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________________ १४,४२, कि०३ अनेकान्त खरीदा जा सकता है चाहे हमारा आचरण कैसा भी क्यो फिर भी सम्यकदर्शन के बिना उसे संसार-तत्त्व कहा है। न हो । पैसे देकर स्वर्ग मोक्ष की टिकट खरीदी जाती है, वहां उन शिथिलाचारियों को तो कोई स्थान ही नहीं है, अनेक प्रकार की उपाधियां और मान-पत्र खरीदे जाते जो परिग्रह रखते है---सावद्य कमों में लगे हुए है और है। इन सबके पीछे छिपीई है हमारी कषाय । अमान २८ मुल गुणों का दिखाव! मात्र करते है । अत: सम्यकभक्त शिथिलाचार को बढावा देते हैं, उनको पुजवान है, दर्शन प्राप्त करने की चेष्टा निरन्तर रखे ऐसा व्यक्ति भद्रउसको पोषते है और शिथिलाचारी अन्ध-भक्तो का मान परिणामी के बाहरी क्रियाएँ कदाचित अहंकार पैदा न कषाय को बढ़ावा देता है। दोनो इनी काम में लगे हुए भी करे और परिणाम सरल रह मकते है । परन्तु जिन्होने है कुछ विद्वानो का भी पोषण इसन द्वारा होता रहता है बिना मम्यक दर्शन के अपने को सम्मकदृष्टि मान लिया इसलिए वे भी दोनो की हां मे हा मिलाते रहते है। और अपने को पुजवाना ही धर्म मान लिया, उन के प्रहकार का कौन रोके । इतना भी विचार नही रहता है अगर बिना सम्यक दर्शन के भी मुनिव्रत धारण किया कि यह भगवान आदिनाथ का भेष मैंने धारण हो और तलने वाला यह माने कि मैन मुनिव्रत तो और पिच्छि रूप में प्रादिनाथ के चिह्न को हाथ में लिया लिया है परन्तु जब तक सम्यकदर्शन नहीं होगा तब तक है, मेरे रहते इस भेष की, इस चिह्न की मर्यादा भग न मेरा मोक्ष-मार्ग नहीं होगा, व्रतो सचाई नही पायगी। हो जाव अन्यथा मेरा जीवन ही बेकार है । परन्तु उस मुझे सम्या दर्शन प्राप्त करता है, जिसके बिना द्रव्यलिंगी भेष को और उन चिह्न को भी अपनी कषाय पोषण को मुनि को भगवान कुन्दकुन्द न ससार-तत्त्व कहा है । जो दांव पर लगा देता है। यह कैसी कषाय है ? ऐसी कषाय मुनि २८ मूल गुणों का अच्छी तरह पालन करे, शरीर से तो किसो शत्रु के भी न हो। चमडा भी खंचकर उतारा जावे, तो भी मुह से आह न बोले -----... - - - ---- सिग्गंथा विस्संगा गिम्मारगामा अराय-रिणबोसा । लिम्मम-गिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भरिणया ॥४६॥ जो परिग्रह रहित है, आसक्ति रहित है, मान रहित है, आशा रहित है, राग रहित है, दोष रहित है, ममत्व रहित है और अहंकार रहित है, ऐसी जिनदीक्षा कही गई है। शिणहा पिल्लोहा लिम्मोहा रिपब्वियार-रिपक्कलसा। भिय-रित गमभावा पवज्जा एरिसा भगिया ॥५०॥ जो स्नेह रहित है, लोभ रहित है, मोह रहित है, विकार रहित है, कालिमा रहित है, भय रहित है, आशा भाव से रहित है, ऐसी जिन दीक्षा कही गई है। जहजायन्वर्मा सा अवलंबियभुय रिगराउहा संता । परकिय-सिलारणवासा पन्वज्जा एरिसा भणिया ॥५॥ जिसमें जन्मे हए शिशु के समान नग्नरूप रहता है, दोनों भजाओं को लटका कर ध्यान किया जाता है, अस्त्र-शस्त्र नहीं रखा जाता है, और दुसरे के द्वारा छोडे गये आवास में रहना होता है, ऐसी शान्त जिनदीक्षा कही गई है।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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