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वर्ष ४२ किरण ४
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प्रोम् अर्हम्
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर- निर्वाण संवत् २५१६, वि० सं० २०४६
शान्तिनाथ - जिन - स्तवन
जयति जगदधीशः शान्तिनाथो यदीयं, स्मृतिमपि हि जमानां पापतापोपशान्त्यं ।
विबुधकुल किरीटप्रस्फुरन्नीलरत्न - द्युतिचलमधुपाली चुम्बित पादपद्मम् ||५|| स जयति जिनदेवः सर्वविद्विश्वनाथो, वितथवचनहेतु क्रोधलोमावि मुक्तः ।
शिवपुरपथपान्थप्राणिपाथेयमुच्चेजनित परमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि ॥ ६ ॥
अक्टूबर-दिसम्बर १६८६
अर्थ -- देवसमूह के मुकुटों में प्रकाशमान नील रत्नों की कांति जैसी चंचल भ्रमरों की पंक्ति से चुम्बित जिनेन्द्र शान्तिनाथ के चरणकमल, स्मरण करने मात्र से ही लोगों के पापरूप संताप को दूर करते हैं, ऐसे लोक के अधिनायक भगवान शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवे । जो जिन भगवान असत्यभाषण के कारणीभूत क्रोध एवं लोभ आदि से रहित हैं तथा जिन्होंने मुक्तिपुरी के मार्ग में चलते हुए पथिकजनों के लिए, पाथेय ( कलेवा ) स्वरूप एवं उत्तम सुख को उत्पन्न करने वाले धर्म का उपदेश दिया है, वह समस्त पदार्थो के जानने वाले तीन लोक के अधिपति जिनदेव जयवन्त होवें ।