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________________ प्राधिक समस्याओं का हल-अपरिग्रह सचेत है, वह हिंसा, मूठ, चोरी व अब्रह्म से बच ही नहीं मानने लगता है, तभी गरीब-अमीर, छोटे-बड़ेका वर्गभेद सकता। पैदा होता है और तभी से संघर्षों का जन्म होता है। अर्थ संचय की भावना या तृष्णा के कारण समाज में हड़तालें, तालाबन्दियां, तोड़-फोड़ आदि सब इसी के परिमत्स्य-न्याय प्रचलित हो जाता है अर्थात् जो शक्तिशाली णाम हैं। अतः समाज में आर्थिक शोषण की समाप्ति, होता है वह दूसरे का शोषण करने लगता है । फलस्वरूप अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति, समत्व की खींचतान व छीना-झपटी चलने लगती है और शुरू हो स्थापना तथा समाज को समान रूप से सुखी, समृड और जाता है संघर्ष, विविध अत्याचार व अन्याय, आर्थिक सुगठित करने के लिए बाह्य भौतिक पदार्थों का आवश्यशोषण आदि । जैसे हिंसा में प्राणों की हानि होती है, वैसे कता से अधिक संचय करने पर नियन्त्रण-नियमन आवश्यक ही आर्थिक शोषण में भी हिंसा होती है अतः आर्थिक व अनिवार्य है। शोषण भी हिंसा है। हिंसा मे तो व्यक्ति मर जाता है किन्तु शोषित होने पर या धन के हरण हो जाने पर २. अन्तरंग परिग्रह -- क्रोध, मान, माया, लोभ मनुष्य जीवित रहते हुए भी मरण के समान होता है। तथा हास्यादि नौ कषाय और एक मिथ्यात्व आदि भावधन-सम्पत्ति के एकत्रीकरण के लिए व्यक्ति न केवल बेई. नाये व्यक्ति के अन्तरंग परिग्रह हैं।' अकिंचन होने पर मानी करते है बल्कि चोरी का सहारा भी लेते है। धन । भी यदि व्यक्ति या समाज की संचयशील बुद्धि बनी रहे के मद में आकर वह अब्रह्म का भी सेवन करने लगता तो न तो आर्थिक शोषश रुकेगा और न ही आर्थिक सामाहै। इस तरह पांचों प्रकार के पापो में रत रहता है। जिक विषमता दूर होगी, अत: व्यक्ति को अपने आंतरिक स्पष्ट है कि परिग्रह अर्थात् अनावश्यक संचय पाप है, धिकारों पर स्वयं ही नियन्त्रण पाना होगा। परिग्रह हो अपराध है और एक सामाजिक अन्याय है। इससे दूसरों या न हो, किन्तु यदि अनावश्यक संचयशील बुद्धि न हो क आधिकारिक वितरण का अपहरण होता है। आव तो सामाजिक क्षितिज पर कोई प्रभाव नही होगा और न श्यकता पूर्ति के लिए वस्तुयें उपलब्ध नहीं होने के कारण ही कोई समस्यायें पैदा होंगी। आत्महित की बुद्धि रखने दूसरों की कार्यक्षमता का ह्रास होता है। जिससे राष्ट्रीय वाला पारिवारिक भरण-पोषण के लिए आवश्यक व उत्पादन में कमी आती है। इस प्रकार सामाजिक व पर्याप्त तो धनादि का संयम करेगा किन्तु अनावश्यक राष्ट्रीय हित प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं । आवश्य संयम कभी नहीं करेगा, फलस्वरूप आर्थिक शोषण नही कता से अधिक वस्तुओं का संग्रह आवश्यक रूप से दूसरो होगा और समाज में आर्थिक समानता सुस्थापित होगी। के हिस्से का अपहरण है, अनाजित आय है और विवध पूंजीवाद का मूल यह मूछ भाव है जिस पर नियन्त्रण आर्थिकी समस्याओ का मूल है। प्रावश्यक है अन्यथा पूंजीवाद.के समस्त दोष उत्पन्न हो परिग्रह दो प्रकार का है बाह्य परिग्रह एवं अतरंग जायेंगे। परिग्रह। समस्याजनक तरीके-प्रायः व्यक्ति दूसरो से १. बाह्य परिग्रह-इसमे भूमि, मकान, स्वर्ण, अधिक धनी बनने का स्वप्न देखते हैं और इसके लिए वह रजत, धन-धान्य आदि अचेतन तथा नौकर-चाकर, पशु,स्त्री कोई भी तरीका अपनाने के लिए तत्पर रहते हैं। जैसे आदि सचेतन पदार्थ शामिल किये जाते है। इनके संयम कुछ तरीके निम्न हैंके लिए व्यक्ति अवैधानिक तरीको का उपयोग करता है १. प्रत्यक्ष व परोक्ष कर आदि पार्वजनिक राजस्व जिससे ममाज में भ्रष्टाचार ब अनैतिकता बढ़ जाती है एवं किसी व्यक्ति की धन-सम्पत्ति आदि को चोरी करना, और समाज के निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों के आ..क चोरी करने को प्रेरणा देना या दिलाना, चोरी के उपाव शोषण के असह्य कष्टो में वृद्धि हो जाती है। जब व्यक्ति बताना या चोरी करने वाले व्यक्ति के कार्यों से सहमति इन्हें अपनी आश्यकता पूर्ति का साधन मानकर साध्य प्रकट करना आदि ।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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