलब्धि नहीं हो सकी है। इस- पूर्ण किया था जो अभी तक अप्रकाशित है। १८वी लिए मल्लिषेण टीका की खोज की विशेष आवश्यकता है। शताब्दी में भूधर कवि ने संस्कृत मे भी षट् पाइड पर
टीका लिखी थी वह भी अप्रकाशित है। प्रवचनमार को हिन्दी टीकाओं में केवल हेमराज की हिन्दी गद्य टोका काही प्रकाशन हुआ है, इसकी हिन्दी इस तरह प्राचार्य कुन्दकुन्द के मूल अथ तो कितने ही पद्य टीका अभी तक अपने प्रकाशन को बाट जोह रही है। स्थानो से प्रकाशित हो चुके है लेकिन उनकी सस्कृत एवं इसके अतिरिक्त जोधाल गोदका, प० देवीदास एव पं० हिन्दो टोकाये अभी तक अप्रकाशित हैं, जिनका प्रकाशन वृन्दावन दस ने भी हिन्दी पद्य टीकाएं लिखी थी। ये द्विसहस्राब्दी वर्ष की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी सभी टीनाएं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है जो प्रवचनसार के जायेगी। हरय को पाटको के सामने रखती है, इसलिए इन सभी
श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर की ओर से टीकाओ का प्रकाशन आवश्यक है।
प्रवचनसार, पंचास्तिकाय एवं षट्पाहुड की अप्रकाशित पचास्तिकाय आचार्य कुन्दकुन्द के उन ग्रंथो मे से है ।
हिन्दी पद्य टीकाओं के प्रकाशन की योजना विचाराधीन जिसको नाटक त्रय में स्थान प्राप्त है। पचास्तिकाय पर
है। यदि समाज का महयोग मिला तो अकादमी द्विसहभी आचार्य अमृत चन्द्र एव जयसेन की संस्कृत टीकाएं
र साब्दी वर्ष मे ही इन सबके प्रकाशन हो सकेंगे।
खा मिलती है । और दोनो का ही प्रकाशन हो चुका है लेकिन अभी तक प्रभाचन्द्र की टीका का प्रकाशन नही हुआ है।
८६७ अमृत कलश,
किसान मार्ग टोंक रोड, इनके अतिरिक्त ब्रह्मदेव ने भी समयसार, प्रवचनसार
जयपुर-१५
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बूंद बूंद रीते जैसे आँजुलि को जल है
0 ला० शान्तिलाल जैन कागजी
आज जो ज्ञान उपलब्ध है उसके हिसाब से संसार मे रहा है। मैं जैन-कुल में मनुष्यगति, नीरोग-शरीरी हूंपांच सौ करोड़ मनुष्य है। इन मनुष्यों मे ५० प्रतिशत जिनवाणी का समागम भी है, कही गुरु भी मिल जाते हैं तो ऐसे हैं जिनको खाने-पीने और भोग-विलास के सिवाय और जीविका भी ठीक है। यह सब अनुकूल मिला है। कुछ पता ही नहीं है और ना ही उन्हें कोई मार्गदर्शन देने परन्तु हम क्या इससे लाभ ले रहे है -आत्महित कर रहे वाला है। ४० प्रतिशत मनुष्य ऐसे हैं जो अपनी चली आ है? अगर हम विचार करे कि हमे पह सब अनुकूल रही परिपाटी से बंधे है। १० प्रतिशत अर्थात ५० करोड़ समागम बड़े ही पुण्य से मिला है जो अति द्र बाकी रहे उनमें भी अनेक मत-मतान्तर है। अब हम हम इस समागम को ससार बढ़ाने में ही लगा रहे है। अगर इन ५० करोड़ में बंटवारा करें तो जो अपने को तो फिर मोचिए, वह कौन-सा ममय आयेगा जब हम जैन कहते हैं उन चार प्रतिशत अर्थात् दो करोड पर अपना हित कर पाएँगे? यह सच है कि समय काफी बीत बात सिमट कर रह गई। पर इन दो करोड़ जनो में भी गया है किन्तु अब भी काफी समय बाकी है अगर हम अनेक जगह बैटे है । इनमें डेढ करोड तो ऐसे है, जिनको अब भी अपनी आत्मा की ओर उन्मुख हो जावे तो बात जैन धर्म के प्रति कुछ पता ही नही-कुटुम्ब में जैन कहने बन सकती है । पहिले बताया गया है कि हमारी गिनती की परिपाटी चली आ रही है, सो अपने को जैन कहते कुछ हजारो मे तो आ गई है अब आखिरी पेपर बचा है हैं। शेष बचे पचास लाख, सो उनमें भी स्थानकपंथी, उसकी तैयारी करनी है। अगर हम आज से ही उगको मन्दिरपंथी श्वेताम्बर-दिगम्बर, तेरापंथी आदि अनेक तैयारी में लग जाएँ तो मेरा विश्वास है कि एक दिन मान्यताओं के मानने वाले मिलेगे। अब बात कुछ हजार आएगा कि हम परीक्षा में जरूर उत्तीर्ण हो जाएंगे।, बस पर आ गई। उनको भी कहाँ समय है कि वस्तु का । जरूरत है लगन की। और वह लगन कही बाहर से नही विचार करें ? कोई पूजा ही पूजा में लगा है, कोई दर्शन आएगी, हमारे ही अन्दर से मिलेगी। मात्र से ही तृप्त है, कोई गुरु-भक्ति मे लगा है, कोई बाहरी वस्तु तो पर है वह हमको प्रेरणा तो दे मन्दिर आदि बनवाने मे ही सुख मानता है, कोई समाज सकती है किन्तु परिणमन तो हमारा ही होगा अर्थात् हम सेवा में संलग्न है, कोई घर में ही फंसा है, स्त्री में, पूत्र ही कारण हैं और हम ही कार्य हैं। इस ते रह कारण में, कुटुम्बी जनों में या व्यापार आदि में लगा है या पैसा और कार्य मे न तो समय का भेद है और न ही स्थान इकट्ठा करता है, कुछ दान भी करता है, कुछ धर्म का भेद है। आत्म के कल्याण मे पर की कुछ आवश्यकता प्रचार भी करता है, कुछ ज्ञान का प्रचार भी करता है ही नही है जो कुछ भी लेना है अन्दर ही मिलेगा। और यह प्रक्रिया रोज चल रही है-जैसे प्रातः उठता है, फिर हम इधर-उधर क्यो भटके ? सजातीय या नहाता-धोता है, मन्दिर आदि जाता है और अपनी आजी- विजातीय द्रव्य हमारा कुछ हित या अहित नहीं कर विका की तलाश में निकल जाता है। उसी प्रकार जो सकता-वह तो पर है। और पर तो पर ही है उस पर कुछ धार्मिक कार्य हो रहा है वह सब रोज रोटीन जैसा दृष्टि क्यों ? दृष्टि तो अपने मे ही लगानी पड़ेगी । आत्मा हो रहा है, उसमें अपनी वस्तु जो आत्मा है उसका ध्यान के उत्थान में आत्मा के ही निर्मल परिणाम कारण पड़ेंगेकिसे, कब और कहाँ है ? अर्थात् नहीं है। समय तो बीत पर के नही। आत्मा के परिणाम आत्मा से भिन्न नहीं
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१
बर्ष ४२, कि.२
अनेकान्त
हैं। समय-समय के परिणाम हैं-द्रव्य से परिणाम कभी फिर अवसर मिले न मिले। भिन्न नहीं होते। ऐसा मालूम होता है कि भिन्न है पर यह सम्पदा और ये भोग तो अनेक बार मिले हैं भिन्न है नहीं। सुवर्ण द्रव्य है, कड़ा उसका परिणाम है। किन्तु क्या ये मेरे कुछ काम आये? सिवाय संसार बढ़ाने कड़ा होने से अलग तो नही है, उसी का परिणाम है। के। और हम हैं कि इन्हीं के जुटाने में अपना अनमोल यदि हम उस कड़े को कुण्डल में बदल दे तब भी सोना ही जीवन गवा रहे हैं। जो भी दिन बीत रहा है वह प्रायु रहेगा। इस प्रकार केवल दृष्टि गहरी करनी पड़ेगी- में घट रहा है और हम कहते हैं कि हमारी आयु बढ़ समझ में आ जायेगा । इसी भांति आत्मा गुण और पर्याय गई। कैसी विडम्बना है कि हम वस्तु-स्थिति को मानने का पुंज है-गुण और पर्याय पृथक-पृथक् नही है । उसको के लिए तैयार नहीं है । बन में आग लगी है और उसमें समझने के लिए आचार्यों ने रास्ता बना दिया है। ऊपर अनेक जीव जल रहे है और हम है कि उनके जलने का कहा गया है कि कारण और कार्य मे न तो समय भेद है तमाशा देख रहे है। हम नही सोचते कि यह आग हमारी
और ना ही स्थान भेद है वह बात सही उतरती है। ओर बढ़ रही है । हमें अभी भी समय है कि इस भयानक जिस समय कड़ा टूटा उसी समय कुण्डल की उत्पत्ति हुई- वन से निकल सकते है। हमारे पास साधन भी है । बस, एक ही समय है और एक ही स्थान है। बात बड़ी अट- थोड़ा-सा उद्यम करना पड़ेगा। अन्यथा, फिर वही चतुर्गति पटी लगती है, किन्तु विचार करने पर ठीक बैठ जाती का चक्कर न जाने कब तक चलता रहेगा। और पुनः है । इसी तरह आत्मा पर घटा लें।
मनुष्यगति, उत्तम कुल, जैन धर्म की शरण निरोग शरीर लब्धि क्या है? आत्मा के परिणामों में चार लब्धियो कब मिल सकेगा? मिल सकेगा या नही भी? इसका के बाद जब करणलब्धि होती है तब वह सम्यक्त्व मे क्या भरोमा ? ये स्त्री-पुत्र-सम्पदा, वैभव और ये समाज कारण पड़ती है। वह कारण और क्या है? वह भी इसी तो अनेक बार मिले है। पर, क्या इनसे मेरा कभी हित जीव का परिणाम है। जिसको सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई हुआ है ? नहीं हुआ। यदि हुआ है तो इनसे अहित ही है उसके परिणामों में जो उत्तरोत्तर निर्मलता है वही हुआ है। परिणाम कारण पड़ेंगे। इस प्रकार हमें उस पदार्थ को
२/४, असारी रोड, दरियागंज, प्राप्त करने में अभी से लग जाना चाहिए। क्या पता
नई दिल्ली-२
(पृ० १८ का शेषांश) २. जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्या- ६. काव्यकल्पद्रुम, प्रथम भाग, रसमजरी, सेठ कन्हैया
खून, डॉ. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, आगरा विश्व- लाल पोद्दार, पृ. २३४ । विद्यालय द्वारा स्वीकृत डी. लिट्. का शोधप्रबन्ध, ७. साहित्यदर्पण, आचार्य विश्वनाथ, डॉ. सत्यव्रत शास्त्री सन् १९७४, पृ० ३२६ ।
की टीका सहित, तृतीय परिच्छेद, पृ० २६५ । ३. नाट्यशास्त्र, आचार्य भरत, षष्ठ अध्याय, सम्पादक
८. जैन हिन्दी पूजा काव्य : परम्रा और आलोचना, डॉ. डॉ० रघुवंश, पृ० २०४। ४. जैन हिन्दी पूजा काव्य : परम्परा और आलोचना,
आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृ० १६१ । डा. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृ० १६० ।
६. रस सिद्धान्त, डॉ. नगेन्द्र, पृ० २४. । ५. काव्यदर्पण, प० रामदहिन मिभ, पृ० २०८। १०. काव्यदर्पण, पं० रामदहिन मिश्र, पृ० २१० ।
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महाकवि बनारसीदास की रस-विषयक अवधारणा
Oडॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दोति'
महाकवि बनारसीदास १७वी सदी के एक आध्यात्मिक विश्वनाथ ने शान्त रस को स्पष्ट करते हए 'साहित्य दर्पण' संत थे और थे वह काव्याकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र ।' में कहा है कि जिसमें न दुःख हो, न सुख हो, न कोई वह हिन्दी के सगुणभक्ति के प्रवर्तक महाकवि तुलसीदास चिन्ता हो, न राग-द्वेष हो, और न कोई इच्छा ही हो, के समकालीन थे और थे उनके घनिष्ठ मित्र । सृजनशील उसे शान्त रस कहते हैं-यथाव्यक्तित्व के धनी कविश्री ने अपनी-मोह-विवेक युद्ध, न यत्र दुखं न सुखं न चिन्ता न बनारसी नाममाला, बनारसी विलास, नाटक समयसार,
द्वेष रागौ न च काचिदिच्छाः। अर्द्धकथानक-रचनाओं से साहित्य को समृद्ध किया है । रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्र: वह हिन्दी आत्मकथा साहित्य के आद्य प्रवर्तक है। जैन
सर्वेषु भावेषु शम प्रधानः । अध्यात्म के पुरस्कर्ता कविश्री बनारसीदास के काव्य मे
प्रश्न उठता है कि ऐसी दशा में तो शान्त रस की अध्यात्ममूला भक्ति का उत्कर्ष है। इनकी प्रत्येक रचना मिति
स्थिति मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् ही हो सकती है किन्तु मे अध्यात्म रस टपकता है। प्रस्तुत आलेख मे रससिद्ध
इसका समाधान यह है कि यहाँ सुख के अभाव से तात्पर्य कवि श्री बनारसीदास की रस विषयक अवधारणा पर
सांसारिक सुख से है अन्य सुख अथीत आत्मिक सुख से विवेचन करना हमारा मूलाभिप्रेत है।
नही। रस काव्य की आत्मा है। काव्यपाठ, श्रवण अथवा संसार से वैराग्य भाव का उत्कर्ष होने पर शान्त रस अभिनय देखने पर विभावादि से होने वाली आनद परक की प्रतीति होती है। निर्वेद अथवा वैराग्य ही शांत रस चित्तवृत्ति ही रस है ।' मानव हृदय मे अनेक भाव स्थाई का स्थाई भाव है, समार की अमारता का बोध तथा रूप से विद्यमान रहते है। ये स्थाई भाव ही विभाव, परमात्म तत्त्य का ज्ञान इसका आलम्बन विभाव है, अनुभाव और संचारीभाव के सहयोग से रसदशा को प्राप्त सज्जनों का सत्सग, तीर्थाटन, धर्मशास्त्रो का चिन्तन आदि होते है। जैन आचार्यों की रस विषयक मान्यता रही उद्दीपन विभाव है, रोमाच, पुलक, अथ विसर्जन, ससार है-अनुभव । अनुभव हो रस का आधार है। यह अन्त- त्याग के विचार आदि अनुभाष है तथा धृति, मति, हर्ष, मखी प्रवत्तियों पर निर्भर करता है। आत्मानुभूति होने उद्वेग, ग्लानि, दैन्य, स्मृति, जडता आदि इसके सवारीपर ही रसमयता की स्थिति उत्पन्न हुआ करती है।" भाव हैं।
भरतमुनि ने साहित्य मे आठ रसों को स्वीकृत कर जैन आचार्यों को रसो की परिसख्या में किमी प्रकार शांत रस को उपेक्षित कर दिया था किन्तु कालान्तर में का विवाद नही रहा। उन्होने परम्परागत नवरसो की शांतरस को नवम रस के पद पर प्रतिष्ठित किया गया स्वीकृति दी है। महाकवि बनारसीदाम ने अपनी अध्यात्म और मम्मट आदि अनेक आचार्यों के द्वारा निर्वेद को रचना 'नाटक समयसार' के माध्यम से बबरसो के सन्दर्भ स्थाई भाव स्वीकार किया गया। आचार्य मम्मट ने में मौलिक आध्यात्मिक उदात्त दृष्टि दी है। उन्होने शात निर्वेद के दो रूप माने हैं। तत्त्वज्ञान से जो निर्वेद होता रस को रम नायक स्वीकार किया है-यथाहै वह स्थाई भाव है और इष्ट के नाश तथा अनिष्ट की ___ नवमों सान्त रसनि को नायक । प्राप्ति से जो निर्वेद होता है वह सचारीभाव है।' आचार्य
(सर्वविशुद्धिद्वार, नाटक ममयमार, पृ. ३०७)
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१४२०२
नवरसों के लौकिक स्थानों की चर्चा को अत्यन्त संक्षेप एव स्पष्टता के साथ कविश्री ने एक ही छद मे निवद्ध कर दिया है यथा
सोभा में सिगार बसे वीर पुरषारथ में,
अनेकान्त
कोमल हिए में रस करुना बखानिए । आनंद में हास्य ण्ड मुण्ड में विरामं रुद्र,
वीभत्स तहाँ जहाँ गिलानि मत लिए । चिन्ता में भयानक प्रथाहता में अद्भुत,
माया को प्ररुचि तामै सान्त रस माननिए । एई नवरस भवरूप एई भावरूप,
इनको बिलेखिन सुदृष्टि जागे जानिए || (सर्वविशुद्धि द्वार, नाटक समयसार, पृ. ३०७-८ ) कविधी का रस और उनके स्थाई भावो मे परम्परानु मोदित व्यवस्था मे यत्किंचित परिवर्तन करने का मूलाधार आध्यात्मिक विचारधारा ही रही है। उनकी मान्यता है कि अध्यात्म जगत में भी साहित्यिक रसों का आनंद लिया जा सकता है, केवल रसास्वादन की दिशा बदलनी होगी । कविश्री बनारसीदास ने आत्मा के विभिन्न गुणो की निर्मलता और विकास में ही नवरसों की परिपक्वता का अनुभव किया है-यथा
गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करना सम रस रीति हास हिरवं उछाह सुख ।। अष्ट करम दल मलन रुद्र, वरतं तिहि थानक । तन विलेछ बीभच्छ दुन्द मुख दसा भयानक ॥ अद्भुत धन्त बल चितवन, सांत सहज वंशगधुव । नवरस विलास परगास तब, जब सुबोध घट प्रगट हुव ॥ महाकवि बनामीदास कुन्दकुन्दनाय के रस सिद्ध कवि थे। वह आत्मानुभव को ही मोक्ष स्वरूप मानकर कहते है कि
वस्तु विचारत रावतं मन पावे विश्राम
"
रस स्वादत सुख ऊपजं, धनुभो याकौ नाम | (समस र नाटक उत्थानका छाक १७) 'समयमार नाटक' मे कविश्री का कहना है कि मेरी रचना अनुभव रस का भण्डार है
१. बनारसीदास का प्रदेव और मूल्यांकन, (द्वितीय) १६८७, पृ० ३२-४० ।
समयसार नाटक प्रकथ, अनुभव रस-भण्डार । याको रस जो जानहीं, सो पावें भव-पार ॥
(समयसार नाटक, ईटर के भण्डार की प्रति का अन्तिम अश छदांक १)
ससार की असारता और परिवर्तनशीलता को देखकर मन का विरक्त होना तथा आत्मिक प्रानंद में लोन होना ही परम शान्ति है। अष्ट कर्मों को क्षय कर निविकार अवस्था को प्राप्त कर परम आनद की उपलब्धि ही प्रमुख लक्ष्य है ।' महाकवि बनारसीदास के काव्य का मूल स्वर मन को सासारिकता से विमुख करके आत्मसुख की ओर उन्मुख करना ही रहा है। शान्त रस वस्तुतः निवृत्तिमूलक है और अन्य रस लौकिक होने के कारण प्रवृत्तिमूलक है।"
इस प्रकार कविधी बनारसीदास की रस विषयक अवधारणा महनीय है। उनके विचार से शान्तरस सब रसो का नायक है और शेष सब रम शान्तरस मे ही समाहित हो जाते है । आत्मानुभूति होने पर ही रसमयता की स्थिति उत्पन्न हुआ करती है। इन रसो के अन्तरंग मे जिन भावनाओ की व्यापकता पर बल दिया है वह स्व-पर कल्याण मे सर्वथा सहायक प्रमाणित होती है । आत्मा के ज्ञान गुण से विभूषित करने का विचार शृगार, कर्म निर्जरा का उद्यम वीर मभी प्राणियो को अपने समान समझने के लिए करा हृदय में उत्साह एवं सुख की अनुभूति के लिए हास्य, अष्टकर्मों को नष्ट करना रौद्र, शरीर की अशुचिता का चिन्तवन वीभत्स, जन्म-मरण के दुःख का चिन्नवन भयानक, आत्मा की अनन्त शक्ति को प्राप्त कर विस्मय करना अद्भुत तथा दृढ वैराग्यधारण कर आत्मानुभव मे लीन होना शान्तरस कहलाता है । ससार की क्षणभंगुरता, शरीर की निकृष्टता जीव को अज्ञानता आदि को अनेक हृदयग्राही उक्तियो से कविश्री बनारसीदास की रचनायें अनुप्राणित है।
मंगल कलश
३६४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१ ( उ० प्र० )
सन्दर्भ सूची आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' जैन पथ प्रदर्शक, वर्ष ११, अंक २४ मार्च ((शेष पृ० १६ पर)
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परमात्मप्रकाश एवं गीता में आत्मतत्त्व
7 डॉ० कपूरचन्द जैन, संस्कृत विभागाध्यक्ष
भारतीय चिन्तन मे वैदिक और श्रमण संस्कृतियो का परमात्मप्रकाश' की रचना भी एक शिष्य द्वारा पूछे सहभाग रहा है। श्रमण सस्कृति की बौद्ध और जैन ये दो जाने पर उपदेश के रूप में हुई है। परमात्मप्रकाश के विचारधाराएं हुई, वैदिक विचारधारा सांख्य-योग, न्याय- रचयिता योगीन्द्रदेव (योगेन्द्र) ने परमात्मप्रकाश के रूप वैशेषिक, मीमासा-वेदान्त इन छह धाराओ मे प्रवाहित मै अध्यात्म शास्त्र का एक अनमोल रत्न भारतीय साहित्य हुई, इन्हें ही षड्दर्शन कहा जाता है। इन्हें आस्तिक दर्शन को दिया है। यथा नाम तथा विवेचन इस काम मे ३४५ भी कहते है। इनके अतिरिक्त एक चिन्तन और था दोहा है। जिनमे आत्मतत्त्व का सर्वाङ्क विवेचन हुआ है। जिसका सम्बन्ध मात्र इस जड- जगत से था। स्वर्ग, नरक, जिस शिष्य के प्रश्न पर यह ग्रंथ रचा गया, उसका नाम पुनर्जन्म जैसे सिद्धान्तो से उसे कुछ लेना-देना न था उसने प्रभाकर भट्ट था, जिसके पुन: पुन: निवेदन करने पर इस तो आत्मतत्त्व के परलोकगामी अस्तित्व को भी नकारा, ग्रथ की रचना हुई। इसके महत्त्व का प्रतिपादन करते इसे चार्वाक कहते है । जैन, बौद्ध और चार्वाक चूकि वेदो हुए योगीन्द्रदेव ने लिखा है कि इसका सदैव अभ्यास करने को प्रामाणिक नही मानते, अत: इन्हे नास्तिक कहा गया वालो का मोहकर्म दूर होकर केवलज्ञान पूर्वक मोक्ष की है।' गीता वैदिक दर्शनो में समाहित है उसमे सभी प्राप्ति हो सकती है।' आस्तिक दर्शनों के तत्त्व विद्यमान है। गीता महाभारत जैन और वैदिक दोनो दर्शन आत्मतत्त्व की सत्ता का ही एक अश है।
और उसका पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं। मात्मा एक शरीर महाभारत की मूलकथा का वक्ता संजय है। धृत- को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है फिर चौथेराष्ट्र ने संजय से प्रपन किया, सजय ! युद्धेच्छु एकत्रित पाँचवे, फिर नरक-स्वर्ग में आता जाता है, इस प्रकार मेरे और पाण्डु के पुत्रो ने क्या किया। तब सजय ने सभी अनतकाल से इस संसार सागर मे भटक रहा है। लगभग योद्धाओ की तैयारी का वर्णन किया और कहा, महाराज ! सभी भारतीय और कुछ पाश्चात्य दर्शनो को प्रकृति इम अर्जुन ने जब अपने सामने अपने ही बान्धवो को देखा, तो ससार-भ्रमण को मिटाने में लगी है। यह बात अलग है वह युद्ध से विरक्त होने लगा और कहने लगा कि मैं ऐसा कि सभी के रास्ते अलग-अलग हैं, पर गन्तव्य तो सबका राज्य, ऐसी विजय और ऐसा सुख नहीं चाहता, जो स्व- एक ही है। जनवध से प्राप्त हुआ हो। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी दर्शनो ने आत्मा के युद्ध मे प्रेरित करने केलिए समझाया, दूसरे शब्दो में गीता अस्तित्व को स्वीकारा है। भले ही उसे पुरुष, जीव, प्राज्ञ, की रचना श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उसके प्रश्न पर उप- तेजस आदि संज्ञायें दी हो। बौद्ध दर्शन के अनुसार विज्ञान देश है।
ही आत्मा है, बौद्ध आत्मा को क्षणिक मानते है । साख्य मे हिन्दुओं में गीता का वही स्थान है, जो मुसलमानो मे प्रात्मा के लिए पुरुष शब्द का प्रयोग हुआ है। पुरुष प्रकृति कुरान और ईसाइयों में वाइविल का है। व्यास ने गीता से भिन्न है, उसकी सख्या अनंत है।' साख्य जैन दर्शन की का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है
तरह अनेक जीव (पुरुषो) की सत्ता स्वीकार करता है। "गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यः शास्त्रविस्तरः । वेदान्त के अनुसार शरीर इन्द्रिय आदि वस्तुओ का प्रकाया स्वयं पानाभस्य मुखपपाद्विनिः सुता ।।" शक नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्यस्वभाव आन्तरिक (प्रत्यक्)
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अनेकान्त
२०,४२,०२
चैतन्यही आत्मा है। 'वैशेषिक दर्शन' दर्शन के अनुसार आत्मा पृथ्वी आदि नव द्रव्यों में से एक है। उनके अनुसार जिस द्रव्य मे समवाय (नित्य) सम्बन्ध से ज्ञान रहता है वह आत्मा है । वह जीवात्मा परमात्मा के भेद से दो प्रकार का है । ०
सभ्य
आत्मा के अस्तित्व की तरह आत्मा के महत्व का प्रतिपादन भी सभी दर्शनो ने किया है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन और सम्यक्वारित्र मुक्ति के मार्ग कहे गये है।" यह दर्शन और ज्ञान आत्मादि सात तत्त्वों का होना चाहिए ।" न्याय र्शन के अनुसार प्रमाण- प्रमेय ( आत्मा ) आदि के सम्यज्ञान से नि यस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है ।" सारूप के अनुसार प्रकृति पुरुष के सम्यग्ज्ञान में केवल्प प्राप्त होता है" वेदान्त के अनुसार आत्मा का वास्तविक स्वरूप जानकर आत्मा परब्रह्म में लीन हो जाता है ।" उपनिषदों में आत्मा के महत्व का पुनः पुनः प्रतिपादन किया गया है। परमात्मप्रकाश की शैली उपनिषद से मिलती प्रतीत होती है । स्वय योगीन्द्र देव ने कहा है कि विद्वान् हमारी इस रचना में पुनरुक्ति दोष न देखे क्योकि प्रभाकर भट्ट को संबोधनो के लिए परमात्मका कथन बार-बार किया गया है।"
उपनिषदों में कहा गया है, जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है-य. आत्मान जानाति सः सर्व विजानाति जम्दोग्य उपनिषद् में एक प्रसङ्ग आता है जिससे आत्मा का महत्व भली भाति स्पष्ट हो जाता है प्रजापति के मुख से एक बार देंगे और दैत्यों ने सुना कि जो आत्मा पापरात अजर, अमर, शोक रहित, भूखप्यास से रहित, सत्यकामनाओं तथा सत्यसकल्पो वाला ६, वह अप और जिज्ञासा के योग्य है। जो सांधक उस आत्मा का अन्वेषण या साक्षात्कार करके उसे विशेष रूप से आन लेता है वह सभी लोको और सभी कामनाओ को प्राप्त कर लेता है।" इसमे आत्मतत्त्व का महत्त्व और स्वरूप बताया गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में पाशव मैत्रेयी सवाद में कहा गया है-- अरे मैत्रेयी ! पति के सुख के लिए पत्नी को पति प्रेम नहीं होता अपितु अपने सुख के लिए होता है, पुत्र के सुख के लिए पुत्र, माता के सुख के लिए माता; लोगो के मुख के लिए लोग देवी के सुख
के लिए देव प्रिय नही होते किन्तु ये सब कारण हो प्रिय होते है । अतः आत्मा का मनन एव निदिध्यासन करना चाहिए ।"
परमात्मप्रकाश मे कहा गया है जो आत्मा को जान लेता है, वह परमात्मा हो जाता है -
आत्मसुख के दर्शन, श्रवण,
'जामद्द जाणह श्रप्यं श्रप्पा तामई सो जि देउ परमप्पा ।' दोहा ३०५ और भी-कि बहुए प्रणेण ।
'प्या भावहि विम्मलउ,
जो भावंत परमपड, सम्भइ एक्कखणे | दोहा १८
ऐसा ही भाव गीता मे भी कहा गया है, कहा गया है कि स्थितप्रज्ञ वह है जो आत्मा से आत्मा मे ही संतुष्ट रहता है
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोष्यते ।" -- गीता २ / ५५ इसी कारण गीता के छठे अध्याय मे तो बड़े ही स्पष्ट शब्दों मे कहा गया है कि आत्मा ही आत्मा का मित्र और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है
'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । भाव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥' -- गीता ६/५
शुद्धात्मा का जो स्वरूप योगीन्द्रदेव ने परमात्मप्रकाश में वर्णित किया है वह जैनदर्शन का मानो निचोड़ है'जासु ण वण्णु रग गधु रसु, जासु रण सद्दु ण फासू । जासु ण जम्मणु-मरण खवि पाउ सिरंजणु तासु ॥ जासु प कोहु ण मोहु मड, जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठागु ण भाग जिय, सो जि रिपरंज आणि ॥ प्रथिन पुष्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु विसाउ अत्थि ण एक्कुवि दोसु, सो जि णिरंजणु भाउ ॥'
दोहे १९, २०, २१ अर्थात् जिसमे वर्ण, गध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, क्रोध, मोह, मद, माया मान, स्थान, ध्यान, पुण्य, पाप, हर्ष-विषाद, दोष, धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा नही है वह शुद्धात्मा है । जो निर्मल ध्यान से गम्य है वह आदि अन्त रहित जात्मा है।
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परमात्मप्रकाश एवं गीता में प्रात्मतत्त्व
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गीता में भी यही कहा गया है कि जिसमें जन्म-मरण वान् या ईश्वर नही है। गीता के अनुसार भगवान कृष्ण आदि दोष नही है वही आत्मा है। आत्मा का जन्म-मरण कृष्ण हैं और वे सभी पापो से छुड़ा सकते हैनहीं होता, जो मरता नही उसका जन्म कैसा और जो 'सर्व धम्पिरित्ज्य मामेकं शरणं व्रज । जन्मता नही उसका मरण भी कैसा । आत्मा न तो किसी जहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षमिष्यामि मा शुचः ।।' को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है ।
-- गीता८/६६ (नायं हन्ति न हन्यते २/१६) गीता कहती है ।
आत्मा के आकार के सन्दर्भ भी विभिन्न मत प्रचलित न जायते म्रियते वा कदाचिन,
है न्यायवैशेषिक साख्य मीमामा आदि दर्शन आत्मा या नायं मूत्वा भविता बा न भूयः ।
जीव को अनेक या सर्वव्यापक होने का उल्लेख मिलता प्रजो नित्य. शाश्वतोऽयं पुराणो,
है। आत्मा को अणु से अणु और महान् से महान् कहा न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥'
गया है । वेदो मे पुरुष या आत्मा को अगुष्ठ मात्र कहा -गीता २/२०
गया है। किन्तु आत्मा के आकार का सर्वाधिक सुन्दर परमात्मप्रकाश कहता है
और वैज्ञानिक समाधान जनदर्शन मे मिलता है। कहा 'णवि उप्पज्जइ वि मरइ, बंधु ण मोक्रव करेई।' गया है कि आत्मा स्वदेहप्रमाण है। जैसी देह हो आत्मा का
आकार भी वैसा ही हो जाता है। हाथी के शरीर में
- दोहा ६६ आत्मा हाथी के आकार की और चीटी के शरीर में चीटी जैसे कोई पुराने वस्त्र जोड़ नये वस्त्र धारण करता
के आकार की हो जाती है। आत्मा के प्रदेशो का सकोच है, वैसे ही प्रात्मा भी पुराना शरीर छोड़कर नया धारण
और विस्तार दीपक के प्रकाश की भांति होता है आचार्य करता है।" शस्त्र उसे काट नही सकते, आग जला नहीं कुन्दकुन्द ने लिखा है-- सकती, पानी गीला नही कर सकता और हवा सुखा नही
"जह पउमरायरयणं रिक्तं खीरे पभासयदि खोरं । सकती। गीता और परमात्मप्रकाश का शैली तथा भाव
तह देही देहत्त्थो सदेहमितं पभासयदि ॥"" गत साम्य देने का लोभ सबरण नही दे पा रहा है। जैसे दूध मे डाली गई पद्मरागमणि दूध को अपने तेज
और रंग से प्रकाशित कर देती है वैसे हो देह मे रहने तथा भाव गीता के निम्न श्लोको से मिलाइमे
वाला आत्मा भी अपनी देहमात्र को अपने रूप से प्रकाशित 'प्रच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेयोऽशोष्य एव च ।
कर देता है। योगीन्द्र देव ने परमतो का खण्डन करते नित्यः सर्वगतः स्थाणु रण्ययोऽयं सनातनः ॥
हुए आत्मा को स्वदेहप्रमाण कहा हैअध्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
(अप्पा देहपमाणु -दोहा ५१)। तस्मादेवं विदित्वन नानुशोचितुमर्हसि ।।'
इसी भाव को गीता में निम्न शब्दो म व्यक्त किया - गीता २/२४-२५
गया हैजैन दर्शन में आत्माएँ अनंत मानी गई है, पर गीता
'यथा प्रकाशयत्येक. कृत्स्नं लोकमिमं रविः । मे एक ब्रह्म की उपासना का वर्णन है। संसार मे जितनी
क्षेत्र क्षेत्रो तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥" भी आत्माएँ है वे उसी ब्रह्म का एकांश है । मभी आत्माएँ अर्जुन ! जिस प्रकार एक हो सूर्य इम सम्पूर्ण ब्रह्माड उसी ब्रह्म में मिल जाती है। पर जैन दर्शन के अनुसार को प्रकाशित करता है उसी प्रकार क्षेत्री-क्षेत्र का स्वामी, तपः साधना और ज्ञान के द्वारा प्रत्येक आत्मा परमात्मा आत्मा उस सम्पूर्ण क्षेत्र का प्रकाशित करता है। इस हो सकता है। प्रत्येक आत्मा अपने कर्म मे स्वतत्र है। प्रकार दोनों ग्रंथों में अपने-अपने दर्शनो के अनुसार आत्मअपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता वह स्वयं है कोई भग- तत्त्व का सुन्दर एव हृदयग्राही वर्णन है।
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१२ वर्ष ४२, कि०२
अनेकान्त
सन्दर्भ-सूची १. 'वेदनिन्दको नास्तिकः'।
-मनुस्मृतिः १२. 'जीवाजीवाश्रबबंध संवरनिर्जरा मोक्षास्तत्त्वम् ।' २. 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षके समवेता युयुत्सवः ।
-वही ११४ मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।
१३. 'प्रमाणप्रमेय संशय प्रयोजन... तत्त्वज्ञानात्रि श्रेय-गीता ११
साधिगमः' तथा 'आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमन:- ... -गीता प्रेस गोरखपुर, अठारहवां संस्करण
प्रमेयम्' इति सूत्रम् ।' तर्कभाषा केशव मिश्र
साहित्यभडार मेरठ प्रकाशन १९७२ पृ. ४ तथा १७५ ३. 'तस्मान्नाहा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथ हत्त्वा सुखिनः स्याम माधवा ।।'
१४. 'ज्ञानेन चापवर्ग: विपर्यायादिष्यते बन्धः ।' -गीता ११३७
-साख्यकारिका ४४ कारिका ४. परमात्मप्रकाशः : योगीन्द्रदेव, परमश्रुत प्रभावक- १५. 'ब्रह्मवित् ब्रह्म व भवति ।' मंडल प्रकाशन वि० संवत् १९७२ ।
१६. 'इत्थु ण लिम्वड पडियहिं गुणदोसुवि पुणुस्तु । ५. 'भावि पणविधि पचगुरु सिरिजोइदु जिणाउ ।
भट्टपभायरकारणइ मइ पुणु पुणुवि पउत्त ॥' भट्रपयायरि विष्णयउ विमल करेविण भाउ ।
-परमात्मप्रकाश, दोहा ३४२ पुण पुण पणविवि पंचगुरु भाविचित्ति धरेवि । १७. य आत्माऽपदतपाप्मा विजरो विमृत्युविशोकोऽविजिभट्टपहायर णिसुणि तुहु, अप्पा तिविहु कहेवि ।।' घत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसकल्पः सोऽन्वेष्टव्यः स
-~-परमात्मप्रकाश दोहा ८ तथा ११ विजिज्ञासितव्यः । स सर्वाश्च लोकानाप्नोति सर्वाश्च ६. 'जे परमप्पपयासयह अणुदिणु णाउ लयंति ।
कामान्, यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजातुट्टइ मोहु तडत्ति तह तिहयणणाह हवंति ।।'
पतिरूपा च ।' -वही दोहा ३३७
-छन्दोग्य उपनिषद् अष्टम अध्याय सप्तम खड ७. जननमरण करणाना प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च । १८. वृहदारण्यकोपनिषद्-याज्ञवल्क्यमैत्रेयी संवाद । पुरुषबहुत्त्वं सिद्ध गुण्यविपर्यायाच्चैव ॥ १६. 'वासासि जीर्णानियथा विहाय -सांख्यकारिका १८
नवानि गृहणाति नरोऽपराणि । ८. 'अतस्तत्तद्भासकं नित्यशुद्धबुद्धमुक्त सत्यस्वभावं प्रत्यक्
तथा शरीराणि विहाय जीर्णाचैतन्यमेवात्मवस्तु इति वेदान्तविद्वदनुभवः ।
न्यान्यानि सयाति नवानि देही ॥' -गीता २२ ---वेदान्तसार (सदानन्द प्रणीत) साहित्य भडार २० 'नैन छिन्दन्ति शस्ज्ञाणि नेन दहति पावकः । मेरठ १९७७, पृ० ११६
न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।' ९. 'तत्र द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्मा
-गीता २।४३ मनांसि नवैव।'
२१. 'अणोरणीयान् महतः महीयान् ।' १०. 'ज्ञानाधिकरणमात्मा। सहिविधः
-कठोपनिषद् प्रथम दिल्ली जीवात्मा परमात्मा चेति ।'
२२. अगुष्ठमात्र पुरुषः मध्ये आत्मन्य तिष्ठति।' -तकंसग्रह (चो. सस्करण) पृ. ५ तथा १८
ऋग्वेद पुरुषसूक्त ११. 'सम्यग्दर्शनशान चारित्राणि मोक्षमार्गः।'
२३. पञ्चास्तिकाय गाथा ३३ -~-तत्त्वार्थसूत्र ११
२४. गीता १३-३३
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दिगम्बर मुनियों को जीवन चर्या
D कुमारी विभा जैन, एम. ए. शोध छात्रा
दिगम्बरत्व प्रकृति का रूप है। वह प्रकृति का दिया चर्या से ससार की मानव जाति का बहुत थोड़ा हिस्सा हुआ मनुष्य का वेष है। आदम और हव्वा इसी रूप मे परिचित है। रहे थे। दिशाएँ ही उनके अम्बर थे-वस्त्रविन्यास उनका दिगम्बर मुनि २८ मूलगुणों का निर्दोष परिपालन वही प्रकृतिदत्त नग्नत्व था। वह प्रकृति की अचल मे सुख
अचल में सुख करते हुए आत्म साधना मे रत रहते है। साथ ही प्राणी
को को नीद सोते और आनन्दलोरियां करते थे। इसलिए ..
मात्र के प्रति मैत्री प्रमोद कारुण्य और मध्यस्थ भावना कहते हैं कि मनुष्य को आदर्श स्थिति दिगम्बर है। नग्न
की चरमोत्कर्षता को परिप्राप्त होते है। २८ मूलगुणों के रहना ही इसके लिए श्रेष्ठ है। इसमें उसके लिए अशिष्टता
अतिरिक्त दस लक्षण धर्म, द्वादशतप, द्वादशानुप्रेक्षाचिंतन, असभ्यता की कोई बात नहीं है, क्योंकि दिगम्बरत्व अथवा
द्वविंशति, परीषह, जप आदि को भी वे जीवन का अभिन्न नग्नत्व स्वयं अशिष्ट अथवा असभ्य वस्तु नही है । वह तो।
अंग मानते हुए शिवमुक्ति भाजन बनते है । मनोविजयी मे मनुष्य का प्राकृत रूप है। ईसाई मतानुसार आदम और
मुनिराज इस प्रकार पांच इन्द्रिय रूप में ही परिगणित हव्वा नंगे रहते हुए कभी न लजाये और न वे विकास के
है, क्योकि वे अनिन्द्रिय हैं और सभी इन्द्रियो का राजा चगुल में फंसकर अपने सदाचार से हाथ धो बैठे । किन्तु
ममस्त जगत में मन के अधीन होकर पचेन्द्रिय सम्बन्धी जब उन्होंने बुराई-भलाई, पाप-पुण्य का वजित फल खा
विषय भोगों में मग्न हैं। उससे विपरीत जिनके मन में लिया, वे अपनी प्रकृति दशा खो बैठे--सरलता उनकी
भौतिकता का साम्राज्य नही है, ऐसे मनोविजयी मुनिराज जाती रही। वे ससार के साधारण प्राणी हो गये। बच्चे
पचेन्द्रिय का निरोध करते हुए आत्म निमग्नता प्राप्त को लीजिए, उसे कभी भी अपने नग्नत्व के कारण लज्जा
करते है। का अनुभव नही होता और न उसके माता-पिता अथवा
शेष पुण-केशलुंचन, नग्नता, अस्नान, पिच्छिअन्य लोग ही उसकी नग्नता पर नाक-भौ सिकोड़ते है।
कमण्डलु तथा खड़े होकर आहार लेना आदि मुनि के विशेष मनुष्य मात्र की आदर्श स्थिति दिगम्बर ही है।
गुण हैं। इन सभी के विषय मे अनेक प्रश्न उठते हैं कि आदर्श मनुष्य सर्वथा निर्दोष है-विकारशून्य ही होता है।
मुनि उनको क्यो करते हैं ? इसका समाधान इस प्रकार जन्म मरण पर्यन्त वस्त्रों में जीवन व्यतीत करने
किया गया है :वाला मानव दिगम्बर साधुओ की नग्नता को देखकर समाज में असभ्यता का प्रतीक मानता है। किन्तु वस्तुतः
केशलोंच :कृत्रिम जीवन में आनन्द से अनभिज्ञ होकर ही ऐसा करते
२२ परीषह का सहन करना अपेक्षित होता है । केशहैं । उनका मन वासनाओं से शून्य होता है। लौकिक जीव लोच भी इसी के साथ जोड़ दिया गया है। इसके दो से घृणा करते हैं, वे दिगम्बर मुनिराज अन्तर वाह्य में
___ कारण हैं :एक समान दिगम्बर है अर्थात् उनका अन्तःकरण वास- (क) एक कारण तो शारीरिक शृगार विहीनता और . नाओं से रहित है।
पीड़ा पर विजय पाना। दूसरा कारण है वैज्ञानिक सूर्य दिगम्बरत्व वस्तुतः प्राकृतिक और निर्विकारी वेष है ऊर्जा का केन्द्र है और उसका आयात शरीर के ऊर्द्ध अंगों और आत्मसाधना में निव'ध मार्ग है। दिगम्बर मुनि की द्वारा हुआ करता है। शरीर का सबसे ऊँचा भाग है
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२४ वर्ष ४२, कि०२
.अनेकान्त
सिर, अत: ऊर्जा आगम में किसी प्रकार की बाधा न हो से शुद्धता हो तो सामान्य जन, दुराचारी, अन्यायी, असंयमी अतः के शराशि का परित्याग आवश्यक होता है। सभी जीव स्नान करने से शुद्ध माने जायेंगे तो ऐसा नहीं
"मूलाचार आराधना कोष" मे केशलोच क विषय है। प्रत्युत जलादिक बहुन दोषो से युक्त है, अनेक तरह मे मूल गुणाधिकार एक में इस प्रकार कहा है-मुनियो के सूक्ष्म जीवों से भरे है, पाप के मूल है इसलिए संयमी के पाई मात्र भी धन सग्रह नहीं है जिससे कि हजामत जनो को स्नान व्रती ही पालन योग्य है। करावे और हिंसा का कारण समझ उस्तरा नामक शस्त्र खड़े होकर आहार लेना :-... भी नही रखते और दीन वत्ति न होने से किसी से दीनता मुनि भोजन एक ही स्थान पर खड़े होकर अपने पात्र कर भी क्षौर नहीं करा सकते इसलिए समूर्छनादिक जुआ, मे लेते है । जैसा भी सद्ग्रहस्थ रूख-रूखा, नीरस अथवा लीख आदि जीवो की हिमा के त्यागरूप सयम के लिए सरस किन्तु प्रासुक एव सेव्य आहार देता है उसे गोचरी प्रतिक्रमण कर तथा उपवास कर आप ही केशलोच करते।
वृत्ति या भ्रामरी वृत्ति से गरीब-अमीर के भेदभाव से है। यही लोचनामा गुण है ।
रहित होकर शरीर की स्थिति के लिए यथावश्यक ग्रहण नग्नता:--
करते है । सूर्योदय से ७२ मि० पश्चात् से लेकर सूर्यास्त __ चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करना जिन साधु के ७२ मि० पूर्व तक दिन में एक ही बार आहार भोजन के लिए आवश्यक है। नग्नता इसीलिए आवश्यक है। ग्रहण करते है। दूसरी बार जलादि का भी ग्रहण नही अचेलतन चेल वस्त्र रहित होकर निर्ग्रन्थ नग्न दिगम्बर करते। अवस्था को प्राप्त करना, वासनाओ के अभाव को सबसे अब प्रश्न उठता है कि मुनि खड़े होकर ही आहार क्यो बड़ी कसौटी है । वामनाओ मे घिरा व्यक्ति कभी भी नग्न ग्रहण करते है ? इसका समाधान यह है कि बैठकर भोजन नही रह सकता । दिगम्बर मुनि भीतर से भी वासना शून्य सुरुचिपूर्वक लिया जाता है, जबकि उनकी साधना मे होते है इसलिए वाह्य मे बिना सकोच के नग्न रह पाते है। आहार की रुचिता का परित्याग रहता है। असुविधा अस्नान :
तथा अरुचि के साथ लिया गया भोजन मुनि के बाईस अस्नान वे रत्नत्रय से पवित्र रहने वाले मनिराज परिषद के अन्तर्गत आता है। कभी भी स्नान नही करते । शरीर के प्रति ममत्व भाव पिच्छि कमण्डलका न होना मुनिचर्या का विशेष अग है । अतः उसके रक्षण मुनि पिच्छि कमण्डलु लेकर क्यो चलते है ? दिगम्बर के लिए जागरूक रहना दोष और अतिचार मे आता है। मुनि के पास सयम तथा शोच के उपकरण के रूप मे स्नान आदि न करने से उन की वैचारिक दशा अन्तर्मखी हो पिच्छि कमण्डलु होते है। मानो पिच्छि-कमण्डलू स्वावजाती है। अपने वाह्य वपु प्रदेश की चिन्ता ही छूट जाती है। लम्बन के दो हाथ है प्रतिलेखन शुद्धि के लिए पिच्छि की
स्नान करने से उन्हे अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव नितान्त आवश्यकता है और पाणिग-पाद-प्रक्षालन के लिए, बढता है। उनके अंतर्मन में शारीरिक सौन्दर्य की भावना शुद्धि के लिए कमण्डलु वान्छनीय है। मयूरपिच्छि का लव जागत होती है तथा उनकी भावना के साथ-साथ श्रावक भाग इतना मृदु होता है कि प्रतिलेखन से किसी सूक्ष्म की भावना में आकर्षण शक्ति जागने लगती है। मुनि को जन्तु की हिंसा भी नही होती स्वयं मयूरी के पंख भी स्नान आदि से कोई मतलब नही होता उनका जीवन तो पिच्छि के निमित्त उपादान नही हो सकते। इन कारणों तपस्वी का होता है। जिससे उनका शरीर जीर्ण-शीर्ण तथा से मयूरपिच्छि धारण दिगम्बर साधु की मुद्रा है। पिच्छि तपस्वी लगे।
रखने से वह नग्न मुद्रा किसी प्रमादी की न होकर त्यागी अब प्रश्न यह उठता है कि स्नानादि न करने से का परिचय उपस्थित करती है। "मुद्रा सर्वत्र मान्या अशुचिरना होता है ? इसका समाधान यह है कि मुनिराज स्यात् निर्मुद्रो नैव मन्यते"-नीतिसार की यह उक्ति व्रतों कर सदा पवित्र है, यदि व्रत रहित होकर जन स्नान
(शेष पृ. २६ पर)
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चिन्तन के लिए :
षट्खण्डागम और गोम्मटसार
श्री एम० एल० जैन ३०, तुगलक कोसेंट, नई दिल्ली
षटखण्डागम की टीका धवला में अपने से पूर्ववर्ती छोड़ दें तो गाथा व सूत्र का अन्तर नगण्य है। यही कई आचार्यों की गाथाएँ उद्धृत हैं परन्तु सभी विद्वानों ने कारण है कि धवला मे जीवकाण्ड की गाथा को उद्धत यह भी निष्कर्ष निकाला है कि जहां तक गोम्मटसार की नहीं किया गया। उद्धरण इस बात का प्रमाण होता है गाथाओं का सवाल है, वे नेमिचन्द्र ने धवला से संग्रहीत कि उद्धत अंश पूर्ववर्ती होता है भविष्यवर्ती तो नही । की हैं । इस निष्कर्ष का मूल कारण यह है कि इस बात ऐसी सूरत में निष्कर्ष यह होगा कि गोम्मटसार की को अब सन्देह से परे समझा जाता है कि गोम्मटराय संरचना धवला टीका के पहले याने सन् ८१६ के पहले जिनका जयगान नेमिचन्द्र ने किया है वे कोई और नही हो चुकी थी। इस सिलसिले में यह भी नही भुलाया जाना गंगनरेश रायमल्ल के सेनानायक चामुन्डराय हैं जो दसवीं चाहिए कि नेमिचन्द्र ने अपने ग्रथो मे चामुण्डराय का व शताब्दि के द्वितीय चरण में हए हैं। परन्तु क्या यह निष्कर्ष चामुण्डराय ने अपने ग्रंथो मे नेमिचन्द्र का नाम नही लिखा सही है ?
