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________________ २८, वर्ष ४२, कि०३ अनेकान्त है और पर्याय विनाशीक । एतावता मुक्त जीव में सम्या. जाता है) आत्मा के स्वभाव नही है ? यदि स्वभाव नही दर्शनरूपी पर्याय का अभाव रहता है और वहा सम्यक्त्व है तो मोहनीय कर्म को सर्वघाती और आत्मा के सम्यक्त्व गुण शेष रह जाता है---'अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व ज्ञानदर्शन गुण का घातक क्यो कहा? और क्यो ही उसे संसारसिद्धत्वेभ्यः ।' ऐसे लोगो को 'गुण पर्यायवद् द्रव्यम्' सूत्र भ्रमण के प्रमुख कारणों में गिनाया ? क्या मोहनीय कर्म पर चितन करना चाहिए कि क्या गुण कभी पर्याय रहित आत्मा के जिनगुणो का घात करता था, उस मोहनीय भी हो सकता है ? प्राचार्यों के मत मे दो द्रव्य सदा काल कर्म के क्षय से सिद्धो में वे गुण उजागर नहीं होते ? यदि गुण-पर्याय युका होता है तथा गुण-पर्याय भी सदा समुदिन उजागर नही होत तो मोहनीय कर्म को घातक क्यो कहा, हो रहते है। ऐसी अवस्था में यदि उनके कथन के अनु- और मोक्ष के लिए उसके क्षय को अनिवार्य क्यो बतलाया? सार मुक्त जीव में सम्यग्दर्शनरूपी पर्याय का अभाव माना बड़ा आश्चर्य है कि ए' ओर तो माना जाय कि भव्यत्वजाय तो प्रश्न खडा होता है कि यदि मुक्त जीव मे सम्पर- भाव सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणत होता है (यद्यपि दर्शनरूपी पर्याय नहीं है तो वहा कौन-सी पर्याय सम्पर- यह कथन आगम-विरुद्ध है) और भव्यत्व के समाप्त होने दर्शन का स्थान ले लेती है ? क्योकि गुण के साथ पर्याय के साथ ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान चरित्र को भी समाप्त माना का होना अवश्यम्भावी है। तथा आचार्यों की दृष्टि से जाय और दूसरी ओर माना जाय कि मोहनीय के क्षय पर गुण और पर्याय सदाकाल द्रव्य के आत्मभून लक्षण है और आत्मा के सम्यक् और चारित्र गुण प्रकट होते है ! यदि द्रव्य उत्पाद-व्यय-धोव्य युक्त अर्थात् परिवर्तनशील है। भव्यत्व के साथ इनका अभाव मानना ही इष्ट था तो कहा भी है मोहनीय के क्षय का उपदेश ही क्यो दिया होता ? इससे तो ससार-दशा ही श्रेष्ठ थी, जहा कम-से कम 'अनानिधनद्रव्ये स्व-पर्यायाः प्रतिक्षणम् । औषशमिक क्षायिक या क्षायोपमिक सम्यक्त्व तो उन्मज्जात निमज्जति जलकल्लोलबजाने ।' सम्भव थे। स्मरण रहे कि मोहनीय कर्म धातिया कर्म अर्थात् जैसे जल और उसकी कल्लोलरूपी पर्याये है और वह दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय जैसे दो भिन्न है-लहरे जल से उत्पन्न होकर जल मे ही लीन भेदो मे विभक्त है, उसके क्षय होते ही आत्मा के सम्यक्त्व होती है, वैसे ही सम्यग्दर्शन- रो कथित पर्याय को भी और चारित्र गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते है । भेद इतना सम्यकत्व से पृथक् नही माना जा सका । वास्तव में तो है कि जो ससार मे भेदरूप मे अनेक कहे जाते थे, वे मुक्त सम्यक्त्व कहो या सम्यग्दर्शन कहो, दोनो एक ही है- दशा मे अभेदरूप से विद्यमान है। कहा भी है-'तत्तियमात्र नाम-भेद है। अत: जहा आचार्य ने मुक्तात्मानो मे मइयो णिओ अप्पा।'; 'ताणि पुण जाण तिण्णिवि अपाण सम्यक्त्व की घोषणा कर दो, वहा उन्होंने सम्यग्दर्शन के चेव णिच्छयदो'। समयसार गाथा ४२८ को तात्पर्यवत्ति मे अस्तित्व की रवीकृति दे ही दी, ऐसा समझना चाहिए। आगत 'सम्यकव' शब्द का अर्थ श्री आ० ज्ञानसागर जी ने जो लोग कहते है कि मोक्ष मे सम्यग्दर्शन नहीं रहता' वे 'सम्यग्दर्शन' किया है। अत: नामभेद होने पर भी दोनो भूल में है । वस्तुतः बहा रत्नत्रय अभेद रूप में है और को एक ही समझना चाहिए। तथाहि-'सम्माइट्ठी: मोक्ष-मार्ग प्रदर्शित करते हए उसे तीन भेद-रूप में कहा सम्यग्दष्टि र भदेन सम्यक्त्वं जीवगुण'-'सम्यग्दष्टि: जीव रामझा चिन्तन किया जाता है । क्योकि वस्तु के ममम्त के गुणस्वरूप सम्यग्दर्शन को।' यहां इसे जीव का गुण ही गुण और पर्यायो का युगपत् कथन और हदयगम करना कहा गया है। जब सम्यग्दर्शन जीव का स्वभाव है, तो छद्मस्थ जीव के वश की बात नहीं। मुक्त-जीव मे इसका अभाव कैसे ? प्रश्न उठता है कि क्या सम्यक्त्वादि (जिन्हे व्यवहार उमास्वामी या अन्य आचार्यों ने न तो सम्यग्दर्शनभाषा मे भेद-रूप पवहन होने से सम्यग्दर्शनादि कह दिया ज्ञान-चारित्र में सुख का अभाव बतलाया और ना ही
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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