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महाराष्ट्र में जैन धर्म
डॉ. भागचन्द्र भास्कर डी. लिट.
महाराष्ट्र दक्षिण भारत का प्रवेशद्वार है। इसका इति- में मनुष्य जाति के तीन समुदायों मे से एक समुदाय दक्षिण हास बड़ा प्राचीन है । वुन्तल अश्मक और दक्षिणापथ शब्द और पूर्व के अधिकांश पर्वतीय प्रदेशों मे सीमित था जो इतिहास मे विश्रुत हैं जिनसे महाराष्ट्र के इतिहास का कला कौशल और औद्योगिक क्षेत्र में विशेष प्रगतिशील सम्बन्ध रहा है। साधारणतः सेतु से नर्मदा पर्यन्त सारा था। नाग, यक्ष, वानर आदि अनेक समुदायो-कूलो मे प्रदेश दक्षिणापथ कहा जाता था।' सेतु का संदर्भ कदा- विभाजित यह समुदाय कालान्तर मे विद्याधर के नाम से चित कृष्णा नदी से रहा होगा जो महाबलेश्वर (महाराष्ट्र) विश्रुत हुआ। इसी को द्रविड़ भी कहा जाने लगा। आदि की पहाड़ियों से उदभूत दक्षिण भारत की प्रसिद्ध नदी है। पुरुष तीथंकर ऋषभदेव के एक पुत्र का नाम भी द्रविड़ महाभारत (सभा ९-२०) मे कृष्णवेण्या का उल्लेख है पर था। सम्भव है। विद्याधर जाति से घनिष्ठ जाति सम्बन्ध शायद यह नदी कृष्णा नदी से भिन्न रही होगी। अतः स्थापित कर वे विद्याधरो के साथ ही बस गये हो और नर्मदा और कृष्णा के मध्यवर्ती भूभाग को दक्षिणपथ कहा उन्ही के नाम से उस भाग को द्रविड़ कहा जाने लगा हो। जा सकता है जिसमे महाराष्ट्र कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेशों जैन साहित्य में विद्याधर सस्कृति के बहुत उल्लेख मिलते को अन्तर्हित किया जाता है। शेष भाग सुदूर दक्षिण की हैं। महावश के अनुसार भी श्रीलका मे बौद्धधर्म के प्रवेश सीमा में समाहित हो जाता है।
के पूर्व यक्ष संस्कृति का अस्तित्व था । वृहत्कथा में विद्या___'महाराष्ट्र' शब्द का उल्लेख प्रदेश के रूप में न तो धर और जैन संस्कृति का सुन्दर वर्णन मिलता है। महावेदों में मिलता है और न रामायण महाभारत में, पर राष्ट्र मे शातवाहन कालीन भाजे गुफा मे एक भित्ति चित्र इसे पुराणो तथा जैन-बौद्ध ग्रन्थो में अवश्य देखा जा सकता मिला है जिसे विद्याधर से सम्बद्ध माना गया है। है। उसकी सीमा यद्यपि परिवर्तित होती रही है फिर भी ३१२ ई० मे उज्जनी को उपराजधानी बनाकर' विदर्भ, अपरान्त (कोंकण, विशेषत: उत्तरभाग) मोर चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणापथ की विजययात्रा सौराष्ट्र से दण्डकारण्य ये तीन भाग माने जाते हैं। वर्तमान महाराष्ट्र प्रारम्भ की जहां उसने जूनागढ़ मे सुदर्शन झील का मे दण्डकारण्य को छोड़कर शेष दो भाग सम्मिलित हैं। निर्माण किया । गिरिनार पर्वत पर तीर्थकर नेमिनाथ को चालुक्य सम्राट सत्याश्रय पुलकेशी द्वितीय महाराष्ट्र का वन्दना की और मुनियो के आवास के लिए एक चन्द्रगुफा सार्वभौमिक राजा था।' नानाघाट, भाजे, काले, कन्हेरी बनावाई । वहाँ से उसने महाराष्ट्र, तमिल और कर्नाटक आदि शिलालेखो में महाराष्ट्रियन पुरुषों के लिए महारठि प्रदेश पर आधिपत्य किया और उज्जैनी वापिस आ गया। और स्त्रियों के लिए महारठिनी शब्दों का प्रयोग हुआ है। यही कुछ समय बाद आचार्य भद्रबाहु भी ससघ पहुंचे और इससे महाराष्ट्र का अस्तित्व प्रमाणित होता है । प्रादेशिक अपने निमित्तज्ञान से बारह वर्षीय दुर्भिक्ष की आशंका विस्तार की दृष्टि से तो इसे महाराष्ट्र कहना स्वाभाविक जानकर उन्होंने दक्षिण की ओर जाने का निश्चय किया । है पर उसे महार अथवा नाग जाति से संबद्ध करने की चन्द्रगुप्त भद्रबाह की परम्परा का अनुयायी था। दुर्भिक्ष भी प्रबल सम्भावना बन जाती है।
की बात जानकर चन्द्रगुप्त ने २६८ ई० पू० में भद्रबाहु से महाराष्ट्र में जनधर्म कदाचित प्रारम्भिक काल से ही जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर ली और विशाखाचार्य नाम से रहा है। कहा जाता है, इतिहास के उदयकाल में भारत अभिहित हआ। सारा संघ महाराष्ट्र मार्ग से श्रवणवेल