है। प्रचलित किंवदन्तियों व अनुमानो के आधार पर यह पं० हीरालाल शास्त्री ने पञ्चसंग्रह की अपनी निश्चय कर लिया गया है कि नेमिचन्द्र के गोम्मट राय प्रस्तावना पृ० ३६ में यह अनुमानलगाया है कि यह ग्रन्थ चामुण्डराय ही हैं।' पांचवीं-छठी शताब्दि के बीच कभी संग्रहीत हुआ है। इस
जीवकाण्ड की गाथा ५६१ इस प्रकार हैग्रथ का पहला अधिकार जीव समास है उसकी गाथा ५७ छप्पच णव विहाणं अल्याण जिणवरो वट्ठाण । इस प्रकार है
आणाए अहिगमेण व सद्दहण होई सम्मत्त ॥ गइ इदिय च काए जोए वेए कसाय णाणे य।।
इस गाथा का यही स्वरूप पचमंग्रह के जीवसमास सजम दसण लेस्मा विया सम्मत्त सण्णि आहारे॥ अधिकार की गाथा सख्या १५६ मे तथा षटखण्डागम के गोम्मटसार जीव काण्ड की गाथा १४२ इस प्रकार है- सूत्र १५१२५ की धवला टीका मे गाथा ९ का है। अब गइ इंदिए सु काए जोगे वेदे कसाय णाणे य। यह गाथा वीरसेन ने गोम्मटसार से उद्धत की, यह उसी संजम दसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥
सूरत में अस्वीकार किया जा सकता है जब कि हम दोनो गाथा लगभग एक है किन्तु पञ्चसंग्रह के गाम्मटराया
गोम्मटराय व चामुण्ड राय को एक मानने के निर्णय पर 'इंदिय च' 'जोए बेए' के स्थान पर गोम्मटसार जीवकाण्ड अटल रहे। में 'इंदिए सु' व 'जोगे वेदे' पद हैं।
जीवकाण्ड की गाथा ५१२ यों हैषट्खण्डागम का सूत्र ११४ इस प्रकार है
रूसइ णिदइ अणे दूसइ वहुसो य सोय भय बहलो "गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाय णाणे संजमे दंसणे
असुयदि परिभवदि परं पसंमदि अप्पयं बहुमो। लेस्सा भविए सम्मत्त सण्णि आहारए चे दि।"
यही रूप इस गाथा का पचसंग्रह के जीव समास तुलना करने से दृष्टव्य है कि गोम्मटसार गाथा के शब्द अधिकार की गाथा १४७ का है। किन्तु धवला की गाथा 'सु' व 'य' उक्त सूत्र में नहीं है और 'चेदि' शब्द सूत्र मे संख्या २०३ इस प्रकार हैअधिक है तथा 'संजम दसण' शब्दो में सप्तमी विभक्ति रूसदि णिदि अण्णे दूसदि बहुसो य सोय भय बहुलो। सहित 'सजमे दंसणे' शब्द आए है। इन विशेषताओं को असुयदि परिभवदि पर पससदि अप्पय बहुलो ।।
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२६. वर्ष ४२, कि०२
अनेकान्त ___ तुलना करने पर यह अन्तर दृष्टिगोचर होता है कि 'त' का लोप व कही अलोप है। लगता है धवनाकार ने क्रिया के रूप मे जं वकाण्ड मे 'त' के स्थान पर 'द' है। इस विषय मे किसी एक नियम का अनुसरण नही किया किन्तु पञ्चसग्रह मे जो धवला से पहले का है 'त' का है। इससे यह शका होती है कि गाथा मे क्रिया का रूप लोप है मग. ध ( 11 के शब्द विमर्श से देखा जाता है कि धकलाकार ने ही बदला हो। सम्भावना अधिक यही है सूत्रों में, टीका में व उद्धरणो में कहीं 'त' का 'द', कही कि धवलाकार के समक्ष गोम्मटसार मौजूद था।'
सन्दर्भ-नोट १. यह ग्रन्थ भारतीग ज्ञानपीठ काशी मे १९६० मे शका समाधान की आवश्यकता ही नहीं रहती। प्रकाशित हुआ है। प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इमलिए लगता है कि सूत्र को रचना गाथा के रूप अपने 'जैन माहि-य के इतिहाग' मे इगता साहकान
का ही अन्वय है तथा गाथा के रूप को कायम रखना विक्रम की आठवी शताब्दि से पूर्व का माना है। ही इरा विसगति का कारण है । उस दशा मे स्वय २ सूत्र की भाषा पर स्वय वीरसेन को शका समाधान पटखण्डागम ही पचसग्रह, गोम्मटसार के बाद का करना पड़ा। गति आदि मार्गणा को जीवो का ठहरता है। आधार बनाने के लिए स तभी विभक्ति का निर्देश ३. जैन शिलालेख सग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ भाग ५ पृ० होना चाहिए था परन्तु गति, इन्द्रिय, काय, कपाय, ५८ मे पेटतुम्बलम् (कुर्नल, आंध्र प्रदेश) मे जिन मूर्ति लेश्या, भव्यत्व, सम्पक्व और सज्ञी पदो म विभक्ति के पाद पीठ पर ऑकित लेख कन्नड भाषा मे १२वी नही पाई जाती है । १४ पदो मे में केवल ६ पदो मे सदी का (लेख न० १३०) दिया हुआ है जिसमे ही विभक्ति का प्रयोग क्यो किया जबकि सूत्र की किसी चिकब्बे नाम की महिला द्वारा गोम्मट पार्श्व भापा में व्याकरण का ध्यान रखना आवश्यक है इस जिन की स्थापना का वर्णन - । तो क्या 'गोम्मट' कठिनाई का जवाब वीरसेन ने 'आइ-मज्झत-वण्ण- शब्द कवल बाहुबनि की मूर्ति के लिए नहीं बल्कि सर लोवो' यह अज्ञात प्राकृत व्याकरण का सूत्र उद्धत शिल्प विशेष या स्थान विशेष का सूचक है न कि व रके कह दिया कि आदि मध्य और अन्त के वर्ण सेनापति चामुण्डराय के अपर नाम का? ग्रो स्पर ना लोप हो गया है अथवा विभक्ति वाले ४. (a) यही कारण हो न नेमिचन्द्र ने वीरसेन का नाम पद के पूर्ववती विभक्ति-रहित पदो को मिला कर स्मरण नहीं किया। एम पद समझना चाहिए। यह समाधान ठीक नहीं, (b) पुष्पदत और भूतबलि का समय ६६.१५६ ई. क्योकि इसके अनुसार तो सब पद विभक्ति रहित माना गया है । यदि कुदकुंद २००० वर्ष पूर्व अर्थात् हो अन्तिम पद ६. माथ विर्भाक्त गनी चाहिए ई० पूर्व पहली सदी के है तो कहना होगा कि षट्थी या फिर प्रत्येक पद के साथ निभकि! लगनी खण्डागम नी रचना समयसार के बाद की है व समय चासिनी। तभी सूत्र की एकरूपता होती और सार ही प्राचीनतम आगम ग्रथ है।
(१०२४ का शेषाश) सारगर्भित है। मुद्रा चाहे शासन की हो, धामिक वर्ग हो सयमोपकरण रूप मे पिच्छि की आवश्यकता होती है। सर्वत्र समेक्षित होती । वैष्णवो शायन्समतानुयायियो, २८ मूलगुणो के अतिरिक्त भी वे मुनिराज अन्य अनेक शैवो, राधा स्वामी सम्प्रदायिको आदि मे तिलक लगाने विशेषताओ को लिए हुए होते है। अहिंसा और अपरिग्रह को पृथक-पृथक प्रणाली है। राजभूतो के कन्धो पर अथवा की चरम सीमा को प्राप्त ये दिगम्बर मुनिराज समस्त सामने वक्ष: स्थल पर नस्य निर्मित या धातुपटित मुद्रा विश्व के आराध्य है। अहिंसा का इतना सूक्ष्म परिपालन होती है जिससे उसकी पद-प्रतिष्ठा जानी जाती है। और इनके जीवन में होता है। ये हरी घास पर भी पैर नही राजभृत्यतां को प्रमाणिकता सिद्ध होती है। इसी प्रकार रखते। श्रमण परम्परा के आदिकाल से अधिकृत चिह्न के 67 मे अत: मानव समाज की सार्थकता यह है कि उनके परम पिच्छि कमण्डलु रखने का विधान चला आया है। पावन जीवन के आदर्श को प्राप्त करने हेतु उन्ही के पथ
विशुद्धि के लिए शो वोपकरण में कमण्डलु की तथा पर चलने का साहस करते हुए आत्म साधना में लग सकें।
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गतांक से आगे
सल्लेखना अथवा समाधिमरण
9 डा० दरबारीलाल कोठिया
स्मरण रहे कि जैन व्रती-धावक या साधु की दृष्टि (विवेक) का लाभ हो।' मे शरीर का उतना महत्त्व नही है जितना आत्मा का है, जैन सस्कृति मे मल्लेखना का यही आध्यात्मिक उद्देश्य क्योकि उसने भौतिक दृष्टि को गौण और आध्यात्मिक एव प्रयोजन स्वीकार किया गया है। लौकिक भोग या दष्टि को उपादेय माना है। अतएव वह भौतिक शरीर की उपभोग या इन्द्रादि पद की उसमे कामना नहीं की गई है। उक्त उपसर्गादि सकटावस्थाओ में, जो साधारण व्यक्ति
मुमुक्षु श्रावक या साधु ने जो अब तक व्रत-तपादि पालन को विनित कर देने वाली होती है, आत्मधर्म से च्युत न का घोर प्रयत्न किया है. कष्ट सहे है, पात्म-शक्ति बढाई होता हआ उसकी रक्षा के लिए माम्यभावपूर्वक शरीर का रक्षा के लिए साम्यभावपूवक शरार का है और असाधारण आत्म ज्ञान को जागृत किरा हे उस पर
और अपार उत्सर्ग कर देता है। वास्तव में इस प्रकार का विवेक,
सुन्दर कलश रखने के लिए वह अन्तिम समय में भी प्रमाद बद्धि और निर्मोहभाव उसे अनक वर्षों को चिरन्तन अभ्यास नही करना ,
नही करना चाहता। अतएव वह जागृत रहता हुआ और साधना द्वारा ही प्राप्त होता है। इसी से सल्लेखना गल्लेखना मे प्रव होना है। एक असामान्य असिधारा-व्रत है, जिसे उच्च मन:स्थिति के मल्लेख नावस्था में उमे कैसी प्रवृत्ति करना चाहिए व्यक्ति ही धारण कर पात है। मच बात यह है कि शरीर और उसकी विधि क्या है? इस सम्बन्ध में भी जैन लेखको और आत्मा के मध्य का अन्तर (शरीर जड़, हेय पोर ने विस्तृत और विशद विवेचन किया है। आचार्य समन्तअस्थायी है तथा आत्मा चेतन, उपादेय और स्थायी है) भद्र ने सल्लेखना की निम्न प्रकार विधि बतलाई है।' जान लेने पर सल्लेखना-धारण कठिन नहीं रहता। उस सल्लेखना-धागे सबसे पहले इष्ट वस्तुओ मे राग, अन्तर का ज्ञाता यह स्पष्ट जानना है कि शरीर का नाश अनिष्ट वस्तओमेद्वेष, स्त्री-पुत्रादि प्रियजनो मे ममत्व अवश्य होगा, उसके लिए आवनश्वर फलदायी धर्म का और धनादि मे स्वामित्व का त्याग करके मन को शुद्ध नाश नही करना चाहि!, क्योकि शरीर का नाश हो जाने माने के नात अपने परिवार ur il.ra पर तो दूसरा शरीर पुनः मिल सकता है। परन्तु आत्म- व्यक्तियो मे जीवन में हए अपराधो को क्षमा कराये और धर्म का नाश हो जाने पर उसका पुन. मिलना दुर्लभ है।" स्वय भी ले प्रिय वचन बोलकर क्षमा करे । अतः जो शरीर-मोही नही होते वे आत्मा और अनात्मा के
इसके अनन्तर वह स्वय किये, दूसरो से कराये और अन्तर को जानकर समाधिमरण द्वारा यात्मा से परमात्मा अनुमोदना किये हिंसादि पापो की निश्छन भाव मे आलोकी ओर बढ़ते हैं। जैन सल्लेग्ना मे यही तत्त्व निहित है। चना (उन पर खेद प्रकाशन) करे तया मृत्युपर्यन्त महाव्रतो इसी से प्रत्येक जैन देवोपासना के अन्त में प्रतिदिन यह का अपने मे आरोप करे। पवित्र कामना करता है। -
इसके अतिरिक्त आत्मा को निबंल बनाने वाने शोक, 'हे जिनेन्द्र ! आपके जगत बन्धु होने के कारण मैं आपके भय, अवसाद, ग्लानि, कलुषता और आकुलता जैसे आत्मचरणो की शरण में आया है। उसके प्रभाव से मेरे सब विकारो का भी परित्याग करे तथा आत्मबल एव उत्साह दुःखो का अभाव हो, दुःखों के कारण ज्ञानावरणादि कर्मों को प्रकट करके अमृतोपम शास्त्रवचनो द्वारा मन को का नाश हो और कर्मनाश के कारण ममाधिमरण की प्रसन्न रखे। प्राप्ति हो ना समाधिमरण के कारणभूत सम्यकबोध इस प्रकार कषाय को शान्त अथवा क्षीण करते हुए
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२८, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त
शरीर को भी कृश करने के लिए सल्लेखना मे प्रथमतः रहता है। इस जीव ने अनन्त बार मरण किया, किन्तु अन्नादि आहार का, फिर दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों का समाधि महित पुण्य-मरण कभी नहीं किया, जो सौभाग्य से त्याग करे। इसके अनन्तर कांजी या गर्म जल पीने का या पुण्योदय से अब प्राप्त हुआ है। सर्वज्ञदेव ने इस समाधि अभ्यास करे।
सहित पुण्य-मरण की बडी प्रशमा की है, क्योकि समाधिअन्त में उन्हें भी छोड़कर शक्तिपूर्वक उपवास करे। पूर्वक मरण करने वाला महान् आत्मा निश्चय से संसारइस तरह उपवास करते एवं पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते रूपी पिंजरे को तोड़ देता है-उसे फिर ससार के बन्धन हए पूर्ण विवेक के साथ सावधानी में शरीर को छोड़े। मे नही रहना पड़ता है।'
इस अन्तरंग और बाह्य विधि से सल्लेखनाधारी आनद. ज्ञानस्वभाव आत्मा का पाधन करता है और वर्तमान सल्लेखना में सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य : पर्याय के विनाश से चिन्तित नहीं होता, किन्तु भावी आराधक जब सल्लेखना ले लेता है, तो वह उसमे पर्याय को अधिक ,खो, शान्त, शुद्ध एव उच्च बनाने का बडे आदर प्रेम और श्रद्धा के साथ सलग्न रहता है तथा पुरुषार्थ करता है। नश्वर से अनश्वर का लाभ हो, तो उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी रखता हुआ आत्म-साधना मे उस कोन बुद्धिमान छोड़ना चाहेगा? फलतः सल्लेखना- गतिशील रहता है। उसके इस पुण्य कार्य में, जिसे एक धारक उन पाँच दोषो से भी अपने को बचाता है, जिनसे 'महान-यज्ञ कहा गया है, पूर्ण सफल बनाने और उसे अपने उन सल्लेखना-व्रत में दूषण लगने की सम्भावना रहती पवित्र पथ से विवलित न होने देने के लिए निर्यापकाचार्य है। वे पांच दोष निम्न प्रकार बतलाये गये है :- (समाधिमरण कराने वाले अनुभवी मुनि) उसकी सल्लेखना
सल्लखना ले लने के बाद जीवित रहने की आकांक्षा में सम्पूर्ण शक्ति एव आदर के साथ उसे सहायता पहुचाते करना, कष्ट न सह सकने के कारण शीघ्र मरने की इच्छा है और समाधिमरण में उसे सुस्थिर रखते हैं। वे सदैव करना, भयभीत होना, स्नेहियो का स्मरण करना और उसे तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेश करते तथा शरीर और अगली पर्याय मे सुखो की चाह करना ये पाँच सल्लेखना- ससार की असारता एव क्षणभगुरता दिखलाते है, जिससे व्रत के दोष है, जिन्हे अतिचार कहा गया है।
वह उनम माहित न हो, जिन्हे वह हेय समझकर छोड़ सल्लेखना का फल :
चुका या छोड़न का सकल्प कर चुका है, उनको पुन. चाह सल्लखना-धारक धर्म का पूर्ण अनुभव और लाभ लेने न करे। आचार्य शिवार्य ने भगवता-आराधना (गा० ६५०के कारण नियम से नि.यस अथवा अभ्युदय प्राप्त करता ६७६) मे समाधिमरण-कराने वाले इन निर्यापक-मनियो है। समन्तभद्र स्वामी ने सल्लेखना का फल बतलाते हुए का बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन किया है। उन्होने लिखा है
लिखा है-- ___ 'उत्तम सल्लेखना करने वाला धर्मरूपी अमृत का पान
'वे मुनि (निर्यापक) धर्मप्रिय, दृढ़श्रद्धानी, पापभीरू, करने के कारण समस्त दुःखो से रहित होकर या तो वह परीषहजेता, देश-काल-ज्ञाता, याम्यायोग्यविचारक, न्याय नि.श्रेयस को प्राप्त करता है ओर या अभ्युदय को पाता मार्ग-मर्मज्ञ, अनुभवी, स्वपरतत्व-विवेकी, विश्वासी और है, जहां उसे अपरिमित सुखो की प्राप्ति होती है। पर-उपकारी होत है। उनकी संख्या अधिकतम ४८ और _ विद्वद्वर पण्डित आशाधर जी कहते हैं कि 'जिस महा- न्यूनतम २ हाती है।' पुरुष ने ससार परम्परा के नाशक समाधिमरण को धारण ४८ मुनि क्षपकको इस प्रकार सेवा करे। ४ मुनि किया है उसने धर्मरूपी महान् निधि को परभव मे जाने क्षपक को उठाने-बैठाने आदि रूप से शरीर को टहल करे। के लिए अपने साथ ले लिया है, जिससे वह इसी तरह ४ मु धर्मश्रवण कराये। ४ मुनि भोजन और ४ मुनि सुखी रहे, जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरे ग्राम को जाने पान कराये । ४ मुनि देख-भाल रखे । ४ मुनि शरीर के वाला व्यक्ति पास मे पर्याप्त पाथेय होने पर निराकुल मलमूत्रादि क्षेपण म तत्पर रहे । ४ मुनि वसतिका के द्वार
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सल्लेखना अथवा समाधिमरण
पर रहें, जिससे लोग क्षपक के परिणामो में क्षोभ न कर बाह्य वस्तुओ से मोह को तागो, विवेक तथा संयम का सके । ४ मुनि क्षपक की आराधना को सुनकर आये लोगो आश्रय लो। और सदैव यह विचारो कि मैं अन्य हू और को सभा मे धर्मोपदेश द्वारा सन्तुष्ट करे । ४ मुनि रात्रि पुद्गल अन्य है । 'मै चेतना हु, ज्ञाता-द्रष्टा हू और पुद्गल रात्रि में जागें। ४ मुनि देश की ऊँच-नीच स्थिति के ज्ञान . अचेतन है, ज्ञान-पान रहित है। मैं आनन्दधन हूं और में तत्पर रहें। ४ मुनि बाहर से आये-गयो से बातचीत पुद्गल ऐसा नहीं है।' करें। और ४ मुनि क्षपक के समाधिमरण में विघ्न करने 'हे क्षपकराज ! जिस सल्लेखना को तुमने अब तक की सम्भावना से आये लोगों से वाद (शास्त्रार्थ द्वारा धर्म- धारण नहीं किया था उसे धारण करने का सुअवसर तुम्हें प्रभावना) करें। इस प्रकार ये निर्यापक मुनि क्षपक की आज प्राप्त हआ है। उस आत्महितकारी सल्लेखना मे कोई समाधि मे पूर्ण प्रयत्न स सहायता करते है। भरत और दोष न आने दो। तुम परीपहो-- क्षुधादि के कष्टो से मत ऐरावत क्षेत्रो मे काल की विषमता होने से जैसा अवसर घबडाओ। वे तुम्हारे आत्मा का कुछ बिगाड नही सकते। हो और जितनी विधि बन जाये तथा जितने गुण के धारक उन्हें तुम सहनशीलता एव धीरता से सहन करो और निर्यापक मिल जाये उतने गुणो वाले निर्यापको से भो उनके द्वारा कों की असख्य गुणी निर्जरा करो।' समाधि कराये, अति श्रेष्ठ है। पर एक निर्यापक नही होने 'हे आराधक ! अत्यन्त दुखदायी मिथ्यात्व का वमन चाहिए, कम-से-कम दो होना चाहिए, क्योकि अकेला एक करो, सूखदायी सम्यक्त्व की आराधना करो, पचपरमेष्ठी निर्यापक क्षपक को २४ घण्टे सेवा करने पर थक जायगा का स्मरण करो, उनके गुणो मे मनत अनुगग रखो और और क्षपक की समाधि अच्छी तरह नही करा सकेगा। अपने शद्ध ज्ञानोपयोग मे लीन रहो। अपने महावतों की
इस कथन से दो बाते प्रकाश में आती है। एक तो रक्षा करो, कषायो को जीनो, इन्द्रियो को वश में करो, यह कि समाधिमरण कराने क लिए दो से कम निर्यापक सदैव आत्मा मे ही आत्मा का ध्यान करो, मिथ्यात्व के नही होना चाहिए। सम्भव है कि क्षपक की समाधि समान दुखदायी और सम्यक्त्व के ममान सुखदायी तीन अधिक दिन तक चले और उस दशा में यदि निर्यापक एक लोक में अन्य कोई वस्त नही है। देखो, धनदत्त राजा का हो तो उसे विश्राम नही मिल सकता। अत: कम-से-कम सध श्री मन्त्री पहले गम्पादृष्टि था, पीछे उसने सम्यक्त्व दो निर्यापक तो होना ही चाहिए। दूसरी बात यह कि की विराधना की और मिथ्यात्व का सेवन किया, जिसके प्राचीन काल में मुनियो कि इतनी बहुलता थी कि एक-एक कारण उसकी आँखे फूट गई और ससार-चक्र में उसे घूमना मुनि की समाधि मे ४८, ४८ मुनि निर्यापक होते थे और पड़ा । राजा श्रेणिक तीव्र मिथ्यादृष्टि था, किन्तु बाद को क्षपक की समाधि को वे निविघ्न सम्पन्न कराते थे। उसने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया, जिसके प्रभाव से उसने ध्यान रहे कि यह साधुओ की समाधि का मुख्यता वर्णन । अपनी बँधी हई नरक की स्थिति को कम करक तीर्थकरहै। श्रावको की समाधि का वर्णन यहा गौण है। प्रकृति का बन्ध किया और भविष्यकाल में वह तीर्थंकर
ये निर्यापक क्षपक को जो कल्याणकारी उपदेश देते होगा।' तथा उसे सल्लेखना मे सुस्थिर रखते है, उसका पण्डित 'इसी तरह हे क्षपक ! जिन्होने परोषही एव उपसगों आशाधर जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वह कुछ को जीत करके महाव्रतो का पालन किया, उन्होने अभ्युदय यहाँ दिया जाता है
और नि.श्रेयस प्राप्त किया है। सुकमाल मुनि को देखो, हे क्षपक ! लोक में ऐसा कोई पुद्गल नही, जिसका वे जब वन मे तप कर रहे थे और ध्यान में मग्न थे, तो तुमने एक से अधिक बार भोग न किया हो, फिर भी यह शृगालिनी ने उन्हे कितनी निर्दयता से खाया। परन्तु सुकतुम्हारा कोई हित नही कर सका। पर वस्तु क्या कभी माल स्वामी जरा भी ध्यान से विचलित नही हुए और आत्मा का हित कर सकती है ? आत्मा का हित तो उसी घोर उपसर्ग सहकर उत्तम गति को प्राप्त हुए। शिवभूति के ज्ञान, संयम और श्रद्धादि गुण ही कर सकते है। अतः महामुनि को भी दे., उनके सिर पर ऑधी से उड़कर
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३०, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त
घास का ढेर आ पड़ा, परन्तु वे आत्म-पान से रत्तोमर आदि निमित्त कारणों से शरीर छोड़ा जाता है वह च्यावित भी नहीं डिगे और निश्चल भाव से शरीर त्यागकर निर्वाण शरीर-त्याग (मरण) कहा गया है। को प्राप्त हुए । पाँचो पाण्डव जब तपस्या कर रहे थे, तो ३. त्यक्त-रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता कौरवों के भानजे ग्रादि ने पुरातन बैर निकालने के यिए तथा मरण की आमन्नता ज्ञात होने पर जो विवेक सहित गरम लोहे की साकलो से उन्हे बांध दिया और कोलियां सन्यासरूप परिणामों से शरीर छोड़ा जाता है, वह त्यक्त ठोक दी, किन्तु वे अडिग रहे और उपसगो को सह कर शरीर-त्याग (मरण) है। उत्तम गति को प्राप्त हुए । युधिष्ठर, भीम और अर्जुन इन तीन तरह के शरीर-त्याग मे त्यक्तरूप शरीरमोक्ष गये तथा नकुल, सहदेव सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुए। त्याग मर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योकि त्यक्त विद्युच्चरने कितना भारी उपसर्ग सहा और उसने अवस्था मे आत्मा पूर्णतया जागृत एव सावधान रहता है सद्गति पाई।'
तथा कोई सक्लेश परिणाम नहीं होता। ___'अतः हे आराधक ! तुम्हे इन महापुरुषो को अपना इस त्यक्त शरीर--मरण को ही समाधि-मरण,मन्यासआदर्श बनाकर धीर-बीरता से सब कष्टो को सहन करते मरण, पण्डित-मरण, वीर-मरण और सल्लेखनामरण कहा हुए आत्म-लीन रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी समाधि गया है। यह सल्लेखनामरण (त्यक्त शरीरत्याग) भी तीन उत्तम प्रकार से हो और अभ्युदय तथा नि.भेयस को प्राप्त प्रकार का प्रतिपादन किया गया है .. करो।
१. भक्तप्रत्याख्यान, २. इगिनो और ३. प्रायोपगमन । इस तरह निर्यापक मुनि क्षपकको समाधिमरण मे
१. भक्तप्रत्याख्यान--जिस शरीर-त्याग में अन्ननिश्चल और सावधान बनाये रखते है । क्षपकके साधि
पान को धीरे-धीरे कम करते हा छोड़ा जाता है उसे मरण रूप महान् यज्ञ की सफलता में इन नियापक
भक्त-प्रत्याख्यान या भक्त-प्रति ज्ञा-सल्लेखना कहते है। साधुवरो के प्रमुख एव अद्वितीय राहयोग होने की प्रशसा
इसका काल-प्रमाण न्यूनतम अन्तर्मुहुर्त है और अधिकतम करते हुए आचार्य शिवार्य ने लिखा है
बारह वर्ष है। मध्यम अन्तर्मुहर्त से ऊपर तथा बारह वर्ष ___'वे महानुभाव (निर्यापक मुनि) धन्य है, जो अपनी
से नीचे का काल है। इसमे आराधक आत्मातिरिक्त समस्त सम्पूर्ण शक्ति लगाकर बडे आदर के साथ क्षपक की
पर-वस्तुओं से रागद्वेषादि छोड देता है और अपने शरीर सल्लेबना कराते हैं।'
को टहल स्वय भी करता है और दूसरो से भी कराता है। सल्लेखना के भेद:
२. इंगिनी" -जिस शरीर-त्याग मे क्षपक अपने जैन शास्त्रो मे शरीर का त्याग तीन तरह से बताया शरीर को सेवा-परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरो से गया है"-एक च्युत, दूसरा च्यावित और तीसरा त्यक्त। नही कराता उसे इगिनी-मरण कहते है। इसमे क्षपक स्वय
१. च्यत-जो आयु पूर्ण होकर शरीर का स्वतः उठेगा, स्वय बैठेगा और स्वय लेटेगा और इस तरह छटना है वह च्युत शरीर-त्याग (मरण) कहलाता है। अपनी समस्त क्रियाएँ स्वय ही करेगा। वह पूर्णतया स्वाव
२. च्यावित--जो विष-भक्षण, रक्त-क्षय, धातु-क्षय, लम्बन का आश्रय ले लेता है। शस्त्र-घात, सक्लेश, अग्निदाह, जल-प्रवेश, गिरि-पतन
(क्रमशः) सन्दर्भ-सूची १. आशाधर, सागारधर्मामृत ८-७ ।
६. आशाधर, सागारधर्मा० ७-५८, ८२७, २८ । २. भारतीय ज्ञानपीठ पूजाजलि पृ० ८७ ।
७. शिवार्य, भगवती आराधना, गा० ६६२-६७३ । ३. गमन्तभद्र, रत्नक० श्रावका० ५, ३-७ ।
८. सागारधर्मामृत ८-१०७ ।
६. भ. आ०, गा० २.००। ४. वही ५, ८॥
१०. पा० नेमिचन्द्र, गो० क०, गा० ५६, ५७, ५८ । ५. वही ५, ६।
११. वही गा० ६१
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समाज और जैन-विद्वान्
( पद्मचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
कभी हमने एक पंक्ति दोहराई थी----'हम यू ही मर सहना पड़ा । आपने सन् १९२१ से १९२८ नक स्याद्वाद मिटेंगे तुमको खबर न होगी।' उक्त पक्ति सिद्धान्तशास्त्री विद्यालय वाराणसी मे रहकर सिद्धान्त व न्यायशास्त्र का पं० बालचन्द्र जी के हैदराबाद मे १७ अप्रैल ८६ को अध्ययन किया। पडित जी के ठोस ज्ञान के साक्षी उनके स्वर्गवास के बाद पूनः सार्थक हुई। उक्त स्थिति विद्वानो द्वारा किए गए धवलादि के अनुवाद और अनेक सम्पादन के सन्मान के प्रति समाज की उपेक्षित मनोवत्ति को प्रकट है। प्रारम्भ मे आप सन् १९२८ से १९४० तक जारखी. करने के लिए काफी है। पंडित जी चले गये और देर से- गुना, चौरासी मथुरा, उज्जैन आदि मे अध्यापन कार्य एक मास बाद समाचार पत्र ने बताया। काश, होता कोई करते रहे। सन् १९४० से धवला कार्यालय अमरावती लक्ष्मी-सग्राहक या साधारण-सा भी नेता तो खबर बिजली और फिर सोलापुर ग्रन्थमाला में संपादन आदि कार्य की भांति फैल जाती। खेद है विद्वानो के प्रति समाज की करते हे । सन् १९६६ से १९७६ तक वीर सेवा मन्दिर ऐसी मनोवृत्ति पर ।
दिल्ली में 'जैन लक्षणावली' आदि का सपादन और अन्य कुछ का ख्याल है कि शायद, समाजप्रमुख आदि की ग्रन्था के अनुवादादि करते रहे। पडित जी ने तिलोय. एक आवाज मात्र पर विद्वान् का किन्ही उत्सवा मे महज पण्णत्ति, धवला, जम्बूदीवपण्णत्ति सगलो, आत्मानुशासन, भाव से उपस्थित हो जाना जैसी, विद्वान की उदारता ही।
पद्मनदि पंचविशतिका, लोकविभाग, पुण्याथव कथाकोश उसकी उपेक्षा में मुख्य कारण हो । विद्वान् को एक पत्र ।
आदि के अनुवादादि किए। इसके अलावा आपने ज्ञानामिलता है कि ... 'ठहरने, भोजन और आने-जाने के किराए
णंत्र, धर्म परीक्षा, सुभाषित रत्नसदोह के अनुवाद भी की व्यवस्था रहेगी' और विद्वान् पहुच लेता है। यदि ऐसे
किए। पडित जी की अन्तिम मौलिक रचना 'षट खण्डागम अवसरों पर मुख्य आयोजक, सवारी आदि की अनुकूल परिशीलन' है जिसे ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है। वीर व्यवस्था करके विद्वान् को ससन्मान स्वय लेने आते और सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'जैन लक्षणावली' (नीन भागों सम्मान सहित वापिस पहुंचाने के उपक्रम करते तो मे) अपूर्व कोश है-इसमे श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों पथो विद्वानों का सम्मान कायम रहा होता। गुरु गोपालदास के मान्य आगम-सम्मत पारिभाषिक शब्द (सोद्धरण) दिए जी आदि के समय में ऐसा ही चलन रहा । दूसरा कारण गए है और उनका पूर्ण खुलासा दिया गया है। जैन समाज है-दान में दी जाने योग्य आत्मोद्धारकारी धम विद्या का
__ मे ऐसा सर्वाङ्गीण कोश अभी तक देखने मे नही आया। विद्वान् द्वारा बेचा जाना और त्याज्य धन (पैसा परिग्रह) जैन विद्वानों की अपनी एक परिषद् है--विद्वानों का का संग्रह किया जाना आदि ।
परस्पर ध्यान रखने एव विद्वत्तापूर्ण शास्त्रीय कार्यों को हमारी दृष्टि मे श्री पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री पूर्ण करना उसका उद्देश्य है। पडित जी उक्त परिषद के गोलापूर्व समाज मे अपने समय के सिद्धान्त के सर्वोच्च प्रतिष्ठित सदस्य थे। अत: परिषद् ने अवश्य समाचार ज्ञाता थे। पंडित जी का जन्म झासी जिले के सोरई ग्राम पत्रो में स्वर्गीय को श्रद्धाजलि अर्पण के समाचार भेजे में ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या सं० १९६२ को हुआ। आपके होंगे ! पर, हमारे देखने मे नही आए, हाँ, काफी दिनो पिता का नाम श्री अच्छेलाल और मातुश्री का नाम बाद वीर-वाणी सम्पादकीय मे समाचार मिले-जैन सदेश उजियारी था। १२ वर्ष की आयु मे माता-पिता का वियोग ने मासवाद समाचार दिए और गजट ने डेढ मास बाद ।
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१२ वर्ष ४२, कि..
अनेकान्त
वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी की बैठक में मान्य कचरे ऐसे ही लोगों के कारण आज समाज में पंडित के पंडित जी के प्रति श्रद्धाजलि अर्पित की गई और पडितजी प्रति हीन-भावना का उदय हुआ है-कई लोगों को तो की सज्जनता, सादगी, विद्वत्ता और शालीनता का गुण- पडिस नाम से भी चिढ़ जैसी हो गई है। गान किया गया।
हमे याद है-एक दिन किसी ने एक ज्ञाता-चारित्रकुछ कहते है कि-जैन समाज में जैन सिद्धान्त के पालक को पडित नाम से संबोधित किया, और दूसरे ने ज्ञाता को पंडित कहा जाने का चलन रहा है और अनीत ऐमे संबोधन देने से उसे रोका। वे बोले-इन्हें पंडित मत में यह पद सर्वोच्च पद माना जाता था। पंडित को ज्ञान कहो; भाई सा० जैसे सबोधन से सबोधित करो। उन्होंने के साथ आचारवान होना भी जरूरी था। सब लक्ष्मी भी कहा कि क्या आपको नहीं मालूम कि आज के अधिकांश पंडित-पद की दासी थी और अच्छे-अच्छे नामी सेठ-साह- पडित नामधारियों की स्थिति क्या है ? उनमे बहुतेरे तो कार भी पडितो के सम्मान मे पलक-पावड़े बिछाए रहते ज्ञानशन्य (मात्र उपाधिधारी) और जैन के नियम उपथे-भी जन पडितों का मुंह जोहते थे कि कब उनके नियमों के पालन से हीन है, कई ने धर्म जैसी विद्या को मुख से किसी सेवा का आदेश मिले । पर, आज सरस्वती पेट-पूर्ति का साधन बना रखा है। भला, जिन्होंने जीवन ने लक्ष्मी के चरण पकड रखे है-अधिकांश पडित भी भर जिनवाणी को पढ़ा---और उसके उपयोग करने को लक्ष्मी देवी की उपासना भे लग बैठे है। कोई आत्मसाधक- छोड सांसारिक वासनापूर्ति के साधनो को एकत्रित करने धार्मिक कार्यों-पूजा, पाठ, प्रतिष्ठा और विधानादि को मे जुट गए, वे पडित कसे हो सकते है ? इनमें कितनेक लक्ष्मी-संचय का माध्यम बना बैठे। वे इनके बदले दक्षिणा विवाह-सबन्धो की दलाली कर रहे है, तो कोई विवाह, में बड़ी राशियां तक वसूलने में लगे है--किन्ही न इस अनुष्ठान, पतिष्ठा और पंचकल्याणक आदि के माध्यमो व्यापार के लिए साधुओ को पकड़ रखा है तो किन्ही ने से गहरी रकमे ऐठ रहे है। वे बोले-हमारी दृष्टि से तो किसी संस्था को। कोई किन्ही अन्य बहानो से लक्ष्मी का कुछ के गलत कारनामो से पूरा (श्रेष्ठ भी) पंडित समाज दासत्व स्वीकार कर रहे है। गोया, वे बरसो की सरस्वती बदनाम हो गया है। अत: अधिकांश लोगो की धारणा उपासना (जो उन्होंने विद्यालयो मे की थी) को शिव-मार्ग पाडत उपाधिमात्र से हट गई है। कई बार तो यह उपाति के स्थान पर ससार बढ़ाने का साधन बना बैठे है। क्या, विवाह-सबन्ध में भी आड़े आकर अच्छे सम्पन्न रिश्ते नहीं जनशिक्षा मे परिग्रह-सचय के उपदेश को ही प्रमुखता है? मिलने देती, आदि : विद्वान् इसे सोचे ।
उक्त टिप्पणीकार को हमने विद्वानो के पक्ष में बहत । कुछ लोगो के ख्याल में हुआ यह कि कभी पूर्व समय कुछ कहा। आखिर, क्यो न कहते--- हम भी तो पंडित में पंडित हिम्मत हार बैठे और उन्होने आत्म-साधना के हैं, पद की अवहेलना कैसे सुनते ? हमारे साथियो को भी स्थान पर पेट-साधना को प्रमुख बना लिया-वर्षों तक गुस्सा आना स्वाभाविक है-सभी तो च्युत जैसे नहीधर्मशास्त्र पढने के बाद भी उनको दृष्टि परिग्रह-पैसे अच्छे भी है। अस्तु : क्षमा हमारा भूषण है, इसलिए पर जा अटकी और वह इसलिए कि हमारा गुजारा कैसे हमने समलकर मौन धारण किया पर, होगा? उसने इस तथ्य को नही सोचा कि चारित्रवान् हम मोचते है-जैनधर्म शोध का धर्म है और इसमें ठोस ज्ञानी की आवश्यकताएँ कभी अधूरी नहीं रहती- स्व-शोध को प्रमुखता दी गई है.--फिर चाहे वह शोध उन्हें आज भी हाथो-हाथ उठाया जा सकता है। हाँ, आत्मा की हो या शुद्धात्मा बनने के लिए उसके साधक जिनका पाण्डित्य खोखला हो और कच्चा चारित्र हो-उन्हे अन्तरग-बहिरग चारित्र की शोध हो। ऐसी ही शोध अवसर खोजने और तरह-तरह के प्लान (Plan) बनाने परित का विषय है। पर, वर्तमान मे उक्त शोध का पड़ते हैं--रटन्त भाषा के धनी व कोरे व्याख्याता ही ऐसा स्थान बहलतया पुरातत्त्व, इतिहास और भूगोल जैसी करने को मजबूर होते है और ज्ञान और चारित्र मे अध- वाह्य-शोधों को मिल बैठा है। हम आए दिन पढ़ते हैं
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ऋषभ के समय और भरत-भारत आदि के नामकरण की हैं। अतः नव-निर्माण के लिए समाज को सोचना चाहिए खोज, गणित के बहु आयामी प्रश्नों के हल की खोज। और पडित पद का सन्मान कायम रहना चाहिए । कोई ऋषभ और शिव को एक व्यक्तित्व सिद्ध करने की स्मरण रहे कि ज्ञानसाधना मे सतर्क आचारवान् पंडित खोज मे है, तो कोई ऋषभ के काल को ईसापूर्व ५६२२- का दर्जा किसी आचारहीन साधु से कही श्रेष्ठ है। जैसे ४०१६ बतला कर जैनियों को पुनर्विचार के लिए प्रेरित एक सच्चे साधु को मुनि-मार्ग मे स्थिरता के लिए पहिले करने में लगा है। गोया, प्रकारान्तर से वह चेलज दे से तो परीषहो के सहने का अभ्यास करना होता है वैसे रहा हो कि जब ऋषभ का काल लगभग ५००० वर्ष है ही सच्चे पण्डित को अपने पाण्डित्य-पद की रक्षार्थ तंगतब बीच के शेष तीथंकरो के समय को अवकाश ही कहाँ ? दस्त रहने का अभ्यस्त होना जरूरी है-उसे आगत कोई महावीर के समय को विवादास्पद बना रहे है। कष्टो को सहते रहना चाहिए। यदि कष्ट न आएं तो कुन्दकुन्द के समय के विवाद मे तो हम आए दिन ही पढ़ उन्हें बुलाकर उनका मुकाबला करना चाहिए। ऐसे मे ही रहे है। किन्ही २ साधुओ की प्रवृत्ति भी बाह्य (पर-) उसका पद प्रतिष्ठित रह सकता है। अन्यथा, सम्भव है कि शोधों में ही है खेद;
पंसा-सग्रह उसे मजबूर कर विलासी और उच्छल बनादे पता नही, लोग क्यो स्व-शोधपरक जैन सिद्धान्त को और वह अपनी ज्ञान-साधना से च्युन होकर चरित्र-भ्रष्ट जड-शोधो से जोड़ रहे है। जगह-जगह विभिन्न नामो के तक हो जाय। या अपंडितो के झुण्ड मे जा बैठे-जैसा शोध-सस्थान खोल रहे है। हमे तो ऐसा भी सन्देह हो कि प्रायः हो रहा/हो गया/हो चुका है। यदि हमारा रहा है कि निकट भविष्य में कोई ऐसा शोध-सस्थान न विद्वान् भर्तृहरि महाराज के 'त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुः, खोलना पड़ जाय जो इस खोज को करे कि उपलब्ध तथा प्रज्ञाभिमानोन्नता.' जैसे पाठ को पून. पून: दोहराता रहे कथित प्रागमों में जिनवारणी कोन सी है और पंडितबारगी तो उसका पद पुन, सुरक्षित हो सकता है। कौन-सी है ? क्योकि आज जिसके मन मे जो जैसा आ प्रसग मे तगस्ती उपलक्षण है। इसमे अर्थ और यश रहा है-टीकाओ, व्याख्याओ मे वैसा ही लिख रहा है दोनो की कामनाएं भी सम्मिलित है। जब कोई अभिनदन और सभी को जिनवाणी रूप में पढ़ा जा रहा है, आदि। करता है या कराता है, अभिनन्दन ग्रंथ के साधन जुटातासभी प्रश्नो के हल खोजने चाहिए।
जुटवाता है, पुरस्कार और भेंट आदि देता-लेता है, तब विद्वानों के बारे में
दोनो ही पक्ष गिर जाते है-देने वाला 'मैं गृहीता से ऊंचा नि:सन्देह जैनधर्म की रक्षा और प्रचार मे विद्वानोह-मैंने उसका सन्मान किया और लेने वाला 'इसने मुझे का पूरा भाग है, इसे भुलाया नहीं जा सकता। आज ऊंचा उठाया अत: इसकी हर बात का मुझे समर्थन करना हमारा जो अस्तित्व है और कुछ तन कर खड़े हो सकते चाहिए' आदि जैसे भाव होने के कारण स्व-पद में स्थिर है वह इन्ही की कृपा का फल है। इन्होने आड़े समयो मे नही रह पाते। भी धर्म की रक्षा की है। समाज इनके उपकारों से उऋण हमारी दृष्टि से तो यदि जीव सम्यग्दृष्टि है तो वह नही हो सकता। हमे तब दुख होता है जब समाज विद्वान् स्वर्ग मे अवश्य पाश्चात्ताप करता होगा कि उसका अस्थायी को जायज दैनिक आवश्यकताओ की पूर्ति करने से जी और निरर्थक अभिनन्दन किसी पाप में निमित्त क्यों बना? चुराता है और उसे अधीन समझने के बाद भी उतना क्या अभिनन्दन ग्रन्थ मे व्यय होने वाली विपुलराशि किन्ही नही देता जिससे वह ससन्मान गुजारा कर सके। फलतः असहाय जरूरतमन्दों की आवश्यकतापूति कर उन्हें सुखवह अन्य मार्ग निकाल लेता है-उसका दोष नही। हो, समृद्ध न बनातो? या कितने ही गृहीता तो इस भव मे उसका इतना मात्र दोष हो तो हो कि वह गृहस्थी के प्रति 'जहाँ मिले तवा, परात, वहां गांवें सारी रात' जैसी अपनी जिम्मेदारी समझता है। स्मरण रहे-अब नए प्रवृत्ति वाले भी हो सकते है । फलत: उक्त सभी प्रसंगो को विद्वानो का निर्माण रुद्ध है और पुराने धीरे-धीरे वीत रहे सोचकर विद्वान् प्रवृत्ति करे, तभी कल्याण सम्भव है। कागज प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से ।
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० २० वार्षिक मूल्य।६).०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
नियन्त्र-प्रशस्ति सग्रह, भाग १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित पूर्व संग्रह उपयोगो ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रों को इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत सजिल्द जनप्रस्थ-प्रशस्ति संग्रह भाग २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित प्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पचपन प्रत्यकारो के ऐतिहासिक ग्रंथपरिचय और परिशिष्टो सहित सं. पं. परमानन्द शास्त्री सजिल्द समातिन्त्र र इष्टोपदेश: श्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित
:
श्री राजकृष्ण जैन
अवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जन तीचं जैन साहित्य चोर इतिहास पर विशद प्रकाश कसायात मूल ग्रन्थ की रचना माज से
पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द ।
I
दो हजार वर्ष पूर्व भी गुणधराचार्य ने की, जिस पर भी यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मे । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित ) : सपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता भी दरयावसिंह सोबिया
नलक्षणावली (तीन भागों में ) : स० प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रों
जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री पद्मवन्द्र शास्त्री, सात विषयो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पद्मवन्द्र शास्त्री
६-००
मूल
Jaina Bibliography Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
Per set
१५-००
५-५०
३-००
७.००
५-००
प्रत्येक भाग ४०-00
२५००
१२-००
२-०० २.००
600-00
शास्त्री
[सम्पादन] परामर्शदाता श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पद्म प्रकाशक - बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी० १०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली- ५३
BOOK-POST
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वर्ष ४२ : कि० ३
वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
( पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर')
इस अंक मेंविषय
क्रम
पृ०
१. ऐसा मोही क्यो न ?
१
२. कनककीर्ति नामके विभिन्न गुरु- डा० ज्योतिप्रसाद जैन २
३. मिथ्यात्व ही मिध्यात्व के बंध का कारण
-- श्री मुन्नालाल प्रभाकर
४. अज्ञात कायस्थ कवि जिनधर्मी प्यारे लाल सुषमा राहुल
५. दर्शन पाहुड. एक चिन्तन --- डॉ० कस्तूरचन्द 'सुमन' ६. दिगम्बर मुनि बाबूलाल जैन कलकत्ता वाले
७ क्या कभी मन धर्म रक्षा पर्व भी होगा ว
श्री दिग्दर्शन वरण जैन
८. समन्वय मे अपने को न भूले —श्री विमल प्रसाद जैन
६. सल्लेखना और समाधिमरण
-डॉ० दरबारी लाल कोठिया
१०. शुद्धि पत्र - धवला ३ - पं० जवाहरलाल शास्त्री ११. मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ?
- पद्मचन्द्र शास्त्री
१२. मुनि-रक्षा परम हिमा है - सपादक १३. अग्रिम चेतावनी - श्री सुभाष जैन १४. आगमो से चुने ज्ञानकण
- श्री शान्तीलाल जैन कागजी
आवरण
जुलाई-सितम्बर १९८६
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२५
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प्रकाशक :
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली - २
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अग्रिम चेतावनी : सावधान ! मै नेता नहीं, पर बिन्ती तो कर ही सकता हूं कि -"जिनका नायक नहीं होता वे नष्ट हो जाते हैं और जिनके कई नायक होते है वे भी नष्ट हो जाते है।" आज धर्म के विषय में जैन के अधिसंख्य श्रावक और मुनि इसो दशा से गुजर रहे है प्रायः चारी संघ निरकुश है, मनमानी कर रहे हैं और कथित नेतागण मौन है। भला, ये कैसा नेतृत्व ? जिसमें बाड़ हो खेत को खाये जा रहो हो ? हम समझे है कि यह सब एक सबल-नेतत्व के अभाव और निर्बल-बहुनेतृत्व के सद्भाव का हो परिणाम है।
ऐसे नाजुक दौर में सब नेता पंथ-गत नेतृत्व को किनारे रख, मिल बैठे तथा सबल ओर निष्पक्ष एक धार्मिक नेतत्व का निश्चय करे तथा उस नेतृत्व में 'धर्म-मार्ग-रक्षा' को समस्या को सुलझाये-शिथिताचारियो में सुधार लाएँ। अन्यथा, वह दिन दूर नहीं जब दबी जुबान में कानाफूसी करने वाले खुलकर कहने को मजबूर होंगे कि ये और इनके गुरू तथा इनका धर्म सभी ढोंग है। और तब श्रावकों और दि० जैन मुनियो की चर्चा केवल प्राचीन-शास्त्रों तक ही सीमित रह जायगो। कहीं ऐसा न हो कि हम हाथ मलते ही रह जॉय?
__ सुभाष जैन महासचिव, वीर सेवा मन्दिर
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विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल
लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते ।
कागज प्राप्ति. -श्रीमती अंगुरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली- के सौजन्य से।
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० २० वार्षिक मूल्य : ६) १०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे
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मोम् महम्
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LILAHIDI IRAM
1. M
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परमागमस्य बीजं निषितजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संवत् २५१५, वि० सं० २०४६
वर्ष ४२ किरण ३
जुलाई-सितम्बर
१९८९
ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे ? ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे,
जाको जिनवाणी न सुहावै ॥ वीतराग सो देव छोड़ कर, देव-कुदेव मनावे। कल्पलता, दयालता तजि, हिंसा इन्द्रासन बावै ॥ऐसा०॥ रुचे न गुरु निम्रन्थ भेष बहु, परिग्रही गुरु भाव । पर-धन पर-तिय को अभिलाषे, अशन अशोधित खावै ॥ऐसा०॥ पर को विभव देख दुख होई, पर दुख हरख लहावै । धर्म हेतु इक दाम न खरच, उपवन लक्ष बहावै ॥ऐसा०॥ ज्यों गृह में संचे बहु अंध, त्यों बन हू में उपजावै । अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै ॥ऐसा०॥ आरंभ तज शठ यंत्र-मंत्र करि जनपं पूज्य कहाव । धाम-वाम तज दासो राखे, बाहर मढ़ी बनावै ॥ऐसा०॥
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कनककति नाम के विभिन्न गुरु एवं मुनि
- इतिहास मनीषी, विद्यावारिधि स्व० डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन
शिलालेख मग्रहों, प्रशस्ति संग्रहो और इतिहासपुस्तको में अब तक कनककीर्ति नाम के जिन १० गुरुप्रो का उल्लेख मिल सका है, उनका यथासम्भव कालक्रमानुसार संक्षिप्त विवरण निम्नवत है :
१. एपिग्राफिया इण्डिका, खण्ड दस, पृ० १४७ तथा पी० बी० देसाई कृत 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया एण्ड सम जैन एपीग्राफ्स, (शोलापुर, १६५७) मं पृ० २२ पर वह कनककीर्ति देव, जो गग-नरेशों के प्रसिद्ध विद्वान एव धर्मात्मा जैन महासेनापति श्री विजय के समाधिमरण स्मारक लेख के अनुसार उक्त राजपुरुष के गुरु थे ( समय लगभग ८०० ई० ) । २. पेनगोल्ड के एक जैन व्यापारी के निषिधि लेख मे उसके गुरु के रूप में उल्लिखित कनककीर्ति देव । (जैन शिलालेख संग्रह, खण्ड चार, लेख स० ५६३) । ३. 'कषाय-जय भावना' अपरनाम 'कषाय-जय चत्वा
रिशत' (संस्कृत पद्य) के रचयिता कनककीर्ति मुनि ( समय लगभग १२ वी शती ई० ) | ( प्रशस्ति संग्रह, आरा, प्रशस्ति स० १७१-१७३) ।
४. भकुर (गुलबर्ग, मैसूर) के जिनमंदिर की त्रिमूर्ति के पादपीठ पर उसके प्रतिष्ठापक रूप मे अकित मुनि कनक् कीर्ति ( समय लगभग १३वी शती ई०) । (जैन शिलालेख संग्रह खण्ड पाँच लेख १५८ ) । ५. महाकवि रईधू के 'सन्मति जिनचरित' (समय लगभग १४४० ई० ) मे उल्लिखित सिद्धसेन के शिष्य कनककनि मुनि । ( प्रशस्ति सग्रह, वीर सेवा मंदिर, भाग दो, ३५ )
६. 'अष्टकोद्यापन' तथा 'नदीश्वर-पति- जयमाल ' (संस्कृत) के कर्ता कनककीति । (प्रशस्ति स० १७३, प्रशस्ति संग्रह, आरा)
७. ईडर के भट्टारक कनककीर्ति, जिन्होने १८७५ ई०
में कुंथलगिरि पर देशभूषण कुलभूषण मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था । (प० नाथूराम प्रेमी कृत 'जैन साहित्य और इतिहास', द्वितीय सस्करण, पु० २१२, डा० कैलाशचंद जैन कृत 'जैनिज्म इन राजस्थान' (शोलापुर, १६६३) पृ० ७७ )
८. पावागढ़ के प्राचीन जिन मन्दिरो का १८८० ई० में जीर्णोद्धार कराने वाले भट्टारक कनककीति । यह सम्भवतया ऊपर क्रमाक ( 3 ) पर उल्लिखित भ० कनककीर्ति में अभिन्न है। वहां की पाच प्रतिमाओ पर उनका नाम प्रतिष्ठापक रूप से अंकित है । (प्रेमी जो कृत उपरोक्त 'जैन साहित्य और इतिहास' मे पृ० २२० )
६. नागौर के भट्टारक क्षेमेन्द्र कीर्ति के आदेश से १८८२ ई० मे प० शिवजी लाल द्वारा रचित 'गजपथ-मडल विधान' में जिन पुरातन मुनियों को श्रध्ये प्रदान किया गया है, उनमे एक कनककीति भी है। (प्रेमी जी कृत उपरोक्त 'जैन साहित्य और इतिहास' मे १०१६८ )
१०. मूलनन्दिसंघ के नागौर पट्ट के भ० क्षेमेन्द्रकीर्ति
(१८८२-८६ ई०) के प्रशिष्य, मुनीन्द्रकीनि के शिष्य और देवेन्द्रकीति के गुरु कनककीर्ति ( समय लगभग १९२५ ई० ) ।
टिप्पणी- उपर्युक्त लेख स्व० डाक्टर साहब द्वारा
सकलित 'ऐतिहासिक व्यक्तिकोश' के अप्रकाशित अश की पान्डुलिपि से व्यवस्थित किया गया है ।
-- ( श्री रमाकन्त जैन के सौजन्य से )
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मिथ्यात्व ही मिथ्यात्व के बंध का कारण
ले० पं० मुन्नालाल जैन, 'प्रभाकर' 'अकिंचित्कर' पुस्तक मे मिथ्यात्व के बघ का कारण बड़ा छपा है, उसमे बधने वाली कम प्रतियो के पृथक मिथ्यात्व को न मानकर अनतानुवंधी कषाय को मिथ्यात्व पृथक नाम तथा उनके बध के कारण बतलाये है, जो के बंध का कारण कहा था, जिस पर मैंने मिथ्यात्व के आगम में भी अनेक जगह मिलते है तथा हमारे लेख में बध का कारण मिथ्यात्व ही है, ऐसा अपने लेख में लिखा भी पहले दिये जा चके है। अब जिन विन्दुओ पर विचार था, जो अनेकान्त वर्ष ४१ किरण ३ मे छपा था। उसमे करना है, वे निम्न प्रकार है-(१) जब यह अभव्य जीव लिखा था कि मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों के बध का मिथ्यात्व गुणस्थान मे मिथ्यात्व का उदय रहते हुए भी कारण मिथ्यात्व ही है और आगम के प्रमाण भी दिये थे व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान पूर्वक महाव्रतो तथा आगम के अनुमार १२० प्रकृतियो के बंध के कारण मे प्रतिरूप आचरण करने लगता है तब उसके १६ भी पृथक-पृथक बतलाये थे, उमके पश्चात् जैन-सदेश १६ प्रकृतियो का बंध नही होता, इसका प्रमाण समयसार की जनवरी, १९८६ मे स्व०प० कन्छेदीलाल जी जैन ने गाथा २७५ दी है ऐसा वीरवाणी मे १६० पृष्ठ पर कहा अपने मम्पादकीय नोट में लिखा था कि 'आचार्य श्री ने है। जब कि समयसार की गाथा २७५ मे जो कहा है वह अपना मतव्य स्पष्ट किया है कि "मिथ्या व प्रादि पांच उससे विपरीत है। समयमार की गाथा में यह कहा है--- प्रत्यय बंध के कारण है इसमें विवाद नहीं है किन्तु स्थित सद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पणो वि फासेदि । एव अनुभाग बध कषाय से होता है।'
धम्म भोगणिमित्त ण दुमो कम्मक्खय णिमित्त ॥' २७६ यह ठीक है कि स्थिति एव अनुभाग कषाय से पडता वह प्रभा जीव धर्म को श्रद्धान करता है, प्रतीति है तथा मिथ्यात्व के साथ कषाय तो रहती है और करता है, रुचि करता है और स्पर्शता है वह ससार भोग मिथ्यात्व के उदय के बिना भी कषाय रहती है किन्तु के निमित जो धर्म है, उसी को श्रद्धान आदि करता है, मिथ्यात्व के अभाव में कषाय मे ७० कोडा-कोडी मागर परन्तु कर्म क्षय होने का निमित्त रूप धर्म का श्रद्धान नहीं की स्थिति डालने की शक्ति नही है, इससे सिद्ध होता है करता। इसमे ऐसा कही नही कहा कि सम्यग्दर्शन, सम्यक्कि मिथ्यात्व प्रकृति के बंध मे मूल कारण तो मिथ्यात्व ज्ञान निश्चय तथा व्यवहार रूप दो प्रकार का है, हा, है ही इसके अतिरिक्त स्थिति और अनुभाग डालने मे भी मोक्षमार्ग प्रकाश (मुसद्दीलाल जैन चेरिटेबल ट्रस्ट से प्रका कषाय को ७० कोडा-कोडी सागर की शक्ति भी मिथ्यात्व शितY४ मा कटा है._
तितामिति के सहयोग से आयी है । जैसे अकेले एक अक का मान । रहित श्रद्धान रूप आत्मा का परिणाम सो तो निश्चय केवल एक हा हाता है आर याद उसक आग एक विन्दु सम्यक्त्व है, जाते यह सत्यार्थ सम्यक्त्व का स्वरूप है। को लगा दें, तो उसका मान एक से दश हो जाता है ऐमी सत्यार्थ
सत्यार्थ ही का नाम निश्चय है। बहरि विपरीताभिनिवेश अवस्था मे मिथ्यात्व को अकिचितकर नही कहा जा
रहित श्रद्धान को कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व सकता । फिर यह विवाद समाप्त भी हो गया था, परन्तु है से एक ही काल विषं दोउ सम्यक्त्व पाइए है अर्थात काफी समय के बाद दूबारा उसको उठाकर विवाद खडा निश्चय का जो कारण है. वह व्यवहार होता है, अगर कर दिया गया।
निश्चय नही है तो उसका कारण व्यवहार कहा से आ एक लेख वीरवाणी वर्ष ४१, अक १२-१३ में काफी गया ? इससे स्पष्ट होता है कि प्रथम गुग्गस्थान में व्यव
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४ वर्षे ४२; कि० ३
हार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान तथा व्यवहार सम्यम्चारित्र कदापि नहीं बनता। वहा तो मिथ्या चारित्र ही होता है, और वह मिथ्याचारित्र बिना मिध्यादर्शन के कदापि नहीं हो सकता। इससे सिद्ध है कि प्रथम गुणस्थान में मिथ्याचारित्र का मूल कारण मिथ्यादर्शन ही है, न कि क्रियावती शक्ति जैसा कि लेख में शक्ति के कारण से होने वाला योग कहा है, ऐसा आगम मे कही भी देखने मे नही आया। हां, पंचाध्यायी मे पृ०४६ पर क्रियावती प्राक्ति और भाववती शक्ति क्या है ? इस बारे में कहा है
अनेकान्त
"तत्र क्रिया प्रदेशो देशपरिप्पद लक्षणो वा स्यात् । भाव शक्तिविशेषस्तपरणामोऽययानिरथायः ॥१३४
इससे यह सिद्ध होता है कि जीव और पुद्गलो में जो एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जो गमन होता है, उसमे क्रियावती शक्ति कारण है और प्रदेशत्व गुण के अतिरिक्त अन्य गुणो मे जो तारतम्य रूप परिणमन होता है वह भाववनी शक्ति है । इसीलिए जीव तथा पुद्गल के सिवाय बाकी के रूपों को निष्क्रिय कहा है। प्रदेशश्व के गुण अतिरिक्त बाकी गुणो के अशो मे तरतम रूप से परिणमन होता है । अत क्रियावती शक्ति को मिथ्या आचरण का कारण बताना आगम विपरीत है।
पंचास्तिकाय पू० २७६ गाथा १०७ की तात्पर्यवृति टीका गाथा १ मे कहा है । अथ व्यवहारमम्यग्दर्शन कथ्यते
एवं जिणपण से समाणसभावदोभावे | पुरिसाभिणिबधे दमण सद्दो हर्वाद जुत्ते ।
अर्थ - जैसा पहले कहा है वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए पदार्थों को रुचिपूर्वक बद्धान करने वाले भव्य जीव के ज्ञान में सम्यग्दर्शन शब्द उचित होता है । लेख मे वीरबाणी पृ० १६० पर लिखा है कि प्रथम मिध्यात्व गुणस्थान मे अभव्य जीव के व्यवहार सम्यग्दर्शन से तत्वश्रद्धान व्यवहार सम्यग्ज्ञान (तत्त्व ज्ञान ) पूर्वक महाव्रतो में प्रवृत्तिरूप आवरण करने लगता है तो उस समय उसके मिथ्याय आदि १६ प्रकृतियों का बंध नहीं होता और इसका प्रमाण समयसार गाथा २७५ दिया है। पर, गाथा २७५ मे ऐसा बिलकुल नहीं कहा, उसमे तो केवल यह
कहा है कि अमस्य मिध्यादृष्टि जीव संसार के भोगों के निमित्तभूत धर्म का श्रद्धान करता है, परन्तु कर्म क्षय निमित्तभूत जो धर्म है उसका श्रद्धान नहीं करता। मुझे तो बड़ा आश्चर्य है कि लेख में २७५ गाथा का अर्थ ऐसा कैसे कर लिया, जोंकि गाथा के बिलकुल विपरीत है । आश्चर्य है कि किसी विद्वान् ने भी इस विषय पर कुछ नही कहा । यदि आगम के अनुकूल है तो उसका खुलासा करके समर्थन करना चाहिए था अन्यथा विरोध ।
ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व में जो मिध्यात्व को चित्र कहा गया था, पक्षपात व उसकी पुष्टि करने के लिए तोड़-मरोड़कर गाथा का अर्थ किया गया है। किन्तु गलत बात को सिद्ध करने के लिए कितने ही प्रमाण दिये जायें गलत बात सही सिद्ध नही हो सकती । गलत तो गलत ही रहेगा। हा, श्री कैलाशचंद्र सेठी जयपुर ने, तथा श्री पीयूष जी लशकर, ग्वालियर वालो ने इसका विरोध किया, जो सराहनीय है क्योकि मिथ्यात्व जैसे महान पाप को बंध का कारण न मानने के प्रचार से जनता का बहुत अहित होगा । साधारण जनता गहराई मे तो आती नही है, कुछ विद्वान् भी हाँ में हाँ करत है फिर साधारण जनता को कौन समझायेगा ? साधारण जनता अनादि काल से मिथ्यात्व के चक्कर मे पड़कर ससार म भ्रमण कर रही है, उपदेश देते-२ भी मिथ्यात्व का त्याग नही करती। अगर उसको मिथ्यान्त्र का समर्थन भी प्राप्त हो जाय तो कहना ही क्या ? निश्चय और व्यवहार तो दो नय है । नय वस्तु के स्वरूप का कथन करने वाली होती है । निश्चय नय वस्तु के सत्यार्थ स्वरूप को बतलाती है और व्यवहार नय उसके कारण को । जैसा प० दौलतराम जी ने बड़ी सरल भाषा में कहा है, 'सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो' अर्थात् कार्य के होने पर उसमे जो कारण होता है उस कारण मे कार्य का आरोप करके व्यवहार से उसको उस रूप कहा जाता है ।
जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का होना कार्य अर्थात् आत्म-श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन और उसकी प्राप्ति मे जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये सात तत्त्वों का चितन, जिसमे दर्शनमोह (मिध्यात्व) का नाश होता है, वह सात तत्वों का तिन कारण है तथा सच्चे देवशास्त्र गुरु का श्रद्धान भी कारण होता है, इसलिए कारण मे कार्य का
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मिथ्यात्व ही मिध्यात्व के बंध का कारण
उपचार करने इनको भी सम्यग्दर्शन कहते है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर ही इनको व्यवहार से सम्यग्दर्शन करते है फिर गुण स्थान मे दर्शनमोह ( विपरीताभिनिवेश) के अभाव बिना व्यवहार-सम्यग्दर्शन, व्यवहार-सम् ग्ज्ञान रू. महाव्रतों का आचरण कहा से आ गया ? द्रव्यलिंगी तो मात्र बाह्य क्रियाये करता है। इसके अतिरिक्त आगम में अनेको जगह पर बताया है ।
कहा तक लिखे, तथा समयसार की गाथा १५५ मे भी परमार्थ स्वरूप मोदा का ही कारण बताया है ।
जीवादि मद्दहण मम्मत्त मिर्माधिगमणं । रायादि परिहरण चरण एमोदु मक्खि पहो । अर्थात नियमो के कारण दर्शन ज्ञान, तथा सम्यक्चारित्र है तथा पचास्तिकाय गाथा १०५ मे भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया है और यह भव्य जीव को होता है तथा गाया १५६ - १६१ मे निश्चय मोक्ष मार्ग के साधनको व्यवहार मार्ग कहा है, निश्चय और व्यवहार दो मोक्षमार्ग हैं, ऐसा नही कहा । इसके अतिरिक्त अष्ट महत्री पृ० ३३५ पर कहा है कि मिथ्यात्व के बध का कारण मिध्यात्व ही है तथा प० दौलतराम जी कहते हैं कि मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान तथा मिथ्यावारित्र के वश होकर संसार मे भ्रमण करता हुआ जीव दुःख सह रहा है ऐसे महादुखदायी मिथ्यात्व को बध का कारण कैसे न कहे तथा वी वाणी के लेख मे ये भी कहा है कि 'अभव्य व तत्त्व श्रद्धानी और तत्वज्ञानी होकर महाव्रत आचरण करके उसके आधार पर चारब्धियों को प्राप्त करता है जबकि प्रागम में ऐसा कही नहीं कहा। आगम में तो यह कहा है कि भव्य मिध्यादृष्टि जीव को प्रथम चार लब्धियो की प्राप्ति होने पर (तत्वज्ञान, आत्मज्ञान या सम्यग्दर्शन कहो, एक ही बात है) मा होने का कोई नियम नही है। हां, पाचवी करणलब्धि के होने पर सम्यग्दर्शन (तत्वज्ञान) अवश्य होता है। ब्धिमार इसका विशेष वर्णन है । सक्षेप मैं इसका वर्णन मो० मा० प्रकाण पृ० ३१७ पर इस प्रकार दिया है कि (१) ज्ञानावरणादिकमों
का क्षयोपशम होने से मात्मा की ऐसी शक्ति का होना जिससे तत्वविचार कर महेश लब्धि, (२) कषाय की मदता का होना, जिसने तत्त्वविचार मे उपयोग लगावे (३) देना-वाणी के उपदेश का मिलना, (४) प्रायोग लब्धि पूर्व कर्मों की शक्ति घटकर अन्तः कोटाकोटिप्रमाण रह जाना और नवीन बघ अन्तःकोटाकोटि सागर प्रमाण संख्यातवां भाग होना ।
इतना होने पर भी यदि जीवादि सप्त तत्त्वों के विचार करने में उपयोग लगाने और अब तक करणलन्धि की प्राप्ति न हो जाय, विचार करता रहे, तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भव्य मिथ्यादृष्टि जीव को होती है और यदि उपयोग को जीवादि सात तत्वों के विचार मे न लगाकर अन्य जगह लगावे तो सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती । भव्य के ता सवाल ही नहीं, कि अमव्य म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र को प्रकट करने की योग्यता ही नहीं। वह को केवल भव्यमध्यादृष्टि जीव म होती है अगव्य म नहीं। तथा अभव्य जीव स्वर्ग आदि के सुखों को, जो प्राप्ति करता है उसका कारण शुभोपयोग से होने वाला पुण्य है न कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में होने वाला महाव्रत जैसा कि लेख का आशय है।
वीरवारणी पृ० ३५० पर लिखा है कि कणलब्धि की प्राप्ति भेदज्ञानी होने पर ही होती है तथा भेदज्ञान की प्राप्ति क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना तथा प्रायोग लब्धियो की प्राप्ति होने पर ऐसा आगम में कही नहीं
कहा । लेख में इमरा आगम प्रमाण भी नही दिया । मोक्ष मार्ग प्र० मे पृ० ३१८ पर कहा है कि चार लब्धि वाल के सम्यक्त्व होने का नियम नहीं हैं। हाँ, करणलब्धि वाले के सम्यक्त्व होन का नियम है, सके सम्यक्त्व होना होता है उसी जीव के करालब्धि होती है, अभव्य के करणलब्धि नहीं होती क्योकि मिध्यादृष्टि जीव के भेदज्ञान (आत्मज्ञान ) के अभाव में जितनी भी क्रियायें होती है वह सब मिथ्याचारित्र होता है। यदि वह क्रियायें शुभोपयोग रूप तो पुण्य का बध होता है और यदि अशुभोपयोग रूप होती है तब पाप का वध होता है । इसका जो पुण्य वध होता है, वह दृष्टी के पुण्य बध
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६, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
से ज्यादा भी हो सकता है, जिससे मिथ्यादष्टि अभव्य इसके अतिरिक्त मो० मार्गप्र० पृ० ३३ पर भी नवग्रीवक तक चला जाय और सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग तक कहा है-"शुभयोग होउ वा अशुभयोग होउ, सम्यक्त्व ही जाय' जैसे दौलतराम जी ने छहढाला में कहा है- पाये बिना घातिया कर्मन की तो समस्त प्रकृतिनिका निरंतर
बंध हुआ ही करे है, कोई समय किसी भी प्रकृति का बंध 'मुनिव्रत धार अनन्त बार प्रीवक लो उपजायो।।
हुआ बिना रहता नाही। बहरि अघातियानि की प्रकृतिनि4 निज आतमज्ञान बिना सुखलेश न पायो।"
विस शुभोपयोग होते पुण्य प्रकृतिनि का बध हो है ।' इसका कारण मिथ्यात गुणस्थान मे शुभोपयोग से
इस सब कथन का सारांश यह है कि मिथ्यात्व के बध होने वाला पुण्य है।
का कारण मिथ्यात्व ही है अन्य कोई कारण नहीं। ऐसा वीरवाणी पृ० १६१ पर लिखा है कि मिथ्यात्व आदि आगम मे सब जगह कथन है । इसके विपरीत अन्य कोई १६ प्रकृतियो का बध न होते हुए भी उसका उदय रहता कारण आगम में देखने में नहीं आया और न वीरवाणी है इसमे लेखक का कहना है कि उन महानुभावो को ध्यान के लेख मे ही कोई आगम-प्रमाण दिया है। और ना ही जो देना चाहिए, जो मिथ्यात्व कर्म के उदय मे मिथ्यात्व प्रमाण दिये है उनमे ही कही मिथ्यात्व के वध का कोई आदि १६ प्रकृतियों का बध नियम मे मानते हैं पर दूसरा कारण बताया है। मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बध नियम से होता है,
सभी भांति 'मिथ्यात्व ससार-भ्रमण का मूल है, इसे इसका प्रमाण गोमट सार गाथा ६५ से १०३ तक प्रत्येक
अकिंचित्कर' सिद्ध करने का प्रयत्न करना तीर्थंकरो की गुणस्यान मे कर्मों की सब प्रकृतियो की व्युच्छित्ति बताई है। उसमें प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान मे १६ प्रकृतियों की
वाणी के प्रति बगावत करना और जिनवाणी को झुठव्युच्छित्ति कही है अर्थात् १६ प्रकृतियो का बंध मिथ्यात्व लाना है। फलत: ऐसा बचन जिनवाणी नही हो सकता, गुणस्थान मे नियम से होता है, उससे आगे के गुणस्थान भले ही उसे 'आधुनिक-गुरुवाणी' कह दिया जाय ! हाँ, मे नही होता। क्योकि वहा बघ का कारण मिथ्यात्व का
इतना अवश्य है कि-सभी गुरु छगस्थ होते है-अत: अभाव है। इसी प्रकार आगे के गुणस्थानो मे बध के कारणों के अभाव हो जाने से बाको प्रकृतियो की व्युच्छित्ति
उनकी वाणी मिथ्या भी हो सकती है। हमे तो आश्चर्य होती जाती है उनकी संख्या तथा नाम इन्ही गाथाओ मे
है कि 'अकिंचित्कर' की पुष्टि मे सलग्न कुछ विद्वान् पक्षबताये है। तथा गाथा ९७ मे स्पष्ट कहा है कि ये बंध पात के व्यामोह में पड़, क्यो अपनी विद्वत्ता को प्रदर्शित व्युन्छित्ति नियम से होती है। गाथा
कर रहे है ? ऐसे प्रयास से तो उनकी प्रतिष्ठा को बट्टा
ही लगा है- ऐसा हमारा मत है। अयदे विदिय कसाया वज ओराल मणु दुग णुमा वाऊ। देमे तदिय कसाया णियमेणिह बध वोच्छिण्णा ।।
२१३४, दरियागंज, दिल्ली
"मिथ्याभाव अभाव तै, जो प्रगटै निज भाव । सो जयवन्त रहो सदा, यह ही मोक्ष उपाय ॥ इस भव के सब दुखनि के, कारण मिथ्याभाव। तिनकी सत्ता नाश करि, प्रगटै मोक्ष उपाय ।। बह विधि मिथ्या गहन करि, मलिन भयो निज भाव । ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव ॥"
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अज्ञात कायस्थ कवि-जिनधर्मो प्यारेलाल
[ सुषमा राहुल, एम० ए०, (शोध-छात्रा)
हिन्दी साहित्य में जैन साहित्यकारो की उपेक्षा के पोथी फुन्दीलाल की मुकाम बजरंगढ के बासी। कारण हिन्दी साहित्य का इतिहास अपूर्ण है । हिन्दी के अक्षर लाला प्यारेलाल कायस्थ के उस वखत लड़काबारे सुप्रसिद्ध कवि एव विद्वान भूतपूर्व कुलपति विक्रम-विश्व- पढ़ा, उसे संवत १९१०, पौष शुद्ध १, इसी से प्रतीत विद्यालय ने एक कृति 'जैन कथाओ का सांस्कृतिक अध्य- होता है कि उनका बाल्यकाल बजरंगढ़ मे बीता, तत्पश्चात यन' की भूमिका मे यथार्थ हो लिखा है। अभी तक जितने वह ईसागढ़ जाकर बस गये। ईसागढ़ उस समय तात्काहिन्दी साहित्य के इतिहास लिखे गये है, उनकी सबसे लिक महाराज जार्ज जीवाजीराव सिन्धियों के राज्य के बड़ी कमी यही रह गई है कि साहित्य की विभिन्म अन्तर्गत एक जिला था। विधाओ के विकास मे जैन साहित्य के योगदान का कायस्थ श्री प्यारेलाल के हमे दो रूप देखने को आकलन ठीक प्रकार से नही किया जा सका।
मिलते हैं-लिपिकार एव कवि । कायस्थ श्री प्यारेलाल जिस दिन कोई सुधी प्रबन्ध-काव्य, नाटक, कहानी जन्मजात जैन नही थे । किन्तु 'महावीराष्टक' के रचनामादि के विकास मे इस कड़ी को जोर देगा, उस दिन कार एवं जैनदर्शन के तलस्पर्शी मनीषी कवि एव विद्वान हिन्दी-साहित्य सचमुच ही वैभवशाली हो सकेगा। जैन- परित भागचन्द जी के सम्पर्क मे भाने के कारण उनका माहित्य को बहुमूल्य देन से वचित होकर हमारा साहित्य जैन-दर्शन से परिचय हमा, और उस महान व्यक्तित्व के अभी वचितो की श्रेणी में है।
सम्पर्क में आकर अपने को कायस्थ प्यारेलाल जिनधर्मी किन्तु इससे अधिक दुर्भाग्य का विषय है-जैन
लिखने लगे। अभी तक उनके द्वारा लिपिकार के रूप मे साहित्य के इतिहास में भी अनेक समर्थ साहित्यकारो का
लिपि की गई सम्वत २०८६ की पांडुलिपि उपदेश उल्लेख तक नहीं मिलता। सम्पूर्ण भारतवर्ष के जैन
सिदान्त रत्नमाला, ग्राम पिपरई में उपलब्ध हुई है।
पडित भागचन्द जी को इस कृति मे उन्होने निखा हैशास्त्र-भण्डारों मे अनेक प्राकृत, सस्कृत, हिन्दी एव विविध भाषाओ की कृतिया अपने उद्धार की प्रतीक्षा में मौजद
"इस पोथी के हरफ लिखे लाला प्यारेलाल कायस्थ जिनधर्मी ने।"
नाम माला उनकी एक स्वतंत्र एव मौलिक कृति है, ___गुना जिले की प्राचीनता असंदिग्ध है। पम्देरी, बढ़ी
इसके अतिरिक्त संवत २०१६ को एक हस्तलिखित पोथी चन्देरी, तूमैन, थूबोन, बजरगढ़ अनेक ऐतिहासिक स्थल
में उनके द्वारा लिखे १८ गीत उपलब्ध होते हैं । नामहै। गुना जिले के अधिकांश देवालयो मे हस्तलिखित,
माला के शुभारम्भ मे कवि ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया प्रकाशित एव अप्रकाशित ग्रन्थ उपलब्ध है, इन्ही शास्त्र
है कि महान ज्ञानी एव प्रसिर पशित भागचन्द की संगत भण्डारी के आधार पर कायस्थ प्यारेलाल जिनधर्मी के
में आकर उनकी जैनधर्म मे श्रमा उत्पन्न हुई। व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय दिया जा रहा है।
ॐ नमः सिद्धेभ्यः, कायस्थ श्री प्यारेलाल की जीवनी अज्ञात है. बजरगढ़
प्रय नाम माला लिख्यते, के देवालय मे एक हस्तलिखित पोथी प्राप्त हुई है जिसमें बंदो पांचों परम गुरु, स्वयं प्यारेलाल जी ने लिखा है
मन वच शीश नवाय,
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८, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
कल्पित ग्रन्थ रचे स्वारथ वश,
ता भ्रमजीव उगो, प्यारेलाल का बहु सोयो,
मो जिन ध्वनि सुना जगो जिनवाणो से नह गो।"
तिनके ही प्रताप से,
नसे विध्न समुदाय, बंदो जिनवारणी विमल,
जग माता मिर मौर, तुम बिन को संसार से, तार दिये शिव ठौर ।
भागचन्द जी भाई भागचन्द पाई महाज्ञानवान विख्यात । तिनकी सगत पाय हम परखी जिन-ध्वनि बात ।। तब सम्यक सरधा मई, गई मुधा मत रीत । सधा जैन वचनान को, लगी निरन्तर प्रीत ॥ ईसागढ़ माही बसे. कायस्थ प्यारेलाल । बाल-बोध कारण निमित्त, रची नाम की माल । संवत सन् उन्नीस अरु, ऊपर सत्रह साल । भावव शित पडिमा सुदिन, बरते पंचम काल ॥
कवि कायस्थ प्यारेलाल जनवमी , अभी तक १गीत उपलब्ध हए है। गीत के मूल्यांकन के पूर्व तीन गोन दिगे जा रहे है - न छोड़ी डोरतियाँ थारे चरण की,
ये जन्म भए चरन के चेरे, हरी व्यथा जिन जनम मरण को,
न छोड़ी डोरतिया थारे चरण को, सुमरे चरण-कमल घ्यावत, पावत निधि शुभ ज्ञान चरन को,
न छोड़ी.... . जब लग चरण बसे प्यारे उरु,
___नास करो गति करम अरिन को, न छोड़ी डोरतियाँ थारे चरण की ।। "जिनवाणी से नेह लगो,
जास, उदोत, जोत, रवि ऊगत, मिथ्याति मग भगी,
कुगुरु कुदेव धर्म लखे, ये जिमि रंग पतंग लगो,
जिनवाणी से नेह लगो,
श्रावक धर्म पाले नहीं, जनी हुमा तो क्या हुआ .. . स्वाध्याय सुमरन ध्यान लग, मिल मंद मति खेले जुमा बृषभादि अमत द्वार तज, अषवारि जल खोदे कुआ, प्यारे धर्म धारे बिना, गति चार में जन्मा मुत्रा, जैनी हा तो क्या हुआ ?"
-कवि प्यारेलाल कबि प्यारेलाल द्वारा रचित गीत उनकी प्रारम्भिक माधना काल के गीत पतीत होते है। किन्तु उनकी अपनी विशिष्ट शैली है, जिम वात को वे कहना चाहते है, कमसे कम शब्दो मे बडी गफाई मे अभिव्यक्त करते है। भाषा में बुन्दे खण्डी, राजस्थानी भाषा का सम्मिश्रण है। उनके चार-पाच पक्तियो के गीत हृदय को छ लेते है। आवश्यकता है कि उनके अन्य गीतो की शोध की जाये।
नाममाला कवि कायस्थ प्यारेलाल जिनधर्मी की एकमात्र दुर्लभ कृति है।
उपलब्ध पांडुलिपि का विवरण नाम-माला
पोलिपि के पृष्ठ की ल० १ फुट १ इच ७ इच, पृष्ठ सव्या-८०, दोहो की संख्या-९८६, लेखन-काल१६१७, सवत भ,दा सुदी पचमी ।।
नाम माला जैन धर्म के मन्दर्भ में दोहो के माध्यम से अधिकतम ज्ञान देन जालो दुर्लभ कृति है। इस कृति मे श्रावकों से लकर थमणो की आचार सहिता, स्वर्ग, नरक
(शेष पृ० १२ पर)
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दर्शन-पाहुड : एक चिन्तन
0 डॉ० कस्तूरचंद्र 'सुमन'
प्राध्यात्मिक क्षेत्र में भगवान महावीर के पश्चात् हुए नामोल्लेखों का तात्पर्य भी यही है। इससे आचार्य की आचायों में आचार्य कुन्दकुन्द का योगदान सदैव स्मर्णीय चौबीसों तीर्थंकरों को नमस्कार करन की भावना अभिरहेगा। उन्होने अपने आध्यात्मिक जीवन मे जो अनुभव व्यक्त होती है। आचार्य अकलकदेव ने भी इसी प्रकार प्राप्त किये, उन्हें अपने तक ही सीमित बनाये रखना उन्हें लघीयस्तोत्र के आदि मे ऋषम और महावीर का नामइष्ट नही रहा : उन्होने अपने अनुभवो को युक्तिमो के स्मरण कर चौबीसो तीथंकरो को नमन किया है।' द्वारा ग्रन्थों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया है ।
रचना का उद्देश्य-प्रस्तुत रचना का उद्देश्य आत्म उनके ग्रन्थ आज जीवों के कल्याण मे कारण बने हुए है।
कल्याण मे प्रवृत्ति और भव-बन्धनकारी प्रवृत्तियो से आचार्य-प्रणीत 'पाहुड' ग्रथो मे सर्वप्रथम रखा गया।
नित्ति के उपाय बताकर जीवो को मोक्षमार्ग मे सयोन 'दर्शनपाहड' प्रथ है । इसमे मात्र छत्तीस गाथाएं है किन्तु
जित करना रहा ज्ञात होता है।
त उनमें प्रतिपादित विषय आत्मकल्याण की दृष्टि से हृदय
___धर्म, भर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में दो पाही है। इस का अध्ययन-मनन और चिन्तन करने से
साध्य और दो उनके साधन हैं। इनमे काम और मोक्ष मुमुक्षु को अपन कर्तव्य और अकर्तव्य का सहज ही बोध
साध्य है। इनके साधन है अर्थ और धर्म । आचार्य कुन्दहो जाता है और वह बोधि की प्राप्ति मे लग जाता है।
कुन्द ने मोक्ष के लिए धर्म को उपादेय बताया। उन्होंने इसमे प्रथम गाथा मे बषभदेव और वर्द्धमान की
इमीलिए ग्रंथके आरम्भ में ही धर्म का मूल समझा देना वन्दना की गयी है । शेष गाथाओ मे सम्यक्त्व का महत्त्व
आवश्यक समझा था । उन्होने कहा कि जिस धर्म गे जीव (गाथा २-१२), सम्यक्त्व का म्वरूप-(गाथा १६-२१)
को ससार के दुःखी से उत्तम सुख की ओर ले जाया जा सम्यक्त्व के कारण (गाथा १४-१८) और कर्तव्याकर्तव्य
मकता है उस कर्मविनाशक धर्म' का मूल दर्शन ।' का बोध (गाथा २२-३६) कराया गया है। इस प्रकार
उनका उद्देश्य था दर्शन सम्बन्धी विवेचना प्रस्तुत करना । अल्पकाय होते हुए भी अध्यात्म के क्षेत्र में इसका बड़ा
ग्रथ को विषय वस्तु मे ज्ञान होता है कि आचार्य अपने महत्त्व है। यदि यह कहा जाय कि आचार्य ने 'गागर में
उद्देश्य मे सफल रहे है। सागर' भर दिया है तो काई अतिशयोक्ति न होगी।
दर्शन का अर्थ- - सामान्यतः दर्शन के तीन अर्थ मंगलाचरण में आचार्य की अव्यक्त भावना- प्राप्त होते है-(१) दृश् धातु मे ल्यूट प्रत्यय के संयोजन आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रस्तुत प्रथ मे तीर्थकर वृषभदेव और से निष्पन्न अर्थ देखना। (२) जिसके द्वारा देखा जाबे। वर्द्धमान को नमस्कार किया है।'
(३) षड्दर्शन-बोद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक गाथा में प्रयुक्त 'जिन-वर' शब्द मे 'व' और ' और जैमिनी । अन्तस्थ वर्ण है। कोशकारो द्वारा मान्य अन्तस्थ वर्णों के आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन की व्याख्या उक्त दर्शन के 'य र ल व' क्रम में 'र' वर्ण दूसरे और 'व' वर्ण चौथे सामान्य अर्थों से भिन्न की है। भिन्नता का कारण है क्रम में आने से 'वर' शब्द चौबीस सख्या का प्रतीक ज्ञात उनकी प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति और जीव कल्याण हितैषी होता है। प्रस्तुत गाथा मे आदि और अन्तिम तीर्थ रो के भावना । उनकी दृष्टि में दर्शन का अर्थ था-"सम्यक्त्व,
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१०, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
सयम और आत्मा के उत्तम मा आदि निजधर्म रूप वस्तु थी तो वह था ज्ञान । परन्तु सम्यक्त्व को उन्होने निर्ग्रन्थ ज्ञानमयी मोक्षमार्ग का दर्शन कराने वाला। ज्ञान से भी बढ़कर माना था क्योकि ज्ञान और चारित्र
यहा मोक्षमार्ग का दर्शक होने से दर्शन का अर्थ रत्न- सम्यक्त्व बिना नहीं होते और मोक्ष बिना चारित्र के नही त्रय नही है । दर्शन का अर्थ है- सम्यक्त्वमयी दर्शन और होता।" उन्होने जीव को सिद्ध होने मे सम्यक्त्व महित मम्यक्त्व का स्वरूप है-आगमोक्त षद्रव्य, नव पदार्थ, ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र चारो की अपेक्षा की है। पंचास्तिकाय और सप्त तत्त्व पर श्रद्धा ।' आचार्य ने इसे उनकी मान्यता थी कि जो बहुत शास्त्रों के पारगामी व्यवहार सम्यग्ज्ञान और आत्मिक श्रद्धान को निश्चय होकर भी मम्यक्त्व मे रहित है, वे भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र सम्यग्दर्शन बताया है।
और तप की आराधनाओ से रहित होकर ससार मे ही कुन्दकुन्द के दार्शनिक विचार-कून्द कून्द की भ्रमते है ।" आस्था प्रदर्शन में न रहकर दर्शन में थी। वे जानते थे सम्यक्त्व का महत्त्व दर्शाते हुए उन्होंने कहा है कि कि दर्शन दिखाने की वस्तु नही है। दिखाने से सुख नहीं सम्यक्त के बिना करोड़ा वर्ष तक उग्र तप करने पर भी दुःख ही प्राप्त होते है। बिना भावो के क्रियाएँ सुख कारी बोधि-सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र की नहीं होती।' इसीलिए उन्होने दर्शन को भावपूर्वक धारण प्राप्ति नहीं होती।" दर्शन बृक्ष की जड के समान है। करने के लिए कहा ।"
जट के न रहने से जैसे वक्ष की शाखाएं नही बढती, ऐसे कुन्दकुन्द पहले आचार्य है जिन्होने मानवो का तल- ही दर्शन के बिना जीव मुनत नही हाता । तीर्थकरो के स्पर्शी अध्ययन किया था। वे समझ गये थे कि शक्ति के पचकल्याणक भी विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर ही होते बाहर धारण किया गया दर्णन स्थिर नही रह सकेगा। है। इमीलिए उन्होने उघोषणा की थी कि जिननी शक्ति हो, सम्यक्त्वी के कर्तव्य-अवार्य में सम्यक्त्वी को उतना ही दर्शन धारण करना चाहिए। यदि शक्ति न हो तीन देव ही आराध्य बताये है। उन
तीन देव ही आराध्य बताये है। उनकी दुष्टि में चौसठ तो उस पर श्रद्धान अवश्य रखे क्योकि केवली जिनेन्द्र का चमरों और चातीस अतिशयो से युक्त प्राणियो के हित. वचन है कि सम्यक्त्व श्रद्धावान के ही होता है । कारी और कर्मक्षय के कारण अहंन्न प्रथम देव है।" जरा
इस उद्घोषणा का फल यह हुआ कि चारित्र से और मरण-व्याधि के हर्ता, सर्वदुःख,-क्षय कर्ता, विषय-सुख शिथिल या च्युत हो जाने पर भी श्रद्धा बनी रहने से जीव दूर करने के लिए समन तुल्य औषधि स्वरूप जिनवाणो पुनः ग्रात्मकल्याण में प्रवृत्त हुए। मुनि माघनन्दि का दूसरा" और तीगर गुरु है । गुरुओम प्रथम निर्ग्रन्थ साधु उदाहरण इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है।
दूसरे उत्कृष्ट धावक और तीसरे आयिकाओ का उल्लेख आवार्य की मान्यताएँ शाश्वत है। दर्शन को मोक्ष किया गया है।" का प्रथम सोपान होने को मान्यता" आज भी प्रचलित कुन्दकुन्द की दष्टि में वन्द्य और अवन्द्यहै । ५० दौलत राम द्वारा दर्शन को मोक्ष-महल की प्रथम प्राचार्य ने उत्पन्न हुए बालक के समान सहज उत्पन्न मीढी कहा जाना इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय उदाहरण निर्विकारी निर्घन्ध रूप को वन्द्य कहा है। उनकी मान्यता है।" उनको मान्यता थी कि दर्शन से जो जीव च्युत हो है कि जो ऐसे सहज उत्पन्न रूप को देखकर मात्सर्य से जाते है वे सासारिक दुखो से मुक्त नहीं हो पात । समार नमन नही करता वह सयमी भी क्यों न हो, तो भी मिथ्या मे ही भटकते रहते है। उनको मुक्ति की प्राप्ति नही दृष्टि ही है" सम्यक्त्व राहत है जो शील व्रतधारी दिगबर होती। चारित्र से च्युन तो सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं, साधुओ को नमन नही करते। क्योकि वे पुन दर्शन धारण कर लेते है।५।।
आचार्य भी दृष्टि मे वस्त्रविहीन वे साधु भी वन्ध आचार्य की दृष्टि में मनुष्य के लिए यदि कोई मार- नही, जो अमयमी है। आचार्य ने देह, कुल और जाति
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दर्शन-पाहुर: एक चिन्तन
वम्ध नही माना । वे गुणहीनो को नमन करने के पक्ष मे होता है, जो लज्जा, भय या गौरव के कारण दर्शन-भ्रष्ट नही रहे ।" उन्होंने स्पष्ट शब्दो मे दर्शन-विहीन जन साधु की वन्दना करते है।'' अतः सुखी होने के लिए अवन्ध" बताये है।
दर्शन को धारण करना और दर्शनधारियो को हो ___ आचार्य की मान्यता थी-कि दर्शन से प्रष्ट जो पुरुष, नमन करना प्रावष्यक है। सम्यग्दृष्टियो से नमस्कार करात है वे लूल और गूंगे होते है। बोधि न इन्हे प्राप्त होती है और न उन्हे प्राप्त
जैन विद्या संस्थान, श्री महावीर जी
__ सन्दर्भ-सूची १. 'काऊण णमुक्कार जिणवर वसहस्स वड्ढमाणस्स ।' बवहारा णिच्छ्यदो अप्पाण हवइ सम्मत ।। दर्शनपाहुब : गाथा प्रथम ।
वही, गाथा २०। २. प्राकृत-हिन्दो कोश : पाश्वनाथ विद्याथम शोध. १०. जातो'स्मि तेन जन-बान्धव दयपात्र ।
सस्थान आई. टी. आई. रोट वाराणसी, ई. १६६- यस्मातिया प्रतिफलान्ति न भावशून्याः ।। प्रकाशन ।
कल्याणमन्दिर स्तोत्र . श्लोक ३८ । २-ब धर्मतीर्थकरेभ्य ऽस्तु संपाद्वादिभ्यो नमो नमः।
११. एव जिगणपण्णत दसण रयण धरेहभावेण । ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य. स्पात्मोपलब्धय ।।
दर्श-पाहुड गाथ। २१ । जैन शासन का ध्वज, वीर निर्वाण भारती, मेरठ
१२. जं सक्कड लभीर इज व रण सक्कइ त य सद्दहण । प्रकाशन, पृ० २२ ।
कवलिजिणेहि भगिय मदहमारगरस मम्मतं ।। ३. देशयामि समीचीन धम कमीनबहणम् ।
वही, गाथा २२ । ससारदु.खतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ।
१३. सार गुगण रयरगत्तय सोवाण पढम मोक्यस्म । आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्डश्रावकाचारः श्लोक २।
वहीं, गाथा २१ । ४. 'दसणमूलो धम्मा '.....'
