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________________ एक चिन्तन: क्या कभी 'मुनि-धर्म-रक्षा-पर्व' भी होगा ? श्री दिग्दर्शनचरण जैन 'रक्षा-बन्धन' जैसा मुनि--क्षा-पर्व श्रावण सुदी १५ को होता है। पर, न जाने 'मुनि-धर्म-रक्षा-पर्व' कब, किस तिथि में होगा अथवा होगा भी गा नही ? कहते है कि 'अहिंमा परमो धर्म.' यह नारा बडा गम्भीर है, इसके भाव और अन्तरंग को समझने और सार्थक करने के लिए इमरे मूल तत्त्व को समझना होगा--तब कही यह नारा सार्थक होगा। साथ ही अहिंमा की परिभाषा को भी गहराई में जाकर मापना होगा। शास्त्रो मे छह काय के जीवों की रक्षा में तत्परता और रागादि विकारो के निवारण को अहिंमा कहा है। प्राचीन मुनिराज इमी यादर्श को कायम रखते चले आए है। जब हस्तिनापुर मे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ भुनियो पर सकट आया तब मुनि विष्णुकुमार ने अपना पद न्यागकर भी मुनियो के सकट को दूर किया। सोभार से आज ऐसा कोई पापी नही है जो बलि, नमुच, प्रह्लाद और वृहस्पति जैसे मत्रियो वत निर्दयी हो और मुनियो प' उपसर्ग करे । आज तो जन-जन मुनिराजो के सरक्षण करने में सावधान है और उन पर तन-मन-धन तक निछावर करने को तैयार है । श्रावकगण एक ही इशारे पर धर्म की परिभाषा विना विचारे ही मुनियो को सभी प्रकार की शारीकि और मानसिक सुख-मामग्री जुटाने मे सन्नद्ध है। श्रावको की ऐमी सेवारूप जागरूकता के प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं। मुनिराज के लिए उत्तम पौष्टिक आहार के चौके उनकी शारीरिक सुख-समृद्धि के साधन के प्रमाण है तथा मानसिक सुख-समृद्धि हेतु उनकी पूजा, प्रतिष्ठा, जय-जयकार जीते-जागते सबूत है । इतना ही नही, श्रावक तो उनके भी सुख-साधन जुटाने में चूक नही करते, जिनकी इन्द्रियों वश मे नही हो-वे उन्हे कूलर, हीटर और टेलीविजन जैस साधन भी जुटा देत हैं कि कही वे कष्ट में घबराकर पद छोड न दे-- प्रष्ट न हो जायें। ठीक भी है कि श्रावक का कर्ता स्थितीकरण है-जैसे भी हो, उनका वह वेष न छुटे । आखिर, मुनि-वेष जीवनपर्यन्त के लिए ही तो स्वीकार किया जाता है, फिर व्यक्ति की रक्षा भी तो अहिंसा ही है। पर, अहिंसा को हम जैसी और जितनी सोचते है वह वैसी और उतनी ही नही है-उससे भी बहुत ऊपर है । अहिंसा मे यह ध्यान रखना भी परम अपयर है कि - वा अहिमा कि मात्रा म, कितनी विस्तृत या सकुचित है और उसका कितना और क्या फल है ? या उसका फल हो धर्म-घातक हो नही ? | जस अहिंसा में धर्मरक्षण की जितनी अधिक मात्रा होगी वह उतनी ही अधिक पशस्त होगी। व्यापक-चहुमुखी धर्म-मरक्षण करने वाली अहिंसा प्रशस्त होगी और मात्र शरीर सरक्षण करने वाली अहिंसा एकागी होगी। और धर्म-घातक होने पर तो उसको अहिंसा कहा ही नही जाएगा-वह हिंसा क श्रेणी मे जा पड़ेगी। काकि अहिंसा का लक्षण उसका कार्य और फल सभी धर्मरूप और धर्म.सरक्षण के लिए है। मुनि विष्णुकुमार ने मुनियो की रक्षा कर आदर्श उपस्थित किया । पर आज उससे भी बड़ा सकट है-आज केवल मुनि ही नहीं, मुनि के साथ मुनि-धर्म-रक्षा का प्रश्न भी उपस्थित है। जब आज हमारे बीच मुनि द्वारा बर्य और मुनि के मूल गुणो के धानक मत्र-तंत्र, गण्डा-ताबीन, जादू-टोना, झाड़-फूर करने वाले (मुनि ?) प्रसिद्ध है और वे मोह से भ्रमि । (शायद मिथ्यावृष्टि) श्रावको-श्राविकाओ को, (जिन्हे 'मणि-मत्र-तत्र बह गई, मरते न बचावे कोई' का ज्ञान नही है) अपने चक्करो में फंसा रहे है। वे अज्ञानियो को चक्कर में फैमाने की वजाय-पहिले अपने मत्रतत्रदि का प्रयोग अपनी स्वय को मुनि-धर्म-रक्षा के लिए कर अपनी सफलता प्रदशित कर उत्तीर्णता का प्रमाण-पत्र प्राप्त करे-'मुनि-धर्म-रक्षा' नामक पर्व की स्थापना करे । अन्यथा, मत्र-तत्रादि का प्रयोग छाड़े या पद-मुक्त हो और श्रावकों को धर्म मे जीने दे। जैनधर्म मे सासारिक समद्धि के लिए मत्र-तत्रादि के प्रयोग को सर्वथा मिथ्यात्व कहा गया है।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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