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________________ गिरिनगर को चन्द्रगुफा में होनाक्षरी और घनाक्षरी का क्या रहस्य था ? 0 प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्र जैन षट्खण्डागम ग्रंथों और उनकी धवला टीका ग्रन्थों का विख्यात कहा है। प्राचार्य धरसेन इन्ही के शिष्य थे। प्रकाश प्रायः पचास वर्षों पूर्व फैलना प्रारम्भ हुआ । उनको पट्टावलियों में आचार्य माधन्दि के पश्चात आचार्य जिनचंद्र अवतरण कथा पढ़ी और सुनी गई किन्तु एक सारभूत और उनके शिष्य के रूप में प्राचार्य पद्मनन्दि कन्दकन्द रहस्य हीनाक्षरी और घनाक्षरी पर विचार विमर्श का का उल्लेख किया जाता है। श्री धरसेनाचार्य अत्यंत अवसर नहीं पा सका। भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को विद्यानुरागी थे, जिनवाणी की सेवामे उनका अपित जीवन उनके प्रथम शिष्य गोतम गणधर द्वारा गुंथा गया, द्वादशांग अंत तक एकाकी रहा। वे अन्य व्यामोहों से दूर रह वाणी का यह रूप आचार्य परम्परा से क्रमशः हीन होता जिनवाणी की अवशिष्ट धरोहर को हृदय में संजोये रहे हआ धरसेन माचार्य तक आया। उन्होंने महाकर्म प्रकृति- और अंतिम दिनों उक्त आगम ज्ञान को लिपिबद्ध कराकर प्राभत पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को किस प्रकार सुरक्षित करा लेने में समर्थ सिद्ध हये। उन्होने सदर पढ़ाया इसका एक कथानक है। उसकी पृष्ठभूमि में यह गिरनार की गफाओ को अपनी साधना स्थली बनाया था भी तथ्य है कि षटखण्डागम ग्रन्थों पर आचार्य कुन्दकु.द, और अवशेष जिनागम की संपूर्ण सुरक्षा का ध्येय उन्होने समन्तभद्र, शागकन्द, तुम्बुलूर एवं बप्पदेव ने जो टीकायें बना लिया था। स्वाभाविक है कि उनकी यह प्रवृत्ति देख लिखी थीं वे अब अनुपलब्ध हैं। आचार्य माधनन्दि के इतर शिष्य आचार्य जिनचन्द्र ने आचार्यों को पवित्र परम्परा में भगवान महावीर के पट्टामीन होकर अपने शिष्य कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा अपनी ६१४ वर्ष पश्चात आचार्य माघनन्दि के शिष्य आचार्य सघनायक परम्परा को निरंतर अनवरत रखने का उपक्रम धरसेन पट्टासीन हुए थे । इन दोनों के कथानक प्रसिद्ध है। किया होगा। आचार्य धरसेन श्रुत के प्रति अत्यन्त विनयशील, निष्ठा- गिरि नगर को प्रकाशवान चंद्र गफावान थे तथा वे अग परम्परा के अन्तिम ज्ञाता माने अल्ल आय से रह जाने पर आचार्य धरसेन ने कुशल गये। बे बडे कशल निमित्त ज्ञानी और प्रभावशाली मत्र- निमित्त ज्ञान बल से अपना सुझाव महिमा नगरी में हो ज्ञाता आचार्य थे । आचार्यपद ग्रहण करने के चौदह वर्ष पूर्व रहे दिगम्बर साधुओ के विशाल सम्मेलन को प्रेषित किया ही उन्होने "योनि प्राभूत" नामक मत्र शास्त्र सबन्धी एक होगा। संभवतः प्रत्येक पाचवे वर्ष 'युग प्रतिक्रमण' के अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना कर ली थी। कहा जाता रूप में होने वाला यह सम्मेलन उस वर्ष महिमा नगरी में है कि उन्हें मत्र शास्त्र का यह ज्ञान कूष्माण्डिनी महादेवी अपने उस सन्देश को प्रोज्ज्वलित न कर होनाक्षरी और से प्राप्त हुआ था। यह प्रथ ८०० श्लोक प्रमाण प्राकृत घनाक्षरी विद्याओं द्वारा उक्त अवशिष्ट आगमाश को गाथाओं में अब अनुपलब्ध है पर इसका उल्लेख धवला मे सुरक्षित रखने के अभिप्राय को समझ गया होगा। उन्होंने प्राप्य है।' आचार्य श्री धरसेन के संदेश को पूरा सम्मान दिया, उन्हें आचार्य अर्हद्बलि के प्रमुख शिष्य माधनन्दि बहुत भक्ति पूर्वक स्मरण किया, उनके आलेख को गुरु आज्ञा के महान श्रुतज्ञ थे। जब दीप पण्णत्ति के कर्ता आचार्य पप- समान स्वीकार किया। तदनुसार उक्त मुनि समुदाय ने नन्दि ने उन्हें रागद्वेष एवं मोह से रहित, श्रुतसागर के अपने मध्य अत्यन्त शील श, कु० जाति से शुद्ध, सकल पारगामी, मतिप्रगल्भ, तप और सयम से सम्पन्न तथा कलाओ मे पारंगत, क्षमतावान, धैर्यवान, विनम्र, अटल
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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