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________________ १४ वर्ष ४२० १ श्रद्धायुक्त दो विद्वान साधुओं को इस महान्तम कार्य के लिए निर्वाचित किया। दो मुनि और दो विद्यायें इस कार्य को सम्पन्न करने में लगी होंगी ।' अनेकान्त 2 जब ये मुनि युगल पुरुषवंत और भूतबलि जो इस नाम से बाद में प्रसिद्ध हुये, अविलम्ब गिरनार की चद्र गुफा की ओर प्रस्थित हुए है। उधर पहुंचने को हुए तब उसी पूर्व रात्रि मे आचार्य धरणे ने स्वप्न देखे स्वप्न में भी दो धवल एव विनम्र बैल आकर उनके चरणों में प्रणाम कर रहे थे स्वप्न देखते ही आचार्य श्री की निशा भंग हुई और 'जय सुददेवता'" देवता जयवन्त हो" कहते हुए उठे। उसी दिन ही उक्त दोनो साधु आचार्य श्री घरसेन के पास पहुचे । अति हर्षित हो उनकी चरण-वन्दनादिक कृति कर्म कर उन्होने दो दिन का विधान किया। तीसरे दिन उन्होने अपना प्रयोजन आचार्यश्री के सम्मुख प्रस्तुत किया। आचार्य श्री भी उनके वचन सुनकर प्रसन्न हुए और "तुम्हारा कल्याण हो" ऐसा आशीर्वाद दिया। आचार्य श्री के मन में विचार आया होगा कि पहिले इन दोनो नवागत साधुओ की परीक्षा करनी चाहिए कि वे श्रुत ग्रहण और धारण करने आदि के योग्य भी है या नही क्योंकि स्वच्छन्द बिहारी व्यक्तियो को विद्या पढ़ाना ससार और भय को बढ़ाने वाला होता है। यह विचार कर उन्होने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया । तदनुसार आचार्य श्री धरसेन ने उक्त दोनो साधुओं को दो मंत्र विद्यायें साधन करने के लिये दी। उसमे से एक मन्त्र विद्या हीन अक्षर वाली थी और दूसरी अधिक अक्षर वाली । दोनों को एक-एक मन्त्र विद्या देकर उन्होने कहा कि इन्हें तुम लोग पष्ठोपवास (दो दिन के उपवास) से सिद्ध करो।' दोनों साधु गुरु से मन्त्र विद्या लेकर भगवान् नेमिनाथ के निर्वाण होने वाले शिला पर बैठकर मन्त्र साधने लगे। मन्त्र साधना करते हुए जब उनको वे विचाएं सिद्ध हुयी, तो उन्होने दिया की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एकदेवी के दांत बाहिर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है।' देवियों के ऐसे विकृत अंग देखकर उन दोनो साधुओं ने विचार किया कि देवताओ के तो विकृत अग होते नही हैं। अतः अदृश्य ही मंत्र मे कही कुछ अशुद्धि होना चाहिए। इस प्रकार उन दोनों ने विचार कर मंत्र सबन्धी व्याकरण (वि + आकरण ) शास्त्र मे कुशल उन्होने अपने अपने मंत्रों को शुद्ध किया और जिसके मंत्र मे अधिक अक्षर थे उसे निकाल कर । तथा जिसके मंत्र में अक्षर कम थे। उसे मिलाकर उन्होने पुनः अपने-अपने मंत्रों को सिद्ध करना प्रारम्भ किया । तब दोनों विद्यादेवियाँ अपने स्वाभाविक सुन्दर रूप मे प्रकट हुई। वे बोली, "स्वामिन आज्ञा दीजिये, हम क्या करे। तब इन दोनो साधुओ ने कहा, आप लोगों से हमे कोई ऐहिक या पारलौकिक प्रयोजन नहीं है। हमने तो गुरु की आज्ञा से यह मंत्र साधना की है। यह सुनकर वे देवियाँ अपन स्थान को चली गयी। मत्र साधना से प्रसन्न होकर वे आ. धरसेन के पास पहुचे और उनकी पाद वन्दना करके विद्या-सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृतांत निवेदन किया । आचार्य धरसेन अपने अभिप्राय की सिद्धि और समागत साधुओ की योग्यता देखकर बहुत प्रसन्न हुए, 'बहुत अच्छा' कहकर उन्होंने शुभतिथि शुभनक्षत्र और शुभ वार में प्रथ का पढ़ाना प्रारम्भ किया। इस प्रकार क्रम से व्याख्यान करते हुए आ. घरसेन ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वाह्न काल मे प्रथ समाप्त किया। विनयपूर्वक इन दोनों साधुओ गुरु से ग्रथ का अध्ययन सम्पन्न किया है, यह जानकर भूतजातिके व्यन्तर देवों ने उन दोनो मे से एक की पुष्पावली से शखतुर्य आदि वाढों को बजाते हुये पूजा की। उसे देखकर घरसेनाचार्य ने उनका नाम 'भूतबलि' रखा। तथा दूसरे साधुकी अस्त-व्यस्त स्थित दंत पंक्ति को उखाड़ कर समीकृत करके उनकी भी भूतों ने बड़े समारोह से पूजा की यह देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम 'पुष्पदन्त' रखा। अब हम उपर्युक्त कथानक को वैज्ञानिक परिदृष्टि से विश्लेषण करना चाह सकते हैं। द्वादशांग श्रुत के १२वें दृष्टिवाद अग के पाप भेद है, उनमें भेद पूर्वगत के चौदह भेद है। उन भेदो मे से दूसरा भेद अग्रणीय पूर्वं है जिसमे १४ वस्तुये हैं जिनमें पाचवी वस्तु चयनलब्धि के ० प्राभृत हैं । उनमें से चौथे कर्म प्रकृति प्राभूत के २४ अनुयोगद्वार है जिनमें से पहले और दूसरे अनुयोग द्वार से प्रस्तुत षट्ण्डागम का चौथा वेदना खट निकला है। धन नामक छठे अनुयोग द्वार से चार भेदों में से प्रथम
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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