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________________ गताक से मागे सल्लेखना अथवा समाधिमरण D० दरबारीलाल कोठिया ३. प्रायोपगमन-जिस शरीर-त्याग में इस सल्ले- कहते हैं। यह दो प्रकार की है-1. प्रकाश और २. खमा का धारी न स्वयं अपनी सहायता लेता है और न अप्रकाश । लोक में जिनका समाधिमरण विख्यात हो जाये दूसरे की, उसे प्रायोपगमन-मरण कहते हैं । इसमे शरीर वह प्रकाश है तथा जिनका विख्यात न हो वह अप्रकाश को लकड़ी की तरह छोड़कर आत्मा की ओर ही क्षपक है। का लक्ष्य रहता है और आत्मा के ध्यान में ही वह सदा २.निरुद्धतर-सर्प, अग्नि, व्याघ्र, महिष, हाथी, रत रहता है। इस सल्लेखना को साधक तभी धारण रीछ, चोर, व्यन्तर, मूळ, दुष्ट-पुरुषो आदि के द्वारा करता है, जब वह अन्तिम अवस्था मे पहुच जाता है और मरणान्तिक आपत्ति आ जाने पर आयु का अन्त जानकर उसका संहनन (शारीरिक बल और आत्मसामर्थ्य) प्रबल निकटवर्ती आचार्यादिक के समीप अपनी निन्दा, गहां होता है। करता हुआ साधु शरीर-त्याग करे तो उसे निरुद्धतरभक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना के दो भेद अविचार-भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण कहते हैं। इनमें भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना दो तरह की होती ३.परमनिरुद्ध-सर्प, व्याघ्रादि के भीषण उपद्रवो के आने पर वाणी रुक जाय, बोल न निकल सके, ऐसे (१) सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान और अविचार-भक्त- समय में मन में ही अरहन्तादि पंचपरमेष्ठियों के प्रति प्रत्याख्यान । सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान मे आराधक अपने अपनी आलोचना करता हुआ साधु-शरीर त्यागे, तो उसे संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण परमनिरुद्ध-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते है। करता है । यह सल्लेखना बहुत काल बाद मरण होने तथा शीध मरण न होने की हालत मे ग्रहण की जाती है । इग सामान्य मरण को अपेक्षा समाधिमरण की श्रेष्ठता सल्लेखना का धारी 'अहं' आदि अधिकारों के विचार- आचार्य शिवार्य ने सतरह प्रकार के मरणो का पूर्वक उत्साह सहित इसे धारण करता है। इसी से इसे उल्लेख करके उनमे विशिष्ट पांच' तरह के मरणो का सविचार-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते है। पर जिस वर्णन करते हुए तीन मरणो को प्रशंसनीय एवं श्रेष्ट बतआराधक की आयु अधिक नहीं है और शीघ्र मरण होने लाया है। वे तीन' मरगा ये है :-(१) पण्डित-पण्डितवाला है, तथा दूसरे संघ मे जाने का समय नही है और मरण, (२) पण्डितमरण और (३) बालपण्डितमरण । न शक्ति है, यह मुनि दूसरी अविचार-भक्तप्रत्याख्यान- उक्त मरणो को स्पष्ट करते हुए उन्होने लिखा है' सल्लेखना लेता है। इसके तीन भेद हैं :-(१) निरुद्ध, कि चउदहवें गूणस्थानवती प्रयोगकेवली भगवान का (२) निरुद्धतर और (३) परमनिरुद्ध । निर्वाण-गमन 'पण्डित-पण्डितमरण' है, आचाराङ्ग-शास्त्रा१. निरुद्ध-दूसरे सघ में जाने की सामर्थ्य पैरों मे नुसार चारित्र के धारक साधु-मुनियों का मरण 'पण्डितन रहे, शरीर थक जाय अथवा घातक रोग, व्याधि या मरण' है, देशव्रती धावक का मरण 'बालपण्डितमरण' है, उपसर्गादि आ जायें और अपने संघ में ही रुक जाय तो अविरत-सम्यग्दृष्टि का मरण 'बालमरण' और मिध्यादृष्टि उस हालत मे मुनि इस समाधिमरण को ग्रहण करता है। का मरण 'बालबालमरण' है । पर जो भक्ततप्रत्याख्यान इसलिए इसे निरुद्ध-अविचार-भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना इंगिनी और प्रायोपगमन- इन तीन समाधिमरणो का
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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