SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ? पर शास्त्र बनता है तो लिपिरूप में बनाने को सर्वज्ञ तीर्थंकर तो आते नही, उसे तो गुरुगण ही अकित करते है । फलतः - लोगों की आम धारणा सहज ही बन बैठेगी कि शास्त्र 'गुरुवाणी' हैं । फलतः -- वे शास्त्रों को जिनबाणी के स्थान पर गुरुवाणी' प्रसिद्ध कर बैठेगे और तब योजको की (ईप्सित ? योजना 'देव-गुरु-शास्त्र' कम की सार्थकता भी कारगर हो जायेगी अर्थात् छद्मस्थ गुरुओ को शास्त्र से ऊँचा दर्जा मिल जायगा और प्रचार में आ जायगा कि गुरु बड़े और शास्त्र छोटे है और ऐसा प्रचार मूल आगम को विपरीत करने और जिन-मार्ग के अपवाद मे कारण होगा । क्या कहें, कहा तक कहे ? हमने तो यहा तक अनुभव किया है कि आज जो गुरु-देशनाएं हो रही है, और लेखन चल रहे है, उनमे कितनों मे ही तो ऐसे तत्त्व निहित हो रहे या निहित किए जा रहे है, जिनसे जिनवाणी का निश्चित ही घात हो रहा है। जैसे- एक संकलन छपा है- 'प्रवचन पारिजात' के नाम से । ओर इसके सस्करण पर संस्करण छप चुके है और इसे सभी पढ़ते और सराहते रहे है सराहना इसलिए कि यह गुरुवाणी है और आज गुरु जो कहे या करे, उसे सच माना जा रहा है। गुरुओं मे कोई-कोई तो गहित आचरण करके भी पुज रहे हैंसमय की बलिहारी है। लोगों को सोचना चाहिए कि गुरुस्थ (अल्पज्ञानी) होते है, उनकी वाणी अन्यथा भी हो सकती है; आदि । पहले एक पुस्तक मिली थी 'अकिचित्कर !' उसमे मिथ्यात्व को वन्ध के प्रति अकिंचित्कर बताया गया था, जबकि मिथ्यात्व ससार का मूल है । अब कहा जा रहा है। वह कथन स्थिति और अनुभाग बघ को लक्ष्य करके था और कुछ विद्वान् अब भी उसके पोषण मे लगे है - वे अनेकान्त सिद्धान्त की तोड़-मरोड़ में लगे है। हालांकि यह विषय जनमाधारण का नही । वह तो भ्रमित ही होगा कि जब मिध्यात्व से वध ही नहीं होता तो कुदेवीकुदेवो की खूब पूजा करो।' आखिर उनकी दृष्टि मे देवी-देवता सासारिक सुख प्रदाता तो हैं हो— जिसकी २७ लोगो को चाह है। भले ही वे परमार्थ का सुख न दिला सकें। साधारणजन 'अकिंचित्कर' के प्रभाव से 'कुदवागम लिगिनां प्रणाम विनय चैव न कुर्युः, इस समन्तभद्र के वाक्य से सहज विरक्त होगे, इसमे सदेह नहीं । हम समझते है अपेक्षाबाद से अनेको विरुद्ध-धर्म भी सिद्ध किए जा सकते है । यह वाद बड। लचीला है, इसे चाहे जिधर मोड ले जाओ -- जैसा कि आज हो रहा है । पर स्मरण रहे कि यह 'वाद' तथ्य उजागर करने हेतु प्रयुक्त होने पर सत्य-वाद है और आगमिक तथ्य को मरोड़ने पर विवाद है। जैसे कि लोग आज तोड-मरोड कर रहे हैं । श्रस्तु हो, हम कह रहे थे 'प्रवचन-पारिजात' की बात इसमे लिखा है "यदि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र मे मुख होता तो (सिद्धत्व में उनके अभाव करने की क्या आवश्यकता थी, सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए इनका अभाव परम अनिवार्य बताया है ।" पृ० २४ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मे भी आत्मा के स्वभाव नही है इनका अभाव भी अनिवार्य आवश्यक है। जहा उन्होने ( उमास्वामी ने "औपशमिकादिभव्यत्वानां च" कहा है वही उन्होने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणत, जो भव्यत्वभाव है, उस भव्यत्व पारिणामिकभाव का भी अभाव दिखाया है । सिद्धालय मे मात्र जीवत्व भाव रह जाता है 1" पृ० २० प्रसंगवश हम यहा कुछ उन अन्य विचारको के प्रति भी संकेत दे दें, जो सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन में सर्वधामंद डालकर भ्रमित हो रहे हों और उक्त कारण से वे मोक्ष मे सम्यक्त्व को तो मानते हो और सम्यग्दर्शन को नही मानते हो । इमी प्रसंग में दो शब्द कुछ लोगो का भ्रम है कि सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन दोनों भिन्न- २ है । वे कहते है कि सम्यक्त्व आत्मा का गुण है और सम्यग्दर्शन उसकी पर्याय है तथा गुण स्थायी
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy