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महाराष्ट्र में बनधर्म
गोल पहुंच गया जहां भद्रबाह ने कटवप्र पर्वत पर सल्लेखना विमलसूरि के पउमपरियं मे विदर्भ के एक पर्वत रामगिरि ग्रहण की और संघ के नेतृत्व का भार चन्द्रगुप्त (विशाखा- का सुन्दर वर्णन मिलता ही है। यह रचना प्रथम शताब्दी चार्य) पर छोड़ दिया। चन्द्रगुप्त ने दक्षिणवर्ती सारे देशों की होनी चाहिए। रामगिरि निश्चित ही रामटेक (नागमें जैनधर्म का प्रचार किया और अन्त में श्रवणवेलगोल में पुर जिले का) है।" यहा आज भी लगभग ११-१२वीं ही सल्लेखना पूर्वक मरण किया।'
शताब्दी के जैन मन्दिर हैं। तीर्थंकर शांतिनाथ को भव्य इस घटना के पुरातात्विक प्रमाण अवश्य उपलब्ध प्रतिमा यहां विराजमान है। इस काल के कुछ प्राचीन नहीं होते पर साहित्यिक प्रमाणो की भी उपेक्षा नहीं की शिलालेख भी उपलब्ध है। सम्भवतः इसके पूर्व का पुराजा सकती। कर्णाटक और तमिल क्षेत्र में लगभग उसी तत्व भूगर्भ मे छिपा होगा। पउमचरिय मे राम द्वारा काल में जैनधर्म का अस्तित्व मिलता है इसलिए इस रामगिरि पर चैत्य निर्माण करने का वर्णन उपलब्ध होता समूची घटना को ऐतिहासिक माना जाना चाहिए। श्री ही है । हरिवंशपुराण में भी इसका वर्णन मिलता है। लंका में भी इसी काल में जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण कलिंग खारवेल (राज्याभिषेक) १६६ ई० पू०) का मिलता है। पाण्डुकाभप राजा (३३७-३०७ ई०पू०) हाथीगुंफा शिलालेख भी इस सदर्भ मे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज ने अनुराधापूर में जोतिय निग्रन्थों के लिए एक चत्य है। उसमें एक स्थान पर कहा गया है कि सातवें वर्ष में बनवाया। इसका उल्लेख महावश में आया है। वही गिरि कलिंग खारवेल की बज्रगृह की रानी को मातृपद मिलानामक निर्ग्रन्थ भी रहता था।
"अनुग्रह-अनेकान्ति सत सहसानि विसजति पारे जनचन्द्रगुप्त और भद्रबाहु की यह घटना तथा श्रीलका
पद [1] सतम च बसं [पसा] सतो वजिरघर...' मे जैनधर्म का अस्तित्व इस तथ्य का पर्याप्त प्रमाण है कि
स मातुपदं [कु] . .. म [1] अठमे च बसे महतासेन महाराष्ट्र में जैनधर्म ई० पू० द्वितीय-तृतीय शती में काफी
[1] गोरधगिरि.....।" लोकप्रिय हो गया था अन्यथा ये दोनों महापुरुष इतने बड़े
इसी शिलालेख की चतुर्थ पक्ति में कहा गया है कि संघ को दक्षिण में एकाएक ले जाने का साहस नही करते। खारवेल की सेना कष्णवेणा (कण्डवेणा) नदी पर्यत पूना के समीपवर्ती ग्राम पाले में एक प्राचीनतम गुहाभि
पहुंची।" महाभारत (६.२०) में उल्लिखित कृष्णवेणा लेख भी मिलता है जिसका प्रारम्भ नमो अरहतानम्' से भी शायद यही कष्णवेणां होगी। डॉ. मिराशी ने इस होता है । पूरा अभिलेख इस प्रकार है
कृष्णवेणा की पहिचान नागपुर की समीपवर्ती कन्हान या (१) नमो अरहंतानं कानुन (.)
वैनगंगा नदी से की है। वजिराघर गांव रायबहादुर (२) द भदंत इंदरखितेन लेन
हीरालाल के मत से चांदा जिले का वैरागढ़ होना चाहिए। (३) कारापित (.) पोढि च साहाकाहि
पंक्ति छह में रथिक और भोजक का उल्लेख है। इनका (४) सह ।
सम्बन्ध क्रमशः खानदेश (नासिक, अहमदनगर, पूना) एव ऐसा मंगलाचरण मथुरा के आयागपट्ट, जैन मूर्तिलेख विदर्भ से माना जाता है। जैसा वाकाटक नरेश प्रवरसेन व उदयगिरि के अभिलेख में भी मिलता है । इनका समय
द्वितीय के चम्मक दानपट्ट से स्पष्ट है, भोजकट प्रदेश में ई० प्रथम है । इसमें इन्द्ररक्षित का भी नाम है।
विदर्भ का एलिचपुर जिला सम्मिलित रहा है।" महाविदर्भ महाराष्ट्र का प्राचीनतम और प्रमुखतम भाग राष्ट्र के काफी भाग पर कलिंग का आधिपत्य रहा है, यह रहा है। वहदारण्यकोपनिषद् में वैदर्भी कौण्डिल्य ऋषि उपर्युक्त उल्लेखों से असदिग्ध है।
नाम आता है। रामायण (किष्किन्धाकाण्ड) महा- पुरातात्विक सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि महाभारत (वन पर्व ७.३.१) हरिवशपुराण (६०.३२) तथा राष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र मे मध्यकाल मे जैनधर्म की सुदृढ़ जैन साहित्य (समवायोग, ६.२३२.१; सूयगडांग चूरिण, स्थिति थी। नागपुर एलिचपुर, चांदा, बर्धा अमरावती, पृ० ८० आदि) में विदर्भ के पर्याप्त उल्लेख माते हैं। वाशिम, भडारा आदि स्थानों पर प्राचीन जैन मूर्तिया,