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________________ समाज और जैन-विद्वान् ( पद्मचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त' कभी हमने एक पंक्ति दोहराई थी----'हम यू ही मर सहना पड़ा । आपने सन् १९२१ से १९२८ नक स्याद्वाद मिटेंगे तुमको खबर न होगी।' उक्त पक्ति सिद्धान्तशास्त्री विद्यालय वाराणसी मे रहकर सिद्धान्त व न्यायशास्त्र का पं० बालचन्द्र जी के हैदराबाद मे १७ अप्रैल ८६ को अध्ययन किया। पडित जी के ठोस ज्ञान के साक्षी उनके स्वर्गवास के बाद पूनः सार्थक हुई। उक्त स्थिति विद्वानो द्वारा किए गए धवलादि के अनुवाद और अनेक सम्पादन के सन्मान के प्रति समाज की उपेक्षित मनोवत्ति को प्रकट है। प्रारम्भ मे आप सन् १९२८ से १९४० तक जारखी. करने के लिए काफी है। पंडित जी चले गये और देर से- गुना, चौरासी मथुरा, उज्जैन आदि मे अध्यापन कार्य एक मास बाद समाचार पत्र ने बताया। काश, होता कोई करते रहे। सन् १९४० से धवला कार्यालय अमरावती लक्ष्मी-सग्राहक या साधारण-सा भी नेता तो खबर बिजली और फिर सोलापुर ग्रन्थमाला में संपादन आदि कार्य की भांति फैल जाती। खेद है विद्वानो के प्रति समाज की करते हे । सन् १९६६ से १९७६ तक वीर सेवा मन्दिर ऐसी मनोवृत्ति पर । दिल्ली में 'जैन लक्षणावली' आदि का सपादन और अन्य कुछ का ख्याल है कि शायद, समाजप्रमुख आदि की ग्रन्था के अनुवादादि करते रहे। पडित जी ने तिलोय. एक आवाज मात्र पर विद्वान् का किन्ही उत्सवा मे महज पण्णत्ति, धवला, जम्बूदीवपण्णत्ति सगलो, आत्मानुशासन, भाव से उपस्थित हो जाना जैसी, विद्वान की उदारता ही। पद्मनदि पंचविशतिका, लोकविभाग, पुण्याथव कथाकोश उसकी उपेक्षा में मुख्य कारण हो । विद्वान् को एक पत्र । आदि के अनुवादादि किए। इसके अलावा आपने ज्ञानामिलता है कि ... 'ठहरने, भोजन और आने-जाने के किराए णंत्र, धर्म परीक्षा, सुभाषित रत्नसदोह के अनुवाद भी की व्यवस्था रहेगी' और विद्वान् पहुच लेता है। यदि ऐसे किए। पडित जी की अन्तिम मौलिक रचना 'षट खण्डागम अवसरों पर मुख्य आयोजक, सवारी आदि की अनुकूल परिशीलन' है जिसे ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है। वीर व्यवस्था करके विद्वान् को ससन्मान स्वय लेने आते और सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'जैन लक्षणावली' (नीन भागों सम्मान सहित वापिस पहुंचाने के उपक्रम करते तो मे) अपूर्व कोश है-इसमे श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों पथो विद्वानों का सम्मान कायम रहा होता। गुरु गोपालदास के मान्य आगम-सम्मत पारिभाषिक शब्द (सोद्धरण) दिए जी आदि के समय में ऐसा ही चलन रहा । दूसरा कारण गए है और उनका पूर्ण खुलासा दिया गया है। जैन समाज है-दान में दी जाने योग्य आत्मोद्धारकारी धम विद्या का __ मे ऐसा सर्वाङ्गीण कोश अभी तक देखने मे नही आया। विद्वान् द्वारा बेचा जाना और त्याज्य धन (पैसा परिग्रह) जैन विद्वानों की अपनी एक परिषद् है--विद्वानों का का संग्रह किया जाना आदि । परस्पर ध्यान रखने एव विद्वत्तापूर्ण शास्त्रीय कार्यों को हमारी दृष्टि मे श्री पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री पूर्ण करना उसका उद्देश्य है। पडित जी उक्त परिषद के गोलापूर्व समाज मे अपने समय के सिद्धान्त के सर्वोच्च प्रतिष्ठित सदस्य थे। अत: परिषद् ने अवश्य समाचार ज्ञाता थे। पंडित जी का जन्म झासी जिले के सोरई ग्राम पत्रो में स्वर्गीय को श्रद्धाजलि अर्पण के समाचार भेजे में ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या सं० १९६२ को हुआ। आपके होंगे ! पर, हमारे देखने मे नही आए, हाँ, काफी दिनो पिता का नाम श्री अच्छेलाल और मातुश्री का नाम बाद वीर-वाणी सम्पादकीय मे समाचार मिले-जैन सदेश उजियारी था। १२ वर्ष की आयु मे माता-पिता का वियोग ने मासवाद समाचार दिए और गजट ने डेढ मास बाद ।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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