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________________ गिरिनगर को चन्द्रगुफा में होनाक्षरी पोर घनाक्षरी का क्या रहस्य था? भेव बंध से, तथा तीसरे, चौथे और पांचवें अनुयोगद्वार को मिलता है। अंत में यह केशववर्णी की "गोम्मटसार की से पांचवां वर्गणाखंड निकला है। बन्धन अनुयोगद्वार के कर्णाटक वृत्ति" तथा मुनि नेमिचंद्र की गोम्मटसार की तीसरे बन्धक भेद से दूसरा खंड खट्टाबंध निकला है। सस्कृत टीका एव पडिन टोडरमल की गोम्मटसार एवं इसी अनुयोगद्वार के बंध विधायक नामक चौथे भेद से लब्धिसार की सम्यकज्ञान चद्रिका टीका के अर्थ सदष्टि महाबध नाम का छठा खण्ड निकला है। इसी प्रकार अधिकारों में दिखाई देता है। यहां बीजो ग्रादि के मध्य बन्धन नाम छठे अनुयोगद्वार के बंध विधान नामक चौथे अथवा परिकर्माष्टक करण (गणित) के नियमों से गंथी भेद से बन्ध स्वामित्व विचय नामका तीसरा खड और भाषा है। सूत्रबद्ध प्ररूपण मे व्याकरण के नियमों से गुंथी जीवस्थान नामक प्रथमखंड के अनेक अनुयोगद्वार निकले है। भाषा है जो घनाक्षरी कहलाई जा सकती है। अत: महाकर्मप्रकृति प्राभूत के चौबीस अनुयोग द्वारो यदि इन हीनाक्षरी का दूसरा अर्थ निकालें तो यह हो मे से भिन्न-भिन्न अनुयोग द्वार एव उनके अनन्तर अधि- सकता है, "अक्षरों के हीन अर्थ वाली"। यह भी ऐसी कारों से षट्खण्डागम के विभिन्न अगों की उत्पत्ति हई भाषा हो सकती है जिसमे अक्षरों से जो शब्द बनाये जाते हैं । इसका नाप खण्ड आगम पड़ा जिसमे छः खड क्रमश: हों उनका अर्थ बोध थोड़ा होता हो । इस प्रकार घनाक्षरी जीव स्थान, खुद्दान्ध, बंध स्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा का दूसरा अर्थ निकालें तो यह हो सकता है, "अक्षरों के और महाबंध है। घन अर्थ वाली"। यह भी एक ऐसी भाषा हो सकती है होनाक्षरी और घनाक्षरी का रहस्य जिसमे अक्षरो से जो भी वस्तु इगित य) अभिप्रेत होती यह सर्व विशाल रचना, उसकी विभिन्न टीकाये और हो उनका अर्थ वोध धन या अधिक या गभीर होता हो। उनके सार ग्रन्थो को टीकायें क्या इगित करती है। ऐसी दशा में प्रथम भाषा व्याकरण के नियम से बधी होगी इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है। केशववर्णीकृत और दूसरी भाषाकरण या परिकर्म के नियम से बधी होगी। "गोम्मटसार की कर्णाटक वृति' पर विशेष ध्यान देना इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दो प्ररूपण-व्याकरणीय है। उसके पूर्व संत कम्म पंजिया तिलोयपण्णत्ती, धवला. तथा करणीय, दो विद्याओ के रूप मे दिगम्बर जैन आगम टीका आदि पर भी विशेष अध्ययन आवश्यक है। मे हमें उन टोकाओ मे दिखाई देते है जो उपलब्ध है। ___ यदि यह मानकर हम चलें कि हीनाक्षरी और घना- एक व्याकरण विज्ञान की भाषा है तो दूसरी करण (गणित) क्षरी मत्र विद्याये मात्र हीनाक्षरी एव घनाक्षरी ऐसी दो या परिकर्म विज्ञान की भाषा है। कथानक मे दो विद्याओं विद्याये थी जिनका उपयोग उन्हें आगम अंश को अव- की सिद्धि को एक देवी रूप दिया गया है किन्तु उनका तरित करने में करना था तो क्या प्रयोजन निकलता है? कोई प्रयोजन होने की बात नही कही गई है। यह भी हीनाक्षरी का अर्थ हीन अक्षर वाली और घनाक्षरी का स्पष्ट है कि जो भी उक्त आगम को निबद्ध सूत्रों में, श्लोक अर्थ घन या अधिक अक्षर वाली निकाला जाता है। यदि आदि में करना, उसे इन विद्याओ मे पारगत होना चाहिए हीन अक्षर वाली कोई विद्या है तो उसका क्या उद्गम था। कारण कि इस महाकर्म प्रकृति प्रामृत विज्ञान मे वही होगा और क्या प्रयोजन हो सकता है, तथा उसका क्या दस माना जा सकता था जिसे न केवल व्याकरण का ज्ञान रूप हो सकता है ? यह प्रश्न सहज ही उठता है। क्या हो वरन् माथ ही करण या परिकर्म (गणित) का ज्ञान हो । षट्खंडागम की रचना में ऐसा कोई प्रयोग दिखाई देता है? इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्याकरणकी ओर ध्यान न महाबध मे अवश्य ही अनेक स्थानों पर अधूरे वाक्यांशो देने वाला सही अर्थ उस प्रथम भाषा का नहीं निकाल के आगे शून्य दिखाई देता है। तिलोयपण्णत्ती मे कई सकता है, तथा करण की ओर ध्यान न देने वाले सही अर्थ स्थानों पर हीन अक्षर युक्त प्रयोजन इस रूप में दिखाई उस द्वितीय भाषा का नहीं निकाल सकता है। इस प्रकार देता है कि स्थान-स्थान पर अंकगणितीय एवं बीज तथा किसी एक के प्रति भी असावधान, यथार्थ अर्थ तक नही रेखा गणितीय प्ररूपण साथ साथ चलता है । ऐसा थोड़ा पहुंच सकता है। वह अशुद्धियो के झमेले में पड़ सकता है। बहुत प्ररूपण संतकम्म पञ्जिया तथा धवल टीका में देखने सूत्र निबद्ध करना तो बहुत दूर की बात है।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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