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________________ बूंद बूंद रीते जैसे आँजुलि को जल है 0 ला० शान्तिलाल जैन कागजी आज जो ज्ञान उपलब्ध है उसके हिसाब से संसार मे रहा है। मैं जैन-कुल में मनुष्यगति, नीरोग-शरीरी हूंपांच सौ करोड़ मनुष्य है। इन मनुष्यों मे ५० प्रतिशत जिनवाणी का समागम भी है, कही गुरु भी मिल जाते हैं तो ऐसे हैं जिनको खाने-पीने और भोग-विलास के सिवाय और जीविका भी ठीक है। यह सब अनुकूल मिला है। कुछ पता ही नहीं है और ना ही उन्हें कोई मार्गदर्शन देने परन्तु हम क्या इससे लाभ ले रहे है -आत्महित कर रहे वाला है। ४० प्रतिशत मनुष्य ऐसे हैं जो अपनी चली आ है? अगर हम विचार करे कि हमे पह सब अनुकूल रही परिपाटी से बंधे है। १० प्रतिशत अर्थात ५० करोड़ समागम बड़े ही पुण्य से मिला है जो अति द्र बाकी रहे उनमें भी अनेक मत-मतान्तर है। अब हम हम इस समागम को ससार बढ़ाने में ही लगा रहे है। अगर इन ५० करोड़ में बंटवारा करें तो जो अपने को तो फिर मोचिए, वह कौन-सा ममय आयेगा जब हम जैन कहते हैं उन चार प्रतिशत अर्थात् दो करोड पर अपना हित कर पाएँगे? यह सच है कि समय काफी बीत बात सिमट कर रह गई। पर इन दो करोड़ जनो में भी गया है किन्तु अब भी काफी समय बाकी है अगर हम अनेक जगह बैटे है । इनमें डेढ करोड तो ऐसे है, जिनको अब भी अपनी आत्मा की ओर उन्मुख हो जावे तो बात जैन धर्म के प्रति कुछ पता ही नही-कुटुम्ब में जैन कहने बन सकती है । पहिले बताया गया है कि हमारी गिनती की परिपाटी चली आ रही है, सो अपने को जैन कहते कुछ हजारो मे तो आ गई है अब आखिरी पेपर बचा है हैं। शेष बचे पचास लाख, सो उनमें भी स्थानकपंथी, उसकी तैयारी करनी है। अगर हम आज से ही उगको मन्दिरपंथी श्वेताम्बर-दिगम्बर, तेरापंथी आदि अनेक तैयारी में लग जाएँ तो मेरा विश्वास है कि एक दिन मान्यताओं के मानने वाले मिलेगे। अब बात कुछ हजार आएगा कि हम परीक्षा में जरूर उत्तीर्ण हो जाएंगे।, बस पर आ गई। उनको भी कहाँ समय है कि वस्तु का । जरूरत है लगन की। और वह लगन कही बाहर से नही विचार करें ? कोई पूजा ही पूजा में लगा है, कोई दर्शन आएगी, हमारे ही अन्दर से मिलेगी। मात्र से ही तृप्त है, कोई गुरु-भक्ति मे लगा है, कोई बाहरी वस्तु तो पर है वह हमको प्रेरणा तो दे मन्दिर आदि बनवाने मे ही सुख मानता है, कोई समाज सकती है किन्तु परिणमन तो हमारा ही होगा अर्थात् हम सेवा में संलग्न है, कोई घर में ही फंसा है, स्त्री में, पूत्र ही कारण हैं और हम ही कार्य हैं। इस ते रह कारण में, कुटुम्बी जनों में या व्यापार आदि में लगा है या पैसा और कार्य मे न तो समय का भेद है और न ही स्थान इकट्ठा करता है, कुछ दान भी करता है, कुछ धर्म का भेद है। आत्म के कल्याण मे पर की कुछ आवश्यकता प्रचार भी करता है, कुछ ज्ञान का प्रचार भी करता है ही नही है जो कुछ भी लेना है अन्दर ही मिलेगा। और यह प्रक्रिया रोज चल रही है-जैसे प्रातः उठता है, फिर हम इधर-उधर क्यो भटके ? सजातीय या नहाता-धोता है, मन्दिर आदि जाता है और अपनी आजी- विजातीय द्रव्य हमारा कुछ हित या अहित नहीं कर विका की तलाश में निकल जाता है। उसी प्रकार जो सकता-वह तो पर है। और पर तो पर ही है उस पर कुछ धार्मिक कार्य हो रहा है वह सब रोज रोटीन जैसा दृष्टि क्यों ? दृष्टि तो अपने मे ही लगानी पड़ेगी । आत्मा हो रहा है, उसमें अपनी वस्तु जो आत्मा है उसका ध्यान के उत्थान में आत्मा के ही निर्मल परिणाम कारण पड़ेंगेकिसे, कब और कहाँ है ? अर्थात् नहीं है। समय तो बीत पर के नही। आत्मा के परिणाम आत्मा से भिन्न नहीं
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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