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________________ २२. वर्ष ४२, कि०१ अनेकान्त का समागम इस आत्मा के साथ है उनको यह जीव अपनी रण करके साधारण जनता के सामने उपस्थित करें तो इच्छा के अनुकूल परिणमाना चाहता है। और जब कभी अवश्य ही सभी का लाभ होगा। वे पदार्थ इसकी इच्छा के अनुसार परणमते है तब यह हर्ष को प्राप्त होता है और जब इसकी इच्छा के विपरीत कहने का तात्पर्य यह है कि पर पदार्थों के संचय परिणमन करते है तब विषाद को प्राप्त होता है यह इस तया पंच इंद्रियो के विषय भोगने की जो इच्छायें उत्पन्न जीव की विकारी परिणति है जो आगामी कर्मों के बन्ध का होती है । उनके अनुसार प्रवृत्ति करने से ससार परिभ्रमण कारण होती है और वह बध ससार भ्रमण का कारण है। होता और ससार दुःख रूप है। कुछ लोग ऐसा भी कहते इसलिए कर्म के उदय के विकार को विकारी भाव जान- है कि लक्ष्मी तो पुण्य से आती है उसमे हमारा क्या दोष कर उसके अनुसार होने वाली परिणति को रोकना उसके लिए जरा विवारिये कि हमारा दोष है या नहीं चाहिए । यही ससार के दुखो से छूटने का परम उपाय है हाँ, इतना अवश्य है कि बिना पुण्य के कितना भी प्रयत्न इसलिए इन विचारो को भी रोक कर मात्र ज्ञायक रूप करो लक्ष्मी नहीं आवेगी। उसी प्रकार यदि हम लक्ष्मी के रहना चाहिए। संचय रूप पापारम्स मे उपयोग को नहीं लगावेगे तब भी पुण्य का उदय होने पर भी लक्ष्मी का संचय नहीं होगा और आगम मे ऐसा कहा है कि अपने उपयोग को बार- अपने उपयोग को अपने आत्म चिंतन मे लगावगे तो न किसी बार अपने ज्ञायक भाव म लगाने से जब मोह क्षय हो प्रकार की इच्छा होगी और न किसी विषयो के भोगने जाता है तब उपयोग अपने स्वरूप मे स्थिर हो जाता है। की प्रवृत्ति होगी तब हम कर्म बध से बचे रहेंगे इसलिये यही उपाय कुन्दकुन्द आचार्य महाराज ने अपने समयसार, हमारा यही कर्तव्य है कि हम अपने उपयोग को अपने प्रवचनसार आदि ग्रन्थो मे दर्शाया है । आज कल कुन्दकुन्द स्वरूप के विचार में लगाने का प्रयत्न करते रहें यही आचार्य का द्विसहस्राब्दि समारोह मनाया जा रहा है सुखी होने का सच्चा उपाय है। जिसमे कुन्दकुन्द स्वामी के जन्म की तिथि की खोज की गई है तथा गुणो की प्रशसा भी की गई है परन्तु जिस कुछ लोग ऐसा भी मानते है कि मिथ्यात्व अविरति चारित्र को स्वय धारण कर साधारण जनता के समक्ष आदि कर्म बंध के कारण नहीं है, मिथ्या आचरण बंध आचार्य महाराज ने प्रस्तुत किया था यदि वैसा आचरण का कारण है। यहाँ जानना चाहिए कि मिथ्यात्व आदि करके और उस आचरण के करने का उपाय जनता के के उदय के बिना तद्रूप आचरण हो ही नहीं सकता। सामने रखा जाय तो यह समारोह मनाना सार्थक होगा। यदि कर्म के उदय के बिना मिथ्या आचरण मानेंगे तो केवल आचार्य महाराज के गुण गाने मात्र से हमारा सिद्ध अवस्था मे जहा कमों का सर्वथा अभाव हो गया आत्मीक कोई लाभ न होगा। उनमें तो वे गुण है ही। वहा भी बन्ध मानना पड़ेगा जो आगम प्रतिकूल है। जैसे भूख के लगने पर बढ़िया भोजन बना कर उसकी इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नवीन आश्रय बंध का मात्र प्रशसा करने से तो भूख शान्त नही होती भूख तो मूल कारण मिथ्या अविरति आदि का उदय है। अतः भोजन के खाने पर ही शान्त होगी। हमारा कर्तव्य है कि हमारा कर्तव्य है कि कर्मों के उदय के अनुसार होने वाली मानो परणति को रोके। परिणत होना न होना जीव के अपनाये अर्थात उस रूप आचरण करें तो हमारा कल्याण आधीन है यही सच्चा पुरुषार्थ है और यही सुखी होने का अवश्य होगा, सुखी होने का यही सच्चा उपाय है। यदि उपाय है। इस समारोह के मनाने वाले हम इस आचरण को स्वयं XXX
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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