१४. मोक्षमहल की परथम सीढि, या बिन ज्ञान चरित्रा। दर्शनपाहुड : गाथा ।
छहढाला . तीसरी ढाल, अन्तिम पद्य । ५. 'दृश्यतेऽनेनति दर्शनम्'
१५. दसग्गभट्टाभट्टा दमणभट्टस्सरणस्थिणिवाण । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश : भाग २, पृ० ४०५।
मिज्झति चरियभट्टा दमगाभट्टा ग सिज्झति ॥ ६. दसई मोक्खमग्ग मम्मत्तसयम सुधम्म च ।
दर्शनदाहड : गाथा ३ णिग्गथ णाणमय जिण मग्गो दसण भणिय ॥
१६. गाण गरस्मसार मारोवि गरम्स मोइ सम्मत्त। बोधपाहुड : गापा १४ ।
मम्मत्ताओ चरण चरणाओ होइ रिगण्वाण ॥ ७. 'लह दसणम्मि सम्म'......'
व्ही, गाथा ३१ । वही, गाथा १५ ।
१७. गणागाम्मि दसरणम्मि य तवेग चरािाण मम्मगहिएण । ८. छह दब्व णव पयत्था पचत्थी सत्त तच दिट्ठा । चोक्कपि समाजोगे सिद्धा जीव ण सन्दहो । सद्दहइ ताण रूत्र सो सदिट्ठि मुणयब्बो ।
वही, गाथा ३२। दर्शनपाहुड . गाथा १६ ।
१८. वही, गाथा ४। ६ जीवादि सद्दहण मम्मत जिनवरेहि १णत्त। १६. मम्मत्त विरहियाण सृढ़ वि उग्ग तव चरताण ।
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१२, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
ण लहति बोहिलाह अवि वास सहस्सकोडोहि ॥ बहो, गाथा २४ । वही, गाथा ।
२६. वही, गाथा २५। २. जहमलम्मिविणठे दुमस्म परिवार रणत्यि परिवड्ढो। २७. अमजदं ण वन्द वच्छविहीणोवि सो गा वन्दिव्वो।
तह जिगदसण भट्टा मुलघिणट्ठा रण सिजनंति ॥ गावि देहो वंदिज्जइ राषिय कुनो गाविय जाइ संजुतो वही, गाथा १०।
को वंदवि गुणहीणो..." || २१. कल्लागा परसरण लहति जीवा विशुद्ध सम्मत्त । वही, गाथा २६-२७ ।। वही, गाथा ३३ .
२८. दसणहीणो ण वंदिव्यो। २२. वही, गाथा २६ ।
वही, गाथा २। २३. वही, गाथा १७ ।
२६ जे दसणेसुभट्टा पाए पाडन्ति दगगगध रागा। २४ ।क्क जिस्म प वीय उक्किट्ठ मावयाणतु । ते हुति लुल्लमुआ वोहि पुरण दुल्लहा तेसि ।।
अवरोठ्यागा नइय चउथं पुगग लिंग दसणे गच्छि ।। वही, गाथा १२। वही, गाथा १८
३०. जेवि पडन्ति च तसि जागान्त लज्जगारव भयेरण । २५. सह जुप्पणं वं दिठ जो मर गए णमच्छरिऊ । तेसिपि रात्थि वोही पाव अगामोन मारणाण ।।
सो सजम पडपणो रूव दट्ठग सील महियाण ।। वही, गाथा १३ ।
(प. ८ का शेषांश) का वर्णन व जैन धर्म को अधिकतम पारिभाषिक शब्दा
तिन सुख लहो अतुछ अविनाशी।" वली को एक स्थान पर सकलित करने का अनुपम प्रयत्न कृति के अन्त मे कवि ने २०१ जैन ग्रन्थो को ३६ है। इम कृति के अध्ययन के पश्चात् कोई भी विद्वान यह चिकित्सा सम्बन्धी, १३ शृगार, २६ ज्योतिष, १४ शब्दरवीकार करने में सकोच नही करेगे कि कायस्थ प्यारेलाल कानून, १६. व्याकरण, ८ महाकाव्य, ४ व्याकरण २ जैन-दर्शन के तलस्पर्शी विद्वान थे । इस कृति के लिए अन्य, इस प्रकार ३२० ग्रन्थो की सूची दी है। इस सची गमाज को उनका ऋणी होना चाहिए । प्रत्येक दोहे के के अध्ययन में यह सहज ज्ञात हो सकता है, कि कितने पूर्व उन्होंने बिषय-वस्तु को दर्शाने वाले शीर्षक वे दिये है : कितने ग्रन्थ काल कवलित हो गये। कायस्थ प्यारेलाल सम्पूर्ण कृति का सार सक्षेप में लिखना अत्यन्त कठिन जिनधर्मी की यह बहुमूल्य कृति है, यह उनके महान ज्ञान कार्य है। उदाहरण के लिए कुछ दोहे प्रस्तुत है-- और श्रम की साक्षी है। एक भाग से दूसरा, जिसका काल न होय ।
जैन साहित्यकारो मे कविवर भागचन्द जी प्रथम सोई समय सर्वज्ञ ने, कहो ज्ञान वृग जोय ।। साहित्यकार प्रतीत होते हैं, जिन्हे समकालीन कवियो ने
स्मरण किया। जिनका प्रतिबोध पाकर कायस्थ प्यारेहस्तदोय, पगदोय, सिर, मन वच काय मिलाय । लाल जिन-धर्मी हो गये, उनके गुरु कवि एव विद्वान् प्रष्ट अंगु संयुक्तकर, नमस्कार जिनराय ।। भागचन्द की प्रतिभा का सहज अनुमान किया जा सकता
चार कषाय
कोध, मान, माया अरु लोभा ।
इन जुत नीवन पाहि भोगा। एही चार कषाय विनाशी,
उनके उपलब्ध साहित्य और अनुपलब्ध साहित्य पर शोध किया जाना वर्तमान युग की अनिवार्यता है।
राहुल स्पोर्टस, गिफ्ट सेन्टर गना, (म०प्र०) ४७३..१
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दिगम्बर-मुनि
... बाबूलाल जैन, कलकत्ते वाले आगमानुसार छठे-सातवे गुणस्थानवर्ती ही मुनि होते जिन लोगो के सम्यकदर्शन नही है और मुनिपना हैं, जिनके कषायों को तीन चौकड़ी अनन्तानुबन्धि, अप्र- धारण कर लिया है उनके कर्मफल के अलावा और कही त्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण का तो अभाव हो ठहरने को जगह नहीं है, क्योकि स्वभाव की प्राप्ति तो गया हो और मात्र केवल सज्वलन कषाय का उदय हो। हुई नही इसलिए एक कर्मफल से हटकर दूसरे कर्मफल में तीन चौकडी के अभाव से उतनी वीतरागना अर्थात निवत्ति ठहर जाता है परन्तु कर्म-चेतना और कर्मफल चेतना मे हुई और एक चौकडी के सद्भाव से प्रवृति होती है। वह हा लगा रहता है। इस प्रकार कर्मफल में है प्रवृति अट्ठाईस मूल गुणों की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर अहम् भाव को प्राप्त करता है, उसी को धर्म मानकर सकती है। अगर अट्ठाईस मूल गुणो की मर्यादा का लोप अहकार मे ग्रसित रहता है, जब अहकार को ठेस लगती होता है तो फिर एक चौकडी की जगह दो चौकडी का है तो क्रोध मे पागल हो जाता है और जब अहकार की काम चालू हो जाता है और गुणस्थान छठे से पांचवां हो पुष्टि भक्तो के द्वारा, अखबार में नई-नई पोज की फोटो जाता है, यद्यपि बाहरी भेष नग्न दिगम्बर ही रहता है। के द्वारा, राजनैतिक लोगो के द्वारा अथवा सभा-सोसा. यदि एक अन्तर्महत में छठे से मातवे में नहीं जाते है तो इटियो द्वारा होती है, तब अह और गहग हो जाता है। भी छठा गुणस्थान मिटकर पांचवां हो जाता है। सातवें
नही होने पर मायाचारी के द्वारा अह को पुष्ट किया
जाता है इस प्रकार कर्म-चेतना में लगा रहता है। इस मे जाने का अर्थ है निर्विकल्प चेतना का अनुभव होना।
प्रकार ज्ञान-चेतना का अनुभव न करके कर्म-चेतना का किमी प्रवृत्ति को करना और रोकने का नाम छठा-सातवा
भोग करता है, जिससे चारो चौकडियो का बध होता नही है। रात्रि मे सोते हुए भी मुनि के अन्तर्महुतं में छठे
रहना है। परिणामो मे सरलता नहीं रहती--पाखण्ड मे सातवा होना ही चाहिए। उसकी अवस्था आचार्यों ने
और मायाचारी जीवन का स्तर बन जाती है। इस ऐसी बताई है जैसी उसी मुसाफिर की दशा, जो रात्रि
प्रकार आप ही अपने जीवन का नारकीय जीवन बना मे स्टेशन पर रत्नो का पिटारा लिए बैठा है और अपकी लेता है। गृहस्थ के इतना मायाचार और पाखण्ड तो ले रहा है माथ-साथ में पिटारे पर हाथ रखे है और नही था इसलिए जीवन कदाचित् मरल हो सकता था उसको सम्भालता भी जा रहा है। ऐसे मुनि को आचार्यो अन्त मैं शान्ति का अनुभव कर लेता था। अब तो ऐसा ने चलता-फिरता सिद्ध की उपमा दी है। जैसे लुहार की हो गया कि माप के मुह मे छछुन्दर आ गया, न निगला संडासी क्षण मे आग मे और क्षण में पानी में होती है, जाता है और न छोड़ा जाता है । कषाय तो मिटी नहीजैसे हिन्डोले में झूलता आ आदमी, जो कभी ऊपर की मेटने का उपाय किया भी नही और भेष निष्कषाय का तरफ जाता है और कभी नीचे की तरफ आता है। ऐसा बना लिया, इसलिए वह कषाय बाहर आने के लिए नये. ही वह दिगम्बर मुनि क्षण मे आत्मानुभव का स्वाद लेता नये बहाने बनाकर बाहर आती है और उसको धर्म का है क्षण मे बाहर आता है तो २८ मून गुणों में पांच समिति चोला पहनाय कर अपने को ठगा जाता है और साथरूप प्रवृति होती है उसके बाहर प्रवृति होने के लायक साथ मे समाज और अजान भक्त भी ठगाई मे आ जाते कषाय ही नहीं रही।
हैं । अनजान भक्तो को सस्ता धर्म मिल गया, जो पैसे से
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१४,४२, कि०३
अनेकान्त
खरीदा जा सकता है चाहे हमारा आचरण कैसा भी क्यो फिर भी सम्यकदर्शन के बिना उसे संसार-तत्त्व कहा है। न हो । पैसे देकर स्वर्ग मोक्ष की टिकट खरीदी जाती है, वहां उन शिथिलाचारियों को तो कोई स्थान ही नहीं है, अनेक प्रकार की उपाधियां और मान-पत्र खरीदे जाते जो परिग्रह रखते है---सावद्य कमों में लगे हुए है और है। इन सबके पीछे छिपीई है हमारी कषाय । अमान २८ मुल गुणों का दिखाव! मात्र करते है । अत: सम्यकभक्त शिथिलाचार को बढावा देते हैं, उनको पुजवान है, दर्शन प्राप्त करने की चेष्टा निरन्तर रखे ऐसा व्यक्ति भद्रउसको पोषते है और शिथिलाचारी अन्ध-भक्तो का मान परिणामी के बाहरी क्रियाएँ कदाचित अहंकार पैदा न कषाय को बढ़ावा देता है। दोनो इनी काम में लगे हुए भी करे और परिणाम सरल रह मकते है । परन्तु जिन्होने है कुछ विद्वानो का भी पोषण इसन द्वारा होता रहता है बिना मम्यक दर्शन के अपने को सम्मकदृष्टि मान लिया इसलिए वे भी दोनो की हां मे हा मिलाते रहते है। और अपने को पुजवाना ही धर्म मान लिया, उन के
प्रहकार का कौन रोके । इतना भी विचार नही रहता है अगर बिना सम्यक दर्शन के भी मुनिव्रत धारण किया कि यह भगवान आदिनाथ का भेष मैंने धारण हो और तलने वाला यह माने कि मैन मुनिव्रत तो और पिच्छि रूप में प्रादिनाथ के चिह्न को हाथ में लिया लिया है परन्तु जब तक सम्यकदर्शन नहीं होगा तब तक है, मेरे रहते इस भेष की, इस चिह्न की मर्यादा भग न मेरा मोक्ष-मार्ग नहीं होगा, व्रतो सचाई नही पायगी। हो जाव अन्यथा मेरा जीवन ही बेकार है । परन्तु उस मुझे सम्या दर्शन प्राप्त करता है, जिसके बिना द्रव्यलिंगी भेष को और उन चिह्न को भी अपनी कषाय पोषण को मुनि को भगवान कुन्दकुन्द न ससार-तत्त्व कहा है । जो दांव पर लगा देता है। यह कैसी कषाय है ? ऐसी कषाय मुनि २८ मूल गुणों का अच्छी तरह पालन करे, शरीर से तो किसो शत्रु के भी न हो। चमडा भी खंचकर उतारा जावे, तो भी मुह से आह न बोले
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सिग्गंथा विस्संगा गिम्मारगामा अराय-रिणबोसा । लिम्मम-गिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भरिणया ॥४६॥
जो परिग्रह रहित है, आसक्ति रहित है, मान रहित है, आशा रहित है, राग रहित है, दोष रहित है, ममत्व रहित है और अहंकार रहित है, ऐसी जिनदीक्षा कही गई है।
शिणहा पिल्लोहा लिम्मोहा रिपब्वियार-रिपक्कलसा। भिय-रित गमभावा पवज्जा एरिसा भगिया ॥५०॥
जो स्नेह रहित है, लोभ रहित है, मोह रहित है, विकार रहित है, कालिमा रहित है, भय रहित है, आशा भाव से रहित है, ऐसी जिन दीक्षा कही गई है।
जहजायन्वर्मा सा अवलंबियभुय रिगराउहा संता । परकिय-सिलारणवासा पन्वज्जा एरिसा भणिया ॥५॥
जिसमें जन्मे हए शिशु के समान नग्नरूप रहता है, दोनों भजाओं को लटका कर ध्यान किया जाता है, अस्त्र-शस्त्र नहीं रखा जाता है, और दुसरे के द्वारा छोडे गये आवास में रहना होता है, ऐसी शान्त जिनदीक्षा कही गई है।
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एक चिन्तन:
क्या कभी 'मुनि-धर्म-रक्षा-पर्व' भी होगा ?
श्री दिग्दर्शनचरण जैन
'रक्षा-बन्धन' जैसा मुनि--क्षा-पर्व श्रावण सुदी १५ को होता है। पर, न जाने 'मुनि-धर्म-रक्षा-पर्व' कब, किस तिथि में होगा अथवा होगा भी गा नही ? कहते है कि 'अहिंमा परमो धर्म.' यह नारा बडा गम्भीर है, इसके भाव और अन्तरंग को समझने और सार्थक करने के लिए इमरे मूल तत्त्व को समझना होगा--तब कही यह नारा सार्थक होगा। साथ ही अहिंमा की परिभाषा को भी गहराई में जाकर मापना होगा। शास्त्रो मे छह काय के जीवों की रक्षा में तत्परता और रागादि विकारो के निवारण को अहिंमा कहा है। प्राचीन मुनिराज इमी यादर्श को कायम रखते चले आए है।
जब हस्तिनापुर मे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ भुनियो पर सकट आया तब मुनि विष्णुकुमार ने अपना पद न्यागकर भी मुनियो के सकट को दूर किया। सोभार से आज ऐसा कोई पापी नही है जो बलि, नमुच, प्रह्लाद और वृहस्पति जैसे मत्रियो वत निर्दयी हो और मुनियो प' उपसर्ग करे । आज तो जन-जन मुनिराजो के सरक्षण करने में सावधान है और उन पर तन-मन-धन तक निछावर करने को तैयार है । श्रावकगण एक ही इशारे पर धर्म की परिभाषा विना विचारे ही मुनियो को सभी प्रकार की शारीकि और मानसिक सुख-मामग्री जुटाने मे सन्नद्ध है। श्रावको की ऐमी सेवारूप जागरूकता के प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं। मुनिराज के लिए उत्तम पौष्टिक आहार के चौके उनकी शारीरिक सुख-समृद्धि के साधन के प्रमाण है तथा मानसिक सुख-समृद्धि हेतु उनकी पूजा, प्रतिष्ठा, जय-जयकार जीते-जागते सबूत है । इतना ही नही, श्रावक तो उनके भी सुख-साधन जुटाने में चूक नही करते, जिनकी इन्द्रियों वश मे नही हो-वे उन्हे कूलर, हीटर और टेलीविजन जैस साधन भी जुटा देत हैं कि कही वे कष्ट में घबराकर पद छोड न दे-- प्रष्ट न हो जायें। ठीक भी है कि श्रावक का कर्ता स्थितीकरण है-जैसे भी हो, उनका वह वेष न छुटे । आखिर, मुनि-वेष जीवनपर्यन्त के लिए ही तो स्वीकार किया जाता है, फिर व्यक्ति की रक्षा भी तो अहिंसा ही है। पर,
अहिंसा को हम जैसी और जितनी सोचते है वह वैसी और उतनी ही नही है-उससे भी बहुत ऊपर है । अहिंसा मे यह ध्यान रखना भी परम अपयर है कि - वा अहिमा कि मात्रा म, कितनी विस्तृत या सकुचित है और उसका कितना और क्या फल है ? या उसका फल हो धर्म-घातक हो नही ? | जस अहिंसा में धर्मरक्षण की जितनी अधिक मात्रा होगी वह उतनी ही अधिक पशस्त होगी। व्यापक-चहुमुखी धर्म-मरक्षण करने वाली अहिंसा प्रशस्त होगी और मात्र शरीर सरक्षण करने वाली अहिंसा एकागी होगी। और धर्म-घातक होने पर तो उसको अहिंसा कहा ही नही जाएगा-वह हिंसा क श्रेणी मे जा पड़ेगी। काकि अहिंसा का लक्षण उसका कार्य और फल सभी धर्मरूप और धर्म.सरक्षण के लिए है।
मुनि विष्णुकुमार ने मुनियो की रक्षा कर आदर्श उपस्थित किया । पर आज उससे भी बड़ा सकट है-आज केवल मुनि ही नहीं, मुनि के साथ मुनि-धर्म-रक्षा का प्रश्न भी उपस्थित है। जब आज हमारे बीच मुनि द्वारा बर्य और मुनि के मूल गुणो के धानक मत्र-तंत्र, गण्डा-ताबीन, जादू-टोना, झाड़-फूर करने वाले (मुनि ?) प्रसिद्ध है और वे मोह से भ्रमि । (शायद मिथ्यावृष्टि) श्रावको-श्राविकाओ को, (जिन्हे 'मणि-मत्र-तत्र बह गई, मरते न बचावे कोई' का ज्ञान नही है) अपने चक्करो में फंसा रहे है। वे अज्ञानियो को चक्कर में फैमाने की वजाय-पहिले अपने मत्रतत्रदि का प्रयोग अपनी स्वय को मुनि-धर्म-रक्षा के लिए कर अपनी सफलता प्रदशित कर उत्तीर्णता का प्रमाण-पत्र प्राप्त करे-'मुनि-धर्म-रक्षा' नामक पर्व की स्थापना करे । अन्यथा, मत्र-तत्रादि का प्रयोग छाड़े या पद-मुक्त हो और श्रावकों को धर्म मे जीने दे। जैनधर्म मे सासारिक समद्धि के लिए मत्र-तत्रादि के प्रयोग को सर्वथा मिथ्यात्व कहा गया है।
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समन्वय में अपने को न भूलें
पर्वराज दशलक्षण के उपरान्त आने वाला क्षमावणी पर्व जन-जन के मानस की शुद्धि और धर्म की स्थिरता के लिए होता है । सब भाई-बहिन परस्पर में एक दूसरे के प्रति सरल भाव रखे यही इस पर्व का उद्देश्य है। हमारा दिगम्बर जैन समाज इस पर्व की पूर्ण सार्थकता सदा काल करते रहें. ऐसी हमारी भावना है। साथ ही हम यह भी चाहेंगे कि हम इस क्षमावणी के उपलक्ष्य में किसी भावादेश-वश परस्पर गले मिलने के लिए अपनी भुजाएँ इतनी न फैला दें, कि वे हमारी मान्यताओं का उल्लघन हो कर जायें अपनी मान्यताएं तो हमे सभी भाँति सुरक्षित ही रखनी हैं।
हमे खेद होता है जब कोई कर्णधार या कोई दिο जैन समिति जैसी दिगम्बर सस्था परस्पर मिलनप्रदर्शन के किसी प्रसन मे अपनी मान्यताओं को तिलांजल तक दे देते हों, जब कि उनका कर्तव्य अपनी धर्म मान्य ताओ की वाड मे रहते हुए मानवता का पालन करना हो । उदाहरण के लिए जैसे-दिगम्बर जैन महासमिति पत्रिका के दिनाक १५ सितम्बर १९८६ के सम्पादकीय मे भ० महावीर के विषय मे लिखा गया है- "चन्द्रकोशिक सर्प डक मारता है । ग्वाला कानों मे कीलें ठोकता है तो गोशालक तेजोलेश्या छोड़ता है किन्तु महावीर के हृदय में उनके प्रति न क्रोध है, न घृणा है और न नफरत !" "पराजित संगमदेव जब जाने लगा तब महावीर की आखो मे आँसू आ गए। उन्होने इसका कारण पूछने पर सगम से कहा- तूने मुझे सुनार की तरह उपसर्गों की अग्नि से तपाकर तेजस्वी बनाया, निर्मल बनाया, मेरी आत्मा कम से हल्की हो गई।"
पाठक देखें कि क्या दि० मान्यता ऐसी है ? वहाँ न तो महावीर के कानो मे कीलें ठोकी गई और ना ही कोई
श्री विमल प्रसाद जैन
तेजोलेश्या छोड़ी गई और न महावीर को आंखों में कभी सू आए । यह सम्भव ही नहीं कि उत्तम संहनन, धीरस्वभावी महावीर के कभी आँसू आएँ या उनके कामों में कीलें ठुक सके।
ऐसे ही इससे पहले इसी प्रकार का एक लेख भा दि० जैन परिषद के प्रमुख पत्र 'वीर' के २२ मई १९०६ के अंक में मूर्ति स्थापन एवं प्रतिष्ठा पचकल्याणकों के विरोध में प्रकाशित हुआ जबकि हमारे आगमों मे पंचकल्याणको और मूर्ति प्रतिष्ठाओ के विधान हैं और हम सभी मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान की पूजा करने के अध्यासी है? क्या ऐसे लेखों से हम मन्दिरो के भी विरोधी न हो जायेंगे ? लेख के अश निम्न प्रकार है
"जब अन्य केवलियो के पचकल्याणक नही होते, फिर मूर्ति का पवकल्याणक करना कहाँ तक युक्ति सगत होगा ? क्या मूर्ति के मुख से दिव्यध्वनि निकलती है ? फिर मूर्ति का पंचकल्याणक करना किम धर्मशास्त्र तथा सिद्धान्त के अन्तर्गत आता है ? जड़मूर्ति के द्वारा धर्म प्रभावना की जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? काल्पनिक पंचकल्याणक महोत्सव का आयोजन मृग मरीचिका के पीछे भाग-दौड़ के समान है ।'
हमारे लिखने का तात्यं किसी से वैर-विरोध नही। हम तो दिगम्बरत्व की रक्षा मे श्रेय समझकर ही सब लिख रहे है। ताकि दिगम्बरत्व की रक्षा के उद्देश्य को लेकर निर्मित भारतवर्षीय सस्थाएँ इस बात का ध्यान रथे कि उनके द्वारा कोई ऐसी बात लिखी या कही न जाए जो दिगम्बर मान्यता को अमान्य हो । इन्ही सद्भावनाओं के साथ !
२१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
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गताक से मागे
सल्लेखना अथवा समाधिमरण
D० दरबारीलाल कोठिया
३. प्रायोपगमन-जिस शरीर-त्याग में इस सल्ले- कहते हैं। यह दो प्रकार की है-1. प्रकाश और २. खमा का धारी न स्वयं अपनी सहायता लेता है और न अप्रकाश । लोक में जिनका समाधिमरण विख्यात हो जाये दूसरे की, उसे प्रायोपगमन-मरण कहते हैं । इसमे शरीर वह प्रकाश है तथा जिनका विख्यात न हो वह अप्रकाश को लकड़ी की तरह छोड़कर आत्मा की ओर ही क्षपक है। का लक्ष्य रहता है और आत्मा के ध्यान में ही वह सदा
२.निरुद्धतर-सर्प, अग्नि, व्याघ्र, महिष, हाथी, रत रहता है। इस सल्लेखना को साधक तभी धारण
रीछ, चोर, व्यन्तर, मूळ, दुष्ट-पुरुषो आदि के द्वारा करता है, जब वह अन्तिम अवस्था मे पहुच जाता है और
मरणान्तिक आपत्ति आ जाने पर आयु का अन्त जानकर उसका संहनन (शारीरिक बल और आत्मसामर्थ्य) प्रबल
निकटवर्ती आचार्यादिक के समीप अपनी निन्दा, गहां होता है।
करता हुआ साधु शरीर-त्याग करे तो उसे निरुद्धतरभक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना के दो भेद
अविचार-भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण कहते हैं। इनमें भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना दो तरह की होती ३.परमनिरुद्ध-सर्प, व्याघ्रादि के भीषण उपद्रवो
के आने पर वाणी रुक जाय, बोल न निकल सके, ऐसे (१) सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान और अविचार-भक्त- समय में मन में ही अरहन्तादि पंचपरमेष्ठियों के प्रति प्रत्याख्यान । सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान मे आराधक अपने अपनी आलोचना करता हुआ साधु-शरीर त्यागे, तो उसे संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण परमनिरुद्ध-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते है। करता है । यह सल्लेखना बहुत काल बाद मरण होने तथा शीध मरण न होने की हालत मे ग्रहण की जाती है । इग
सामान्य मरण को अपेक्षा समाधिमरण की श्रेष्ठता सल्लेखना का धारी 'अहं' आदि अधिकारों के विचार- आचार्य शिवार्य ने सतरह प्रकार के मरणो का पूर्वक उत्साह सहित इसे धारण करता है। इसी से इसे उल्लेख करके उनमे विशिष्ट पांच' तरह के मरणो का सविचार-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते है। पर जिस वर्णन करते हुए तीन मरणो को प्रशंसनीय एवं श्रेष्ट बतआराधक की आयु अधिक नहीं है और शीघ्र मरण होने लाया है। वे तीन' मरगा ये है :-(१) पण्डित-पण्डितवाला है, तथा दूसरे संघ मे जाने का समय नही है और मरण, (२) पण्डितमरण और (३) बालपण्डितमरण । न शक्ति है, यह मुनि दूसरी अविचार-भक्तप्रत्याख्यान- उक्त मरणो को स्पष्ट करते हुए उन्होने लिखा है' सल्लेखना लेता है। इसके तीन भेद हैं :-(१) निरुद्ध, कि चउदहवें गूणस्थानवती प्रयोगकेवली भगवान का (२) निरुद्धतर और (३) परमनिरुद्ध ।
निर्वाण-गमन 'पण्डित-पण्डितमरण' है, आचाराङ्ग-शास्त्रा१. निरुद्ध-दूसरे सघ में जाने की सामर्थ्य पैरों मे नुसार चारित्र के धारक साधु-मुनियों का मरण 'पण्डितन रहे, शरीर थक जाय अथवा घातक रोग, व्याधि या मरण' है, देशव्रती धावक का मरण 'बालपण्डितमरण' है, उपसर्गादि आ जायें और अपने संघ में ही रुक जाय तो अविरत-सम्यग्दृष्टि का मरण 'बालमरण' और मिध्यादृष्टि उस हालत मे मुनि इस समाधिमरण को ग्रहण करता है। का मरण 'बालबालमरण' है । पर जो भक्ततप्रत्याख्यान इसलिए इसे निरुद्ध-अविचार-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना इंगिनी और प्रायोपगमन- इन तीन समाधिमरणो का
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.८, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
कथन किया गया है वह मब पण्डितमरण का कथन है। वालो को पुण्य होता है, तो साक्षात् क्षपक की वन्दना एव अर्थात् वे पण्डितमरण के भेद है ।
दर्शन करने वाले पुरुष को प्रचुर पुन्य का संचय क्यों नहीं समाधिमरण के कर्ता, कारयिता, अनमोदक और
होगा? अर्थात् अवश्य होगा।
___'जो तीव्र भक्ति सहित आराधक की सदा सेवावर्शकों को प्रशंसा:
वैयावृत्य करता है उस पुरुष की भी आराधना निर्विघ्न शिवार्य ने इस सल्लेखना के करने, कराने, देखने,
सम्पन्न होती है। अर्थात् वह भी समाधिपूर्वक मरण कर अनुमोदन करने, उसमें सहायक होने, आहार-औषध-स्था- उत्तम गति को प्राप्त होता है।' नादि देने तथा आदर-भक्ति प्रकट करने वालों को पुण्यशाली बतलाते हुए उनकी बड़ी प्रशसा की है। वे मिखते
सन्लेखना आत्म-घात नहीं है
__ अन्त मे यह कह देना आवश्यक है कि सल्लेखना को 'वे मुनि धन्य है, जिन्होने संघ के मध्य में जाकर आत्म-घात न समझ लिया जाय; क्योकि आत्मघात तीव्र समाधिमरण ग्रहण कर चार प्रकार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र क्रोधादि के आवेश मे आकर या अज्ञानता वश शस्त्र-प्रयोग और तप) की नाराधनारूपी पताका को फहराया है। विष-भक्षण, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश, गिरि-पात आदि
'वे ही भाग्यशाली और ज्ञानी हैं तथा उन्होने समस्त घातक क्रियाओ से किया जाता है, जबकि इन क्रियाओं लाभ पाथा है, जिन्होने दुर्लभ भगवती आराधना (संल्ले- का और क्रोधादि के आवेश का मल्लेखना में प्रभाव है। खना) को प्राप्त किया है।'
सल्लेखना योजनानुमार शान्तिपूर्वक मरण है, जो जीवन ____ 'जिस आराधना को संसार मे महाप्रभावशाली व्यक्ति सम्बन्धी सुयोजना का एक अंग है। भी प्राप्त नहीं कर पाते, उस आराधना को जिन्होने पूर्ण
क्या जैनेतर दर्शन में यह सल्लेखना है ? रूप से प्राप्त किया, उनकी महिमा का वर्णन कौन कर
यह सल्लेखना जैन दर्शन के मिवाय अन्य दर्शनो मे सकता है ?
उपलब्ध नहीं होती। हा, योगसूत्र आदि मे ध्यानार्थ 'वे महानुभाब भी धन्य है, जो पूर्ण आदर और समस्त
समाधि का विस्तृत कथन अवश्य पाया जाता है। पर शक्ति के साथ क्षपक की आराधना कराते हैं ।
उसका अन्त.क्रिया से कोई सम्बन्ध नह। है । उसका प्रया'जो धर्मात्मा पुरुष क्षपक की आराधना में उपदेश,
__जन सिद्धियो के प्राप्त करने अथवा आत्म-साक्षात्कार आहार-पान, औषध व स्थानादि के दान द्वारा सहायक से है। वैदिक माहित्य में वर्णित सोलह सस्कारो मे एक होते है. वे भी समस्त आराधनाओं को निविघ्न पूर्ण करके 'अन्तयेष्टि-सस्कार आता है. जिसे ऐहिक जीवन के सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं।'
अन्तिम अध्याय की समाप्ति कहा गया है और जिसका 'वे पुरुष भी पुण्यशाला है, कृतार्थ है, जो पापकमरूपा दूसरा वाम 'मृत्यु-सस्कार' है। इस सस्कार का अन्त.मैल को छटाने वाले क्षपकरूपी तीर्थ मे सम्पूर्ण भक्ति किया के माम:
क्रिया के साथ सम्बन्ध हो सकता था। किन्तु मृत्यु-सस्कार और आदर के साथ स्नान करते है। अर्थात् क्षपक के
सामाजिको अथवा सामान्य लोगो का किया जाता है, दर्शन, वन्दन और पूजन मे प्रवृत्त होते है।'
सिद्ध-महात्माओ, सन्यासियो या भिक्षुओ का नहीं, क्योकि ___ 'यदि पर्वत, नदी आदि स्थान तपोधनो से सेवित
उनका परिवार से कोई सम्बन्ध नही रहता और इसीलिए होने से 'तीर्थ' कहे जाते है और उनकी सभक्ति वन्दना
उन्हे अन्त्येष्टि-क्रिया की आवश्यकता नही रहती। की जाती है, तो तपोगुण की राशि क्षपक को 'तीर्थ' क्यो
उनका तो जल-निखात या भू-निखात किया जाता है। नही कहा जावेगा? अर्थात् उसकी वन्दना और दर्शन
यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिन्दूधर्म मे अन्त्येष्टि की का भी वही फल प्राप्त होता है, जो तीर्थ-वन्दना का होता सम्पूर्ण क्रियाओ मे मत व्यक्ति के विषय-भोग तथा सुख
सुविधामो के लिए ही प्रार्थनाएं की जाती है। हमे उसके 'यदि पूर्व ऋषियों की प्रतिमाओं की वन्दना करने आध्यात्मिक लाभ अथवा मोक्ष के लिए इच्छा का बहुत
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सल्लेखमा अथवा समाधिमरण
कम मंकेत मिलता है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने जाने वाली चर्यारूप प्रतिज्ञा का दिग्दर्शन करता है। स्पष्ट के लिए कोई प्रार्थना नही की जाती। पर जैनासल्लेखना है कि यहा सन्यास का वह अर्थ विवक्षित नहीं है, जो मे पूर्णतया आध्यात्मिक लाभ नथा मोक्ष-प्राप्ति को जैन-सल्लेखना का अर्थ है। सन्यास का यहा साधु-दीक्षा भावना स्पष्ट सन्निहित रहती है। लोकिक एषणाओ की कर्मत्याग-सन्यास नामक चतुर्थ आश्रम का स्वीकार है उसमे कामना नही होती। इतना यहा ज्ञातव्य है कि और सल्लेखना का अर्थ अन्त (मरण) समय में होने वाली निर्णयसिन्धुकार ने ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ के क्रिया-विशेष" (कषाय एव काय का कृशीकरण करते हुए अतिरिक्त आतुर अर्थात् मुमूर्ष (मरणाभिलाषी) और आत्मा को कुमरण से बचाना तथा आचरित सयमादि दु.खित अर्थात् चौरव्यानदि से भयभीत व्यक्ति के लिए भी आत्म-धर्म की रक्षा करना) है। अत. सल्लेखना जैन-दर्शन सन्यास का विधान करने वाले कतिपय मतों का उल्लेख की एक विशेष देन है, जिम में पारलौकिक एवं आध्यात्मिक किया है। उनम कहा गया है कि 'सन्यास लेने वाला जीवन को उज्ज्वलतम तथा परमोच्च बनाने का लक्ष्य आतुर अथवा दुःखिन यह सकल्प करता है कि 'मैंने जो निहित है। इसमे रागादि से प्रेरित होकर प्रवृत्ति न होने अज्ञान, प्रमाद या आलस्य दोष से बुरा कर्म किया, उसे के कारण वह शुद्ध आध्यात्मिक है। निष्कर्ष यह है कि मैं छोड़ रहा है और सब जीवो को अभय-दान देता है मल्लेखना आत्म-सुधार एवं आत्म-सरक्षण का अन्तिम तथा विचरण करते हुए किसी जीव की हिसा नही करूंगा और विचारपूर्ण प्रयत्न है। किन्तु यर कथन मन्यासी के मरणान्त-समय के विधि
(श्रीमती चमेलीबाई स्मृति-रेखाएँ) विधान को नही बतलाता, केवल सन्यास लेकर आगे की
सन्दर्भ-सूची
१. पडिद-पडिद-मरण पडिदय बाल-पडिद चेव । बाल-मरण चउत्थ पचमय बाल-बाल च ।।
-भ० आ०, गा०२६ । २. पडिदपंडिदमरण च पणिद बालपंडिद चेव । पदाणि तिणि मरणाणि जिणा णिच्च पससति ।।
--भ० आ०, गा० २७ । ३. वही, गा० २८, २९, ३० । ४. वही, गा० १९६७-२००५ । ५-६. डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दू सस्कार, पृ० ०६ । ७. वही, पृ० ३०३ । ८. वही, पृ० ३६३ तथा कमलाकर भट्ट कृत निर्णय
सिन्धु, पृ० ४४७ । ६. हिन्दू सस्कार, पृ० ३४६ । १० निर्णयसिन्धु, पृ० ४४७ ।
११. वैदिक साहित्य मे यह क्रिया-विशेष भगु-पतन,
अग्निप्रवेश, जल प्रवेश आदि के रूप में मिलती है। जैसाकि माघ के शिशुपाल वध की टीका मे उद्धत निम्न पद्य से जाना जाता है-- अनुष्ठानासमर्थस्य वानप्रस्थस्य जीर्यत । भग्वग्निजलसम्पातमरण प्रविधीयते।
-शिशुपाल वध ४-२३ को टीका किन्तु जैन सस्कृति में इस प्रकार की क्रियाओं को मान्यता नही दी गयी। प्रत्युत उन्हें लोकमढता बतलाया गया है, जो सम्यकदर्शन की अवरोधक है । यथा---
आपगासागरस्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोक मुढ निगद्यत ।।
-समन्तभद्र, रत्नकरण्डकथावका० । ।
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शुद्धि-पत्र धवल पु० ३ (संशोषित संस्करण)
3 जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्रो, भोण्डर
२०
२५
२०-२१
२५
२२
अशुद्ध
शुद्ध ममाणसदगणादो
समाणत्तादसणादो। समानता देखो
समानता नही देखी मख्वाओ
सख्याओं द्रव्यगतानन्यापेक्षया
द्रव्यगतानन्तापेक्षया नामिसमीक्ष्यते
नाभिसमीक्ष्यते २ +अ१
२ +अ+१ परन्तु जघन्य अनन्तानन्त के
परन्तु जघन्य अनन्तातन्त से, जघन्य अधस्तन वर्गस्थानो की अपेक्षा अनन्तानन्त के अधम्तन वर्गस्थानो की जघन्य अनन्तानन्त से
अपेक्षा अनन्नानन्त से अनन्तानन्तगुणे अनन्तामन्त से जघन्य अनन्तानन्त के अधस्तन बाद एक सूच्यंगुल
वर्गस्थानो की अपेक्षा अनन्तानन्त गुणे बाद साधिक एक सूच्यंगुल [गणित करके देख लें १.४६ सूच्यगुल शेष
रहता है न कि पूर्ण एक] अधस्तन वातवलया अवस्थात ही नीचे वातवलय का अवस्थान रहता है रहता ही है। ति. प. प. २२५
ति. प. प.७६५
लडे सामोवे
समीवे पुत्तीदो
पादिदो -देखो ध. ११३१६ समुग्धादो
समुहदो । और ज्ञान प्रमाण ये दोनों
मान और प्रमाण ये तीनों राशि के विषय में
गशि के प्रमाण के विषय मे (वरलित)
(बिरलित) प्रमाग्ति कर देने पर अथवा मिला देने पर सर्व जीवराशि के दूसरे सम्पूर्ण जीवराशि का दूसरा भागरूप भागप्रमाण चौड़ा तथा भाग प्रमाण विस्तार करके भागायाम क्षेत्र होता है आयत (लम्बा) क्षेत्र होता है।
लड़
४४ १९-२१
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५६
पंक्ति
५८
५२
५६
७०
६१
८
१८
२०
६
१४
१८
२०
१५
२८
३०
२३
२७
२८
२६
१७
२६
१६
३०
१०
w
अशुद्ध
प्रसारित कर देने पर षपूर्ण जीवराशि का तीसरा भागरूप विस्तार जाना जाता है। अनन्तर इन खंडो को देने पर चौथा
भागहार में उसी के
"एक कम होता है |२४|
शुद्धि-पत
१
(२)
= }
१+3
हानि और वृद्धि में भागहार
१० वृद्धिरूप
भाज्यमान राशि मे
४ | ३६-- ४०
गुणित करने पर
कब (मिध्यादृष्टि )
द्विगुणित
ध्रुवराशि का प्रमाण १२-१ / ३
उदवर्तित
उबतित
का उपरिमवर्ग ६५५१६;
६५५१६
१३
६५५१६. १
अंतिम भागहारेण
अन्तिम भागहार से
मध्यादृष्टि
१७४६८
मध्यादृष्टि
भागहर के
२६२१४४;
शुद्ध
मिला देने पर सर्व जीवराशि के तीसरे भागप्रमाण चोडा और भागप्रमाण आयत (लम्बा) क्षेत्र प्राप्त होता है। इसको देने पर प्रत्येक एक पर चौथा भागहार में वृद्धिररूपख्या के अबहार (हर) से (भजनफल) सम्पास्थित
हर "भागहर से भजनफल की हानि की स्थिति में तो रूपाधिक होता है और
[ भागहार से भजनफल की] वृद्धि की स्थिति म रूप हीन ( एक कम) होता है ||२||
१
(२)
१
दोनो लब्धों की जोड़ अथवा बाको को
बताने के लिए: मूल भाग्य का भागहार (६+४) वृद्धिरूप
१०:
हीन भज्यमान राशि में
४ ४ + ३६ ४०
23
अपहृत करने पर [ देखो प्रस्ता० पत्र ५३ ]
क-अ ( मिध्यादृष्टि )
त्रिगुणित
(१२-१३ प्रमाण गुणकार
अपवर्तित
अपवर्तित
का उपरिमवर्ग ६५५३६;
६५५३६ १३
६५५३६ १
२१
अंतिम भागहारछेदणएहि
अन्तिम भागद्वार के से मिध्यादृष्टि
१७, १७x४= ६८
मिध्यादृष्टि
भागहार के
२६२१४४; २६२१४४ का इच्छित वर्ग
=X
६८७१६४७६७३६ (१०५९,६० व ६२ को देखो
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२२, वर्ष ४२, कि. ३
अनेकान्त
पृष्ठ
पक्ति
अशुद्ध पलिदोवमा-- निरन्तर चालू है।
अवहारकाल असख्यात आवलियो से पल्यापम के
पलिदोवमचालू है। [मान्तरमार्गणात्वात् निरन्तरशब्दस्यौचित्व न प्रतिभाति] अवहारकाल भी असख्यात आवलियो का पल्योपम के प्रथमवर्गमूल में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे पल्योरम के असख्यात आवलियाँ ३२
२३
असख्यात आलियाँ ८;
७४
२४
२५६४८:-२०४८ सा०
२५६ ------ ---८, २५६४८-
०४८ मा.
