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तीर्थकर ऋषभ स्मृति पर विशेष :
निर्माणोत्सव : समय की पुकार
1. पद्मचन्द्र शास्त्री संपावक 'अनकान्त'
वृषभ-ऋषभ उत्तम को कहते है और जैनियो में इस स्तियों और निर्वाणोंके मनाने मात्रसे कुछ हाथ नहीं आयेगा। युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भी उत्तम थे। उनका मनाना है तो साथ में स्वयं के निर्माण उत्सवो को मनाएँनिर्वाण हुए कितना काल बीत चुका यह किसी को मालुम अपना निर्माण करें--आचार-विचार सुधारें। नही और न कोई मनीषी ही इसकी गणना कर सका । फिर हम देख रहे है कि आज जैन की हर शाखा भी लोग निर्वाण की स्मृति ढोये और उनका निर्वाणोत्सव वाले गतानुगतिक भेड़चाली से हो रहे है। सभी मनाते चले जा रहे है । भला, निर्वाण-अन्त, का उत्सव सम्प्रदायो के सभी वर्गों मे श्रावक तो श्रावक, साधुगण क्यों और कैसे ? जो बीत चुका, चला गया उसको जय भी आचार-विचार से हट कर पैसे और दिखावे की चपेट वोलना लकीर को पीटना ही है-निष्फल । उत्सव तो में आ गये हैं। सभी वर्गों में भीषण काण्ड हो रहे है निर्माण में और निर्माण का ही सार्थक है, जिसमे कुछ और कोई उन्हें वर्जन में समर्थ नहीं है। इधर लोग बने या बन सके, प्रगति हो सके । सो लोग अपना निर्माण अहिंसा की बात करते है और हिंसा के मूल परिग्रह तो करते नहीं--ऋषभवत् आचार-विचार तो बनाते को आत्मसात् किये जा रहे है । हर एक शाखा ने स्वनही, कोरे निर्वाण की जय बोले चले जा रहे है जैसे वे उपकार को छोड के बल परोपकार करने को धेय बना अजान हों या विकृत परम्पराओं द्वारा अजान कर रखा है यह बड़ी भारी कमजोरी है। दिये गये हों। ऐसे ही कुछ लोग है जो जन्म-जयन्तियों की आज का जैन नामधारी प्राणी सर्वानुमत मान्य परम्पराओ को ढो रहे है। गोया, उन्हे दो ही बाते याद नाओं (जो जैनी मे भी हैं) को पोषण दे रहा है। रह गई हैं जन्म और अन्त की-- जयन्ती और निर्वाण पर. मल जैन मान्यता अपरिग्रह (जिसके होने पर शेष की।
सभी धर्म स्वय पन जाते है) को भूल चुका है। स्मरण स्मरण रहे कि जैन मान्यता मे उत्पाद-व्यय के साथ रहे जिनका आप निर्वाण मनाते है उन्होने भी पहिले द्रव्य का एक तीसरा स्वभाव भी है-धौव्य । जिसे जैनी परिग्रह त्याग कर अपना निर्माण किया। इस निर्माण भूला बैठे है। वे जन्म-मरण की बात करते है वस्तु का अवस्था में उनका साधु रूप था-उस साघुत्व की प्राप्ति जो थिर स्वभाव ध्रौव्यरूप धर्म है और जिससे ध्रौव्य- का प्रयत्न करना चाहिए। आज तो आपका साधु भी आत्म स्वरूप तक पहुंचा जा सकता है-उस धर्म सेवन विचलित है ! और नहीं, तो उसके शुद्ध रूप का ही को भल बैठे हैं। जब तक मानव स्व-जीवन में पन निमा । निर्माण करने के मार्ग पर नही चलेगा, तब तक वह तीर्थंकर ऋषभदेव के बारे मे हम क्या कहे वे महान अनगिनत जयन्तियो और निर्वाणोत्सवो के मनाने के बाद और महानतम थे। इस यग के वे आदि पुरुष थे, उन्होने भी गिरता ही जायगा। क्योकि जन्म-मरण वस्तु की धर्म का प्रकाश किया। यदि वे न होते तो आज जैनी पर्याएँ हैं जो अथिर है और अथिर के सहारे वढने की बात
का बात भी न होते । उनके बनलाये मार्ग से आत्मोत्थान की दिशा
की भी अथिर है। भला, जो स्वय अथिर है वह किसी को का वोध होता है और मार्ग पर चलने से सिद्ध-पद की थिर कैसे बनायेगा। अत: इन अथिर उत्सवो अर्थात् जय
(शेष पृ० ३२ पर)