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कनकनन्दि नाम के गुरु
0 स्व० डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
(श्री रमाकान्त जैन के सौजन्य से)
जैन शिलालेख संग्रह, एपिग्राफिका कर्णाटका, इण्डियन ६५० ई० अनुमानित है। [प्रेमी जी का जैन साहित्य एण्टीक्वेरी; वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित पूरातन जैन और इतिहास पृष्ठ २७१: पुरातन जैन-वाक्य सूची वाक्य सूची, र्थ पी. बी. देसाई कृत जैनिज्म इन माउथ पृष्ठ १०८] इण्डिया, श्री बी ए. साल्तोर की पुस्तक मैडिवल जैनिज्म, (४) देसीगण के कनकनन्दि भट्टारक अष्टोपवासि, पं. नाथाम प्रेमी का जैन साहित्य और इतिहास और जिन्हे १०३२ ई० मे चालुक्य सम्राट जगदेकमल्ल प्रथम ने अपनी पुस्तक प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाये जगदेकमल्ल जिनालय के लिए दान दिया था। [जैन अादि में ७वी शती ईस्वी से १३वी शती ईस्वी के मध्य शिलालेख संग्रह, भाग चार, शिलालेख १२६; श्री देसाई हए कनकनन्दि नाम के गूरुओ के १६ उल्लेख मिलते है। को उक्त पुस्तक पृष्ठ ३६४] इन कनकनन्दि नाम के गुरुओं के सम्बन्ध मे कभी-कभी (५) सब्बिनगर के धोर जिनालय के आचार्य कनकनाम साम्य के कारण एकाधिक गुरुओं को अभिन्न मान नन्दि । इनके समाधि-मरण करने पर इनका गृहस्थ शिष्या लेने अथवा भिन्न-भिन्न स्थानो पर उल्लेख होने के कारण भागियब्बे ने १०६० मे उनकी निसिधि (समाधि-स्मारक) एक ही गरु को भिन्न-भिन्न समझ लेने की भ्रान्ति होने बनवायी थी। [जैन शिलालेख संग्रह, भाग चार, शिलाका परिहार करने के उद्देश्य से प्राप्त उल्लेखो का यथा- लेख ४.1 संभव कालक्रमानुसार सक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत किया
(६) हुम्मच के तैलप द्वितीय भुजबल सान्तर के गुरु जा रहा है।
कनकनन्दि । इन्हे उक्त राजा तैलप ने १०६५ ई० मे (१) तमिलनाडु मे मदुरै जिले के एक जैन गुहा स्वनिर्मापित भजबल-पान्तर जिनालय के लिए एक ग्राम मन्दिर की विशाल महावीर प्रतिमा के प्रतिष्ठानक अभि- दान किया था। [प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और नन्दन भट्रारक के गुरु कनकनन्दि भट्टारक । इनका समय महिलाये पृष्ठ १७३] लगभग ७वी शती ईस्वी अनुमानित है। [जैन शिलालेख (७) सरस्थगण-विश्कटान्वय के आचार्य सकलचन्द्र संग्रह, भाग चार, पृष्ठ २२, श्री देमाई की उपर्युक्त पुस्तक के सधर्मा कनकनन्दि मैद्धन्तिक जिनके शिष्य सिरिणदि पृष्ठ ५६]
(श्रीनन्दि) पण्डित की शिष्या आयिका हलियब्बाज्जिके ने (२) तमिलटे शस्थ करुण्डीतीर्थ के कनकादि परि- १०७१ ई० मे मरटवर (सोरटूर) स्थित बलदेव जिनालय यार । इनके शिष्य पूर्णचन्द्र थे। इनका समय लगभग के लिए दान को व्यवस्था की थी। [जैन शिलालेख संग्रह ७ वी.८वीं शती ईस्वी अनुमानित है। श्री देसाई की भाग चार, शिलालेख १५३; श्री देसाई की उक्त पुस्तक उपर्युक्त पुस्तक पृष्ठ ६६, मैडिवल जैनिज्म पृष्ठ २४५] पृष्ठ १४४]
(३) सत्व स्थान और विस्तर-सत्व विभगी अपरनाम (८) मूलसघ-सूरस्थगण-चित्रकूटान्वय के कनकनन्दि विशेषसत्ता-विभगी नामक प्राकृत ग्रन्थो के रचयिता भट्टारक, जिनके शिष्य उत्तरासग भट्टारका प्रशिष्य भास्ककनकनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती। यह चामुण्डराय (६७८ रनन्दि पंडित, श्रीनन्द भट्टारक और अरुहणदि भट्टारक ई.) के गुरु और गोम्मटसार आदि के कर्ता नेमिचन्द्र थे और श्रीनन्दि या अरुहनन्दि के शिष्य वह आर्यपडित थे सिद्धान्तचक्रवर्ती के विद्यागुरु थे। इनका समय लगभग जिन्हें राजा सोमेश्वर द्वितीय नै १०७४ ई० मे अरसर