SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०, वर्ष ४२, कि० २ अनेकान्त घास का ढेर आ पड़ा, परन्तु वे आत्म-पान से रत्तोमर आदि निमित्त कारणों से शरीर छोड़ा जाता है वह च्यावित भी नहीं डिगे और निश्चल भाव से शरीर त्यागकर निर्वाण शरीर-त्याग (मरण) कहा गया है। को प्राप्त हुए । पाँचो पाण्डव जब तपस्या कर रहे थे, तो ३. त्यक्त-रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता कौरवों के भानजे ग्रादि ने पुरातन बैर निकालने के यिए तथा मरण की आमन्नता ज्ञात होने पर जो विवेक सहित गरम लोहे की साकलो से उन्हे बांध दिया और कोलियां सन्यासरूप परिणामों से शरीर छोड़ा जाता है, वह त्यक्त ठोक दी, किन्तु वे अडिग रहे और उपसगो को सह कर शरीर-त्याग (मरण) है। उत्तम गति को प्राप्त हुए । युधिष्ठर, भीम और अर्जुन इन तीन तरह के शरीर-त्याग मे त्यक्तरूप शरीरमोक्ष गये तथा नकुल, सहदेव सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुए। त्याग मर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योकि त्यक्त विद्युच्चरने कितना भारी उपसर्ग सहा और उसने अवस्था मे आत्मा पूर्णतया जागृत एव सावधान रहता है सद्गति पाई।' तथा कोई सक्लेश परिणाम नहीं होता। ___'अतः हे आराधक ! तुम्हे इन महापुरुषो को अपना इस त्यक्त शरीर--मरण को ही समाधि-मरण,मन्यासआदर्श बनाकर धीर-बीरता से सब कष्टो को सहन करते मरण, पण्डित-मरण, वीर-मरण और सल्लेखनामरण कहा हुए आत्म-लीन रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी समाधि गया है। यह सल्लेखनामरण (त्यक्त शरीरत्याग) भी तीन उत्तम प्रकार से हो और अभ्युदय तथा नि.भेयस को प्राप्त प्रकार का प्रतिपादन किया गया है .. करो। १. भक्तप्रत्याख्यान, २. इगिनो और ३. प्रायोपगमन । इस तरह निर्यापक मुनि क्षपकको समाधिमरण मे १. भक्तप्रत्याख्यान--जिस शरीर-त्याग में अन्ननिश्चल और सावधान बनाये रखते है । क्षपकके साधि पान को धीरे-धीरे कम करते हा छोड़ा जाता है उसे मरण रूप महान् यज्ञ की सफलता में इन नियापक भक्त-प्रत्याख्यान या भक्त-प्रति ज्ञा-सल्लेखना कहते है। साधुवरो के प्रमुख एव अद्वितीय राहयोग होने की प्रशसा इसका काल-प्रमाण न्यूनतम अन्तर्मुहुर्त है और अधिकतम करते हुए आचार्य शिवार्य ने लिखा है बारह वर्ष है। मध्यम अन्तर्मुहर्त से ऊपर तथा बारह वर्ष ___'वे महानुभाव (निर्यापक मुनि) धन्य है, जो अपनी से नीचे का काल है। इसमे आराधक आत्मातिरिक्त समस्त सम्पूर्ण शक्ति लगाकर बडे आदर के साथ क्षपक की पर-वस्तुओं से रागद्वेषादि छोड देता है और अपने शरीर सल्लेबना कराते हैं।' को टहल स्वय भी करता है और दूसरो से भी कराता है। सल्लेखना के भेद: २. इंगिनी" -जिस शरीर-त्याग मे क्षपक अपने जैन शास्त्रो मे शरीर का त्याग तीन तरह से बताया शरीर को सेवा-परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरो से गया है"-एक च्युत, दूसरा च्यावित और तीसरा त्यक्त। नही कराता उसे इगिनी-मरण कहते है। इसमे क्षपक स्वय १. च्यत-जो आयु पूर्ण होकर शरीर का स्वतः उठेगा, स्वय बैठेगा और स्वय लेटेगा और इस तरह छटना है वह च्युत शरीर-त्याग (मरण) कहलाता है। अपनी समस्त क्रियाएँ स्वय ही करेगा। वह पूर्णतया स्वाव २. च्यावित--जो विष-भक्षण, रक्त-क्षय, धातु-क्षय, लम्बन का आश्रय ले लेता है। शस्त्र-घात, सक्लेश, अग्निदाह, जल-प्रवेश, गिरि-पतन (क्रमशः) सन्दर्भ-सूची १. आशाधर, सागारधर्मामृत ८-७ । ६. आशाधर, सागारधर्मा० ७-५८, ८२७, २८ । २. भारतीय ज्ञानपीठ पूजाजलि पृ० ८७ । ७. शिवार्य, भगवती आराधना, गा० ६६२-६७३ । ३. गमन्तभद्र, रत्नक० श्रावका० ५, ३-७ । ८. सागारधर्मामृत ८-१०७ । ६. भ. आ०, गा० २.००। ४. वही ५, ८॥ १०. पा० नेमिचन्द्र, गो० क०, गा० ५६, ५७, ५८ । ५. वही ५, ६। ११. वही गा० ६१
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy