SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोन पहन AUII. PALI -- FATER ARVIN TAIR - - परमागमस्य बोचं निषिधनात्पन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥ वर्ष ४२ किरण १ । वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१५, वि० सं० २०४५ जनवरी-मार्च १९८६ "अन्त:-प्रकृति बनाम विश्व-प्रकृति" में अब तक जान नहीं पायो, है सागर को गहराई कितनी ? मन के सम्मुख सागर भी, लगता है मुझको उपला-उथला ॥ हिम आच्छादित शैल-शिखर भी, छोटा लगता भान-शिखर से। तप्त सूर्य पिघलाता हिम को, पर मानी का मान न गलता ।। दावाग्नि जब-जब जलती है, भस्म कर देती वन उपवन को। क्रोधाग्नि के सम्मुख वह भी, लगती फोकी फोकी क्यूं है ? घन आच्छादित हो रवि-किरणें, यों छिपती तम के पटलों में। मोह तिमिर के सम्मुख जैसे, जान-ज्योति आलोक रहित हो ॥ तृष्णा नागिन जब-जब डसती, लहर जहर परिग्रह को उठती। बंद-बंद सागर को भरती, पर मनः कप की प्यास नबुझती॥ आखिर अब तो मान चुकी में, मन की तह को छान चकी मैं। उद्दाम वेग अन्तः प्रकृति का, लज्जित करता विश्व-प्रकृति को। -डॉ. सविता जैन 7/35 दरियागंज, नई दिल्ली-2
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy