________________
आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी साहित्य-सृजन में दृष्टि
डा. कमलेश कुमार जैन, जैनदर्शन-प्राध्यापक
आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य के सन्दर्भ में प्रायः यह और हमें अपने ज्ञान के उथलेपन का सहसा आभास होने आम धारणा बन चुकी है कि उन्होंने जो भी साहित्य- लगता है। सृजन किया है, वह मुनियों को ध्यान में रखकर किया है, आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन समाज में केवल एक अथवा आध्यात्मिक है। किन्तु मेरे विचार से यदि विद्वानों नाचार्य के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं हैं, अपितु वे भगवान् ने उनके साहित्य के सन्दर्भ में उक्त प्रकार की धारणा कुन्दकुन्द के रूप में प्रतिष्ठित हैं । जब हम किसी महापुरुष बना ली है तो वह ऐकान्तिक ही होगी। क्योंकि आचार्य के नाम के आगे भगवान् विशेषण लगाते हैं तो हमारी यह कुन्दकुन्द के साहित्य को समग्र दृष्टि से देख पाना हम अपेक्षा होती है कि वे सर्व कल्याण की बात करें। लोक लोगों के लिए सम्भव नहीं है । उनके साहित्य पर विचार मङ्गल की बात करें। उनके द्वारा सृजित साहित्य में जन करते समय हमें आचार्य कुन्दकुन्द जैसी विस्तृत विशाल कल्याण की मङ्गल भावना समाहित हो । इस कसौटी पर दृष्टि को अपनाना होगा। हमें उनके अन्तस् में झांककर यदि हम आचार्य कुन्दकुन्द को प्रस्तुत करें तो हमे ज्ञात विचार करना होगा, तभी हम उनके साहित्य का मूल्यांकन होता है कि उनके समग्र साहित्य में महात्मा बुद्ध की तरह कर सकेंगे। अन्यथा उन कुन्दकुन्द मणियों को ऊपर से बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की भावना नहीं है, स्पर्श करके उनके चाकचिक्य आदि पर भले ही विचार अपितु उनके साहित्य में भगवान् महावीर के उपदेशो से कर लें, किन्तु उनका समग्र मूल्यांकन करना सामान्य अनुपाणित सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की लोकलोगों की बुद्धि के बाहर का विषय है।
कल्याणकारी मङ्गल भावना का पदे-पदे उद्घोष है। जब हम आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य को आध्यात्मिक जब वे अहिमा का उपदेश देते हैं तो वे सीधे-सीधे दृष्टि से देखते है तो हमें उनके साहित्य मे पदे-पदे अध्यात्म ग्रह कभी नहीं कहते कि हिंसा नही करनी चाहिए, अपितु के दर्शन होते है । जब हम तत्त्वज्ञान की दृष्टि से देखते है वे इस उपदेश मे भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए सर्वतो तत्त्वज्ञान के दर्शन होते है और इसी प्रकार जब हम प्रथम यह बतलाते हैं कि हिंसा के कौन-कौन स्थान हैं ? मुनियों के आचार-विचार की दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो मनुष्य के किन किन कार्यों से हिंसा सम्भव है आदि । और उनके साहित्य मे मुनियों के आचार-विचार के दर्शन होते अन्त में उनमे विरत होने का उपदेश देते हैं। क्योकि जब है। किन्तु ये सभी पृथक्-पृथक पहल हो सकते हैं । उनका
तक हम सम्यकरीत्या यह नहीं जान लेगे कि जीवों के एक-एक पक्ष हो सकता है, पर यह उनके साहित्य का कुल-पेद, उत्पत्ति स्थान अथवा योनि-भेद, जीवस्थान के समग्र मूल्याकन नहीं है।
भेद और मार्गणास्थान के भेद आदि कौन-कौन हैं ? तब हम लोगो के पास अपने-अपने पात्र हैं और हम लोग तक उनकी हिंसा से विरत होना सम्भव नहीं है। इन उन पात्रों की क्षमता के अनुरूप अपने-अपने पात्रो में ज्ञान- सबके भेद-प्रभेदों का विवेचन आचार्य पद्मप्रममलधारिदेव राणि संजो लेते है। वास्तविकता यह है कि जब हम उनके ने नियमसार पर लिखी गई तात्पर्यवृत्ति नामक अपनी द्वारा सृजित साहित्य की किसी एक भी गाथा को लेकर टीका मे विस्तार से किया है। उस पर चिन्तन करते हैं, मनन करते है, उसकी परीक्षा अब यहाँ दो पक्ष विचारणीय हैं । प्रथम पक्ष वह है, करते हैं तो हमारी बुद्धि की स्वयमेव परीक्षा हो जाती है जिसमे जीवो के स्थान आदि को जानकर उनसे विरत