त
पल्योपम को अवहारकाल में भाजित
पल्पोपम के अधस्तन वगस्थानों को अवहार काल से कवल भाजित
m
३२ के विकम्छेद २३२
३२ के त्रिकच्छेद ३३२
सम्यग्दृष्टि परूपणा
सम्यग्थष्टि प्ररूपणा
- २४३-६-१-५
२
-२, २ ५
३ ६,६-१-५; १६-८०, ८०+५:८ण
१८१८-१-१७; १७४१६-२७२; २७२+५-२७७
भाग
८७ ३१ ८८ १४-१५
१८-१-१७९१६ -२७२+५:२७७ भास धनाधन के सयत सम्बन्धी सम्यग्ज्ञानियो के द्वारा सम्यग्ज्ञानियों ने अवलोकन किया है। तीन मो ८-१-७-२३:४६ --२१+१७-३८४४३०४ क्षपकजीव दुरहिय-- एमा बहा
घना नपल्य मयतसम्बन्धी मन्दष्टि की अपेक्षा मन्दष्टि की अपेक्षा देखा अर्थात माना गया
तीन सो ८-१-७,७:२८: ३; X ६-२१. २१+१७-३८,३८४८३०४ क्षपक व अयोगी जीव दुसहियएसा गाहा
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शुद्ध
६६
१०४
१०७
१०६
१११
११२
११२
११३
११३
१५३
११८
१५६
१२०
१२४
१२६
१३०
१४२
पंक्ति
१८
१६४
१६४
१६५
१६६
१५
२६
३४
Xxx x8
२५
१४
२३
१४
:
२२
१७
१६
१६
२६
१२
२५
१४
१५७ २०-२१
१७
३१
२३
२१
२
अशुद्ध
हो सकता, क्योंकि
११
६३
अपनेयमान
E
३२७६८
३३२६
नृणस्थानों का
+ १
१
१५३४
३३२६
लब्ध
१५३४
२५६२
२५.३ ३ + ? २५७
विरलन के प्रति
२५६+'
+ १
५१२ ×३२ × १६३८४ सबधी
मयानम्पष्टि
कर्म स्थिति की
असख्याता सख्यात
इस बात को
२१८४५
६
शका शेष तीन
शुद्धि-पत्र
......
प्रतिभाग का प्रमाण क्या हैं ?
1 च्छ
द्रव्यराश
होती है।
एक बार लाने की
( अर्थात् दूसरी पृथ्वी के द्रव्य को
ܐ
शुद्ध
हो सकता, क्योंकि वह (दूषणात्मक कथा )
अनाचार्य के
विनिर्गव अर्थात् कहा
गया है । तथा क्योकि
११
१३
अपनीयमान
ह
२०४६६
लब्ध
३३२६
गुणस्थानों का
१५३४
३३२६
१५३४
२५६२
१
१५३४
३३२९
२१८४५-
१५४४
२५६२
२५३
३
२५३ ३ +- १ २५७ २५७ विरलन के प्रत्येक एक के प्रति
२५६; २५६+१
५१२ × ३२-१६३८४ सम्बन्धी असंयत मध्यग्दृष्टि कर्म आदि की स्थिति की
जघन्य असख्यातासख्यात इस मान्यता को
१
कुछ जीरा
+
+ १
३
शका --- उसके [अर्थात् सामान्य असयत सम्यग्दृष्टिराणि के] प्रतिभाग का प्रमाण क्या है ?
होती है। एक बार मे लाने की
(अर्थात् जगच्छ्रेणी से जगच्छ्रेणी को
२३
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________________
अनेकान्त
४, वर्ष ४२, कि० । पृष्ठ पंक्ति
अशुद्धि
जगन्छे णी से अपनयन करके अर्थात् भाजित करके)
हटा करके, यानी काट करके) "अर्थात् हर मे स्थित जगच्छेणी से अंश में स्थित जगच्छणी को काट करके" यही मदृश अपनयन का अर्थ है। [नोट-गणित विषयक ऐसी गलतियां, थोडी-सी भूल से शीघ्र हो जाया करती है। तृतीयमूलहतबारहवे वर्गमूल से असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर, यानी [२] १
असंख्य मवणीदे पच
चरम पक्ति
तृतीयमूलबारहवं वर्गमूल से नीचे जाकर
१६६
१६६
१६६
मवणीए पचम पचम पांचवी ३६६४३०४
पंच
पांच
४१६४३०४
१७०
१७१ १७५
वह इस प्रकार हैसातो हो विरलनो को ग्रहण करके
सातो विरलनो के ग्रहण करके भी
१०४८५७६ ३२
१०४८५७६
१७८
पृथक रूप से मध्य मे स्थापित
१२३ पृथिक रूप से मध्य मे स्थापित भागोदेने पर जगच्छणी के लब्ध आवे वह छठी विरसनो
л
-
л
-
л
~
л
-
л
-
४०
आते हैं
भागो-२ देने पर जो आता है वह जगच्छणी के लब्ध आवे उतना होता है, और यही छठी विरल नो ४२२ आते है मिथ्यादृष्टि अवहार शलाकाओं से एक को जोड़ा तब शेष रही प्रमाणराशि आदेश से देवो मे
१८३
१९२ १९८ २०१
मिध्यादृष्टि शलाकाओ से एक जोड़ा तब शेष रही राशि आदेस ससे वेदो मे
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मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ?
पद्मचंद्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
जैनियों की परम्परा मे 'देव-शास्त्र-गुरु' इस क्रम के बड़ा दर्जा दिया गया है और शास्त्र को मुल-ग्रंथ संज्ञा दी उच्चारण का प्रचलन रहा है और वीतराग-देव की देशना गई है । ग्रन्थ इस नए कि उममें ज्ञान-रूप जिनवाणी को को ग्रागम, शास्त्र, सिद्धान्त आदि नाम दिए जाते रहे है द्वादशांग रूप में अथित किया गया है-गंथा गया हैऔर गरु को भी ऐसा आदेश रहा है कि वह जिनवाणी ___'गणधर गंथे बारह सुप्रंग' । मूल मे तो वह सर्वज्ञ की ही के अनकल आचरण करे। इसका भाव ऐसा है कि देव बागी है.-'मूलग्रन्थकर्तारः श्री सर्वजदेवाः। ---अत: जिन पहले नम्बर पर, आगम दूसरे नम्बर पर और गुरु नीसरे वाणी का कम वीतरागदेव के बाद काही क्रम है तथा गुरु नम्बर पर है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि का क्रम तीसरा है। ममोसरण में वीतराग देव का आसन सर्वोच्च होता है, गुरु का आसन नीचे होता है और बीच मे तीर्थकर की हमे (जैसा कि श्री रतन नाल कटारिया भी कह रहे दिव्यध्वनि प्रवाहित होकर गुम तक पहुचती है और इस है) 'अकिंचित्कर' पुस्तक में पृ० ७०, ७४ तथा 'प्रवचनभांति आगम का स्थान मध्य में ही ठहरता है। अत: 'देव. पारिजात' पुस्तक द्वितीय सस्करण सन् ८१, १० १५,६६, शास्त्र-गुरु' यही क्रम सुसगत है ।
१०. पर और हाल ही में जुलाई ८६ की 'बावनगजा
सन्देश' नामक पत्रिका, TO E पर प्रकाशित 'शान्ति का सभी जानते है कि गुरु-चारित्र के प्रतीक है और
मार्ग शाम्बो में' शोषक ने 'देवगरुशास्त्र' जैसा कम देख'सम्य साथै ज्ञान' के बाद ही वारित्र का क्रम आता
कर आश्चर्य और खेद हा नि. जहाँ शान्ति का मार्ग शास्त्रो है और हमी कम में 'सम्पग्दर्शन-शान-चारिमाणि' गूत्र की
मे बताया जा रहा है वही शास्त्र को गुरु के बाद स्मरण रचना: । अत: गुरु का कम हर हालत में ज्ञान (आगम)
किया जा रहा है। ऐसे में शीर्षक होना चाहिए था-- के बाद ही पाता है। फिर, आचार्या ने यह भी कहा है
'शान्ति का मार्ग गुरुओं गे' । भल ही यह बाद को सोचना कि प्रागमचकावू साह' अर्थात् साधु की आँखे शास्त्र है।
रह जाता कि कौन से गुरुओं से वर्तमान के या भूत के ? इसका भाव भी यही है कि गुरु से आगम का स्थान पहले
की यह कोई योजनाबद्ध प्रक्रिया तो नही-जिमका है और इसीलिए गुरु मुनि) की समस्त चर्या आगम के
विरोध श्री कटारिया जी और जैन-सन्देश के मम्पादक अनुरूप होने जैसा विधान है।
डा० देवेन्द्रकुमार जैन भी कर रहे हैं? कही शास्त्रोको गह बात तो विवादरहित है कि आगम 'आप्नोपज्ञ गुरुनाणी मिद्ध करने के लिए तो यह सब नही किया जा और अनूर लध्य है, क्योकि वह मज-प्रणीत है.-छद्मथ- रहा? शास्त्री के मूल शब्दरूपा को बदलने की क्रिया तो प्रणीत नी है। जब कि मभी भाचार्य छद्मस्थ होते है, पहले एक विद्वान् कर ही चुके हैहालाकि उसका जमउनको वाणी स्वत: प्रामाणिक भी नही मानी गई है . कर विरोध हुआ ओर चोटी के विद्वानो ने भी विरोध उन्हें सर्वज्ञ की देशना के अनुरूप ही कथन करने का आगम । प्रणित किया और कर रहा है। इसके सिवाय कई जगह मे विधान है। कुंदकुद जैसे रातीय आचार्य भी 'चक्किज्ज' आगमो की कई व्याख्या परपरित व्याख्याओं में विपरीत जैसा शब्द कहकर आगम को गुरु से ऊपर मानने का यद्वा-तद्वा रूप में करने की परिपाटी चल पड़ी है और आदर्श दे गए हैं । फलतः-सभी भांति शास्त्र को मुनि से स्वतन्त्र रूप म आगम-विरुद्ध लेखन भी हो रहे हैं।
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२६,
४२, कि०३
अनेकान्त
हमें यह भी सन्देह है कि कही कुछ लोग स्व-प्रतिष्ठा २. अरहत द्वारा कथित, गणधर द्वारा ग्रथित आगम की चाह में नित नई-नई बातें गढ़कर धर्म-मार्ग का लोप ही न कर दें? शास्त्र की व्याख्या में एक वाचक का ३. सूत्रार्य (आगम) जिनेन्द्र द्वारा कथित है। कहना है कि-'तीर्थंकर की वाणी को गुरु अपनी भाषा ४, जो सूत्र जिनेन्द्र ने कहे हैं, वे प्रागम है। मे लिपिबद्ध करते है, वह शास्त्र कहलाता है।' यानी ५. जो जिनेन्द्र ने कहा है वह आगम है। जैसे, उनकी दृष्टि से लिपिबद्ध काल से पूर्व-जब उस ६. जिन मार्ग मे जैसा जिनेन्द्र ने कहा है, वह आगम देशना को लिपिबद्ध नहीं किया गया था, तब शास्त्र ही नही हो? केवल देव और गुरु ही हो। जब कि आगम, ७. केवली जिन मे कहे गये ग्यारह अंग पूर्ण क्षुतज्ञान सिद्धान्त, शास्त्र, प्रथ कुछ भी कहो, जन मान्यतानुसार ये सभी ज्ञान और दिव्य ध्वनि-रूप मे अनादि विद्यमान ८. जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्राय: अतीरहे है। और तीथंकरों द्वारा ध्वनित होते रहे है।
न्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाला है, अचित्य
स्वभावी है और युक्ति से परे है, उसका नाम आगम की परिभाषाएँ जो उपलब्ध हैं उनमें कुछ इस
आगम है। प्रकार है
६. आप्त के वचन आगम है। १. 'तस्स मुहग्गद वयणं पुन्वावरदोसविरहियं सुद।
१०. आगम आप्त का कहा हुआ और अनुल्लष्य है। भागममिदि परिकहिय (नियमसार ८)
११. रागद्वेष रहित सर्वज्ञ से कहा गया आगम है। २. 'अरहतभासियत्थं गणधरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।'
सुत्त पा..१
१२. प्राप्त वचनादि द्वारा निबधित पदार्थ ज्ञान आगम ३. 'सुत्तत्थं जिणभणिय'-सुत्तपाहुड ५ । ४. 'ज सुत्तं जिण उत्त'- ६
उक्त लक्षण आग। के है और आगमभिद्धान्तः ग्रंथ. ५. 'उवइट्ठ परमजिणवरिंदेहि १०
शास्त्रम्'-(नाममाला) ये सभी नाम भो आग के है
और आगम परम्परा तथा स्वरूपत. अनादि है। ऐसे में ६. 'जिणमग्गे जिणवरिदेहि जह भणिय'-बो०पा०२ ७. 'केवलिजिणपण्णत्त एयादस अंग मयल सुयणाणं'
प्रसिद्ध कर देना कि 'गुरु अपनी भाषा में लिपिबद्ध करते -भाव पा० ५२
है, वह शास्त्र कहलाता है' बडे महान् साहस की बात ८. 'आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिदियत्थविसओ अचितियसहाओ जुत्ति
स्मरण रहे मूलत:-आगम, सिद्धान्त, ग्रन्थ और गोयरादोदो'-धब० पु. ६, पृ० १५१
शास्त्र (ओर श्रुत भी) सभी नाम ज्ञानमयी उसी दिव्य६. 'आप्त वचनं ह्यागमः'-रत्न-टो-५
ध्वनि के सूचक है, जिसके मूलकर्ता सर्वज्ञदेव (तीर्थकर) १०. 'आप्तोपजमनुल्लंघ्य'-रत्नक०
है-अन्य कोई नही। इस भाति पूरे आगमो का अव. ११. 'आगमः सर्वज्ञन निरस्तरागद्वेषेण प्रणीतः'
तरण तीर्थकर से ही होता है और पूरा आगम ज्ञानरूप
है। फलतः-लिपिबद्ध होने के बाद उसकी संज्ञा 'शास्त्र' १२. 'आप्तवचनादि निबंधनमज्ञानमागमः'
होती है यह कथन निःसार और लोगों में भ्रान्ति उत्पादक -परीक्षामु० ३/६६ न्याय दो०, पृ० ११७ है। अर्थात् -
चूंकि जनसाधारण गहराई में न जाकर लोकानुकरण १. तीर्थकर द्वारा प्ररूपित पूर्वापर दोषों से रहित करता है और आज आगम के लिए प्रायः 'शास्त्र' शब्द
और शुद्ध वचनो को आगम कहा माता है। अधिक प्रचलित है । जब लोग जानेंगे कि लिपिबद्ध होने
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मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ?
पर शास्त्र बनता है तो लिपिरूप में बनाने को सर्वज्ञ तीर्थंकर तो आते नही, उसे तो गुरुगण ही अकित करते है । फलतः - लोगों की आम धारणा सहज ही बन बैठेगी कि शास्त्र 'गुरुवाणी' हैं । फलतः -- वे शास्त्रों को जिनबाणी के स्थान पर गुरुवाणी' प्रसिद्ध कर बैठेगे और तब योजको की (ईप्सित ? योजना 'देव-गुरु-शास्त्र' कम की सार्थकता भी कारगर हो जायेगी अर्थात् छद्मस्थ गुरुओ को शास्त्र से ऊँचा दर्जा मिल जायगा और प्रचार में आ जायगा कि गुरु बड़े और शास्त्र छोटे है और ऐसा प्रचार मूल आगम को विपरीत करने और जिन-मार्ग के अपवाद मे कारण होगा ।
क्या कहें, कहा तक कहे ? हमने तो यहा तक अनुभव किया है कि आज जो गुरु-देशनाएं हो रही है, और लेखन चल रहे है, उनमे कितनों मे ही तो ऐसे तत्त्व निहित हो रहे या निहित किए जा रहे है, जिनसे जिनवाणी का निश्चित ही घात हो रहा है। जैसे- एक संकलन छपा है- 'प्रवचन पारिजात' के नाम से । ओर इसके सस्करण पर संस्करण छप चुके है और इसे सभी पढ़ते और सराहते रहे है सराहना इसलिए कि यह गुरुवाणी है और आज गुरु जो कहे या करे, उसे सच माना जा रहा है। गुरुओं मे कोई-कोई तो गहित आचरण करके भी पुज रहे हैंसमय की बलिहारी है। लोगों को सोचना चाहिए कि गुरुस्थ (अल्पज्ञानी) होते है, उनकी वाणी अन्यथा भी हो सकती है; आदि ।
पहले एक पुस्तक मिली थी 'अकिचित्कर !' उसमे मिथ्यात्व को वन्ध के प्रति अकिंचित्कर बताया गया था, जबकि मिथ्यात्व ससार का मूल है । अब कहा जा रहा है। वह कथन स्थिति और अनुभाग बघ को लक्ष्य करके था और कुछ विद्वान् अब भी उसके पोषण मे लगे है - वे अनेकान्त सिद्धान्त की तोड़-मरोड़ में लगे है। हालांकि यह विषय जनमाधारण का नही । वह तो भ्रमित ही होगा कि जब मिध्यात्व से वध ही नहीं होता तो कुदेवीकुदेवो की खूब पूजा करो।' आखिर उनकी दृष्टि मे देवी-देवता सासारिक सुख प्रदाता तो हैं हो— जिसकी
२७
लोगो को चाह है। भले ही वे परमार्थ का सुख न दिला सकें। साधारणजन 'अकिंचित्कर' के प्रभाव से 'कुदवागम लिगिनां प्रणाम विनय चैव न कुर्युः, इस समन्तभद्र के वाक्य से सहज विरक्त होगे, इसमे सदेह नहीं ।
हम समझते है अपेक्षाबाद से अनेको विरुद्ध-धर्म भी सिद्ध किए जा सकते है । यह वाद बड। लचीला है, इसे चाहे जिधर मोड ले जाओ -- जैसा कि आज हो रहा
है । पर स्मरण रहे कि यह 'वाद' तथ्य उजागर करने हेतु प्रयुक्त होने पर सत्य-वाद है और आगमिक तथ्य को मरोड़ने पर विवाद है। जैसे कि लोग आज तोड-मरोड कर रहे हैं । श्रस्तु
हो, हम कह रहे थे 'प्रवचन-पारिजात' की बात इसमे लिखा है
"यदि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र मे मुख होता तो (सिद्धत्व में उनके अभाव करने की क्या आवश्यकता थी, सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए इनका अभाव परम अनिवार्य बताया है ।" पृ० २४
"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मे भी आत्मा के स्वभाव नही है इनका अभाव भी अनिवार्य आवश्यक है। जहा उन्होने ( उमास्वामी ने "औपशमिकादिभव्यत्वानां च" कहा है वही उन्होने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणत, जो भव्यत्वभाव है, उस भव्यत्व पारिणामिकभाव का भी अभाव दिखाया है । सिद्धालय मे मात्र जीवत्व भाव रह जाता है 1" पृ० २०
प्रसंगवश हम यहा कुछ उन अन्य विचारको के प्रति भी संकेत दे दें, जो सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन में सर्वधामंद डालकर भ्रमित हो रहे हों और उक्त कारण से वे मोक्ष मे सम्यक्त्व को तो मानते हो और सम्यग्दर्शन को नही मानते हो । इमी प्रसंग में दो शब्द
कुछ लोगो का भ्रम है कि सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन दोनों भिन्न- २ है । वे कहते है कि सम्यक्त्व आत्मा का गुण है और सम्यग्दर्शन उसकी पर्याय है तथा गुण स्थायी
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२८, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
है और पर्याय विनाशीक । एतावता मुक्त जीव में सम्या. जाता है) आत्मा के स्वभाव नही है ? यदि स्वभाव नही दर्शनरूपी पर्याय का अभाव रहता है और वहा सम्यक्त्व है तो मोहनीय कर्म को सर्वघाती और आत्मा के सम्यक्त्व गुण शेष रह जाता है---'अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व ज्ञानदर्शन गुण का घातक क्यो कहा? और क्यो ही उसे संसारसिद्धत्वेभ्यः ।' ऐसे लोगो को 'गुण पर्यायवद् द्रव्यम्' सूत्र भ्रमण के प्रमुख कारणों में गिनाया ? क्या मोहनीय कर्म पर चितन करना चाहिए कि क्या गुण कभी पर्याय रहित आत्मा के जिनगुणो का घात करता था, उस मोहनीय भी हो सकता है ? प्राचार्यों के मत मे दो द्रव्य सदा काल कर्म के क्षय से सिद्धो में वे गुण उजागर नहीं होते ? यदि गुण-पर्याय युका होता है तथा गुण-पर्याय भी सदा समुदिन उजागर नही होत तो मोहनीय कर्म को घातक क्यो कहा, हो रहते है। ऐसी अवस्था में यदि उनके कथन के अनु- और मोक्ष के लिए उसके क्षय को अनिवार्य क्यो बतलाया? सार मुक्त जीव में सम्यग्दर्शनरूपी पर्याय का अभाव माना बड़ा आश्चर्य है कि ए' ओर तो माना जाय कि भव्यत्वजाय तो प्रश्न खडा होता है कि यदि मुक्त जीव मे सम्पर- भाव सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणत होता है (यद्यपि दर्शनरूपी पर्याय नहीं है तो वहा कौन-सी पर्याय सम्पर- यह कथन आगम-विरुद्ध है) और भव्यत्व के समाप्त होने दर्शन का स्थान ले लेती है ? क्योकि गुण के साथ पर्याय के साथ ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान चरित्र को भी समाप्त माना का होना अवश्यम्भावी है। तथा आचार्यों की दृष्टि से जाय और दूसरी ओर माना जाय कि मोहनीय के क्षय पर गुण और पर्याय सदाकाल द्रव्य के आत्मभून लक्षण है और आत्मा के सम्यक् और चारित्र गुण प्रकट होते है ! यदि द्रव्य उत्पाद-व्यय-धोव्य युक्त अर्थात् परिवर्तनशील है। भव्यत्व के साथ इनका अभाव मानना ही इष्ट था तो कहा भी है
मोहनीय के क्षय का उपदेश ही क्यो दिया होता ?
इससे तो ससार-दशा ही श्रेष्ठ थी, जहा कम-से कम 'अनानिधनद्रव्ये स्व-पर्यायाः प्रतिक्षणम् ।
औषशमिक क्षायिक या क्षायोपमिक सम्यक्त्व तो उन्मज्जात निमज्जति जलकल्लोलबजाने ।'
सम्भव थे। स्मरण रहे कि मोहनीय कर्म धातिया कर्म अर्थात् जैसे जल और उसकी कल्लोलरूपी पर्याये है और वह दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय जैसे दो भिन्न है-लहरे जल से उत्पन्न होकर जल मे ही लीन भेदो मे विभक्त है, उसके क्षय होते ही आत्मा के सम्यक्त्व होती है, वैसे ही सम्यग्दर्शन- रो कथित पर्याय को भी और चारित्र गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते है । भेद इतना सम्यकत्व से पृथक् नही माना जा सका । वास्तव में तो है कि जो ससार मे भेदरूप मे अनेक कहे जाते थे, वे मुक्त सम्यक्त्व कहो या सम्यग्दर्शन कहो, दोनो एक ही है- दशा मे अभेदरूप से विद्यमान है। कहा भी है-'तत्तियमात्र नाम-भेद है। अत: जहा आचार्य ने मुक्तात्मानो मे मइयो णिओ अप्पा।'; 'ताणि पुण जाण तिण्णिवि अपाण सम्यक्त्व की घोषणा कर दो, वहा उन्होंने सम्यग्दर्शन के चेव णिच्छयदो'। समयसार गाथा ४२८ को तात्पर्यवत्ति मे अस्तित्व की रवीकृति दे ही दी, ऐसा समझना चाहिए। आगत 'सम्यकव' शब्द का अर्थ श्री आ० ज्ञानसागर जी ने जो लोग कहते है कि मोक्ष मे सम्यग्दर्शन नहीं रहता' वे 'सम्यग्दर्शन' किया है। अत: नामभेद होने पर भी दोनो भूल में है । वस्तुतः बहा रत्नत्रय अभेद रूप में है और को एक ही समझना चाहिए। तथाहि-'सम्माइट्ठी: मोक्ष-मार्ग प्रदर्शित करते हए उसे तीन भेद-रूप में कहा सम्यग्दष्टि र भदेन सम्यक्त्वं जीवगुण'-'सम्यग्दष्टि: जीव रामझा चिन्तन किया जाता है । क्योकि वस्तु के ममम्त के गुणस्वरूप सम्यग्दर्शन को।' यहां इसे जीव का गुण ही गुण और पर्यायो का युगपत् कथन और हदयगम करना कहा गया है। जब सम्यग्दर्शन जीव का स्वभाव है, तो छद्मस्थ जीव के वश की बात नहीं।
मुक्त-जीव मे इसका अभाव कैसे ?
प्रश्न उठता है कि क्या सम्यक्त्वादि (जिन्हे व्यवहार उमास्वामी या अन्य आचार्यों ने न तो सम्यग्दर्शनभाषा मे भेद-रूप पवहन होने से सम्यग्दर्शनादि कह दिया ज्ञान-चारित्र में सुख का अभाव बतलाया और ना ही
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मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ?
उन्होंने कही भव्यत्व भाव के सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप में परिणत हो जान जैसा काई निर्देण ही दिया । भला, जब ससारी जीव मे रहने वाला मव्यत्व भाव सर्वथा कर्म आदि से निरपेक्ष और जीव का मोतिक योग्यता को इंगित करने मात्र से सम्बन्धित है, तब सम्पर दर्शन-ज्ञान-वार से तीनों उपशम क्षयोपशम क्षय की अपेक्षा रखने वाले व जीव को स्ववाक्ति रूप है अत दोनो के एक दूसरे रूप परिणत होने की बात धार ठहरती है क्योंकि दोनों ही दिखना है एक व्यक्तत्व की योग्यता परिचायक रूप और दूसरे यानी रत्नत्रय - जीव के स्व-स्वभाव रूप है। एक ससार दशा तक सदाकाल और अपरिवदित रहने वाला और दूसरे तीनो शक्ति या व्यतित्वरूप में संसार जीर मुक्त दोनो अवस्थाओं में सदाकाल रहने के स्वभाव वाले है। तथा जीव का त्रिकाली स्वभाव न होने से भव्यत्व-भाव का अन्त होता और जीव के हो सेय (सम्यग्दर्शन) ज्ञान और चारित्र का जाव में त्रिकाल भी ( शक्ति अपेक्षा भी) अभाव नहीं होता हा, ससारी दशा म इनकी कर्म सापेक्ष सु-रूपता अथवा विरूपता अवश्य होती है। ऐसी स्थिति में लिख देना कि सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकचारित्ररूप परिणत जो भव्यत्व भाव है'पृ० २०, सर्वथा आगम के विरुद्ध है। जबकि भव्यत्वभाव अन्य किसी रूप में भी परिणत नहीं होता ।
लिखी है। इनमे वर्त
यहा हमें व० श्री राकेश की वे पक्तिया की याद है, जो उन्होंने 'समयसार द्वितीय संघ के प्रारम्भिक 'सम्प्रति' शीर्षक मे २५६ मान आचार्य श्री विद्यासागर जी को प्रेम का संकेत सा है कि उनके गुरु प्रामाणिक है। तथाहि ब्र० जी न लिखा है- " मैने कई लोगो से कहते सुना, आचार्य विद्यासागर जी को, कि 'समयगार' भी हिन्दी में पढना है तो आचार्य ज्ञानसागर महाराज की टीका से पढी(आदि) फलत हम उसी को पढ़ रहे है ।
उक्त ग्रंथ में आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति का भावानुवाद (आ० ज्ञानसागर महाराज कृत है। पाठको
की जानकारी के लिए हम दोनो को उद्धृत कर रहे है। पाठक देखें कि वहा भव्यत्व-भाव के रत्नत्रय रूप में परिणत होने की बात कही है, या जीव क भावा को रत्नत्रय रूप परिणत हो की बात कही है ? हम निर्णय उन्ही पर छोड़ते है | नवा
२६
तात्पर्यवृत्तिच यदा वालादिराव्धिवशेन भव्यवक्तव्यक्ति जीव मामक भावलक्षणनिजप मात्मद्रव्यस्य ज्ञानुचरणपर्या
रूपेण परिणम तच्च परिणमन गमभाषयोऽशमिक क्षयोपशमिक्ष'यिक भावत्रय भण्वत'
तात्पर्ययत्ति गाथा १४३ में
भाषानुवाद- "जब बाल आदि लब्धियों के वश से भव शक्ति की अभिव्यक्ति होती है तब यह जोव सहजशुद्ध पारिणामिक भाव को रखने वाली ऐसे निज आत्म द्रव्य के सम्यक् श्रद्धान्, ज्ञान और आचरण की पर्याय के रूप में परिणमन करता है उस हो परिणमन को आगम भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक ओर क्षायिकभाव इन तीन नामो से कहा जाता है ।"
समयसार, गाथा ३४३, पृ० ३०३-४
उक्त टीका की पुष्टि अन्य आगमा से भी होती है । सभी मे जीव के भावो के रत्नत्रय रूप में परिणत होने की ही पुष्टि की है, न कि भव्यत्वभाव के रत्नत्रयरूप परिणत होने की। जैस
१.भावेन भविष्यतीति भव्य:' ( जीवः)
-- २०७
प्रात्मा भविष्यतीति
२ सम्यग्दर्शनादि पर्यायेण य भव्य ' (जीव )
तत्वार्थ २७१७ ३. सद्धत्तणस्स जोगा जे जीवा हवति भवसिद्धा ।'
४. 'मोक्ष हेतुरनरूपेण भव्यः' (जीव )
ध० १, पृ० १५० भवन परिस्थतीति
लोभ पृ. २६
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३०, बर्ष ४२, कि०३
अब रह जाती है रत्नत्रय में सुख न होने की बात । सो इस पर हम विशेष न लिखकर इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि जब सिद्धात्माओं में पूर्ण शुद्ध-जान का सद्भाव निश्चित है तब उस ज्ञान से उसकी सुखरूप पर्याय को पृथक् कैसे माना जा सकता है ? आचार्यों ने सुख को ज्ञान की पर्याय माना है-'सुखं तु ज्ञानदर्शनयोः पर्यायः तत एव सुखस्यापि क्षयो न भवति ।' - तत्त्वार्थवृत्ति, भुतसागरी-१०१४, इसे पाठक विचारें कि क्या ज्ञान से उसकी सुखपर्याय पृथक हो सकती है या पा रत्नत्रय मे सुख नहीं है।
अतः इसे लिपि वर्ण-माला मात्र से नहीं जोड़ा जा सकता और न यह ही कहा जा सकता है-'गुरु अपनी भाषा मे लिपिबद्ध करते है वह शास्त्र कहलाता है।' एतावता इस युग में भी शास्त्रकार वीतराग देव ही है इसीलिए-इसे वीतराग वाणी कहते है। तथाहि-"शिष्यते शिक्यतेऽनेनेति शास्त्र तच्चाविशेषित सामान्येन सर्वमपि मत्यादिज्ञानमुच्यते, सर्वेणापिज्ञानेन जन्तूना बोधनात् । अतो विशेषस्थापयितुमाह-आगमरूपशास्त्रमागम-शास्त्रं श्रुतज्ञानमित्यर्थः ।
-अभि० रा०पृ०६५ सासिज्जह जेण तहि सत्थं ति चा:विसेसिय नाणं । प्रागम एव य सत्थं, प्रागमसत्य तु सयणाणं ॥"
--विशेषा० ५५६ ३. भव्यत्वभाव रत्नत्रयरूप में परिणत नही होता,
अत: भव्यत्व के अभाव होने पर रत्नत्रय का भी अभाव मान लेना मिथ्या है, क्योकि मुक्तात्मा मे सम्यक्त्व और ज्ञान-गुण सदाकाल ही विद्यमान रहते हैं। इसी प्रसग से ज्ञानदर्शन की पर्याय होने से सुख भी रत्नत्रय मे गभित है-ऐसा सिद्ध होता
निष्कर्ष-- १. आगम-जिनबाणी है, जो गुरु को मार्ग बताती है,
इसलिए उसका दर्जा गुरु से ऊपर है और इसलिए
'देवशास्त्र-गुरु' क्रम ठीक है। 'णिच्छित्ती आगमदो, प्रागम चेठा तदो जेट्ठा।'
-प्रव० सार २३२ 'आगमहीणो समणो, णेवप्पाणं पर वियाणादि ।'
-प्रब० सार २३३ २. 'शास्त्र' यह नाम ज्ञान से सम्बन्धित है और उस दिव्यध्वनि से सम्बन्धित है जो बोध देती है ।
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-कलिकालविर्षे तपस्वी मृगवत् इधर उधर ते भयवान होय वन ते * नगर के समीप बसें हैं, यह महाखेदकारी कार्य भया है। यहाँ नगर
समीप ही रहना निषेध्या, तो नगरविर्षे रहना तो निषिद्ध भया ही। --चेला चेली पुस्तकनि करि मूढ़ सन्तुष्ट हो है भ्रान्ति रहित ऐसा ज्ञानी *
उसे बंध का कारण जानता संता इनकरि लज्जायमान हो है। -पापकरि मोहित भई है बुद्धि जिनकी ऐसे जे जीव जिनवरनि का लिग धारि पाप कर हैं, ते पापमूर्ति मोक्षमार्ग विष भ्रष्ट जानने ।
-मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ० २२२ *xxxxxxxxxxxxxkkakkkkkkkk***
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मुनि-रक्षा परम अहिंसा है
जब हम अपरिग्रह और महाव्रतो की बात करते हैं, तब कई साधु (?) समझ लेते है कि हम उनकी चर्चा कर रहे है, चाहे वे अपरिग्रह की श्रेणी मे न जाते हों। हम स्पष्ट कर दें कि हमारा उद्देश्य अपरिग्रह और अपरिग्रही की व्याख्या होता है, न कि परिवह और परिग्रही की व्याख्या । पाठको को याद होगा कि पिछली बार हम अपरिग्रह को जैन का मूल बता चुके है। अपरिग्रही के कुछ नियम है, जिनका उसे निर्दोष रूप में निर्वाह करना होता है। यदि प्रमाद-त्रण दोष लग जाय तो उसका प्रायश्चित करना होता है। स्मरण रहे कि अनजान मे हुए व्रतघात का नाम दोष है और जानकर किया गया व्रतघात व्रत का खंडित होना है ।
अपरितको अपरिग्रही रहने के लिए सतत रूप मे निरतिचार अहिंसा, सत्य, अयोयं ब्रह्मचयं इन पांच महाव्रतों का पालन करना होता है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, उत्सर्ग इन पाच समितियो का पालन करना होता है। पांचो इन्द्रियो का शमन करना होता है। भावनाओं सहित समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग इन छह आवश्यको का पालन करना होता है। केशलुचन, एक बार आहार, खड़े होकर आहार और स्नान का त्याग, भूमिशयन, और नग्नता धारण दातुन ये अपर के २८ कठिन नियम (मूलगुण) होते हैं। उक्त नियमो का पालन खाला जी का घर नही- टेढ़ी खीर है। अपरिग्रही इन नियमों मे दृढ़ रह सके, और आपत्ति आने पर उसे सहन कर सके, इसके लिए उसे क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दश-मशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शैय्या, प्राक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन परीषहों के जय का अभ्यास करना पड़ता है। अपरिग्रही व्यक्ति अपरिग्रह व्रत में दृढ़ता और कर्म
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पद्मचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
कृश करने के लिए अनशन, अवमोदर्य, वृत्तपरिसख्यान रस-परित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश इन तपों को करता है और अन्तरग के प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्व ओर ध्यान इन छह तपों को पता है। सामयिक छेदोपस्थापना, परिहार- विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात इन पांच प्रकार के वारि की बढ़वारी करता है क्षमा मार्दव, आर्जव, शोच, सत्य सयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्यं इन दश धर्मो को पालता है। निरन्तर दाइ अनुप्रेक्षाओ का चिन्तन करता है ।
अपने को अपरिग्रही घोषित करने वाला कोई व्यक्ति यदि हमसे कहे कि वह अपरिग्रही है, तो हमें क्या ऐतराज ? भला, हम सत्यमहाव्रती का अविश्वास क्यों करे और क्यो ही उम पर कोई आरोप लगाएं ? हम तो हमारे हम सफर भावकों से ही प्रार्थना कर सकते हैं कि वे अपरिग्रही की सही पहचान के लिए उसमें ऊपर लिखी बातें देख ले। प्रायः देखा गया है कि अधिकांश लोग मात्र नग्नता और पोछी- कमण्डलु को अपरिग्रही की पहचान मान बैठे हैं, जिसका परिणाम सामने है आए दिन कतिपय पीछोकमण्डलु धारकों के विषय मे समाचार-पत्रों में छपने वाली विसंगत चर्चाएं चर्चाएँ यदि तथ्य से परे होती हैं, तो चर्चाओ पर रोक क्यों नही, प्रोर यदि सत्य होती हैं, तो सुधार के प्रयत्न क्यों नही ?
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हम बहुत दिनों से देव-शास्त्र-गुरु रूप तीन रत्नों की बात कह रहे है । वर्तमान में देव अप्राप्य हैं, शास्त्रों का अस्तित्व खतरो से गुजर रहा है तथा लोगो को तलस्पर्शी ज्ञान भी नहीं है। ऐसे मे केवल आचार ( चारित्र) के प्रतीक गुरुगण ही हमारे मार्ग-दर्शक है । यदि हम इनको भी सुरक्षित न रख सके तो धर्म गया हो समझिए, हमारा कर्तव्य है कि हम अपरिग्रहत्व के जगम रूप की
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३२, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
रक्षा में सन्नद्ध हो। ऐसा न हो कि बाड ही खेत को खा धारियों को मुनि, आचार्य या उपाध्याय नाम से छापते बैठे और हम हाथ मलते रहें।
है। ये तो दुरगी नीति हुई -कथनी और करनी और। गत दिनो कुछ लोगो से उनकी नीति सम्बन्धी प्रश्न हमारी दृष्टि म तो मुनियो क प्रसगों को पत्र-पत्रिकाओ से पूछा गया था कि 'वीतरागी निर्ग्रन्थ गुरुओ के प्रति श्रद्धा- दूर रखने से भी साधुपद की रक्षा है। समाचार पत्रो में पूर्वक नमन करने के सम्बन्ध में उनकी क्या नीति है ?' प्रश्न उनके समाचार आदि उनके अह को बढ़ाते है। बड़ा तर्कसगत और आचरणीय है। हम ऐसे मार्ग-दर्शन की प्रशंसा करते है और अपील करते है कि प्रथम दर्शन
____ आज पैमे क! जोर है, अधिकांश व्यक्ति और त्यागी
भी पैसे की ओर खिचे हुए है । कोई किसी बहाने और में-जब तक उनकी क्रियाओ को स्पष्ट दखा या सुना न
कोई किसी बहाने लोगो की जेब खाली कराने में लगे है। हो, सभी निग्रन्थो को वदना व आहारादि जैसे सम्मानों से
यश के भूखो को तो यश चाहिए, मो कई पैसे वाले अपना सम्मानित करना चाहिए। पर, बाद को देख लेना चाहिए
मतलब साधते है, यश कमाते है- साधु के चारित्र से उन्हे कि वे मात्र वेश-घर तो नही-उनका मुनिरूप चारित्र मुनिरूप तो है-जैसा कि ऊपर वणित है ? कहा भी है,
क्या लेना-देना ? साधु का चाहे शिथिलाचार बढ़े या उसे
पापबध हो। कुछ श्रावको की कायरता तो इतनी बढ़ ----सम्यग्दृष्टी जीव भी 'सहदि असम्भाव अजाणमाणो।'
चकी है कि वे धर्म-निन्दा के भय से कई वेषधारियो के हम समझते है कि दीक्षा के समय साधु वैराग्य भाव अनाचारों तक की लीपा-पाती मे लगकर दिगम्बरत्व को -साधुता मे होता है । जब श्रावक लि.सी अपरिग्रही को लाछिन करने को प्रश्रय दे रहे है ? उन्हें धर्मनिन्दा का अपार जनसमूह मे घिरे ऊंचे सिंहासन, स्टज पर ले जाने, भय है, धर्मलोप की चिन्ता नहीं-जबकि नीति कहती है भीड़ द्वारा जय-जयकार करने, समाचार पत्रों में उसके कि 'सडे फोडे को काटकर फेक देना चाहिए, ताकि वह गणगान करने, और तिरगे फोटुप्रो वाले उत्तम पोष्टरों में नासूर न बने । लोगों ने हमारी प्रार्थना है कि पैसे संबधी उसे अकित कराने आदि जैसे प्रतोपनो मे फंसाते है, तब समस्त क्रियाएँ दिगम्बरो के करने की नही --वे दिगम्बरों निश्चय ही वे उसे पदच्युत कराने के साधन जुटाते है। को इधर न घसीटे और स्वय ही धार्मिक उपकरणों की ऐसे में अपरिग्रही स्वय को पूजा और यश-कामना के गवस्था करे। माधुओ को धार्मिक या तीर्थो-सम्बन्धी जजाल में फंस जाता है-मोहित हो जाता है और पद चंदो का सकल्प भी वज्र्य है, सम्पत्ति कब्जा तो महा णप । से गिर जाता है। अतः श्रावको को ऐसे उपक्रमो का त्याग करना चाहिए क्योकि साधुओं को उक्त प्रपचों से आगे बढ़कर अहिंसा का नारा देने वालो को हम यह बवा लेने मे ही उनके पद की रक्षा है। माधु किसी जन भी स्मरण करा दें कि उनका परम कर्तव्य है कि वे समूह से न घिरे, उसके लिए निर्मित स्टेजो पर न बैठे, अपरिग्रहियों के सयमरूपी प्राणो की रक्षा करें। क्योंकि फोटओं के खिंचवाने मे विराम ले। यदि किमी को धर्म लौकिक दशप्रासा तो साधारण के भी होते है। अपरिग्रही लाभ लेना हो तो वह स्वय साधु के निवास स्थान पर
का असाधारण-- मुख्य प्राण तो सयम है, जिससे उसका
महाव्रत कायम रहता है। यदि महाव्रती के सयम का घात जाय और साधु उसे लम्बे चौडे भाषण न सुना--सूत्ररूप
होता है, तो उसका महाव्रत मर जाना है और महाव्रती मे हित-मित वचन कहे; आदि । हम तो तब भी आश्चर्य
की हिंमा हो जाती है। ऐसे मे जैनियो का 'अहिंसा परमो होता है, जव वर्तमान मे साधु-पद-दुर्लभ मानने वाले धर्मः' नारा कैसे मार्थक होता? जरा सोचिए । कतिपय लेखक और सम्पादक समाचारो में सभी वेष
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आगमों से चुने : ज्ञान- कण
संकलयिता श्री शान्तिलाल जैन, कागजी
१. सिद्धान्त में पाप मिध्यात्वहीकू कहा है, जहां ताई मिथ्यात्व है, नहा ताई शुभ तथा अशुभ सर्वही किमाकू अध्यात्मविषं परमार्थकर पाप ही कहिये ।
२.
यष्टिज्ञान सम्यशक्ति अवश्य होना कहा है।
३. मिध्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्रमे प्रथम तो प्रवेश नाही, अर जो प्रवेश करें तो विपर्यय समझे है ।
४ जाका संयोग भया, नाका वियोग अवश्य होयगा । तातं विनाशीकतै प्रीति न करती ।
५. अतीत तो गया हो है, अनागतकी वाच्छा नाही, वर्तमानकान विराम नाही है, जो जानावि राम कैसा होय?
६ परद्रव्य, परभाव समारमे भ्रमणके कारण है, तिनतं प्रीति करें, तो ज्ञानी काहे का ?
७. निर्जरा तो आत्मानुभव से होय है।
मोक्ष आत्मा होय है, सो आत्माका स्वभाव ही मोक्ष का कारण होय । तातें ज्ञान आत्माका स्वभाव है । सो ही मोक्षका कारण है ।
९. जीव नामा पदार्थ समय है, मो यह जब अपने स्वभाव विषै तिष्ठै, तब तो स्वममय है । अर परस्वभाव- राग द्वेष, मोहरूप होय तिष्ठ तब परममय है, ऐसे पार्क द्विधारणा बाते है।
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१०. काम कहिये विषयनिकी इच्छा, अर भोग कहिये तिनिका भोगना, यहु कथा तो अनतबार सुणी, परिचय मे करी, अनुभव में आई, नातं सुलभ है। बहुरि सर्व परद्रव्यतितै भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपनी आत्मा की कथा तो स्वयमेव ज्ञान करें। सो ज्ञान या भया नाही अर जिनके याका ज्ञान भया, तिनकी ये उपासना कदे की नाही या याकी कथा कदे न सुनी न परिवई, न अनुभव मै आई । ता याका पावना दुर्लभ भया । ११. आगमका सेवन, युक्तिका अवलम्ब, सुगुरु का उपदेश, स्वमवेदन, इनि चारि बातनिकरि उपज्या जो अपना ज्ञान का विभव, ताकरि एकत्वविभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप देख्या जाय है ।
२२. जो जिणमय पवज्जहु ता मा ववहार णिच्छये मुयहु । एक्केण विणा छिज्जइ, तित्थ अण्णोण उण तच्च । अर्थआचार्य कहे है जो है पुरुष हो तुम जिनमनोहरअर निश्चय इति दोऊ नयनिकू मति
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छोड़ी जा एक जो व्यवहारयता विना तो तीर्थ कहिये व्यवहारमा नाका नाश होगा। बहुरि अन कहिये निश्चयनय बिना तत्त्व का नाश होयगा ।
१३. वस्तु तो द्रव्य है, सो द्रव्य के निजभाव तो द्रव्य की लार है अर नैमित्तिकभाव का तो अभावही होय ।
१८. शुद्ध की दृष्टिकरि देखीये तो सर्वकर्मनित मात्र देव अविनाशी आत्मा अनि आप विराजे है । यहू प्राणी पर्याय बुद्धि बहिरात्मा याकू बाह्य हैरे है सो बडा अज्ञान है ।
१५. सर्व ही लौके कामभोग संबंधी बधकी कथा तो सुनने में आई है, परिचय में आई है, अनुभव मे आई है, तात सुलभ है। बहुरि यह भिन्न आत्माका एकपणा कबहू श्रवणमें न आया, यातै केवल एक यहही सुलभ नाही है। १६. कदे आपकूं आप जान्या नाही ।
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन जन-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: मस्कृत घोर प्राकृत के १७१ अप्रकाषित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
महित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ५१ परिशिष्टो जोर प० परमानन्द शास्त्री का इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, मजिन्द। ...
