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________________ जरा-सोचिए अपनी अनुभूति-अनुभव से प्रकाशित होता है ऐसा कहा। २. साप बनना टेढ़ी खीर है: और आज आत्मा को प्राप्त करने का मार्ग पर-परिग्रह मे लीन रहकर, उसके सहारे खोजा जा रहा है। प्रचार भव-सुधार के लिए वेष धारण करने की अपेक्षा मोह को कृश करने की प्रथम आवश्यकता है--सब बन्धनों की भी परिग्रह के बल पर किया जा रहा है-कही जल्से जड़ मोह है इसीलिए स्वामी समन्तभद्र ने कहा हैकरके और कही साहित्य छपबाकर । किसी का भी ध्यान "गृहस्थोमोक्षमार्गस्यो निर्मोही नैवमोहबान्। अनंगारो स्वानुभूति के माग--पर-निवृत्ति पर गया हो तो देखे, गृहीश्रेयान् निर्मोही मोहिने मुन ॥"-निर्मोही गृहस्थ किसी आत्मचर्चा वालो मे कोई मुनि बना हो तो देखें। मोही साधु से श्रेष्ठ है। आचार्य कन्दकन्द ने ही क्यो? अन्य सभी आचार्यों ने ऐसा सर्वथा ही नहीं है कि वर्तमान माधु उक्त तथ्य भी 'चारित्त खलु धम्मो' की पुष्टि की है और सभी ने को न समझते हो -वे समझते भी है पर, कई की मजबरी स्वय तप आचरण किया-चारित्र की सम्पुष्टि के लिए ये है कि वे इस तथ्य को तब समझ पाये, जब वे मुनिपरिग्रह का त्याग किया है। व भला नाति समझ चुके दीक्षा ले चुके । और ऐसा तब हुआ जब उन्हे मान-पद थे कि जब तक पर से निवृत्ति नहीं ली जायगी तब तक जैसी कठोर परीषहो से गुजरना पडा। और ठीक भी स्वानुभति करने की बात व्यर्थ है। है कठोर परीषहो का सहना कोई खाला जी का घर तो नही, बड़ी दिलेरी और हिम्मत का काम है। पर. क्या काफी असे पूर्व आत्मज्ञान-समयसार वाचन का करे जिनमत मे व्रत लेकर छोड़ देने का विधान भी नहीं मार्ग हमारे समक्ष आया यह हमारा पुण्योदय था। तब है। वहा तो साँप-छछंदर जैसी गति बन बैठती है, जिसे लाग प्राय. बाह्य क्रिया-काण्ड मात्र म धर्म समझे ३५--- न निगले ही बनता है और न उगलत बनता है--बेचारे एकागी थे और अब कियाकाण्ड से हट केवल आत्मार्थी वीच में लटके रहते ,-'त्रिशकु' न श्रावक ओर रहकर एकांगी हा गये है। शायद आज के मुनि २८ मूल न मुनि । ऐसे व्यक्ति वेष से मुनि और आचरण से गणों के पालन को भी क्रियाकाण्ड मान बैठे है-जो उनके श्रावक जैसा परिग्रहो जीवन यापन करने लगते है या पालन से विमुख है। पर, स्मरण रखना चाहिए कि जैन , उममे भो कम। धर्म में सम्यग्दर्शन;ज्ञान और चारित्र इन तीनो की एकरूपता को स्थान दिया गया हे अकेले एक या दो को अपूर्ण आपको ये जो मन्दिर में दिखने वाले श्रावक है, उनमे माना गया है। फलत.-कोरी आत्मा-आत्मा की रटन कई ऐसे दिख मकते है जो सरल-वभावी, मद-पारणामी और माथ मे परिग्रह सचय की भरमार व्यर्थ है। और श्रावक की दैनिक क्रिया में जागरूक हो और ऐसे मुनि भी जहा कही भी दिख सकते है जो मन से भी स्मरण रहे कि ऐसी थोथी बातो से न तो आत्मा परिग्रह के चारो ओर चक्कर लगा रहे हो। ऐसी बात मिलेगी और न ही सम्यग्दर्शन मिलेगा-इनकी प्राप्ति नही कि सभी श्रावक और सभा मुनि शिथिलाचारी होंतो पर-परिग्रह की निवृत्ति और वैराग्य भाव से ही होती कुछ मुनि कर्तव्य के प्रति जागरूक भी होंगे। पर, वर्त. है। तथा वैराग्य भाव दृश्य और अनुभूत नश्वर सामग्री मान के वातावरण को देखते हुए अधिकांशतः दोनों ही के स्वरूप चिन्तन से होता है। फलत:-पहिले बाह्य से वर्गों मे शिथिलाचार अधिक दृष्टिगोचर हो रहा है। निवृत्ति लेनी चाहिए, चारित्र धारण करना चाहिए, परि- हमारे साधुओ के शिथिलाचार मे श्रावको का भी बड़ा ग्रह को कृश करना चाहिए तब आत्मचर्चा की सार्थकता हाथ है। कुछ श्रावक निज स्वार्थ पूर्तियो के लिए भी होगी। परिग्रह से तो आत्मा का घात ही होता है- माधुओं को घेरते है-कही मन्दिर, कही तीर्थों के चन्दों अहिंसा के पुजारी इसकी रक्षा करे। के लिये भी साधूओ का उपयोग किया जाता है : आदि ।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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