६.०० जैन प्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थो को प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन।
प्रकागे के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित। स. प. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५.०० समाषितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द ।
9-0. कसायपाहारमुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यनिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मो वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पष्ठों मे। पुष्ट कागज पोर कपड़े को पक्की जिल्द ।
... २५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : सपादक प० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. मैन लक्षणावली (तीन भागों में) : म०प० बान चन्द मद्धारत शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०० जिन शामन के कुछ विचारणीय प्रमंग थी पप्रचन्द्र शापी, मान विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पद्म पन्द्र शास्त्री
२-०० Jaina Bibliography Shri Chhotelul Jain. (An universal Encyclopaedia of Jainreferences) In two Vol (P. 1942)
Per set 600-00
मम्पादन परमर्शदाता श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्राम-बाबूलाल जैन वना, वीर सवा मन्दिर के लिए दात, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३
BOOK-POST
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बोर सेवा मन्दिरका मासिक
अनेकान्त
. (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगबीर') वर्ष ४२ : कि०४
अक्टूबर-दिसम्बर १९८९
इस अंक में
विषय १. शान्तिनाथ-जिन-स्तवन २. आचार्य कुन्दकुन्द एव उनके सर्वोदयवादी सिद्धान्त
-प्रो० डा. राजाराम जैन १. वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
-डॉ. जयकुमार जैन ४. मुनि पातक कौन ?-श्री बाबूलाल जैन ५. जैन चम्पूकाव्य : एक परिचय
-श्रीमती संगोता अग्रवाल ६. रेल की जैन प्रतिमा-डॉ. प्रदीप शालिग्राम ७. आर्थिक समस्याओं का हल-अपरिग्रह
डॉ. सुपार्श्व कुमार जैन ८. Maneka Gandhi Calls For a Ban.............१६ ६. शुद्धि पत्र-धवला ३-पं. जवाहरलाल शास्त्री १०. निर्माणोत्सव : समय की पुकार
-पपचन्द्र शास्त्री ११. दिगम्बर साधु की मोर-पिच्छी?
-पपचन्द्र शास्त्री १२. जरा-सोचिए-संपादक १३. नीम हकीम खतरे जान
आवरण २ १४. आगमों से चुने जानकण
-श्री शान्तीलाल जैन कागजी आवरण ३
प्रकाशक :
बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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Xxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkka
सावधान !
नीम हकीम खतरे जान,
नीम हकीम खतरे ईमान हमारी जैन समाज में कई भारतीय स्तर को संस्थाएँ है जो दिन-रात भारत की राजनैतिक संस्थाओं की तरह जैनों की गरीबी दूर करने पर जोर देती है। इन संस्थाओं के बहत में नेता जैन समाज को विधटन से बचाने का राग भी अलापते हैं।
इन नेताओं में बड़े नेताओं सहित, बहतों को तो जैन धर्म मे वणित श्रावक के पटआवश्यक कर्तव्यों के नाम तक पालन नहीं है। इनमें अधिकतर नेता रात्रि में भोजन करते है, अनछने जल का प्रयोग करते है और कुछ नेता अबाध गति मे धूम्रपान करते है और कुछ तो उससे आगे भी पहुँच गये है।
ये हो नेता भगवान महावीर के संदेश का प्रचार करते हैं। कभी-कभी बच्चों को धार्मिक शिक्षा हेतु पाठशाला दलाने का आदेश भी देते है। द का सबसे अधिक जोर सामाजिक पाठन पर रहता है। ये
होले फार फाड़ कर माइक पर चिल्लाते है कि रात्रि में शादियां न करे। ये दहेज लेना-देना जित बताते है। फिजलखर्ची न हो ऐगा परामर्श देते हैं। जन को नीमबन्ध करने की गलाह देते है। लेकिन अधिकतर नेताओ का आचरम इन सब बातो के विरुद्ध होता है। ये ही लोग अजेनों में पिता करके गर्व महसूस करते है। रातो में शादी करते है। दहेज अस्टिन-अधिक लेते है। कई के यहाँ पापा का बहाना लेकर काकरन पार्टी भी होती हो तब भी आश्चर्य न।
समाज को एमे नेताआने सावधान रहनाई। कही ऐसा न हो कि ये नेतागण अपने पद और नेतागीरो को सुरक्षित रखने के चक्कर में हमें हमारे धर्म के मल स्वरूप से दूर करा दे और आगम सिद्धान्तों के विपरीत चलाकर हमें हमारे ।
XXXXXX***********XXXKo
विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मगरल
लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते ।
कागज प्राप्ति -श्रीमती अंगरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से
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वर्ष ४२ किरण ४
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प्रोम् अर्हम्
टेक
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर- निर्वाण संवत् २५१६, वि० सं० २०४६
शान्तिनाथ - जिन - स्तवन
जयति जगदधीशः शान्तिनाथो यदीयं, स्मृतिमपि हि जमानां पापतापोपशान्त्यं ।
विबुधकुल किरीटप्रस्फुरन्नीलरत्न - द्युतिचलमधुपाली चुम्बित पादपद्मम् ||५|| स जयति जिनदेवः सर्वविद्विश्वनाथो, वितथवचनहेतु क्रोधलोमावि मुक्तः ।
शिवपुरपथपान्थप्राणिपाथेयमुच्चेजनित परमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि ॥ ६ ॥
अक्टूबर-दिसम्बर १६८६
अर्थ -- देवसमूह के मुकुटों में प्रकाशमान नील रत्नों की कांति जैसी चंचल भ्रमरों की पंक्ति से चुम्बित जिनेन्द्र शान्तिनाथ के चरणकमल, स्मरण करने मात्र से ही लोगों के पापरूप संताप को दूर करते हैं, ऐसे लोक के अधिनायक भगवान शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवे । जो जिन भगवान असत्यभाषण के कारणीभूत क्रोध एवं लोभ आदि से रहित हैं तथा जिन्होंने मुक्तिपुरी के मार्ग में चलते हुए पथिकजनों के लिए, पाथेय ( कलेवा ) स्वरूप एवं उत्तम सुख को उत्पन्न करने वाले धर्म का उपदेश दिया है, वह समस्त पदार्थो के जानने वाले तीन लोक के अधिपति जिनदेव जयवन्त होवें ।
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आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनके सर्वोदयवादी सिद्धान्त
प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन
विश्व संस्कृति के उन्नायकों में आचार्य कुन्दकुन्द का समकालीन जनभाषा-प्रयोग स्थान सर्वोच्च है। उसका कारण यह नहीं कि वे किन्हीं आधुनिक दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो प्राचार्य भौतिकवादी चमत्कारो के द्वारा जनता को अपनी ओर कुन्दकुन्द अपने ममय के एक समर्थ जनवादी सन्त विचाआकर्षित कर अथवा किसी राजनैतिक दल को संगठित रक एवं लेखक थे। इस कोटि का लेबर बिना किसी कर सभी पर अपना प्रभाव डालते थे । बल्कि उसका मूल वर्गभेद एव वर्णभेद की भावना के, प्रत्येक व्यक्ति के पास कारण यह था कि वे लोकहित में जो भी कहना एवं पहचने का प्रयत्न करता है और उसके सुख-दुख की जानकरना चाहते थे, एक महान वैज्ञानिक की भांति वे अपने कारी प्राप्त कर उन्हें जीवन के यथार्थ सुख सन्तोष का विचारी एवं सिद्धान्तो का अपने जीवन मे ही सर्वप्रथम रहस्य बतलाना चाहते हैं । यह तथ्य है कि जनता-जनार्दन प्रयोग करते थे और उनकी सत्यता का पूर्ण अनुभव कर से घलने-मिलने के लिए किसी भी प्रकार की साज-सज्जा बाद मे उनका प्रचार करते थे। उनके सिद्धान्त मानव- तथा वैभवपूर्ण आडम्बरी की आवश्यकता नहीं होती, मात्र तक ही सीमित नहीं थे, अपितु प्राणिमात्र तक विस्तृत क्योकि उनकी तडक-भडक स सामान्य जनता उनसे थे और उनके प्रादर्श केवल भारतीय सीमा के घेरे तक ही विश्वास पूर्वक घल-पिल नही पानी। इसीलिए लोकहित सीमित नही थे बल्कि अखिल विश्व के समस्त प्राणियो के ।
की दृष्टि से कुन्दकुन्द ने आने कार का वैभव छोडा, गृहलिए थे अर्थात् उन: मिद्धान्न सार्वजनीन सार्वकालिक त्याग किया, निर्ग्रन्थ-वेश धारण किया, पद-यात्रा का एव मार्वभौमिक थे। ऐसे महान साधक, विचारक एव आजीवन व्रत लिया और सबसे बडी प्रतिज्ञा यह की, कि उपदेष्टा को आधुनिक भाषा-शैली में लोकनायक अथवा वे सामान्य-जनता के हियार्थ लोकप्रचालत जनभापा का गर्वोदय के महान प्रचारक की सज्ञा प्रदान की जाती है। ही प्रयोग करेंगे, उसी में प्रवचन करेंगे, उसी में बोलेगे,
उमी मे मोचेंगे और उसी म लिखेगे भी। वे कभी भी प्रस्तुत लघु निबन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द के जीवन वृत्त का ऊहापाह नही बल्कि उनके उपदेशो एव कार्यों का ।
किमी सीमित दरबारी-भाषा का प्रयोग नही करेंगे। इस
दृढ व्रत का उन्हान आजीवन पालन किया भी। पतमान सन्दभा में संक्षिप्त मल्याकन करना ही शान उद्देश्य है। अत: यहा तद्विषयक क्षपने दृष्टिकोण प्रस्तुत आचार्य कुन्दकुन्द के समय की (अर्थात् आज से दो करने का प्रयत्न किया जा रहा है। मेरी दृष्टि से जैन
हजार वर्ष पूर्व की) जनभाषा को भाषा-शास्त्रियो ने दर्शन के क्षेत्र में मौलिक चिन्तन के अतिरिक्त भी काचार्य "प्राकृत-भाषा" कहा है। कुन्दकुन्द के पूर्व भी प्राकृतो का कुन्दकुन्द के निम्नलिखित कार्य विशेष महत्त्वपूर्ण है :
प्रयोग होता आया था। पूर्व-तीर्थ करो के साथ-साथ पार्व. १. स्वरचित साहित्य मे समकालीन लोकप्रिय जन- नाथ, महावीर एव बुद्ध ने अपने-अपने प्रवचनो में जनभाषाभाषा (जैन शोरशेनी--प्राकृत) का आजीव प्रयोग, प्राकृत का ही प्रयोग किया था। यही नहीं, प्रियदर्शी
सम्राट अशोक ने भी अपने अध्यादेण जनभाषा-प्राकृत में २. सर्वोदयी संस्कृत का प्रचार, तथा
ही प्रसारित किए थे तथा कलिंग-नरेश खारवेल ने भी ३. राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए प्रयत्न। अपने राज्य-काल का पूर्ण विवरण जनभाषा-प्राकृत मे ही
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आचार्य कन्दकुन्द एवं उनके सर्वोदयवादी सिवान्त
प्रस्तुत किया था। किन्तु इन सभी की भापा पूर्वी-भारत र्शन मे नही बल्कि उन्हे जीवन में उतारने की आवश्यकता मे प्रचलित वह जनभाषा थी, जिसे मागधी एव अर्ध- पर बल देते थे। उनके जो भी आदर्श थे, उनका सर्वप्रथम मागधी नाम मे अभिहित किया गया है। आचार्य प्रयोग कुन्दकुन्द नपने जीवन पर किया और जब वे कुन्दकुन्द की स्थिति इससे भिन्न है ।
उसमे खरे उतरते थे, तभी उन्हे गार्वजनीन रूप देते थे।
उनके "पाहुड-माहित्य" का यदि गम्भीर विश्लेषण किया आचार्य कुन्दकुन्द पहले समर्थ लेखक एव कवि है,
जाय, तो उगमे यह स्पष्ट विदित हो जायगा कि उनके जिन्होंने दक्षिणात्य होते हुए भी उत्तर भारत में जन्मी किसी।
अहिंसा एव अपरिग्रह सम्बन्धी सिद्धान्त केवल मानव जनभाषा, जिसे कि भाषाशास्त्रियों ने "जैन शौरसेनी
समाज तक ही सीमिप न थे, अपितु समस्त प्राणि-जगत प्राकृत" कहा, का केवल प्रयोग मात्र ही नहीं किया,
पर भी लागू होत है । सर्वोदय का यह स्वरूप अन्यत्र दुर्लभ अपितु उममे निर्भीकता पूर्वक बिना किमी मोच-म कोच के
ही है। जिओ और जीने दो" के सिद्धान्त का उन्होने धाराप्रवाह विविध विषयक विस्तृत साहित्य का प्रणयन
आजीवन प्रचार किया। भी किया और उ. के मामर्थ्य एव गौरव को गुिणित कर उसकी लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए। उनके आचार्य कुन्दन्द को सर्वोदयी सस्कृति का क्षेत्र साहित्य की विशालता भी इतनी है कि उसकी पूर्ण सूची अत्यन्त विस्तृत है। वह वस्तुत हृदय-परिवर्तन एवं आत्मयहाँ प्रस्तुत कर पाना सम्भव नही । यही कहा जा माना गुणों के विकास की मस्कृति है। उसका मूल आधार -- है कि उनके उपलब्ध उव अनुपलब्ध ग्रन्थो की कुल मख्या । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं मध्यस्थ-गवना हो रही है। सम्भवत -१/- दर्जन से भी अधिना है । परवर्ती लेख- यह विचारणीय है कि रूपगो, पमो सोना-चाँदी, वैभव, आचार्यों के सम्मुख उन्होने इतना गरम एवं मर्मस्पी पद-प्रभाव आदि के बल पर अथवा मौलिक-पाक्ति के बल साहित्य लिखकर क ऐसा विशेष आदर्श उपरिजन किया । पर क्या आत्म गुणो का विकास किया जा सकता है ? क्या वि जिमगे प्रेरणा लेकर परवर्ती अनेक कवि १०वी, :१वी । शारीरिक-सौन्दर्य तगा उच्च कूल एब जाति में जन्म ले सदी तक निरन्तर उमी भाष में मात्य-प्रणयन करते लेने मात्र से ही मद्गुणो का आविर्भाव हो जाता है?
मरलता, निश्छलता, दयालुता, परदुःखकातरता, श्रद्धा आधुनिक भारतीय भाषाओ के उद्धव एवं विकास के एव सम्मान की भावना क्या दूकानों पर बिकती है, जो अध्ययन क्रम में भाषा वैज्ञानिको ने यह भी स्पष्ट कर खरीदी जा मके ? नहीं। सद्गुण नो यथार्थत. श्रेष्ठगणीदिया है कि ब्रजवोली का उद्धव एव विकास "शौरशेनी- जनो के समर्ग मे एवं वीनगग-वाणी के अध्ययन से ही आ प्रात" से हुआ है । अत: यदि निप्पक्ष दृष्टि से देखा जाय, सकते है । कुन्दकुन्द ने कितना मुन्दर कहा है - तो कुन्दकुम्द ही ऐसे पथम आचार्य है, जिनके माहित्य ने णदि देहो वदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइ-सजुत्तो। आधनिक ब्रजभाषा व साहित्य को न केवल भावभूमि को नदइ गणहीणो णह मवणो णे मावओ होइ दिमण० २७ प्रदान की, अपितु उसके बहु आयामी अध्ययन के लिए • स्रोत भी प्रदान किए। इस दृष्टि मे कुन्दकुन्द को हिन्दी
अर्थात् न तो शरीर की वन्दना की जाती है और न साहित्य, विशेषतया ब्रज-भाषा एव उसके भक्ति-साहित्य- कुल की, उच्च जाति की भी वन्दना नहीं की जाती। रूपी भव्य-प्रासाद की नीव का ठोस पत्थर माना जाय, गुणहीन की वन्दना कौन करेगा? पाकि न तो सदगुणो तो अत्युक्ति न होगी।
के बिना मुनि हो सकता है और न ही धावक । कुन्दकुन्द की दूसरी विशेषता है, उसके द्वारा सर्वोदयी पुन: कुन्दकुन्द कहते हैं :संस्कृति का प्रचार । भारतीय सस्कृति वस्तुतः त्याग की मवे वि या परिहीणा रूख-विरूवा वि बदिदमुवया वि । संस्कृति है, भोग की सस्कृति नहीं। वे सिद्धान्तो के प्रद- सीलं जेसु सुसील सुजीविदं माणस तेहिं साल०१८
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४, वर्ष ४२; कि०४
त्यनेकान्त
अर्थात् भले ही कोई होन जाति का हो, सौन्दर्य ४. कुशील व ५. परिग्रह । इनका यथाशक्ति त्याग करना विहीन कुरूप हो, विकलांग हो, झुर्रियों से युक्त वृद्धावस्था ही श्रावकाचार है तथा सर्व देश त्याग करना ही मुनिको भी प्राप्त क्यों न हो? इन विरूपों के होने पर भी यदि आचार । जैनधर्म को यह आनार व्यवस्था वस्तुतः मर्वोदय वह उत्तमशील का धारक हो तथा उसके मानवीय गुण का अमर नाम माना जा सकता है क्योंकि उन दोनों में न जीवित हो तब भी उस विरूप का मनुष्य-जन्म श्रेष्ठ माना केवल मानव के प्रति, अपितु समस्त प्राणि-जगत् के प्रति गया है।
भी सद्भावना सुरक्षा एवं उसके विकास की प्रक्रिया मे आत्मगुण के विकास का अर्थ कुन्दकुन्द ने यही माना
उसके सहयोग की पूर्ण कल्याण कामना निहित रहती है । है कि जिससे व्यक्ति अपना अपने परिवार, समाज एव अत: यदि जैनाचार का मन, वचन एवं काय से निर्दोष देश का कल्याण कर सके। यही सार्वकालिक एव सार्व- पालन होने लगे तो मारा ससार स्वत: ही सुधर जाएगा। भौमिक सत्य है। सम्राट अशोक तब तक ' प्रियदर्शी" एवं कोर्ट-कचहरियो एवं थानो की भी आवश्यकता नही सर्वन: लोकोपचारी न बन सका और तब तक वह भारत रहेगी। उनमे वाले पड जायेगे। पुलिस, सेना, तोप एव माता के गले का हार न बन सका, जब तक उमने कलिग तलवारो की भी फिर क्या आवश्यकता? युद्ध में सहस्रो सैनिको की हत्या के अपराध के प्रायश्चित
इण्डियन-पनत-कोड मे वणित अपराध-कर्मों तथा में अपनी तलवार तोड़कर नही फेक दी और अहिंसक
पूर्वोक्त ५ पापों का यदि विधिवत् अध्ययन किया जाए, जीवन व्यतीत नही करने लगा। मोहनदास करमचन्द्र
तो उनमे आश्चर्यजनक समानता दृष्टिगोचर होती है। गांधी, तब तक महात्मा एवं राष्ट्रपति नहीं बन सके, जब
उक्त इण्डियन पैनल कोड में भी पांच बातों का बिभिन्न तक उन्होंने महर्षि जनक, तीर्थकर महावीर एव गोतम बुद्ध
धारा मे वर्गीकरण कर नके लिए विविध दण्डो की की भूमि का स्पर्श कर अहिंसा, सत्य ब्रह्मचर्य एव अपरि
व्यवस्था का वर्णन किया गया है। अन्तर केवल यही है ग्रह को अपने जीवन मे नही उतार लिया।
कि एक में प्रायश्चिन, साधना, आत्म-सयम तथा आत्मजीबन के सन्तुलन एवं सरसता के लिए ज्ञान एव
शुद्धि के द्वारा अपराध-कर्मों से मुक्ति का विधान है, तो साधना अथवा तप के समन्वय पर कुन्दकुन्द ने विशेष बल दूसरे में कारागार की सजा, अर्थदण्ड एवं पलिस की मारदिया क्योकि एक के बिना दूसरा अन्धा एवं लगडा है। पोट आदि में अपरा
पोट आदि मे अपराध-कर्मों की प्रवृत्ति को छुड़ाने के प्रयत्न पारस्परिक सयमन के लिए एक को दूसरे की महती आव. को व्यवस्था है। श्यकता है।
आदर्शवादी दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो स्वस्थ कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है :
समाज एव कल्याणकारी राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से कुन्दसवरहियं जं णाणं णाणविजुतो तवो कि अकयत्थो। कुन्द द्वारा निशित जैनाचार अथवा सर्वोदय का सिद्धांत तम्हा णाण तवेण संजुतो लहह णिव्वाण ||मोक्ख० ५६ आज भी उतना ही प्रासगिक है, जितना कि आज से
अर्थात् तप रहित ज्ञान एव ज्ञान रहित तप ये दोनो २००० वर्ष पूर्व । विश्व की विषम समस्याओ का समाही निरर्थक है (अर्थात एक के बिना दूसरा अधा एवं धान उमो से सम्भव है। लगड़ा है) अतः ज्ञान एव तेप से युक्त साधक ही अपने आचार्य कुन्दकुन्द ने तीसरा महत्वपूर्ण कार्य किया यथार्थ लक्ष्य को प्राप्त करता है।
राष्ट्रीय अखण्डता एव एकता का। वे स्वय तो दाक्षिणात्य पूर्व-परम्परा प्राप्त कर आचार्य कुन्दकुन्द ने संसार की थे। उन्होने वहां की किसी भाषा में कुछ लिखा या नही, समस्त समाज-विरोधी दुष्प्रवृत्तियो एव अनाचारो को पांच उसको निश्चित सूचना नही है। तमिल के पंचम वेव के भागो मे विभक्त किया :-१. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, रूप में प्रसिद्ध "थिरुकुरल" नामक काव्य-ग्रन्थ का लेखन
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प्राचार्य कन्वन्द एवं उनके सर्वोदयवादी सिवान्त
उन्होंने किया था, ऐसी कुछ विद्वानों की मान्यता है किन्तु है। अत: हिन्दी-साहित्य विशेषतया ब्रजभाषा के साहित्य यह मान्यता अभी तक सर्वसम्मत नहीं हो पाई है। फिर को यदि उत्तरोत्तर समद्ध बनाना है, तो कुन्दकुन्द की भी, यदि यह मान भी ले कि वह उन्ही की रचना है, तो भाषा एव साहित्य का अध्ययन एवं प्रचार-प्रसार करना भी उन्होने बाद मे प्रान्तीय सकीर्णता से ऊपर उठने का ही होगा। निश्चय किया और शरसेन देश (अथवा मथुरा) के नाम
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द को देन के विषय में यहाँ पर प्रसिद्ध शोरसेनी-प्राकृत-भाषा का उन्होन गहन अध्य
सक्षिप्त विचार प्रस्तुत किए गए किन्तु उनके अवदानों यन किया तथा उसी मे उन्होने यावज्जीवन साहित्य की
की यही अन्तिम सीमा नही है। वस्तुत: उनका व्यक्तित्व रचना की। उसमे जीवन की यथार्थता का चित्रण, भाषा
तो इतना विराट है कि उसे शब्दो में गुथ पाना कठिन ही की सरलता, सहज वर्णन-शैली वद मार्मिक अनुभूतियो से
है। अभी तक विद्वानो ने उनका केवल दार्शनिक मूल्याओत-प्रोत रहने के कारण वह माहित्य इतना लोकप्रिय
___ कन ही किया है। किन्तु मेरी दृष्टि से वह भी अपूर्ण ही हुआ कि प्रान्तीय, भाषाई एव भौगोलिक सीमाएं स्वता
है क्योकि विश्व के प्रमख दर्शनों के साथ उनका तुलनाही समाप्त हो गइ। सर्वत्र उसका प्रचार हुप्रा । आज भी
त्मक अध्ययन तथा उसमे पारस्परिक आदान-प्रदान की पूर्व से पश्चिम एव उत्तर से दक्षिण कही जाये आचार्य
दिशा में कोई भी विचार नही किया गया जो कि आवबन्दकन्द सभी के अपने है । उनके लिए न दिशाभेद है, न यकी नही अनिवार्य भी है। देशभेद है, न भाषाभेद है, न प्रान्तभेद है, न धर्मभेद है और न वर्णभेव ही।
इसी प्रकार कुन्दकुन्द की भाषा का भाषा वैज्ञानिक
विश्लेषण, उनके साहित्य का सांस्कृतिक, सामाजिक एव इस प्रकार एक दाक्षिणात्य सन्त कुन्दकुन्द ने अपने
काव्यात्मक मूल्यांकन भी अभी तक नही हो पाया है। इन केवल एक भाषा-प्रयोग से ही समस्त राष्ट्र को एकपद्ध
पक्षों पर जब तक प्रामाणिक अध्ययन नही हो जाता तब कर चमत्कृत कर दिया। आधुनिक दृष्टि से भाषा-प्रयाग
क कुन्दकुन्द के बहुआयामी व्यक्त्वि से अपरिचित ही के माध्यम से राष्ट्र को एकबद्ध बनाए रखने का इससे
रहेगे । श्रमण सस्कृति के महान सवाहक आचार्य कुन्दकुन्द बड़ा उदाहरण और कहां मिलेगा?
के इस द्विसहस्राब्दि, समारोह के प्रसंग में यदि उनके शोरसेनी-प्राकृत के क्षेत्र से यदि कुन्दकुन्द को पृथक
सर्वांगीण पक्षो को प्रकाशित किया जा सके, तो उसे इस कर दिया जाय तो उसकी उतनी ही क्षति होगी, जितनी
सदी का भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के लिए बहुमूल्य कि शोरसेनी-प्राकृत से उत्पन्न ब्रजभाषा के महाकवि सूरदास को पृथक् कर देने पर हिन्दी-साहित्य की क्षति ।
-प्राचार्य एव अध्यक्ष, शोरसेनी-प्राकृत तथा ब्रजमाषा सहित उत्तर भारत की
स्नात्कोत्तर सस्कृत-प्राकृत विभाग, प्रमुख आधुनिक भाषाओ का प्राकृतो से गहरा सम्बन्ध
ह. दा० जैन कालेज, आरा(बिहार)०स०३११
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वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
डॉ० जयकुमार जैन
हैं।
मस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार के अनुशीलन से सरि द्राविड सघीय थे, अतः उनके दक्षिणात्य होने की पता चलता है कि भारतवर्ष में सुरभारती के सेवक सम्भावना की जाती है। द्रविड देश को वर्तमान आन्ध्र वादिराज नाम वाले अनेक विद्वान् हुए है। इनमें पार्श्वनाथ प्रदेश और तमिलनाडु का कुछ भाग माना जा सकता है। चरित-यशोधर गरिनादि के प्रणेता वादिराजसूरि सुप्रसिद्ध जन्मभमि, माता-पिता आदि के विषय मे प्रमाण उपलब्ध है, जो न्यायविनिच्चय पर विवरण नाम्नी टीका के भी न होने पर भी उनकी कृतियो के अनन्य प्रस्ति पद्यो में रचयिता है । प्राकृत निबन्ध मे इन्ही वादिराज को विषय ज्ञान होता है कि वादिराजसूरि के गुरु का नाम श्री बनाया गया है। उनको सम्पूर्ण कृतियो का भले ही या है। उनका सम्पूण कृतिया का मल हा
मतियार और मतिसागर और गुरू के गुरू का नाम श्रीपालदेव था।
के गरू विधिवत् अध्ययन न हो पाया हो, परन्तु उनके सरम एकीभाव स्तोत्र मे धार्मिक ममाज, न्यायविनिश्चय विवरण से पशस्तिलक चम्पू के संस्कृत टीकाकार श्रृतसागरमूरि ताकिक समाज और पार्श्वनाथ चरित-यशोधरचरितादि से ने वादिराज और वादीसिंह को सोमदेवाचार्य का शिष्य साहित्य समाज सर्वथा सुपरिचित है। जहां एक ओर बतलाते हुए लिखा है कि -"स वादिराजोऽपि श्री मोमउन्हे महान् कवियो मे स्थाज प्राप्त है, वहा दूसरी ओर देवाचार्यस्य शिष्यः।" "वादीभमिहोप मदीय शिष्यः, श्रेष्ठ ताकिको को पक्ति में भी उत्तम स्थान पाने वाल वादिराजोऽपि मदीय शिष्य" इत्युक्तत्वात् । इसके पूर्व
श्रुतसागरसूरि ने "उक्तं च वादिराजेन" कहकर एक पद्य वादिराजसूरि द्राविड संघीय अरुगल शाखा के उद्धत किया है, जो इस प्रकार हैआचार्य थे। द्राविड सघके अनेक प्राचीन शिलालेखों में "कर्मणा कवलितो सोऽजा तत्पुरान्तर जनांगमवाटे । द्रविड़, मिड़, द्रविण, द्रविड, द्रमिल, दविल, दरविल कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्य शुभधाम न जोव. ॥' मादि नामो मे उल्लेख पाया जाता है। ये नामगत भेद कही लेखको के प्रमादजन्य है तो कही भाषा वैज्ञानिक
यह श्लोक वादिराजसूरिकृत किसी भी ग्रन्थ में नही विकासजन्य । प्राचीनकाल में चे, चोल और पाण्ड्य इन
मिलता है और न ही अन्य वादिराजविरचित ग्रन्थो मे
ही। सोमदेवमूरि के नाम से उल्लिखित "वादीभसिंहोऽपि तीन देशो के निवामियो को द्राविड़ कहा जाता था । केरल
मदीयशिष्य. वादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' वाक्य का के प्रमि आचार्य महाकवि उल्लूर एस. परमेश्वर अय्यर दाविड़ शब्द का विकाम विठाम या विशिष्टता अर्थ के
उल्लेख भी उनकी किसी भी रचना (यश०, नीतिवा०, बाचक तमिष शब्द से निम्नलिखित क्रमानुसार मानते
अध्यात्मतरंगिणी) मे नही है। अतः वादिराज का सोम
देवाचार्य का शिष्यत्व सर्वथा असगत है। यशस्तिलक हैं-तमिष, ममिल, दमिल, द्रमिल, द्रमिड़, द्रविड़, द्राविड़।'
चम्पू का रचनाकाल चैत्र शुक्ला त्रयोदशी शक स. ८८१
(९५६ ई०) है जबकि वादिराज के पार्श्वनाथचरित का महाकवि वादिराज ने किम जन्मभूमि एव किस कुल प्रणयनकाल शक सं. ९३७ (१०२५ ई०) है। इस प्रकार को अलकृत किया-~-इस सम्बन्ध में कोई भी आन्तरिक दोनो ग्रन्थों के रचनाकाल का ६६ वर्षों का अन्तर भी या बाह्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। यतः वादिराज- दोनो के गुरूशिष्यत्व मे बाधक है।
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वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
शाकटायन व्याकरण की टीका "रूपसिदि" के रच- कारण यह हो सकता है, कि कीथ, विन्टरनित्म आदि पिना दयापाल मुनि वादिराज के सतीर्थ (सहाध्यायी या कुछ पाश्चात्य इतिहासज्ञों ने कनसेन वादिराज कृत २९६ मधर्मा) थे। मल्लिषेण प्रशस्ति मे वादिगज के सतीथों में, पद्यात्मक एव ४ सर्गात्मक यशोधरचरित नामक काव्य का पुष्पसेन और श्रीविजय का भी नाम प्राया है। किन्तु उल्लेख किया है। किन्तु यह भ्रामक है। विभिन्न शिलाइन दोनों का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। हुम्मुच के इन लेखों में कनसेन वादिराज और वादिराज का पृथक्-पृथक शिलालेखों मे द्राविड़ सघ को परम्पग इस प्रकार दी गई। उल्लेख है। एक अन्य शिलालेख में जगदेकमल्ल वादि
राज का नाम वर्धमान कहा गया । वादिराज सूरि मौनिदेव
द्वारा विरचित एकीभाव स्तोत्र (कल्याणकल्पद्रुम) पर
नागेन्द्रसूरि द्वारा विरचित एक टीका उपलब्ध होती है। विमलचन्द्र भट्टारक
टीकाकार के प्रारम्भिक प्रतिज्ञा बाक्य मे स्पष्ट रूप से कनकसेन वादिराज (हेममेन)
वादिराज का दूसरा नाम वर्धमान कहा गया है
"श्रीमद्वादिराजापरनामवर्धमानमुनीश्वरविरचितस्य
परमाप्तस्तवस्यातिगहनगभीरस्य सुखावबोधार्थ भव्यासु दयापाल पुष्पसेन वादिराज श्रीविजय जिघृक्ष,पारतन्त्रै नभूषणभट्टारकरूपरुद्धो नागचन्द्रसूरिय
थाशक्ति छायामात्रमिदं निबन्धनमभिधत्ते।"" किन्तु यह गुणसेन
टीका अत्यन्न अर्वाचीन है। टीका की । क प्रति झालरापटन के सरस्वती भवन मे है । यह प्रति वि. स. १६७६
(१६१६ ई०) मे फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मण्डलाचार्य श्रेयाशदेव कमलभद्र अजितसेन (वादीभसिंह) कुमारसेन
यश:कीति के ब्रह्मदास ने वैराठ नगर आत्म पठनार्थ
लिखी थी।" यहा वादिराज के गुरू का नाम कनकसेन वादिराज हमसेन) कहा और अन्यत्र मतिमागर निर्दिष्ट है। यतः वादिराज ने पाश्र्वनाथचरित की प्रशस्ति तथा इसका समाधान यही हो सकता है कि कचित् मतिसागर यशोधरचरित के प्रारम्भ में अपना नाम वादिराज ही पादिराज के दीक्षा गुरू थे और कनकसेन वादिराज कहा है, अत: जब तक अन्य कोई प्रबल प्रमाण नही (हमसेन) विद्या गुरू। श्री नथू राम प्रेमी का भी यही मिलता है, तब तक हमे वादिराज ही वास्तविक नाम मन्तव्य है। साध्वी सघमित्रा जी ने वादिराज जी के स्वीकार करना चाहिए । सतीर्थ का नाम अनेक बार दयालपाल लिखा है। जो
वादिराज सूरि के समय दक्षिण भारत मे चालुक्य सम्भवत' मुद्रण दोष है क्योकि उनके द्वारा प्रदत्त सन्दर्भ
नरेश जयसिंह का शासन था। इनके राज्यकाल की मल्लिशेणप्रशस्ति में भी दयापाल मुनि हो आया है।
सीमाये १०१६-१०४२ ई. मानी जाती है ।२१ महाकवि वादिराज कवि का मूलनाथ था या उपाधि--इस । विल्हण ने चालुक्य वश की उत्पत्ति देन्यो के नाश के लिए विषय में पर्याप्त वैमत्य है। श्री नाथ राम प्रेमी को मान्यता ब्रह्मा की चुलुका (चुल्ल ) में बताई है। उन्होने चालुक्य है कि उनका मूल नाम कुछ और ही रहा होगा, वादिराज वश की परम्परा का प्रारम्भ हारीन से करते हुए उनकी को उनकी उपाधि है। और कालातर में वे इस नाम से वशावली का निर्देश इस प्रकार किया है-- मानव्य, तेलप. प्रसिद्ध हो गये। टी० ए० गोपीनाथ राव ने वादिराज सत्याश्रय, जयसिंहदेव ।" जयसिंहदेव के उत्तराधिकारी का वास्तविक नाम कनकसे वादिराज माना है।" इसका आहवमल्ल द्वारा अपनी राजधानी कल्याण नगर बसाकर
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८, वर्ष ४२, कि० ४
अनेकान्त
उसे बनाने का उल्लेख विक्रमांकदेवचरित में किया गया प्राचार्य बलदेव उपाध्याय ने पार्श्वनाथचरित का है।" जिससे स्पष्ट होता है कि उनके पूर्व शासक की प्रणयन सिंहचक्रेश्वर चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजराजधानी अन्यत्र थी। पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति मे धानी मे शक सं०६६. में लिखा है। उनका यह कथन महाराज जयसिंह की राजधानी "कट्टगातीरभूमों" कहा पार्श्वनाथचरित के नगमात वधि चार और रन्ध्र-नव गया है। किन्तु दक्षिण में कट्टगा नामक कोई नदी नहीं की वितरित गणना (अकाना वामा गति.) ९४७ शक सं० है। हाँ, बादामी से लगभग १८-१६ कि० मी० दूर त5 से विरुद्ध, अतएव असगत है। एक और विचित्र बात कटगरी नामक स्थान जरूर है जो कोई प्राचीन नगर जान मनोज पडता है। ऐसा लगता है कि प्रमादवश "कट्टगेरीतिभूमौ" विटा ने भी वाटिराज को नही पती व
विद्वान् ने भी वादिराज को कही दसवी, कही ग्यारहवी के स्थान पर हस्तलिखित प्रति मे "कट्टगातीरभूमो" लिखा और कही-कही तेरहवी शताब्दी तक पहुंचा दिया है । गया है। कटगेरी नामक उक्त स्थान पर चालुक्य विक्रमा- डा. जैन ने यशोधरच रत का उल्लेख करते हुए १०वी दित्य (द्वितीय) का एक कन्नड़ी शिलालेख भी मिला है, शताब्दी", एकीभाव स्त्रोत के प्रसग में ११वी शताब्दी, जिससे स्पष्ट है कि चालुक्य राजाओ का कट्टगेरी स्थान से
पा० ना० च० के सम्बन्ध मे भी ११वी शताब्दी", तथा सम्बन्ध रहा है। यही कट्टगेरी जयसिंहदेव की राजधानी
न्यायविनिश्चय विवरण टीका के उल्लेख में १३वी होना चाहिए।
शताब्दी" का समय वादिगज के साथ लिखा है। स्पष्ट पार्श्वनाथचरित के अतिरिक्त न्यायविनिश्चय विवरण है कि वादिराजसूरि का तेरहवी शती म लिखा जाना या एव यशोधर चरित की रचना भी जयसिंह की राजधानी मे तो मुद्रणगत दोष है अथवा डा. जैन ने काल-निर्धारण में ही सम्पन्न हई थी। न्यायविनिश्चय विववरण" मे तो पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति का उपयोग नहीं किया है इसका उल्लेख किया ही गया है, यशोधरचरित मे भी तथा पूर्वापरता का ध्यान रखे बिना एक ही व्यक्ति को जयसिंह पद का प्रयोग करके बड़े कौशल के साथ इमकी ११वी से १३वी शताब्दी तक स्थापित करने का विचित्र सूचना दी गई है । यथा--
प्रयास किया है।" "व्यातन्वन्जयसिंहता रणमुखे दीधं दधो धारिणीम् ।"
अनेक शिलालेखों तथा अन्यत्र वादिराजसूरि की "रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ।"" अतीव प्रशसा की गई है। मल्लिषेण प्रशस्ति मे अनेक पद्य
इनकी शसा मे लिखे गये है। यह प्रशस्ति १०५० शक किसी भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण द्वारा वादिराज
स० (११२८ ई०) मे उत्कीर्ण की गई थी जो पार्श्वनाथका जन्मकाल ज्ञात नही हो सका है। परन्तु यत. उन्होने
वस्ति के प्रस्तर स्तम्भ पर अकित है। यहा वादिराज को पार्श्वनाथचरित की रचना शक स. ६४७ कार्तिक शुक्ला
मान् कवि, शादी और विजेता के रूप मे स्मरण किया तृतीय को की थी", अतः उनका जन्म समय ३०-४० वर्ष
गया है। एक स्थान पर तो उन्हे जिन राज के मभान मानकर ९८५-६६५ ई. के लगभग माना जा सकता है।
कग गया है । इस प्रशस्ति + "सिंह पमर्यपीठविभव" पंच वस्ति के ११४७ ई० उत्कीर्ण शिलालेख मे वादिराज
विशेषण से ज्ञात होता है कि महाराज जयसिंह द्वारा को गगवंशीय राजा राजमल्ल (चतुर्थ) सत्यवाक् का गुरू
उनका आमन पूजित ।। इनने कम समय मे इतनी बताया गया है। यह गजा ६७७ ई० मे गद्दी पर बैठा
अ धक प्रशसा पाने का मौभाग्य कम ही कवियों अथवा था। समरकेमरी चामुण्डराय इसका मन्त्री था। अतः
आचार्यों का मिला है। वादिराज का समय इसमे पूर्व ठहरता है। इन आधारो पर वादिराज का समय ६५..१०५० ई. के मध्यवर्ती काव्य पक्ष की अपेक्षा वादिराजयूरिफा ताकिक मानने में कोई असंगति प्रतीत नही होती है।
(न्याय) पक्ष अधिक ममृद्ध है। आचार्य ब. ६व उपाध्या
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वाविराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण की यह उक्ति कि "वादिराज अपनी काव्य प्रतिभा के ई०) में प्रकाशित भी हुआ था। श्री परमानन्द शास्त्री लिए जितने प्रसिद्ध है उससे कही अधिक ताकिक वैदूषी इसे वाग्भटालंकार के टीकाकार वादिराज की कृति मानते के लिए विश्रुत है।"3६ सवैया समीचीन जान पड़ती है। है। त्रैलोक्यदीपिका नामक कृति उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि एक शिलालेख में वादिराज को विभिन्न मल्लिषेण प्रशस्ति के "त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यादाशिनिको का एकीभूत प्रतिनिधि कहा गया है-- मेवोद्गादिह । जिन राजत एकस्मादेकस्माद् वादि"सदसि यदकलंक कीर्तने धर्मकीतिः
राजत: ॥"" मे कदाचित इसी त्रैलोक्यदीपिका का संकेत वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपाद।।
किया गया है। श्री नाथ राम प्रेमी ने लिखा है कि सेठ इति समयगुरूशामेकतः सगताना
माणिकचन्द जी के ग्रथ रजिस्टर में त्रैलोक्यदीपिका नामक प्रतिनिधिरिव देवो राजते बादिराजः ॥"" एक अपूर्ण प्रथ है जिसमे प्रारम्भ के १० और अन्त अन्यत्र वादिराजसूरि को षटतर्कषण्मुख, स्याद्वाद- मे ५८ पृष्ठ के आगे के पन्ने नही है ।" सम्भव है यही विद्यापति, जगदेकमल्लवादी उपाधियो से विभूषित किया वादिराजकृत त्रैलोक्यदीपिका हो । विद्वद्रत्नमाला में प्रकागया है। एकीभाव स्त्रोत के अन्त मे एक पद्य प्राप्त शित अपने एक लेख मे प्रेमी जी ने एक सूचीपत्र के होता है जिसमे वादिराज को ममस्त बैयाकरणो, ताकिको आधार पर वादिराजकृत चार ग्रथों-वादमंजरी, धर्मएव साहित्यिकों एव भव्यमहायों में अग्रणी बताया गया रत्नाकर, रुक्मणी यशोविजय और अकलकाष्टकटीका का है।" यशोधरचरित के सुप्रसिद्ध टीकाकार लक्ष्मण ने उल्लेख किया है। किन्तु मात्र सूचीपत्र के आधार पर उन्हे मेदिनीतिलक कवि कहा है। भले ही इन प्रशसा- कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। परक प्रशास्तियों और अन्य उल्लेखो मे अतिशयोक्ति हो इस प्रकार वादिराजमूरि के परिचय, कीर्तन एवं पर सो सन्देह नहीं कि वे महान कवि और ताकिक थे। कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे बहुमुखी
वादिराजसूरि की अद्यावधि पाच तियाँ असदिग्ध प्रतिभासम्पन्न कवि एव आचार्य थे। वे मध्ययुगीन सस्कृतहै--(१) पार्वनाथचरित, (२) यशोधरचरित, (३) एकी- साहित्य के अग्रणी प्रतिभ रहे है तथा उन्होने संस्कृत के भावरत्रोत, (४) न्यायविनिश्चय विवरण और (५) प्रमाण बहविध भाण्डार को नवीन भावराशियो का अनुपम उपनिर्णय । प्रारम्भिक तीन साहिसिक एवं अन्तिम दो न्याय- हार दिया है। उनके विधिवत् अध्ययन से न केवल जैन विषयक है । इन पाच कृतियो के अतिरिक्त श्री अगर चन्द साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय का गौरव नाहटा ने उनकी त्रैलोक्यदीपिका और अध्यात्माष्टक समद्धतर होगा। नाम दो कृतियो का और उल्लेख किया है। इन मे अध्या
प्रवक्ता सस्कृत विभाग त्माष्टक भा० दि० जैन ग्रथमाला से वि० १९७५ (१६१८ एस. डी. स्नातकोत्तर कालेज , मुजफ्फरनगर (उ. प्र.)
सन्दर्भ-सची १. श्रीमद्रविडसघेऽस्मिन नन्दिसघेऽस्त्यरुगनः । ___ वर्ष २१, अक १ नवम्बर १६६६, पृ० १५ अन्वयो भाति योऽशेषणास्त्रवारासिपारगः॥
४. पाश्र्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य १-४ एत्र गुणिनस्सर्वे वादिराजे त्वमेकतः ।
५. यशस्तिलक चम्पू (सम्पा० : सुन्दरलाल शास्ली) तस्यैव गौरव तस्य तुला यामुन्नति. कथम् ॥
श्रुतसागरी टीका, द्वितीय आश्वास, पृ० २६५ -जैन शिलालेख सग्रह भाग-२, लेखाक २८८
६. वही, पृ० २६५ २. द्रष्टव्य : वही भाग ३ को डा० चौधरी द्वारा लिखित
७. शकन पकालातीत सन्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु प्रस्तावना, पृ० ३३
गतेषु अंकता सिद्धार्थसवत्मरान्तर्गतचंत्रमामसदनत्रयो३. द्रष्टव्य : श्री गणेशप्रसाद जैन द्वारा लिखित "दक्षिण
दश्याम...। भारत मे जैन धर्म और संस्कृति" लेख । "श्रमण"
-~-यशस्तिलक चम्प, पृ० ४८१
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१०, बर्व ४२, कि० ४
अनेकान्त
८. पार्श्वनाथचरित, प्रशस्ति पद्य ५
२६. द्रष्टन्त : "एकीभाव स्त्रोत" की परमानन्द शास्त्री ६. द्रव्यव्य : जैन शिललेख संग्रह भाग २, लेखांक
द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ० ४ एवं नाथूराम प्रेमी २१३-२१६
का "बादि राजमूरि" लेख, जैन हितैषी भाग ८ अंक १०. वही भाग ३ की डा० गुलाबचन्द चौधरी द्वारा ११ पृ० ५११ लिखित प्ररतावना पृ० ३८ से उद्धृत
३०. सस्कृत साहित्य, प्रथम भाग, काव्य खण्ड, पंचम ११. द्रष्टव्य . श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा लिखित "वारिद
परिच्छेद पृ० २४५ राज सूरि" लेख । जैन हितैषी भागद. अक११० ३१. भारतीय सस्कृति के विकास मे जैनधर्म का योगदान
१२. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य (द्वितीय सस्करण)
वादिराज पचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय),
पृ० ५७० १३. जैन साहित्य और इतिहाम, पृ० ४७८ १४. इन्ट्रोडक्शन टू यशोधरचरित, पृ० ५ १५. सस्कृत साहित्य का इतिहाम (कोथ, अनु०-मगलदेव
शास्त्री) पृ० १७७ एव जैनिज्म इन दा हिस्ट्री आफ
सस्कृन लिटरेचर : एम० विन्ट नित्ज, पृ० १६ १६. जैन शिलालेख सग्रह, भाग १, लेखाक ४६३ १७. वही भाग ३, लेखांक २४७ १८ द्रष्टव्य : सरस्वती भवन, झालरापाटन को हस्तप्रति
का प्रारम्भिक प्रत्रिज्ञावाक्य १९. वही, अनत्यप्रशस्ति २०. पार्श्वनाथचारत, प्रशस्ति पद्य ४ (वादिराजेन कथा
निबद्धा) २१ यशोधचरित १/६ (तेज श्रीवादिराजेन) २२. द्रष्टव्य · कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वश की
वंशावली फादर हराश व श्री गुजर, विक्रमाकदेवरित भाग २ (हिन्दु वि० वि० प्रकाशन) परि. शिष्ट पथा जन शिलालेख संग्रह भाग ३ की डा.
चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ० ८८ २३. विक्रमांकदेवचरित १/५८-७९ २४. वही, २/१ २५. पार्श्वनाथचरित प्रशस्ति पद्य ५ २६. न्यागविनिश्चय विवरण प्रशस्ति पद्य ५ २७. यशोधरचरित ३/८३ एवं ४/७३ २८. शाकाब्दे नगवाघिरन्धगणने.....। पार्श्वनाथचरित,
प्रशस्ति पद्य ५
३२. वही, पृ० १२६ ३३. वही, पृ० १८८ ३४. वही, पृ० ८६ ३५. त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामे वोद्गादिह । जिन गजन एकम्मादेकस्माद् वादिराजः ।।
-जनशिलालेख संग्रह भाग-१ लेखाक ५४, मल्लिषेण प्रशस्ति, पद्य ४० ३६. सस्कृत गाहित्य का इतिहास, भाग १, पचम परिच्छेद,
पृ० २१५ ३७ जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१५ एव वही
भाग ३ लेकांक ३१६ ३८. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखाक २१३ एव भाग
३ लेखाक ३१५ ३६. वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुताकिकसिंहा वादिराजमन काव्यकृतस्ते वादिराजमनुभाव्यसहायाः।।
एकीभाव, अन्त्य पद्य ४० वादिराजकवि नौसि मेदिनी तिलकं कविम् । यवीय सनारगे वाणी नर्तनमातनोत् ।।
यशोधर चरित, टीकाकार का मगलाचरण ४१. श्री अगरचन्द्र नाहटा द्वारा लिखित "जैन साहित्य
का विकास" लेख । जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण १ जून ४० पृ० २८ ४२. एकीभाव स्त्रोत, प्रस्तावना, पृ० १६ ४३. जैन शिलालेख सग्रह, भाग १, लेखांक ५४, प्रशस्ति
पद्य ४० ४४. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४०४ ४५. विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित हिन्दी लेख का पार्श्व.
नाथचरित के प्रारम्भ मे झंस्कृत में वादिराजसूति का परिचय।
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मुनि घातक कौन?
7 बाबूलाल जैन, कलकत्ते वाले आगम मे यह बताया है कि जिसने मुनिराज को एक त्यागी तो सयमरूपी प्राणो से जीता है वह दस प्राणो ग्रास आहार दान दिया उसने मुनि को मोक्ष दे दी। यह से नहीं जीता अत: जिनभने उनके सयम की रक्षा करी व्यवहार दृष्टि का कथन है। इसी का खुलाशा करते हुए उसने मुनि की रक्षा करी और जिसने उनके संयम के घात बताया है कि मुनिराज के आहार का विकला हुआ- का उपाय किया उसने मुनि हत्या ही करी। इतना बडा ध्यान से हटे--जब आहार दिया गया तो वह विकल्प टूट __पाप का बन्ध हम अपनी अज्ञानता में कर रहे है वह भी गया और मुनिराज ध्यान मे स्थिर होकर केवलज्ञान धर्म के नाम पर ।
आहारदान मुनिराज आजकल मुनिजन पुस्तक छपाने के लिए चदा करते के निविकल्प समाधि मे स्थित होने में परम्परा साधन ब नाने के लिा चन्दा दुकट करते है अथवा और हआ अत: ऐसा कथन किया गया है। उसी प्रकार जिस कया गया है। उसा प्रकार जिस कोई प्रचार कार्य के लिए चन्दा इकट्ठा करते है। यही
ते श्रावक ने मुनि को रुपिया-पसा दिया-परिग्रह दिया- काम कोई श्रान करता तो प्रशसा का पात्र होना परन्तु मान-सम्मान की चाह मे सहयोगी हुना अथवा अनेक प्रकार
मुनि अवस्था मे यह कार्य उस पद के लायक नहीं है। के विकल्पों के उत्पन्न होने में सहयोगी हुआ। २८ मूल किसी भी रूप में मा मा सम्बन्ध और पैसे को मागना गुणो के, संयम के घात मे महयोगी हुआ उसने मुनि को
मुनि के लिए उपयुक्त नही है। आजकल मा समझा नरक दे दिया । जो मुनि के सचम घात मे सहयोगी होगा
जाता है कि मुनि ही रुपिया इकट्ठा कर सकता है इसलिए चाहे किसी भी रूप में हो वह तीव्र पाप का बन्ध वाधेगा
कई सरथा वाले भो मुनियो के माध्यम से पंमा इकट्ठा यह निश्चित है।
__ करवाते हैं और बदले मे मुनियो को उपाधिया बांटते है। यह बात इसलिए लिखी जा रही है कि आज समाज यह कार्य कहाँ तक उपयुक्त है हमने सयमियो को चन्दा मे लोग बिना समझं त्यागियो को सयम की घातक सामग्री इकट्ठा करने का साधन बनाया है वह चाहे तीर्थ क्षेत्र देकर यह समझते है कि हम धर्मात्मा है, हमने इस कार्य रक्षा के लिए हो चाहे मन्दिर बनवाने को परन्तु सयमी के मे इतना पैसा खर्चा परन्तु उनको यह नही मालूम है कि लिए उपयुक्त नहीं है। यह कार्य थावक के करने का है। वे सयम के घात में नामत्त बने है इससे तो उल्टा पाप इसी प्रकार संयमी के तेल मालिश करना वह भो का बन्ध ही होगा।
रात को कपड़े से शरीर को रगड़वाना, गरिष्ट भोजन श्रावक निज मे संयम की आराधना नही कर सकता देना, उनकी फोटो खिंचवाना, नये-नये पोहो को छपवाना, है तब वह जो लोग संयम में लगे है उनके सयम के पालन अनेक प्रकार की उपाधियाँ देनी। रात-दिन का भेद नही में सहयोगी बनता है जो कि सयम के प्रति रुचि का रखना । रात्रि में चलना-फिरना बोलना । आगार के लिए कारण है। वह सब तरह से दूसरे संयमधारी के संयम मे पैसा इकट्ठा करना शासन देवो को पूजवा गा । ये सब बाते सहयोगी होना चाहता है परन्तु सयम के घात में सहयोगी तो आजकल दैनिक कार्य हो गया है पूजधाना और उन नही हो सकता । परन्तु आजकल जाने-अनजाने हम लोग सब कार्यों में सहायक है श्रावक, यह कहां तक ठीक है? सयमी के संयम के घात मे सहयोगी बन जाते है जिससे मेरा सभी भाई-बहनों से अनुरोध है कि वे कोई ऐसा पुण्य बन्ध तो दूर रहा पाप का बन्ध ही होता है ।
(शेष पृ० १२ पर)
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जैन चम्पूकाव्य : एक परिचय
1) श्रीमती संगीता अग्रवाल
काव्य के दृश्य व श्रव्य दोनो भेदो मे से श्रव्य काव्य चम्पू, बर्धमान चम्पू तथा महावीर तीर्थकर चम्पू भी हैं। के गद्य, पद्य व मिश्र तीन भेद है। मिश्र काव्य में चम्पू- वर्तमान में उर्धमान चम्भू की रचना की गई है। इन काव्य की गणना की जाती है। कहा गया है कि गद्य सबका परिचय प्रस्तुत हैपद्यमय काव्य चम्पूरित्यभिधीयते । अर्थात् गद्य व पद्य यशस्तिलक चम्पू के कर्ता आचार्य सोमदेव है जिनका मिश्रित काव्य चम्पू काव्य कहलाता है। चम्पू काव्यो का समय ई० को १०वीं शताब्दी तथा रचनाकाल शकसवत परम्परा का श्रीगणेश आठवी शती मे त्रिविक्रमभट्ट के नल ८८१ है। सोमदेव महान ताकिम व अखंड विद्वान थे। चम्पू से होता है। तबसे यह धारा अविच्छिन्न चली और वे राजनीति के भी महाज्ञानी थे । यशस्तिलक के अध्ययन लगभग दो सौ पचास चम्मू काव्यो क सृजन हुआ। चम्पू से ज्ञात होता है कि वे बेद, उपनिषद, रामायण, पडदर्शकाव्य परम्परा मे जैन चम्पू काव्यो का भी अपना विशिष्ट नादि के भी अप्रतिम ज्ञाता थे। यशस्तिलक की कथावस्तु स्थान रहा है। जैन चम्पू काव्यो में सोमदेव का "यश- हिंसा व अहिंसा के द्वन्द्व की कहानी है। इसमे पाठ स्तिलक' हरिचन्द्र का "जीवन्धर" और अर्हद्दास का अाश्वास है। प्रथम आश्वास में कथावतार तथा अन्तिम "पुरूदेवचम्पू" भति प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त दयोदय तीन आश्वास में जैन श्रावकाचार वणित है। मुख्य कथा(पृ० ११ का शेषांश)
वस्तु तो मध्य के चार आश्वास में ही है। कापं न करें जिससे सयम का घात होत हो, अगर कोई उज्जयिनी के राजा मारदत्त ने मनुष्य युगल की बलि माधु भेषधारी आगम के विरुद्ध कुछ भी चाहे तो उसको ना चण्डमारि देवी के सामने देने का सकल्प किया। इस हेतु कह देना यह पागम को मानना है। अगर बाप बीमार हो लाये गये जोड़े को देखकर उसका मन रुक गया और उसने और डाक्टर ने ठडा पानी मना किया हो और बाप ठडा उनसे वाल्यावस्था मे दीक्षित होने का कारण पूछापानी मागे तो उसके देने वाला गलत है, नही देने वाला उन्होने अपनी कथा मे बताया कि हिंसा का सकल्प और सही है। उस बाप की बात नहीं मानने वाला सही माने आटे की मुर्गी मात्र की बलि का विधान करने के कारण मे बेटा है। हमारे लिए आगम ही प्रमाण है वही हमारा किस प्रकार क्रमश: मोर-हिरण-जलजन्तु-बकरी-बकराडाक्टर है उसमे जिस-जिस काम का निषेध है वह हम मुर्गा छ योनियो मे भटकना पड़ा। यह सुनकर राजा नही कर सकते अपने लिए भी और दूसरो के लिए भी हिसा से विरत हुआ और सुदत मुनिराज के पास गया। चाहे वह कोई भी क्यो न हो। व्यक्ति को प्रमाणता नहीं इसी संदर्भ मे सप्तग व अष्टम आश्वास मे विभिन्न व्रतो है प्रमाणता तो उस सर्वज्ञ की वाणी की है वही सर्वोपरि व विधियो व दोनों का वर्णन है। सुदत्ताचार्य कथित है। तीर्थकर भी पूज्य तभी होते है जब उस आगम के गृहस्थ धर्म को सुनकर दोनो मुनि व प्रायिका का व्रत अनुसार हो। उस आगम की अवहेलना करने वाला न ग्रहण किया। मूनि है न श्रावक है न जैनी है न वह पूजने योग्य है उनको दूसरा महत्त्वपूर्ण जैन चम्पूकाव्य जीवन्धर है जिसके पूजने वाला भी आगम की अवहेलना करने वाला है जिन कर्ता महाकवि हरिश्चन्द्र है। हरिश्चन्द्र नोयक वशीय शासन का घातक है। जैनम् ज यत् शासनम् यही सर्वोपरि कायस्थ कुल के भाद्रदेव व पत्नी रूपा के पुत्र थे। हरि
पचन्द्र वैष्णव परिवार में पैदा होकर स्वेच्छा से जैन बने ।
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बैन चम्मूकाव्य । एक परिचय
इनका समय ११-१२वी शती है। इनकी अन्य कृति में पुरदेव भगवान आदिनाथ के पूर्वभवों का वर्णन है। धर्मशर्माम्युदय प्राप्त होती है। जीवन्धर चम्पू की कथा- शेष स्तबकों मे भगवान आदिनाथ व उनके पुत्र भरत तथा । वस्तु इस प्रकार है-हेमागद देश के राजपुरी नामक बाहुबली का चरित्र नित्रण है । ग्रन्थ का कथाभाग अत्यन्त नगरी के राजा सत्यन्धर व रानी विजया थी। मन्त्री रोचक है जिसे कवि की कल्पनाओ ने और भी मर्म स्पर्शी काष्ठाङ्गर ने छल से राजा को मार दिया। इधर रानी ने बना दिया है। इसी कारण इस अल्पकाय काव्य मे कवि मयूर यन्त्र से उड़कर शमशान मे पुत्र को जन्म दिया जिसे आदिपुराण का समावेश सफलतापूर्वक कर सके। उसने देवी के वचनानुसार गन्धोत्कट वैश्य का दिया ।
दयोदय चम्पू मुनि श्री ज्ञानसागर को रचना है जिनका उसने उसका "जीवन्धर" नाम रखा। द्वितीय लम्ब मे
जन्म १६४८ विक्रम स० है। इन्होने हिन्दी व संस्कृत मे शिक्षा का तथा अपनी वीरता से गोपो की गाये छुड़ाकर
२१ ग्रन्थो की रचना की जिनमे दयोदय भी एक है। नन्द गोप की कन्या से अपने मित्र के विवाह का प्रसग
दयोदय की कथावस्तु में कथा के बहाने धर्मोपदेश है। है। तृतीय लम्ब मैं श्रीदत्त द्वारा किये गये स्वयंवर मे
इसमें सात लम्ब है। प्रथम लम्ब मे एक सुन्दर बालक जीवन्धर ने वीणावादन में गन्धर्वदत्ता को हराकर उससे पूर्व जन्म के पापो के कारण सडक पर जूठन खा रहा है विवाह किया। चतुर्थ लम्ब में अपने वीरता व हाथी से जो आगे चलकर गणपाल सेठ की पुत्री विपा मे विवाह गणमाला को बचाने से जीवन्धर का गुणमाला का विवाह करेगा। तत्पश्चात मृगसेन धीवर एक महाराज के उपहोता है । पच लम्ब में काष्ठागार द्वारा शूली को सजा दी देशनुसार अपने जाल मे प्रथम आने वाली मछली को जाने पर वहां से वे यक्ष का स्मरगा कर चन्द्राभ नगरी छोड़ने का व्रत लेता है। द्वितीय लम्ब में उसे खाली हाथ पहुंचे जहाँ सर्प द्वारा डसी हुई पदमा की रक्षा की तथा घर लौटा देखकर उसकी पत्नी कुपित होती है और दोनों पदमा से विवाह किया। षष्टम लम्ब मे प्रेमश्री से विवाह सर्प द्वारा डसे जाते है तथा सोमदत्त व विषा बनकर का वर्णन है तथा सप्तम लम्ब मे हेमा मथुराधीश राजा पैदा होते है। तृतीय लम्ब मे गणपाल सेठ सोमदत्त को दृढामित्र अपनी पुत्री कनकमाला का विवाह जीवन्धर के अपनी पुत्री का भर्ता सुनकर मारने की कोशिश करता है साथ करता है । अष्टम लम्ब मे सागरदत्त की पुत्री विमला परन्तु उसे एक ग्वा ना उठाकर ले जाता है तथा पालता से विवाह होता है। नवम लम्ब मे सुरमजरी से विवाह है। चतुर्थ लम्ब मे भी शकित गुणपाल सोमदत्त को मारने किया। दशम लम्ब में गोविन्द की सहायता से काष्ठागार की कोशिश करता है परन्तु भाग्यवश वहाँ भी उसका को मारा और गोविन्द महाराज की पुत्री लक्षमणा से विषा के साथ विवाह हो जाता है। पचम लम्ब में पुनः विवाह किया है। एकादश लम्ब मे पाठो रानियो ने आठ वह उसे अपने पुत्र महाबल द्वारा मरवाना चाहता है और राजपुत्रो को जन्म दिया और उनके साथ जैन मन्दिर म उल्टे महाबल ही मारा जाता है । सोमदत पुन: बच जाता पूजा कर अपने पूर्वभव सुने तथा अन्त मे पुत्र सत्यन्धर है। षष्टम लम्ब में गुणपाल की पत्नी उसे मारने की को राज्य सौप रानियो सहित दीक्षा ली।
कोशिश करती है वहां भी गणपाल मारा जाता है। तीसरा चम्पूकाव्य पुरूदेव है। इसके रचयिता महा- पश्चताप करती हुई वह स्वय भी मर जाती है। सप्तम कवि अर्हदास हैं। इनका समय १३-१४वी शती है। लम्ब मे महाराजा वृषभदत्त सोमदत्त की विनयशीलता से इनकी अन्य दो रचनाये और उपलब्ध है-मुनिसुव्रतकाव्य प्रभावित हो अपनी पुत्री गुणमाला का भी उसी से विवाह तथा भव्यजनकष्ठाभरण । प्रस्तुत काव्य के कथा नायक कर देता है । एक दिन सोमदत्त एक मुनिराज को आहार भगवान वृषभदेव है। इसमें दस स्तवक है। प्रथम में देता है और उनके उपदेशो से प्रभावित हो दोक्षा ग्रहण अतिवल व मनोहरा के महावल पुत्र हुअा। जिसके राज्य- करता है और विषा व वसन्तसेन भी आयिका व्रत लेती है। भार सम्भालने पर उसके मन्त्री स्वयबुद्ध ने सुमेरू पर्वत पांचवां चम्पूकाव्य “महावीर तीर्थकर" है जिसके पर दो ऋषियो से उसका पूर्वभव सुना । प्रथम तीन स्तबको
(शेष पृ० १५ पर)
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रेल को जैन प्रतिमा
0 डॉ. प्रदीप शालिग्राम
महाराष्ट्र राज्य के अकोला जिले में अकोला से २० मेखला के रूप में इसे प्रयुक्त किया गया हो। लेकिन कि० मी० दूर चौहाटा के पास 'रेल' नामक एक छोटा- प्रतिमा में वस्त्र के कही भी लक्षण नही है। इसके सामने सा कस्बा है। यहाँ पर उगलियो पर गिनने लायक दि० ही बायें हाथ पर दाहिना हाथ रखा है जिनकी चारों जैन परिवार बसे हैं । अधिकाश परिवारो मे पीतल की बनी उगलियां स्पष्ट दिखाई देती है जो अगुष्ठ से जुड़ी हुई है। प्राधुनिक मूर्तियां पूजा मे है। लेकिन श्री शंकरराव फुलबरकार के घर एक सफेद संगमरमर को बनी पार्श्वनाय मूर्ति को धोते समय जल सग्रहन की सुविधा हो इसको मूर्ति बरबम ही ध्यान खीच लेती है। यह मूर्ति उनके लिए कमर के चारो ओर खाचा नुमा परिखा बनाई गई मन्दिर कोष्ठ मे है तथा रोज पूजी जाती है। शोधकर्ता है। जिससे पानी मूर्ति के पीछे न बहे। इतना ही नही किसी व्यक्तिगत कार्य से रेल गया था तब यह मूर्ति देखने नाभि के नीचे जो स्थान बना है उससे पानी बाहर निकका सुअवसर मिला। लेखक फुलबरकार जी का कृतज्ञ है लने के लिए एक छिद्र बनाया गया है जो सहजता से जिन्होने कुछ मिनट मूर्ति का अध्ययन करने का अवसर दृष्टिगोचर नहीं होता। दिया।
पार्श्वनाथ के सिर पर सात सर्पफण का छत्र प्रदर्शित सफेद संगमरमर की बनी २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ
किया गया है जिसमे वह ध्यान मुद्रा में विराजमान है। की पद्मासन मुद्रा मे बैठी यह अत्यन्त आकर्षक प्रतिमा
प्रत्येक फन पर दोनो ओर दो-दो वर्तुलाकार आखे उत्कीर्ण है। यह ८" लम्बे तथा एक इच मोटे पादपीठ पर बनी
की गई है। सिर पर धरे सातों सर्प फन पीछे से भी सिर है। पादपीठ सहित मूर्ति की ऊंचाई बारह इच याने एक
पर सात खाचाप्रो से अकित है जो गर्दन तक पहुवकर फीट है। इसमें पाश्वनाथ के सिर पर दो इंच ऊँच सात
एक मे विलीन हो जाते हैं। इतना ही नही रीढ़ की हड्डी सर्पफणो का छत्र भी सम्मिलित है। पादपीठ का आकार
के साथ इसे एकाकार कर कमर के नीचे तक पहचाया त्रिकोण है।
गया है। मूर्ति का पिछला हिस्सा नाग शरीर के सिवा पार्श्वनाथ के सिर पर भगवान बुद्ध के उष्णीष की समतल है। इस प्रतिमा मे शासन देवी तथा यक्ष आदि भाति तीन घुघराले केशो की लटें मात्र हैं। शेष भाग ।
की अनुपस्थिति महत्त्वपूर्ण है . केश रहित या मुण्डित है जिस पर सर्पफण अवशिष्ट है। कान कधे पर लटक रहे है । आँखें अधखुली है तथा भौहें
पादपीठ की विशेषता यह है कि इस पर दो पक्तियों लम्बी है। ओठ किंचित मोटे तथा नासाग्र सीधा है। में लेख विद्यमान है जो अधिकाश धिस गया है। लेखक ग्रीवा तथा पेट का हिस्सा समतल है किन्तु सीना थोड़ा का अधिक समय तक मति का अध्ययन करने का अवसर बाहर निकला प्रतीत होता है जिसके मध्य मे श्रीवत्स नही दिया जिससे उसे आसानी से पढ़ा जा सकता हो। चिह्न अकित है। स्तनो के धुंडियो की जगह बारीक छिद्र फिर भी लिपी नागरी मिश्रित अक्षरों की है और १८वी मात्र दृष्टिगोचर होते है। नाभि को अर्धचन्द्राकार रूप मे शताब्दी की तो निश्चित ही है। और यही इस प्रतिमा प्रदशित किया गया है। इसके नीचे तीन चौकोर पद्मको का समय भी है। प्रथम पंक्ति में कुछ शब्दों के बाद का अंकन है। सम्भवतः अधोवस्त्र को बाधने के लिए 'मूलसघे' शब्द स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। निचली
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रेल की जैन प्रतिमा
पंक्ति में एक त्रिकोण आकार का चिन्ह बना है जिसके बाद लेख को द्वितीय पक्ति आरम्भ होती है ।
प्रस्तुत मूर्ति का पिछला हिस्सा कुछ लाल-पीला पड़ गया है । पता चला कि लगभग ५० वर्षों पहले घर मे लगी आग की वजह से ऐसा हुआ है। इसके सिवा कोई क्षति नही पहुची। शेष प्रतिमा का पालिश अब भी जैसा का वैसा है।
प्रस्तुत मूर्ति सम्भवत गुजरात या राजस्थानी कला का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि इसी क्षेत्र मे सात सर्प फनों के छत्र के साथ ही देखो मे पार्श्वनाथ नामोल्लेख
रचयिता परमानन्द वैद्यरन पाण्डेय है जो वैष्णव परि वार के है परन्तु जैनधर्म के प्रति उनके मन मे वहा सद्भाव था। इसी कारण २५०० व वीर निर्माण महोत्सव के उपलक्ष में प्रस्तुत चम्पूकाव्य की रचना की । प्रस्तुत चम्पू का प्रारम्भ यजुर्वेद के उस मन्त्र से होता है जिसमे गणराज्य की मूल भावना निहित है । अनन्तर णमोकार मन्त्र का स्मरण कर लाल किले पर निर्वाणोत्सव पर हुए सम्मेलन का वर्णन है। ऋषभदेव को नमस्कार करके चौबीस तीर्थंकरो के जन्मादि का वर्णन है। इसके आगे १/३ भाग मे महावीर भगवान का चरित्र चित्रित है । आगे १/३ भाग मे जैनधर्म व उसके सिद्धान्तो का वर्णन है। अनन्तर महावीर निर्वारण वर्णन, महावीर के ११ गणधर, सत्पुरुष व नारी का लक्षण महावीराष्टकस्त्रोत का वर्णन है। अन्त मे आवाहन किया है कि महावीर के उपदेशों का क्रियान्वन ही आज उनका वास्तविक स्मारक और जांजलि है।
इनके अतिरिक्त "वर्धमान चम्पू" मे तीर्थंकर महावीर
की परम्परा लोकप्रिय थी । सम्भव है यह शब्द भी उक्त मूर्ति लेख मे भाया हो। वैसे ही यहां के जैन परिवारो की पिछली पीढ़ी कही बाहर से आकर बसी है। भागपास के इलाके में बिरले ही जैन लोग मिलते है।
( पृ० १३ का शेषांश)
१५
वर्तमान युग मे २४ तीर्थंकरों में से अन्तिम दो तीचंकरों पार्श्वनाथ एव महावीर की ही ऐतिहासिकता सर्वमान्य है। पार्श्वनाथ को ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना गया है। पार्श्वनाथ की यह मूर्ति विदर्भ के जैन धर्म के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है इनमे सदेह नही ।
00
के पाँच कल्याणको का विवेचन है। इसके रचयिता मूल चन्द शास्त्री हैं । प्रस्तुत रचना अभी अप्रकाशित हैं । पुण्याश्रव चम्पू के रचयिता श्री नागराज है । सम्भवतां इसमे किसी इसमे किसी पुण्य के महत्व का वर्णन होना चाहिए। "भारतचम्पू" का उल्लेख श्री जुगल किशोर मुख्यार ने किया है । प० आशाधर कृत भरतेश्वराभ्युदयचम्पू मे भारत के अभ्युदय का वर्णन होना चाहिए ।
जैनाचार्य विजयचम्पू के लेखक अज्ञात है । इसमे ऋषभदेव से लेकर मस्लिपेषण तक अनेक जैनाचार्यों की वादप्रियता के साथ उनकी अन्य सम्प्रदायो पर प्राप्त विजय का वर्णन है ।
इस प्रकार प० सोमदेव से प० परमानन्द तक जैन चम्पू काव्यो की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही। यद्यपि ये सख्या मे अल्प है परन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से अग्रगण्य हैं। प्रत्येक चम्पू काव्य मे अपनी कुछ-न-कुछ विशेषता है जिससे वे विद्वत्समाज के शिरोहार है।
३३० ए, छीपी टैंक, मेरठ
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आथिक समस्याओं का हल-अपरिग्रह
डॉ० सुपार्श्व कुमार जैन
विश्व समाज को सभी क्रियायें अर्थ अर्थात् धन से पदार्यों को जानने की आवश्यकता ही नहीं रहती क्योंकि सम्बन्धित हैं। जो समाज या राष्ट्र जितना अधिक धनी वे स्वत: ही ज्ञेय हो जाते है। किन्तु आत्मा के अतिरिक्त है, वह उतना ही अधिक व्याकुल और असन्तोषी है। अन्य समस्त ज्ञेयों को जानकर भी व्यक्ति अज्ञेय ही रहता प्राचीन और अर्वाचीन प्राय: सभी अर्थशास्त्री अर्थ को ही है। विकास का स्वरूप-मापक मानते हैं, अतः प्रत्येक देश सर्वशक्तिशाली एव विकसित बनने के लिए और भी अधिक आज विश्व मे वर्ग संघर्ष की जो दावाग्नि प्रज्वलित अर्थ-प्राप्ति का इच्छुक दिखाई पडता है। फलस्वरूप । हो रही है, विषमताये बढ़ रही है, असन्तोष और ईया विश्व-समाज मे इस अर्थ-प्राप्ति के लिए अशान्ति एव जन्म ले रही है, धनी व निर्धन, श्रम व पूजी, नियोजक व संघर्ष व्याप्त है।
नियोजित आदि के मध्य जो अन्तर बढ़ता जा रहा है, अर्थ शब्द ऋ धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है
मानव, मानव का शोषण कर रहा है तथा हिंसक घटनायें,
बेईमानी, चोरी-उकैती, व्यभिचार व अपहरण तथा युद्धो पाना, प्राप्त करना या पहुचना। अत: अर्थ का तात्पर्य
की विभीषिकाये धधक रही है--उन सबका मूल कारण है-जो पाये, प्राप्त करे या जिसे पाया जाये या प्राप्त
यह है कि समाज-विश्व के लोग प्रत्येक वस्तु को अपनी किया जाये। इस प्रकार हीरे, जवाहरात, स्वर्ण, रजत
सम्झकर उसे येन-केन-प्रकारेण प्राप्त करना चाहते हैं। आदि बहुमूल्य धातुयें, वैधानिक मुद्रा तथा भौतिक सम्पत्ति मादि सभा अर्थ कहलाते है। यह तो भौतिकी दृष्टिकोण
यह तो स्पष्ट है कि विश्व मे सम्पत्ति एवं भोगोपभोग की है। किन्तु जैनाचार्यों ने इसके अतिरिक्त अर्थ को आध्या
सामग्री अर्थात् आवश्यकता पूर्ति के साधन कम है और त्मिक दृष्टिकोण से भी परिभाषित किया है। आ०
और जन-समाज बहुत अधिक असीमित माना जा सकता कुन्दकुन्द ने द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायो को 'अर्थ" नाम
है। इन सबसे अधिक है--व्यक्ति की तृष्णा या मर्छासे कहा है, उनमें गुण-पर्यायों वाला प्रात्मा द्रव्य है।'
दया भाव । मूर्छा अर्थात् "यह मेरा है, यह वस्तु मेरी है" "अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति अर्थो नव पदार्थ"-जो ऐसा ममत्व परिणाम की परिग्रह कहलाता है। कुबेर के जाना जाता है वह अर्थ है, जो नव पदार्थ रूप है। "अर्यते समान वैभव होते हुए भी जिसमे किचित् भी लालसा, गम्यते जायते इत्यर्थ " जो जाना जाये सो अर्थ है। तृष्णा या मूर्छा नही है, वह अपरिग्रह-समान है। इसके "अर्थध्येयो द्रव्यं पर्यायो वा" अर्थध्येय को कहते है, इससे विपरीत जो अकिंचन है किन्तु कुबेर के वैभव को पाने की द्रव्य और पर्याय लिये जाते है। इस कथन से यह स्पष्ट लालसा रखता है, वह महापरिग्रही के समान है। इससे होता है कि वास्तव में आत्मा ही अर्थ है और यही प्राप्तव्य स्पष्ट होता है कि मात्र बाहरी पदार्थों का सचय परिग्रह है। धन स्वरूप अर्थ की उपादेयता उन्ही के लिए है जो नही है किन्तु उनके प्रति जो लगाब 'अटैचमैण्ट' है, जोगानु शारीरिक-ऐन्द्रिक सुख प्राप्त करना चाहते है, किन्तु जो भूति है तथा उनको प्राप्त करने की सतत वाच्छा है, वह मोक्षार्थी हैं उनके लिए तो इसका पारमार्थिक तात्पर्य ही ऐसी स्थिति मे परिग्रह नाम पा जाता है। यह मूर्छा ही ग्योजनीय है क्योकि इस त्रिलोक मे समस्त ज्ञेयों में आत्मा पांचो प्रकार के पापो का मूल स्रोत है। जो परिग्रही है तथा वरूपी अर्थ ही एकमात्र ज्ञेय है। इसे जानकर अन्य परिग्रह के अर्जन, सम्बर्धन एवं संरक्षण के प्रति जो सदैव
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प्राधिक समस्याओं का हल-अपरिग्रह
सचेत है, वह हिंसा, मूठ, चोरी व अब्रह्म से बच ही नहीं मानने लगता है, तभी गरीब-अमीर, छोटे-बड़ेका वर्गभेद सकता।
पैदा होता है और तभी से संघर्षों का जन्म होता है। अर्थ संचय की भावना या तृष्णा के कारण समाज में हड़तालें, तालाबन्दियां, तोड़-फोड़ आदि सब इसी के परिमत्स्य-न्याय प्रचलित हो जाता है अर्थात् जो शक्तिशाली णाम हैं। अतः समाज में आर्थिक शोषण की समाप्ति, होता है वह दूसरे का शोषण करने लगता है । फलस्वरूप अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति, समत्व की खींचतान व छीना-झपटी चलने लगती है और शुरू हो स्थापना तथा समाज को समान रूप से सुखी, समृड और जाता है संघर्ष, विविध अत्याचार व अन्याय, आर्थिक सुगठित करने के लिए बाह्य भौतिक पदार्थों का आवश्यशोषण आदि । जैसे हिंसा में प्राणों की हानि होती है, वैसे कता से अधिक संचय करने पर नियन्त्रण-नियमन आवश्यक ही आर्थिक शोषण में भी हिंसा होती है अतः आर्थिक व अनिवार्य है। शोषण भी हिंसा है। हिंसा मे तो व्यक्ति मर जाता है किन्तु शोषित होने पर या धन के हरण हो जाने पर
२. अन्तरंग परिग्रह -- क्रोध, मान, माया, लोभ मनुष्य जीवित रहते हुए भी मरण के समान होता है।
तथा हास्यादि नौ कषाय और एक मिथ्यात्व आदि भावधन-सम्पत्ति के एकत्रीकरण के लिए व्यक्ति न केवल बेई.
नाये व्यक्ति के अन्तरंग परिग्रह हैं।' अकिंचन होने पर मानी करते है बल्कि चोरी का सहारा भी लेते है। धन ।
भी यदि व्यक्ति या समाज की संचयशील बुद्धि बनी रहे के मद में आकर वह अब्रह्म का भी सेवन करने लगता
तो न तो आर्थिक शोषश रुकेगा और न ही आर्थिक सामाहै। इस तरह पांचों प्रकार के पापो में रत रहता है।
जिक विषमता दूर होगी, अत: व्यक्ति को अपने आंतरिक स्पष्ट है कि परिग्रह अर्थात् अनावश्यक संचय पाप है,
धिकारों पर स्वयं ही नियन्त्रण पाना होगा। परिग्रह हो अपराध है और एक सामाजिक अन्याय है। इससे दूसरों
या न हो, किन्तु यदि अनावश्यक संचयशील बुद्धि न हो क आधिकारिक वितरण का अपहरण होता है। आव
तो सामाजिक क्षितिज पर कोई प्रभाव नही होगा और न श्यकता पूर्ति के लिए वस्तुयें उपलब्ध नहीं होने के कारण
ही कोई समस्यायें पैदा होंगी। आत्महित की बुद्धि रखने दूसरों की कार्यक्षमता का ह्रास होता है। जिससे राष्ट्रीय
वाला पारिवारिक भरण-पोषण के लिए आवश्यक व उत्पादन में कमी आती है। इस प्रकार सामाजिक व
पर्याप्त तो धनादि का संयम करेगा किन्तु अनावश्यक राष्ट्रीय हित प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं । आवश्य
संयम कभी नहीं करेगा, फलस्वरूप आर्थिक शोषण नही कता से अधिक वस्तुओं का संग्रह आवश्यक रूप से दूसरो
होगा और समाज में आर्थिक समानता सुस्थापित होगी। के हिस्से का अपहरण है, अनाजित आय है और विवध
पूंजीवाद का मूल यह मूछ भाव है जिस पर नियन्त्रण आर्थिकी समस्याओ का मूल है।
प्रावश्यक है अन्यथा पूंजीवाद.के समस्त दोष उत्पन्न हो परिग्रह दो प्रकार का है बाह्य परिग्रह एवं अतरंग
जायेंगे। परिग्रह।
समस्याजनक तरीके-प्रायः व्यक्ति दूसरो से १. बाह्य परिग्रह-इसमे भूमि, मकान, स्वर्ण, अधिक धनी बनने का स्वप्न देखते हैं और इसके लिए वह रजत, धन-धान्य आदि अचेतन तथा नौकर-चाकर, पशु,स्त्री कोई भी तरीका अपनाने के लिए तत्पर रहते हैं। जैसे आदि सचेतन पदार्थ शामिल किये जाते है। इनके संयम कुछ तरीके निम्न हैंके लिए व्यक्ति अवैधानिक तरीको का उपयोग करता है १. प्रत्यक्ष व परोक्ष कर आदि पार्वजनिक राजस्व जिससे ममाज में भ्रष्टाचार ब अनैतिकता बढ़ जाती है एवं किसी व्यक्ति की धन-सम्पत्ति आदि को चोरी करना,
और समाज के निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों के आ..क चोरी करने को प्रेरणा देना या दिलाना, चोरी के उपाव शोषण के असह्य कष्टो में वृद्धि हो जाती है। जब व्यक्ति बताना या चोरी करने वाले व्यक्ति के कार्यों से सहमति इन्हें अपनी आश्यकता पूर्ति का साधन मानकर साध्य प्रकट करना आदि ।
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Yo, fino X
अनेकान्त
In Rajasthan and Gujarat specially-where want most. When the male is killed before our feather co-operatives are-it lives just he mates, it is only a matter of time before outside the villages and is almost tame, an the species dies out. And now, of course, easy mark for traps, bullets and even village the government will recruit more fowlers, bows and arrows.
mor: killers and earn a lot of foreign exPlease don't believe that the bird, just change - which it can use to buy more guns because it is venerated and protected by law, and fighter planes. is not killed even now. The religious centres Is there no limit to the venality of this of Pardwar, Benares, the tourist shops in government? I would like to see any other small and big hotels, at the Red Fort, in country export its national bird-or kill its Agra -- where do you think they get their national bird and export the feathers for gross feathers from ? Professional fowlers who ugly handicrafts like fans, brushes, piano stalk the bird and kill it. The best time is dusters or just arrangements in vases instead in the morning while it dances or at roosting flowers. time, for these beautiful silly birds sleep in
Don't buy peacock feathers. They have the same trees every night and the hunters
not been collected naturally for any shop in wait under the trees. It is killed the way
India. In our religious and mythological you kill a chicken. The head is chopped
sculptures and paintings the presence of off, the crest pulled out and then all the tail
the peacock is meant to shwo an idyllic feathers The hunters keep the meal, the
and sanctified state of being. They will shops get the feathers. Sometimes when
bring you happiness they will destroy evil thy don't want to risk blood on the
represented by snakes which peacocks eat feathers, the btrd is caught in a trap,
in great quantities I know they bring joy, its legs are broken, it lies there screaming for often, careering across the country on a with short gasping shrieks--ka-aan ka-aan nolitical tour I have come across them in the while the hunter plucks its feathers one by one
le monsoon and my heart has always felt ligbier before killing it. The equivalent of pulling
If you believe, as the Sanskrit books believe,
i vor bunches of hair off your head or the nails
alls that a peacock is the glory of God, then help off your fingers.
protect them not only by stopping tourist This bird of ours is not going to last shops from stocking feathers but also by another 10 years for the male is killed usually writing to your state government, the coduring the mating season for that is when he operatives and to the Chief Controller of has his full train-- the longest or last rows of Imports and Exports to ban the export of the his upper tail which are the fcathers the shops feathers.
(Borrowed from the Illustrated Weekly of India with thanks)
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(गतांक से मागे)
शुद्धि-पत्र धवल पु० ३ (संशोषित संस्करण)
जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्री, भीण्डर
पृष्ठ
पंक्ति
२०६
अशुद्ध सुत्र सरुवा २ की सासणसम्माइट्टि
२१६
२४० २४२
जीवो की गुणस्थान के काल से कहेग ओर जयगा पचेन्द्रिपतियंच तियंचयोनिनी सबसे बड़ा असंख्यातगृणा का कथन करना तप्पडिसेघग्गळं विकल्प के होने में घणंगुलतदियवग्ग मूल
सूत्र संख्या २ एव १५ की तिरिक्खसासणसम्माइट्टि [परिशिष्ट दृश्यताम् पृष्ठाक २३] तियंचो की गुणस्थान मे स्थिति अर्थात् टिकाव के काल से कहेगे और जायगा पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिनी सबसे स्तोक (थोड़ा) असख्यातगुणा है, ऐसा कहना तप्पडिसेहणट्ठ विकल्पस्वरूपता प्राप्त होन में xxxxxxx [चार भागहार कहाँ से आगये? तीन धाराओं के लिए तीन हो भागहार चाहिए। देखो-पृ. १४१, १५०, १५६, २२५ आदि] --विदियवग्गमूलाणं
२४८ २४६
२४६
--विदियवग्ग मूलाणि
२५२
दूने
आय --संजदरासि आदि की पादचा
२५४ २५६
आये -~-संजदरासि च [देखो-परिशिष्ट पत्र २३] आदि नौ गादव (देखो-ध. पु. ४११६३, चि. सा. ३१३ आदि) पचास वर्ग योजन ७६०५६६४१५० (वर्ग योजन) xx xxx
२५६ २५६ २५७
पचास योजन ७९०५६६४१५० यहाँ धवला के उपलभ्य
२२-२४
निम्न उदाहरण से स्पष्ट है
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२२बर्ष ४२, कि.
२५७ २५८ २५६ २६१
अशुद्ध पच्चीस हजार से संख्या प्रतरांगुलों से जयगी स्त्रिवेदियों के अल्प होने के कारण का
१६१
२६३
२१
योनिनियों का अवयवो के गुणकार है जो क्तव्यं ।
२६५ २६६
पच्चीस हजार योजन से संख्यात प्रतरांगुलों से जायगी स्त्रिवेदियो में सासादनसम्यग्दृष्टित्व आदि भावों के कारण का [यानी उनमें विशुद्धि लब्धि आदि हेतुओं का] मनुष्यनियो का अवयवी के प्रतिभाग है जो वत्तव्वं। [मणस अप्पज्जत्ताण पत्थि परत्थाण-प्पाबहुग । कथन करना चाहिए। [लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में (मिध्यादृष्टि गुणस्थान से व्यतिरिक्त शेष गुणस्थानों के अभाव के कारण) परस्थान अल्प-बहुत्व नहीं है ।] ही प्राप्त होती ते (परिशिष्ट पत्र २४) सूच्यंगुल को सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूल से
२६६
कथन करना चाहिए
प्राप्त ति
२६७ २७१ २७८
तं
له
له
111 WWW.
له
सूच्यगुल के प्रथमवर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से आघ ॥६६॥ असंखेज्जगुणा असंख्यातगुणे असंख्यातगुण गो. जी. ६६५-७० घनांगुल गुणकार है। धनांगुल गुणकार है। ऊपर वाणव्यन्तरों से
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له
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له
ओघं ॥ संखेज्जगुणा सख्यातगुणे संख्यातगुणे गो. जो. ६३५-४० धनागुल प्रतिभाग है। धनांगल प्रतिभाग है। ऊपर अल्पबहुत्व अपने स्वस्थान अल्पबहत्व के समान है। वाणव्यन्तरो से प्रैवेयक तक परस्थान अल्पबहुत्व जानकर कहना चाहिए। सगसस्थाणभंगो। त्ति [परत्थाणप्पावहुग जाणिय णेयव्य] । उरि सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूईमेतसूचि-अंगुलपढमवग्मूलाणि ।
१८६
अवेयक तक अपने स्वस्थान के समान है। सगसत्थाणभंगो प्ति । उवरि
२६० २९०
२६२
सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई व ।
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पुखि-पत्र
पृष्ठ २९२
पंक्ति २४
अशुद्ध विष्कंभसूची के प्रतिभाग के समान
२९६
.
.
rm
होती। भाग से। जगच्छणी के संखेज्जसूई आदर आदर
..
३०६
१६
३०७ ३१४
मरागस्वरूप से विलिदियबपज्जत्तेहिय अरने पर अपर्याप्त जीव हैं।
विष्कम्भसूची प्रमाण सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूल [आशा दें तो पूरी गणित करके उससे सिद्ध कर भेज दूं।] होति । भाग से जगत्श्रेणी से सखेज्जसूचि-अंगुल प्रारम्भ प्रारम्भ [नोट-प्रादरेदब्व होता तो 'आदर' अर्थ ठीक था। आढवेदव्वं का 'प्रारम्भ' अर्थ ही ठीक है। देखो-ज. प. पु. १४।३२३ में आढ़त्तसादो का अर्थ तथा ज.ध. १४२२६ में आढवेइ आदि के अर्थ । देखो-ज. घ. १५.१६० में आढविज्जदे का अर्थ ।] एक स्वरूप से विलिदियअपज्जत्तेहि य करने पर अपर्याप्त जीव है। शेष एक खण्ड प्रमाण द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव हैं। तक सर्व एकेन्द्रिय संख्यागणे जाकर अनेकान्तिक (हेवाभास) दोष है। अब घनाघन में घटा देना चाहिए [तब जो आता है वही अभीष्ट राशि का अवहारकाल होगा।] ॥७५।। पल्योपम से न्यून सागर में जीवराशि के गणिदे राशि के असंयतसम्यग्दृष्टि बादरवाफ्फइपत्तेयसरीरपज्जत्त
चरम पक्ति
३१६
M M १० M MY mmmmmm
Mmm
३०
३२.
तक एकेन्दिय असख्यातगशे जाकर अनेकान्त है। अब द्विरूप में घटा देना चाहिए ।।७।।
३४१
३४४ ३४७ ३६०
पल्योपम सागर में जीवरसि के
गुणदे
३६६
पर्याप्तराशि के असख्यातसम्यग्दृष्टि बादरवणफ्फइपज्जत-पत्तेय सरीरपज्जत्तवनस्पतिकाधिक पर्याप्त, प्रत्येकारीर पर्याप्त
२०
वनस्पतिकायिक-प्रत्येकपारीर-पर्याप्त
(क्रमशः)
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तीर्थकर ऋषभ स्मृति पर विशेष :
निर्माणोत्सव : समय की पुकार
1. पद्मचन्द्र शास्त्री संपावक 'अनकान्त'
वृषभ-ऋषभ उत्तम को कहते है और जैनियो में इस स्तियों और निर्वाणोंके मनाने मात्रसे कुछ हाथ नहीं आयेगा। युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भी उत्तम थे। उनका मनाना है तो साथ में स्वयं के निर्माण उत्सवो को मनाएँनिर्वाण हुए कितना काल बीत चुका यह किसी को मालुम अपना निर्माण करें--आचार-विचार सुधारें। नही और न कोई मनीषी ही इसकी गणना कर सका । फिर हम देख रहे है कि आज जैन की हर शाखा भी लोग निर्वाण की स्मृति ढोये और उनका निर्वाणोत्सव वाले गतानुगतिक भेड़चाली से हो रहे है। सभी मनाते चले जा रहे है । भला, निर्वाण-अन्त, का उत्सव सम्प्रदायो के सभी वर्गों मे श्रावक तो श्रावक, साधुगण क्यों और कैसे ? जो बीत चुका, चला गया उसको जय भी आचार-विचार से हट कर पैसे और दिखावे की चपेट वोलना लकीर को पीटना ही है-निष्फल । उत्सव तो में आ गये हैं। सभी वर्गों में भीषण काण्ड हो रहे है निर्माण में और निर्माण का ही सार्थक है, जिसमे कुछ और कोई उन्हें वर्जन में समर्थ नहीं है। इधर लोग बने या बन सके, प्रगति हो सके । सो लोग अपना निर्माण अहिंसा की बात करते है और हिंसा के मूल परिग्रह तो करते नहीं--ऋषभवत् आचार-विचार तो बनाते को आत्मसात् किये जा रहे है । हर एक शाखा ने स्वनही, कोरे निर्वाण की जय बोले चले जा रहे है जैसे वे उपकार को छोड के बल परोपकार करने को धेय बना अजान हों या विकृत परम्पराओं द्वारा अजान कर रखा है यह बड़ी भारी कमजोरी है। दिये गये हों। ऐसे ही कुछ लोग है जो जन्म-जयन्तियों की आज का जैन नामधारी प्राणी सर्वानुमत मान्य परम्पराओ को ढो रहे है। गोया, उन्हे दो ही बाते याद नाओं (जो जैनी मे भी हैं) को पोषण दे रहा है। रह गई हैं जन्म और अन्त की-- जयन्ती और निर्वाण पर. मल जैन मान्यता अपरिग्रह (जिसके होने पर शेष की।
सभी धर्म स्वय पन जाते है) को भूल चुका है। स्मरण स्मरण रहे कि जैन मान्यता मे उत्पाद-व्यय के साथ रहे जिनका आप निर्वाण मनाते है उन्होने भी पहिले द्रव्य का एक तीसरा स्वभाव भी है-धौव्य । जिसे जैनी परिग्रह त्याग कर अपना निर्माण किया। इस निर्माण भूला बैठे है। वे जन्म-मरण की बात करते है वस्तु का अवस्था में उनका साधु रूप था-उस साघुत्व की प्राप्ति जो थिर स्वभाव ध्रौव्यरूप धर्म है और जिससे ध्रौव्य- का प्रयत्न करना चाहिए। आज तो आपका साधु भी आत्म स्वरूप तक पहुंचा जा सकता है-उस धर्म सेवन विचलित है ! और नहीं, तो उसके शुद्ध रूप का ही को भल बैठे हैं। जब तक मानव स्व-जीवन में पन निमा । निर्माण करने के मार्ग पर नही चलेगा, तब तक वह तीर्थंकर ऋषभदेव के बारे मे हम क्या कहे वे महान अनगिनत जयन्तियो और निर्वाणोत्सवो के मनाने के बाद और महानतम थे। इस यग के वे आदि पुरुष थे, उन्होने भी गिरता ही जायगा। क्योकि जन्म-मरण वस्तु की धर्म का प्रकाश किया। यदि वे न होते तो आज जैनी पर्याएँ हैं जो अथिर है और अथिर के सहारे वढने की बात
का बात भी न होते । उनके बनलाये मार्ग से आत्मोत्थान की दिशा
की भी अथिर है। भला, जो स्वय अथिर है वह किसी को का वोध होता है और मार्ग पर चलने से सिद्ध-पद की थिर कैसे बनायेगा। अत: इन अथिर उत्सवो अर्थात् जय
(शेष पृ० ३२ पर)
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दिगम्बर साधु को मोर-पिच्छो ?
पचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त
गत दिनों हमें एक पत्र मिला है और हमारा ध्यान के अपरिग्रहत्व गुण का ख्यापन करते हैं। सर्वथा अपरिइस ओर आकर्षित किया गया है कि क्या मयूर पिच्छी ग्रही होने के कारण ही दिगम्बर साधु में अहिंसादि महावत धारण करने से वर्तमान दिगम्बर साधु-साध्वियों का हिसा फलित होते हैं। यदि ऐसा न होता और अपरिग्रह की के व्यापार में योगदान नहीं ?
उपेक्षा कर अहिंसा आदि को प्रधान-धर्म माना गया होता लेखक ने हमें 'The Illustratad weekly of तो आचार्यों ने पूर्ण दिगम्बरत्व में ही अहिंसादि महावतों India. oct. 15, 1989 का वह पृष्ठ भी भेजा है का ख्यापन न किया होता अर्थात उन्होने परिग्रहियो में जिसमे 'Maneka Gandhi calls for a ban on भी अहिंसा आदि महावतों के हो जाने का विधान कर the wanton Killing of our national bird, दिया होता? पर, ऐसा किया मही गया है। जब भी The pecook for the export of its Feathers' महावत होंगे-सदा पूर्ण अपरिग्रही में ही होंगे। फलतः लेख छपा है।
--मूल धर्म अपरिग्रह ही है और दि० साधु इसी रूप मे उक्त लेख को पढ़कर हम सिहर उठे कि ऐसी होते हैं-वे अपने पास तिल-तुष मात्र बाह्य और रागादिनिर्दयता से भी मयूर पंख प्राप्त किए जाते हैं क्या ? रूप अन्तरग परिग्रह नही रखते। भावपाहड में दि० साधु यदि ऐसा है तो हमारा कर्तव्य है कि हम महाव्रती के विषय में कहा है-- मनियों को तो हिंसा में निमित्त कारण होने से बचाएं, "णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिहोसा । आदि । हम उक्त अंग्रेजी लेख पाठकों की जानकारी के णिम्मम णिरहंकारा पन्वज्जा एरिसा भणिया ॥४॥ लिए अनेकान्त के पष्ठ १९-२० पर दे रहे हैं।
तिलतुसमत्तणिमित्तसम वाहिरगंथ संगहो णत्यि' ॥५५॥ उक्त लेख के प्रसंग से हमने उचित समझा कि पिच्छी प्रवज्या-निर्ग्रन्यस्वरूप, परिग्रह से रहित, मानपर कुछ चितन दिया जाय। क्योकि जब आज मुनिगण रहित, आशा से रहित, राग-द्वेष से रहित, ममत्वभाव सैकड़ों (शायद वे ५००-१००० तक भी होते हों) पिच्छो
रहित और पर कर्तृत्व के अभिमान से रहित होती है। (पंखों की पीछी रखते है और श्रावक उन्हें पीछो देते उसमें बाह्य रूप में भी तिल-सुष मात्र परिग्रह नही होता । हैं, तब इतने अधिक मयूर पखों को उपलब्धि के तरीके साधु के पूर्ण अपरिग्रह रूप में होने पर वह स्वयं काप्रश्न सहज ही उठ जाता है कि क्या मयूर पंखों को में अन्य पाप-जनक सभी दोषों से बचा रहता है परश्रावक स्वयं बीनकर लाते है या बाजार से खरीदते हैं ? उसकी शारीरिक हमन-चलन आदि क्रियाओं में अन्य क्योकि वर्तमान साधु तो बस्तियों के रहने मे अभ्यस्त हैं, जीवों की विराधना से नहीं बचा जा सकता-सूक्ष्म जीवों वे पख कैसे ला सकेगे. आदि। पिच्छी पर चिंतन देने से के घात की सम्भावना नही रहती है। फलतः उस सम्भापहिले हम यह और ग्पष्ट कर दें कि दिगम्बर साधु को वना के निवारण हेतु शास्त्रों मे साधु को मयूर पिच्छी पीछी अनिवार्य क्यों है - जबकि वह सर्वथा अपरिग्रही हैं? रखने का विधान किया गया है और मयूर पिछी को
जैसे पिता से उत्पन्न पुत्र अपने पिता के पितृत्व गुम परिग्रह संज्ञा से मुक्त रखकर उसे अकरण को सज्ञा दी का ख्यापन करता है -पितृत्व गुण को पुष्ट करता है, गई है। पिच्छी उपकरण इसलिए है कि उससे जीवों का वैसे ही अपरिग्रह से फलीभूत अहिंसा आदि भी अपरिग्रही प्राणरक्षणरूप उपकार होता है।
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२६, वर्ष ४२, कि. ४
प्रमेकाम्त
हो.
आगम में पिच्छी के निम्न गुण बतलाए हैं
का उल्लेख है। तथाहि-'विगौरवादिक्षेपेण सपिच्छा'रजसेयारामगहणं मद्दवसुकुमारदा लघृत्तं च । जूलिशालिनः । (आ० मा० २१७२) साधु बन्दना के प्रसग जत्थेदे पंचगुणा त पडिलिहणं पसंसति'। में लिखा है-'पश्वर्धशय्ययाऽऽनम्य सपिच्छांजलिभालक'
-भ० आ० २/९८ (आचारसार २२१७) विजया०-'रजसः सचित्तस्य अचित्तस्य वा रवेदस्य उक्त सभी भाति दिगम्बरो मे भयर पिच्छी का अग्राहक, मदुस्पर्शता, सुकुमाय, लघुत्व चैते पंचगुणा सन्ति।' विधान है। और श्वेताम्बर आगमो मे श्वेताम्बर साधुओ
अर्थात् जो सचित्त और अचित्त रज-धूलि को ग्रहण के लिए पिच्छिा के स्थान पर रजोहरण रखने का म करे, पसीने से गीली न हो, कोमल स्पर्श वाली और विधान मिलता है। वहा रजोहरा के अनेक प्रकार स्तस्वयं में कोमल हो तथा हल्की हो ऐसी प्रतिलेखना लाए गए हैं। जैसे-औगिकम् (ऊन मी) औष्ट्रिकम् (पिच्छी) प्रशस्त कही गई है। क्योंकि सूक्ष्म जीवो की (ऊट के बालो की) स नकं (सन की) वल्कल (छाल से रक्षा करने में ऐसी पिच्छी ही समर्थ हो सकती है और बनी) मुंजदसा (मूंज की) कौलज्जदसा (रेशमी) आदि । उक्त गुरण मयूर पिच्छी मे ही पाए जाते है-इससे कोमल हमारी दृष्टि से रजोहरण के उक्त रूप किसी भी भांति उपकरण अन्य नही। मूलाचार के समयसार अधिकार मयूर पिच्छि के गुणों की समता नही कर सकत और ना में इसी गाथा को टीका में उक्त पांचों गुणो को बतलाकर ही उनमें पिच्छिका में बताए गए पांवो गुगा ही सम्भव लिखा है
हो सकते है। मयूर पिच्छी मे तो इतनी कोमलता होती ___ 'यत्रते पचगुणाः द्रव्ये सन्ति तत्प्रतिलेखन मयूरपिच्छ- है कि उसे आँख की पुतली मे फिराने पर भी कोई हानि ग्रहणं प्रशसन्ति आचार्या: गणधर देवादय इति ।'
नही होती। ऐगे गुण के कारण ही वह जीव रक्षा मे मुलाचार के समयसार अधिकार मे गाथा १७ मे समर्थ है। 'पडिलिहण'-प्रतिलेखन पद है । वहा वसुनन्दी आचार्य- जहां तक मयूर-विच्छ प्राप्त करने की विधि का प्रश्न कृत टीका में प्रतिलेखन शब्द का अर्थ 'मयूरपिच्छी' किया है कि साधु को पिच्छ (मयूख) की प्राप्ति कैसे हो? वह गया है-'दया प्रतिपालनस्यलिङ्ग मयूर पिच्छिका ग्रह- स्वयं मयूरपख न लाए--एकत्रित करे । श्रावक उसे णमिति ।' मयूर पिच्छिका ग्रहण दया-पालन का चिह्न पिच्छ दान दे १ गोभी तक तो हमारे देखन मे नही है। अमरकोश २१५१३१ मे 'शिखण्डस्तु पिच्छ वहनपुंसके' आया कि पिच्छ-मान नामक भी कोई दास हो। प्राचीन कर कर स्पष्ट किया है कि-पिच्छ शब्द मयूर पख का आरातीय आगमो मे भी कही उल्लेख हमारी दष्टि वाचक है। जैन आगमो मे इस पिच्छ शब्द का अनेक में नही आया। हो, इसके विपरीत ऐसा सिद्ध अवश्य हाता स्थलो पर उल्लेख मिलता है।
है कि प्राचीन काल में मुनिराज स्वय ही जगल से मयूर नदीन-दीक्षा देते समय आचार्य दीक्षित शिष्य को पंख चन लेते रहे हो। श्लाकवातिक मे 'अदत्तादान 'रणमोअरहनाण भो अन्तेवामिन्, षड् जीवनिकाय रक्षगाय स्तेयम्' सूत्र की व्याख्या में कहा गया हैमार्दवादि गणोपेतमिदं पिच्छिकोपकरणं गृहाण'-(क्रिया
'प्रमत्तगोगतो यत् स्यादत्तादानमात्मनः । कलाप पृ० ३३७) वोलकर पिच्छिका देता है। इसी
स्तेयं तत्सून दानादानयोग्यार्थगोचरम् ।। क्रियाकलाप मे दीक्षा ग्रहण की विधि में आचार्य द्वारा
तेन सामान्यठोऽदत्तमाददानस्य सन्मनः। पिच्छिका के दिए जाने का उल्लेख है
सरिन्निर्झरणाद्यम्भ. शुष्कगोमयखण्डजम्'सिद्धयोगिवद्भक्तिपूर्वक लिङ्गमर्यताम् ।
भस्मादि वा स्वयमुक्त पिच्छालाबुफलादिकम् । सुचारुया नाग्न्य पिच्छात्मक्षम्यता सिद्धभक्तितः ।।' प्रासुकं न भवेत् स्तेय प्रमत्तत्वस्य हानितः ।।' गुरु वन्दना के सम्बन्ध में भी पिच्छिका के उपयोग
-इलो० वा० ७।१५।१-३
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दिगम्बर साधु को मोर-पिच्छी?
अदत्तवस्तु के आदान (ग्रहण करने) मे जहाँ प्रमत्त और किसी मयूर पंख द्वारा ही किया जाता रहा होगा। योग (प्रमाद) है वहाँ नोरी है और जब प्रमाद का क्योंकि सूत या धागा और सन भी मुनि के लिए परिग्रह योग नहीं है वहाँ चोरी नहीं है। इसलिए प्रमाद होता है--मुनि को उसका वर्जन अनिवार्य है। वर्तमान (राग-कषायादि) के न होने मे मुनिको मरिता, झरने माधुओं की पीछियाँ तो दृढ़बध वाली और इतनी सघन होती आदि के प्रासुक जल, गोमयखण्डज-भस्म आदि मयूर है कि उनके बन्धन-स्थल का परिमार्जन भी कठिन होपिच्छ और प्रासुक अलावु-फल (तवी) आदि के लेने में उनमे सूक्ष्म त्रस जीवो की उत्पत्ति भी सम्भव हो। पोछियों चोरी का दोष नही होता है। अर्थात् इससे सिद्ध होता है कि का गुन्थन सम्भवत: सन या धागे से भी होता हो तब भी मनियों को उक्त वस्तुओ के स्वत: ग्रहण क ने का विधान आश्चर्य नही। रहा है और उसमे चोरी नही मानी गई है। फलतः
हमे तब खेद होता है जबकि अहिंसा का ढोल
पीटने वाले कुछ लोग जीव रक्षा के प्रचार में पानी में मुनिगण उक्त वस्तुओं की भांति मयूरपखो को भी
माइक्रोस्को। लगाकर जीवराशि दिखाने की बात कर जगल से स्वयं ग्रहण करते रहे है। उनो जंगलो मे रहने । से यह सहज साध्य भी रहा । पर, आज बड़े नगरो की
जनता को वैसी हिंसा के वर्जन को कहें और वे सघन रूप बडी मारतो तक मे मीनो पहाव डाने हुओं को सब स गूथा महाव्रती का पिच्छो पर माइक्रोस्कोप लगाकर शक्य नही। ऐसे में साभद है कि कमी ऐसे ही साधुओ ने
उसमे सम्भावित जीव राशि का कभी निरीक्षण भी न करें। श्रावको को मयूरपखो के लिए प्रेरित किया हो और ऐमा
आज के बहुत से साधु तो धागो से निर्मित सीतलपाटी प्रचलन चल पड़ा हो कि भान । मुनियो की पिच्छी का
जैसी चटाइयों का प्रयोग भी खुलेआम करने लगे है। प्रबन्ध करे, आदि। फिर श्रावक भी क्या ? उसे तो
शायद ये सब उन साधुओं द्वारा धागे को परिग्रह से बाह्य जहाँ जैमी सुविधा दिखी वैसे मयूरपच्छी का प्रबन्ध करने
मानने पर ही सम्भव : पा हो। कई साधु तो तेल की का कम बना लिण और इसके लिए उसे बाजार अधिक
मालिश भी कराते हैं, जबकि तैलयुक्त उनके शरीर और सरल और उपयुक्त दिखा---उसने मयूरपख खरीद कर
आमन पर सूक्ष्म त्रम जीवो के चिपकने की सम्भावना से सब प्रान्ध करना प्रारम्भ कर दिया। अतः पक्की जान
इन्कार नहीं किया जा सकता। कारी कर लेनी चाहिए कि वे मयूरपख जैनी के स्वयं द्वारा
कोई लाग 'गुद्ध-पिच्छ' शब्द का अर्थ ऐसा करने लगे ही जंगल से उठाए गए है ? वरना, वको न श्री मैनका जा
हैं कि पिच्छी मे गुद्धता होने से कुन्दकुन्द या उमास्वामी के, बड़े व्यापार में अहिंमा में पक्का मदेह ही है --अवश्य
का नाम गृद्ध-पिच्छ पड़ा होगा । सो यह भ्रान्ति है । भला
जो आचार्य 'समयसार' मे रहे हो या जिन्होने तत्शे का ही मयूर को पीडित किया जाता होगा।
निरूपण किया हो उनमें गृद्धता कैसे सम्भव है ? फिर, अब रह जाती है पोछी के पखों की संख्या की बात । उक्त शब्द का उक्त अर्थ करना व्याकरण-सम्मत भी नहीं कि एक पीछी म पखा का परिमाण कितना हो? हम जंता। यदि उक्त अर्थ रहा होता तो "पिच्छगद्ध' रूप नही मालम कि आज कौन सा परिमाण प्रचलित है ? पर अधिक उपयुक्त होना। अर्थात् पिच्छ में जो गृद्ध हो वह हमारे ख्याल से ४००-५०० पख तो एक पीछी म होते हो पिच्छगद्ध होता है। पर यहाँ न तो गद्धता अर्थ है और ना होंगे ? किम्वदन्ती तो ऐसी है कि जब कुन्दकुन्द स्वामी ही गिद्ध अर्थ है। अपितु यह शब्द किसने प्रयुक्त किया की पीछी गिर गई तो उन्होने मृद्ध पख से कार्य चलाया। और किस भाव मे किया ये वही जाने ? दूसरी बात गुद्ध तो क्या उन्हें वह पंख एक ही मिला था म दो, चार, (पक्षी) के पखो को पिच्छ नही कहा जाता। वे तो सरकृत हजार गा पांच सौ, आदि । विचार करने से तो यही में गरुत्, पक्ष, छद, पर, पता और तनुरूह नामो से कहे फलित होता है कि साधुगण स्वयं ही परिमित पखो का जाते है तथा सभी पक्षियों के पखो के लि। भी उक्त शब्द चयन कर बांध लेते रहे होगे और वह बन्धन भी शिथिल निर्धारित है। तथाहि-'गरुत्पक्षण्छदा: पत्र पतत्रं च
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२८४२ ० ४
तनूरुहम् -' अमरकोश मयूर के पिच्छ को पंख नहीं कहा जाता और उक्त नामों से भी सम्बोधित नहीं किया जाता। मोर के पिछ को शिखण्ड, पिच्छ और वह नाम ही दिए गए है- 'शिखण्डस्तु पिन्छ वहँ नपुंसके' - अमरकोश | फलतः गृद्ध के साथ पिच्छ शब्द उपयुक्त नही है और पिच्छ के साथ युद्ध शब्द उपयुक्त नहीं है। पिच्छ और पंख दोनों ही नाम भिन्न प्राणियों के लिये निश्चित है अतः मयूर पिच्छ को पख कहा जाने का प्रचलन ठीक नहीं । तथा यह भी सोचने की बात है कि गिद्ध पक्षी का पक्ष जो सर्वथा कठोर कर्कश होता है, वह पिच्छ जैसे कोमल उपकरण के कार्य की पूर्ति कैसे करेगा ? उसके प्रयोग मे तो सूक्ष्म जीवो की हिंसा ही अधिक सम्भावित है। उक्त सभी प्रसग विचारणीय है ।
आजकल देखने में आ रहा है कि साधुवर्ग की पिच्छी का उपयोग सूक्ष्मत्रस जीवों की रक्षा की अपेक्षा स्थूल पचेन्द्रिय जीवो की रक्षा में अधिक हो रहा है। साधुवण स्त्रीलिंग और पुलिंग का भेद किये बिना सर्वसाधारण को पोछी हुआ (मार) कर आशीर्वाद देने में लगे हैं। उनके
मनेकान्त
१. प्रवचनसार, गा० ७८
२. धवला १३-३, ५, ५, ५०-२८१
३. रावार्तिक १-२-६-१६
न होने से वह पापो से तो दबता ही है बल्कि उसका व्यव हार विनम्र व सरल होने के कारण आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार अपरिग्रही मानवीय भौतिकी व आध्यात्मिक तीनों लक्ष्यों की पूर्ति करता है ।
अन्त मे जैन समुदाय का वर्तमान समाज देश में
पास दो ही चीजें सुरक्षित है भाग्योदय के लिए रामवाण श्रौषधि पोछी और आरोग्यता प्रदायक वेदनाहर रस जैसा कमण्डलु का पानी । और लोग हैं कि उनमें होड़ लगी है इन्हें अधिक-से-अधिक मात्रा में प्राप्त करने की आरि साधु भी क्या करें? वह कोई तीर्थंकर तो नही जो पहिले अपना हित करे। प्राज तो अधिकांश साधु का धेय मानों परोपकार करना मात्र बनकर रह गया है— कही यंत्र-मंत्र दान से और कहीं पीछी-कमण्डल जैसे उपकरण से उसे अपने आत्महिन से प्रयोजन नहीं और ठीक भी है कि जब इस काल मे यहाँ मोक्ष नही तो आत्मा से ही क्या प्रयोजन ? फिर, आत्मा की चर्चा के ऊपर तो आज परिग्रहियों का राज्य है— उन्होने ही आत्म चर्चा को पकड़ रखा है। खैर,
( पृ० १८ का शेषाश )
४. सर्वादि १-४४-४५५
५. "मूर्च्छा परिग्रहः" - उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र ७-१७
पोछी के सम्बन्ध मे उक्त प्रचलित प्रक्रिया को प्राचीन शास्त्रों में देखना चाहिए और तदनुरूप पीछी का निर्माण और उपयोग होना चाहिए जैसी आगमाज्ञा हो वैसा करना चाहिए। हमारा कोई आग्रह नही ।
सर्वाधिक महत्व है क्योकि अधिकाश वाणिज्य इनके हाथो मे है और समाज मे दहेज आदि जैसी भयावह समस्याओ का जनक है। यदि इसने अपनी करनी और कथनी मे अन्तर रखा तो भावी पीढ़ी इसे माफ नहीं करेगी । जैन कालेज क्वार्टर्स, नेहरू रोड, बड़ौत २५० ६११
सन्दर्भ सूची
६. अमृतचन्द्राचार्य पुरुषपाय ११७ ७. अमृतचन्द्राचार्य पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ११६ ८. उमास्वामी - तत्त्वार्थसूत्र, ७-२७,२६
६. उमास्वामी - तत्त्वार्थसूत्र, ६-१७
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जरा-सोचिए !
१. अहिंसा के पुजारी रक्षा करें
तु आत्मा को देख, पहिचान, तो भी अचंभा नही जबकि वे
स्वयं मे प्रात्मा से अजान और अन्तरग वहिरग दोनों जैनी सच्चा और जयनशील होता है। जैन आगमो
प्रकार के परिग्रहो मे मोही तक देखे जाते है। यदि अत्युक्ति में जैनी की परिभाषा मे बतलाया गया है कि जो जिन
नहीं तो हम तो अब तक अधिकांश ऐसा देख पाये हैं कि देव का भक्त और जिनोपदेश के अनुसार चले वह जैनी
आत्मा की चर्चा अधिकाशनः लोग बाह्याचार की उपेक्षा है। प्रामाणिक पूर्व जैनाचार्य, जैनी को परिभाषा मे खरे
करके भी कर रहे हैं और वह इसलिए कि इस चर्चा की उतरते रहे है और इसीलिए वे जैन धर्म को सुरक्षित
आड़ मे उनका परिग्रह पाप छिपा रह सके और वे धर्मात्मा रखने में समर्थ हुए है। आज जैसी स्थिति दृष्टिगोचर हो
कहलाएँ। और यह फलित भी हो रहा है। अर्थात् जो रही है वह सर्वथा विपरीत है। न तो वैसे जैनाचार्य है
चर्चा मन्द राग भाव मे करने की है उसे परिग्रही अपना और न ही वैसे धावक है। फलत. जैन धर्म ह्रासोन्मुख
बैठे है और बाहर से नग्न व्यक्ति परिग्रह के चक्कर में है। लोग धर्म प्रचार का ढोल भले ही पीटते रहे पर ऐसे मे रा जडे मा भी रहे हैं। मे धर्म सुरक्षित नहीं रह सकता।
____ क्या कभी आपने सोचा है कि-ग्रामा को देखनेभला, जब आज मून धर्म अपरिग्रह की उपेना है,
दिखान, पकड़न-पकड़ाने का प्रयत्न अन्तारक्ष के पकड़नेतब अहिंसा आदि धर्म भी कैसे पनप सकते है ? आगम मे
पकड़ाने के समान असम्भव है। पकड़ने के लिए बढ़ते स्पष्ट कहा है कि पापो का मूल परिग्रह है। और इसी
जाने पर अन्तरिक्ष दूर-ही दूर होता जाता है और कुछ लिए आत्म-कल्याणार्थी को परिग्रह के त्याग का प्रथम
हाथ नही लगता। जैसे अन्तरिक्ष अनन्त है वैसे आत्मा उपदेश है। लोक में मोक्षमार्ग के गमन के लिए भी प्रथम
भी अपने गुण-स्वभाव में अनन्त है। आत्मा का, आत्मा सीढ़ी मुनित्वरूप को स्वीकार करना बतलाया है
के गुणों का, संकोच-विस्तारण स्वभाव का कोई अन्त नही । तीर्थकर भी सर्वप्रथम परिग्रह से निति लेते है और तब
-यह सूक्ष्म भी है और लोकपूर्ण भी है। अन्तरिक्ष और अहिंसादि महाव्रत धारण करते है । पर, आज तो लोग
आत्मा दोनो ही अरस, अरूप, अगन्ध है शब्द और स्पर्श अहिंसा का उपदेश पहिले देते है-परिग्रह परिमाण और
से रहित हैं -इन्द्रिय और मन के ग्राह्य नहीं। फलतः परिग्रह त्याग पर उनका ध्यान ही नहीं है ।
इनका साक्षात्कार निर्विकल्प और स्वानुभूति की दशा में यही कारण है कि आज परिग्रह सर्वोपार बन बैठा ही सम्भव है और ऐसा राग-भाव की अनासक्ति में है और वही धर्म की जड़ को खोखला किये दे रहा है । आज होता है। किसी भी वर्ग को देखिये वह परिग्रह से ही जुड़ा हुआ आत्मा के दर्शन करने कराने-पहिचानने पहिचनहै। और तो और, आज स्थिति ऐसी आ गई है कि घोर वाने और साक्षात्कार का जो मार्ग परिग्रहामनोवृत्ति में परिग्रही भी आत्म चर्चा मे लग रहा है और बाह्य वेष में अपना रखा है वह तीर्थकरो और कुन्दकुन्दादि के मार्ग से नग्न पुरुष आडम्बर और क्रियाकाण्ड में रप ले रहा है। सर्वथा विपरीत और चालू से तल निकालने के प्रयत्न की जव आचार्य बुन्दकुन्द सर्व परित्याग कर आत्मानुभव भाँति है उससे परमार्थ लाभ नहीं; लागतो राग के कृश कर सके-समयसार (आत्मा) के स्वरूप वर्णन के अधि. करने मे है। कारी बने, तब कई नामधारी आत्मार्थी घोर परिग्रह तीर्थकर की बाल्यावस्था में भी वे बड़े-से-बड़े विद्वानो से जकड़े हए, आत्मदर्शन मे लगे हो-वे कह रहे हो.- से भी बड़े ज्ञानवान थे। शुद्वात्म-प्राप्ति के लिये उन्होने
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३०, वर्ष ४२, कि०४
पहिले उन पदार्थों के स्वभाव का चिन्तन किया जो ख्याति और मान-बडाई के लिये । इन्होंने अनेकों साधु, सामान्य जगत को भी इन्द्रियग्राह्य-रूपी और पर थे। मंन्यासी और मोही-ज्ञानियों तक को खरीद रखा है-- इसीलिए उन्होने बारह भावनाओं के चिन्तन द्वारा पहिले धन-वैभव और नांदी के टुकड़ों को डालकर । अन्यथा, पर-पदार्थों में विरक्ति ली। संमार के अनिन्य, अशरण जैसी खिलबाड़ आज धर्म के नाम पर चल रही है, बह आदि स्वरूप का महमह चिन्तन किया और उनसे विरक्त न होती-साधु और पडित धर्म के मूल परिग्रह के पाठ होकर दष्टिगोचर बाह्य से निवृति ली। बाह्म-निवृति हो को पीछे न फेक देते। जाना हो तो स्वात्म प्रवृत्ति है । स्मगा रखना चाहिए कि
मे बड़ा अटपटा-सा लगता है जब हम आचार्य रागे प्राणी की पकड आत्मा पर गसम्भव है और वह
कुन्दकुन्द की द्वि महस्राब्दी मनाने के ढंगों को देखते है । इन्द्रियान-ग्राह्य को ही, सरलता से पहिचान सकता हैउसकी अमारता को जानकर उममे केवल विरक्त हो
कुन्दकुन्द के प्रति दिखावटी गुणगानो को देखते है और सकता है।
कुन्दकुन्द द्वारा बतलाये हुए मार्ग को अवहेलना को देखते
हैं। जो आचार्य अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुके है उन्हें पर, आज उल्टे मार्ग पर चलने की कोशिश की जा
लोग निष्फल ढो रहे हैं, उन्हे दूरदर्शन और आकाशवाणी रही है..-अरूपी आत्मा को देखने-दिखाने, पहिचानने
नक ले जा रहे है जैसे वे कुन्कुन्द की ख्याति में चार पहिचनवाने की चर्चा चल रही है और साक्षात् दिखाई
चाद लगाते हों, खेद ? भला, लो लोग स्वय को कुन्दकुन्द देने और इन्द्रिय गोचर होने वाले नश्वर पदार्थों की
के उपदेशानुकूल न ढाल सके हो, उनकी बात न मानते विरक्ति से मुख मोड़ा जा रहा है-परिग्रह का सचय
हो, उन्हे क्या अधिकार है कुन्दकुन्द के नाम तक के लेने किया जा रहा है। ऐसे मे आत्मा का अनुभूति मे आना
का? ऐसे विश्रीन कार्य तो परिग्रह-सचय-दृष्टि ही कर कैसे सम्भव है ? इसे पाठक विचारें।
सकते हैं। हम तो जहाँ तक समझ पाए हे वह यही है कि लोगो
बुरा न माने, क्या कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित आचारकी परिग्रह वृत्ति ने आत्मचर्चा करने में लगे रहने के बाद
संहिता की अवहेलना कर, नई आचार संहिता बनाने का भी उन्हे आत्मा से दूर रखा है, यहां तक कि वे बाह्या
प्रसंग उठाना दी द्वि-महस्राब्दी मनाने की सार्थकता है ? चार को भी भुलावा मान बैठे है। यद्यपि वे व्यवहारिक
क्या, उक्त प्रस्ताव का अर्थ यह नही होता कि वर्तमान सभी कार्य कर रह है--पूजा: प्रतिष्ठादि में भाग ले रहे
मुनि शिथिलाचार के समक्ष अपने हथियार डालने को है-श्रावक और साधु को पहिचान भी उनके बाह्याचार
सनद्ध है और हम जैसे-तैसे उन्हे समर्थन देने के मार्ग से कर रहे है। फिर, मजा यह है कि वे जिसे हेय बता
खोज रहे है ? और वर्तमान मुनियो की दशा आज किसी रह है, उसी से चिपके जा रहे है। अहिमा का नारा दे,
से छिपी नही है-कही-कही तो घोर अनर्थ भी हो रहे परिग्रह को आत्मसात् किये जा रहे है। अन्यथा इन
है। क्या ऐसी दशा में कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित आचार वक्ताओं और वाचको से पूछा जाय कि इनके भाषण से कितनों ने आत्मदर्शन किये और कितन परिग्रह से मुख
संहिता को आगे लाना और मुनियों व श्रावकों को तदनु
रूप आचरण करने को मजबूर करना कुन्दकुन्द द्विसहमोड़ गये?
स्राब्दी की सार्थकता नही ? जो नई सहिता बनाने का तब तीर्थकरो ने परिग्रह से मुख मोडा और अब सच्चे
प्रस्ताव है ? और कुन्दकुन्द की सहिता को पीछ किया जा ज्ञानी लोग इन परिग्रहियो से भयभीत हैं कि कही ये
रहा है, खेद। परिग्रही उन्हे भी परिग्रही न बना दें ? आखिर, इन परि. ग्रहियों ने लेने के साथ देने का धन्धा भी तो बना रखा कुन्दकुन्द ने समयसार रचा और आचार्य अमतचन्द्र है-ये लेते अधिक ओर देते कम है। ये देते है अपनी ने अमृतकलश । उन्होने 'स्वानुभूत्या चकासते'-~आस्मा
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जरा-सोचिए
अपनी अनुभूति-अनुभव से प्रकाशित होता है ऐसा कहा। २. साप बनना टेढ़ी खीर है: और आज आत्मा को प्राप्त करने का मार्ग पर-परिग्रह मे लीन रहकर, उसके सहारे खोजा जा रहा है। प्रचार
भव-सुधार के लिए वेष धारण करने की अपेक्षा मोह
को कृश करने की प्रथम आवश्यकता है--सब बन्धनों की भी परिग्रह के बल पर किया जा रहा है-कही जल्से
जड़ मोह है इसीलिए स्वामी समन्तभद्र ने कहा हैकरके और कही साहित्य छपबाकर । किसी का भी ध्यान
"गृहस्थोमोक्षमार्गस्यो निर्मोही नैवमोहबान्। अनंगारो स्वानुभूति के माग--पर-निवृत्ति पर गया हो तो देखे,
गृहीश्रेयान् निर्मोही मोहिने मुन ॥"-निर्मोही गृहस्थ किसी आत्मचर्चा वालो मे कोई मुनि बना हो तो देखें।
मोही साधु से श्रेष्ठ है। आचार्य कन्दकन्द ने ही क्यो? अन्य सभी आचार्यों ने ऐसा सर्वथा ही नहीं है कि वर्तमान माधु उक्त तथ्य भी 'चारित्त खलु धम्मो' की पुष्टि की है और सभी ने को न समझते हो -वे समझते भी है पर, कई की मजबरी स्वय तप आचरण किया-चारित्र की सम्पुष्टि के लिए ये है कि वे इस तथ्य को तब समझ पाये, जब वे मुनिपरिग्रह का त्याग किया है। व भला नाति समझ चुके दीक्षा ले चुके । और ऐसा तब हुआ जब उन्हे मान-पद थे कि जब तक पर से निवृत्ति नहीं ली जायगी तब तक जैसी कठोर परीषहो से गुजरना पडा। और ठीक भी स्वानुभति करने की बात व्यर्थ है।
है कठोर परीषहो का सहना कोई खाला जी का घर तो
नही, बड़ी दिलेरी और हिम्मत का काम है। पर. क्या काफी असे पूर्व आत्मज्ञान-समयसार वाचन का
करे जिनमत मे व्रत लेकर छोड़ देने का विधान भी नहीं मार्ग हमारे समक्ष आया यह हमारा पुण्योदय था। तब
है। वहा तो साँप-छछंदर जैसी गति बन बैठती है, जिसे लाग प्राय. बाह्य क्रिया-काण्ड मात्र म धर्म समझे ३५---
न निगले ही बनता है और न उगलत बनता है--बेचारे एकागी थे और अब कियाकाण्ड से हट केवल आत्मार्थी
वीच में लटके रहते ,-'त्रिशकु' न श्रावक ओर रहकर एकांगी हा गये है। शायद आज के मुनि २८ मूल
न मुनि । ऐसे व्यक्ति वेष से मुनि और आचरण से गणों के पालन को भी क्रियाकाण्ड मान बैठे है-जो उनके
श्रावक जैसा परिग्रहो जीवन यापन करने लगते है या पालन से विमुख है। पर, स्मरण रखना चाहिए कि जैन ,
उममे भो कम। धर्म में सम्यग्दर्शन;ज्ञान और चारित्र इन तीनो की एकरूपता को स्थान दिया गया हे अकेले एक या दो को अपूर्ण आपको ये जो मन्दिर में दिखने वाले श्रावक है, उनमे माना गया है। फलत.-कोरी आत्मा-आत्मा की रटन कई ऐसे दिख मकते है जो सरल-वभावी, मद-पारणामी और माथ मे परिग्रह सचय की भरमार व्यर्थ है।
और श्रावक की दैनिक क्रिया में जागरूक हो और ऐसे
मुनि भी जहा कही भी दिख सकते है जो मन से भी स्मरण रहे कि ऐसी थोथी बातो से न तो आत्मा परिग्रह के चारो ओर चक्कर लगा रहे हो। ऐसी बात मिलेगी और न ही सम्यग्दर्शन मिलेगा-इनकी प्राप्ति नही कि सभी श्रावक और सभा मुनि शिथिलाचारी होंतो पर-परिग्रह की निवृत्ति और वैराग्य भाव से ही होती कुछ मुनि कर्तव्य के प्रति जागरूक भी होंगे। पर, वर्त. है। तथा वैराग्य भाव दृश्य और अनुभूत नश्वर सामग्री मान के वातावरण को देखते हुए अधिकांशतः दोनों ही के स्वरूप चिन्तन से होता है। फलत:-पहिले बाह्य से वर्गों मे शिथिलाचार अधिक दृष्टिगोचर हो रहा है। निवृत्ति लेनी चाहिए, चारित्र धारण करना चाहिए, परि- हमारे साधुओ के शिथिलाचार मे श्रावको का भी बड़ा ग्रह को कृश करना चाहिए तब आत्मचर्चा की सार्थकता हाथ है। कुछ श्रावक निज स्वार्थ पूर्तियो के लिए भी होगी। परिग्रह से तो आत्मा का घात ही होता है- माधुओं को घेरते है-कही मन्दिर, कही तीर्थों के चन्दों अहिंसा के पुजारी इसकी रक्षा करे।
के लिये भी साधूओ का उपयोग किया जाता है : आदि ।
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१२, वर्ष ४२, कि० ४
अनेकान्त
साधु की निन्दा कई लोग करते देखे जाते हैं। पर, के शिथिलाचार के प्रति त्यागी भी चिंतित हैं। श्री ऐलक निन्दा करने से कुछ हाथ नही अ:येगा। यदि श्रावकगरण सुध्यान सागर जी ने अभी जो विज्ञप्ति प्रकाशित कराई अपने मे सावधान हों और साधुओ का घिराब बन्द करे- है वह ध्यान देने योग्य है। उसे हम यहां उद्धृत कर रहे उनसे पीछी का आशीर्बाद, कमण्डलु का पानी, गण्डा, है-- तावीज, मत्र-तंत्र न मागे। बड़े-बड़े पण्डालो में ऊची "जितनी हमारी जैन सस्थाएं हैं उनके पदाधिकारी स्टेजें बनाकर हजारों की भीड मे उन्हे न घेरें, तो साधु गण मिलकर आकल साधु मार्ग मे जो शिथिलाचार की के अह को ब्रेक लग सकता है-वह अपने में सावधान वृद्धि हो रही है उसको दूर करने का प्रयत्न करें तो रह सकता है । कुछ समाचार पत्र भी साधुओ को उछाल मूलसंघाधिपति प० पू० १०८ अजितसागर जी का आशीकर उनके अह को बढ़ावा देते हैं। जब साधु समाचार मे वर्वाद तथा आदेश लेकर प्रत्येक शिथिलाचार का पोषण अपने को आगे पाता है तो उसे यश का अहं जागता है. - करने वाले आचार्य साधुओ के पास पहुंचें, उनसे शान्ति वह पद से च्युत भी हो जाता है सामाजिक उथल-पुथल से स्पष्ट कहें कि जो-जो आगम विरुद्ध क्रिया उनसे हो और दूसरो के सुधार के चक्कर में पड़ जाता है। रही है, जैसे--एकाकी रहना, एक स्त्री साध्वी को रखना __ आज जैन समाचार पत्रो की दशा भी दयनीय है-- चदा-चिट्ठा करना, गंडा-तावीज बेचना, बस (मोटर)-वाहन प्रायः सभी में एक जैसे समाचार ही रहते है जैसे इसके रखना, संस्था बनाके वही पर जम जाना, कलर, फ्रीज, सिवाय उन्हें छापने को कुछ और रह ही न गया हो। पखा, वी० सी० आर० टेलीविजन आदि जिनागम के फलत:-जनता के मन बहलाव को वे मुनियो की स्थान. विरुद्ध वस्तुओ का रखना तथा उपयोग करना एव जवान स्थान पर उपस्थिति दिखाकर रनके आशीर्वादो की कन्याओं को साथ रखना, उनका ससर्ग करना, एकाकी घोषणा का प्रचार भी करते रहते है और इससे मुनि के साध्वी को बगल के कमरे में सोने देना, इत्यादि धर्म-हा। अहं को पोषण मिलता है। पेपर वाले मुनि का आशीर्वाद क्रियाओ को अवश्य रोकना चाहिए। साम, दाम, दण्डले, अपनी दुकानदारी जमाते हो, यह बात दूसरी है।
भेद से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा रखते हुए यदि सुधार अपेक्षित है नो सभी को एकमत होकर Aaya की रक्षा करनी साधु सस्था को ठीक करना चाहिए। क्योकि आज मुनियों
-सम्पादक (पृ० २४ का शेषाश) प्राप्ति होती है। प्रामाणिमक पूर्वाचार्य गणधरादिक उनकी व्याख्याता बनकर गणधरो के ऊपर जैसे बैठना चाहते वाणी का विस्तार करने में समर्थ हुए। सभी ने राग-द्वेष हो-अपनी रचनाओ को जिनवाणी मनवाने के जाल की निवत्ति को आत्मधर्म बताया। राग-द्वेष ही घोर बुन रहे हो, तब भी आजचयं नही। पर, स्मरण रहे। हम परिग्रह है-इनमें ही क्रोः, मान-माया-लोभ का उदय तत्त्व के सम्बन्ध मे लिखी आधुनिक मभी व्याख्याओ होता है। हिसादिक पाप भी इन्हीं परिग्रहो के कारण से या भाषान्नरों को किसी भी भौति आगम मानने के होते है-अतः परिग्रहों के त्याग पर बल देना जैनी का पक्षधर नही। दमारी दृष्टि आरातीय निष्परिग्रही कर्तव्य है। स्मरगा रहे कि आज जैन के ह्रास में मत आचार्यों की मूल शब्दावली पर ही है-हम उसे ही कारण परिग्रह और परिग्रहियो को परिग्रह वृत्ति है।
आगम मानते है और बार-बार उद्घोष करते है कि तीर्थंकर ऋषभदेव की धर्म सभा में प्रधान शासन
आगम सुरक्षा के लिए फर वदल के बिना मूल शब्दो के गणधरदेव का ही रहा-उन्हीं के व्याख्यान को प्रामा
अर्थ मात्र दिए जायें और यदि व्याख्या करना इष्ट हो तो णिकता मिली। और वह इसलिए कि गणधर भी अपरि
मौखिक ही की जाय ताकि गलत रिकार्ड की आशंका से ग्रही थे-अतः वे तत्त्व को यथार्थ कह सके । आज तो
बचा जा सके। यदि उक्त विसगतियो के ठीक होने को वैसे गणधर दुर्लभ है-अब तो प्राय. वाचक भी परिग्रह दिशा में कदम उठाया जाता है तो निर्वाण उत्सव के के नशे में झूमते है . कई परिग्रह की बढ़वारी में और
बहाने जैन के निर्माण में सहायता मिल सकेगी। शुभमस्तु कई यरिग्रह की तृष्णा में। कई तो शास्त्र-निर्माता या सर्वजगता।
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आगम से चुने ज्ञान-कण
संकलयिता : श्री शान्तिलाल जैन कागजी
१. आत्मा ज्ञानकरि तादात्म्यरूप है, तोऊ एक क्षणमात्र भी ज्ञानकं नाही सेवै है। ये बड़ी भूल है। २. परद्रव्य मो स्वरूप नाहीं है। मैं तो मैं ही हु, परद्रव्य है सो परद्रव्य ही है। ३. परद्रष्यक पर जान्या फेरि परभावका ग्रहण नाही, सोही त्याग है, ऐसे यह जानना ही प्रत्याख्यान है। ४. क्रोधादिक अर ग्यान न्यारे-न्यारे वस्तु. है, ग्यान मे क्रोधादिक नाही, क्रोधादिक मे ग्यान नाही । ऐसा इनिका भेद
ज्ञान होय तब एपणाका प्रज्ञान मिट । तब कर्मका बध भी न होय । ५. जो द्रव्यस्वभाव है, ताहि कोई भी नाही पलटाय सके है, यह वस्तु की मर्यादा है।
ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाधीन है, किन्तु ज्ञेयो का परिणमन ज्ञान के आधीन नाहीं है। ७. जीव या आत्म-पदार्थ इन्द्रिय का विषय नाहीं है। ८. सम्यग्दर्शन और मम्यकचारित्र औपशामक, क्षायिक और क्षायोपशमिक रूप मे तीन-तीन प्रकार के होते हैं। ६. सम्यग्ज्ञान क्षायोपशमिक और क्षायिक रूप मे दो प्रकार का होता है। १०. मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र ये दोनो औरयि ही होते है। ११. मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक ही होता है। १२. जाननेमावत बध कटै नाही । बध तो काट्या कटं । १३. ससार देह भोगों से विरक्तता होना । श्रमीम इच्छा रुक कर सीमित होना । निरर्गल प्रवृत्ति का बन्द होना
और यत्नाचार पूर्वक क्रिया का होना ये मोक्ष मार्ग है । १४. तीनों कालो में और तीनों लोकों में जीव को सम्यक्त्व के ममान कोई दूसरा कल्याणकारी नही है। १५. कोई भी कर्म बिना फल दिये निर्जीर्ण नही होता, ऐसा जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है; जयघवल पुस्तक ३ पृ. २४५। १६. अन्तरात्मा की गति मिथ्या दृष्टि कहा जाने । १७. ज्ञानी ऐसे जान है, जो गत्तारूप वस्तु का कदाचित् नाश नही और ज्ञान आप सत्तास्वरूप है। १८. बन्ध होने मे प्रधान मिथ्यात्व और अनंतानुबधी का उदय ही है। १६. जो जाने हैं मो करे नही है और जो करे है मो जाने नही है। २०. झुठा अभिप्राय सो ही मिथ्यात्व, मो ही बध का कारण जानना ।
क्या सयम धारण करने की चटापटी लगी है, क्या पर पदार्य के प्रति उदासीनता आई है, क्या पर पदार्थ में स्वामीपना छूटा है, का भय लगा रहता है, क्या वर्तमान पर्याय में और रहने का मन करता है, क्या संसारी अनुकूलता मे आनन्द आता है, क्या प्रतिकूलना मे भय लगता है, ये कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनके बारे में हमें खुद ही मोचना है और उसका उत्तर भी हमे अन्दर से ही मिलेगा। फिर इसका निर्णय कर मकेगे कि हमारे पास
सम्यक्त्व है या नही? २२. प्रथम सम्यग्दर्शन के होते ही जीव के पर पदार्थों में उदासीनता आ जाती है और जब उदासीनता की भावना
दृढतम हो जाती है तब आत्मा ज्ञानादृष्टा ही रहता है। २३. पर के सम्बन्ध से रागादिक ही होते हैं और रागादिकों के नाश के अर्थ ही हमारी चेष्टा है । २४. केवल बाह्य पदार्थों के त्याग से हो शान्ति का लाभ नहीं; जब तक मूर्छा की सत्ता न हटेगी।
२१.
आजीवन सदस्यता शुल्क । १०१.००० वार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे
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________________ Regd. with the Registrar Of Newspaper ar R. No. 10591162 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन बनसन्ध-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 : संस्कृत और प्राकृत के 171 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टो मोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से पलकृत, सजिल्द / ... सम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2: अपभ्रश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पवन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित / सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। 15... समाषितमोर टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं. परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जन तो : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विजय प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / कसायपाहुबसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर थी पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे / सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों पोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1... से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज पोर कपड़े को पक्की जिल्द / ... 25.. ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री नलगावली (तीन भागों में):स०५० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग 4.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पपचन्द्र शास्त्री, सात विषयो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन 2-00 परमाध्यात्म-तरंगिणी प्रेस मे Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 मम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पाचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ BOOK-POST