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१०, वर्ष ४२, कि. १
अनेकात
निर्दोषता के प्रति सावधान रहना चाहिए---गुरु को घेरने ऐसा सब कुछ कर सकते हैं, आदि । पर, इसमें हमें निराशा से बचना चाहिए। आज की प्रथा मे तो साधु मलिए ही मिली-ऐसे उलेख न पा सके। अच्छा है कि वह हमारा प्रचारादि का काम कर रहा है। मुनि-श्रद्धालु होने के नाते हमारे मन ने यह भी प्रेरणा यदि हमारे मिशन मे वह सफलता दिलाता है, तो उसकी दी कि-'यदि अब भी लोग द्वि-सहस्राब्दि मनाकर भी जय बुलती है फिर चाहे वह आचार मे शिथिल ही क्यो कुन्दकुन्द के आगम वचनों पर न चल सकें तो हम न हो जाय-यानी श्रावक का साधू की विरागता से क्यों न भक्ति में अपने हम-सफर, मुनि-श्रद्धालु भक्तों, लगाव नहीं; वह संसार की ओर स्वयं दौड रहा है और नेताओं और धनपतियों से ऐसी अपेक्षा करें कि वे अपनी साधु को भी दौडा रहा है।
शक्ति का उपयोग उक्त प्रकार की खोजों के कराने में आचार्य कन्दकन्द ने साधु के स्थानादि के जो निर्देश ।
करे। हम तो असमर्थ है पर समर्थ भक्त तो इस निमित्त दिए हैं, उनसे भी मुनि के अवश होने की पुष्टि होती बड़ी राशियो के पुरस्कारो की घोषणा कर अर्थ-खोजी है। कड़ा गया है कि-मूनाघर, वृक्ष का मूल, उद्यान,
विद्वानों का उत्साह बढ़ाकर ऐसा (वर्तमान-मुनि-आचार मसान भूमि, गिरि की गुफा, गिरि का शिखर, बन अथवा
रूप) सब विधान तक प्रसिद्ध और निर्मित करा ही सकते वसति का इन स्थानों विष, मुनि तिष्ठे है। मुनिन करि है। आज इस युग मे पैसे के बल से सब कुछ होना शक्य आसक्त क्षेत्र, तीर्थ स्थान वैध कहे है। मुनि को पचमहा. हे और कई क्षेत्रो में तो मनमानी तक हो रही हैं। फिर व्रतधारी, इन्द्रियों में संयत, सभी प्रकार की सांसारिक यह तो धर्म का कार्य है। यदि उक्त प्रथाएँ सही ठहर वांछाओं से रहित और स्वाध्याय व ध्यान में लीन रहना जाती है तो वर्तमान का पूरा मुनिरूप सुरक्षित रह जाता चाहिए । इसी प्रकार के अन्य भी अनेको निर्देश है । और है और लोगों की श्रद्धा भी उक्त रूप मे रह सकती हैइन्ही से मुनि रूप की सुरक्षा है-अपरिग्रहीपना है। और पिरोधियो के मुह भी महज बन्द हो सकते है या
वर्तमान चलन के अनुरूप कोई विधान भी निर्मित कराया जब भांति-भांति की अफवाओ, चर्चायो प्रश्नावलियो
जा सकता है। वरना, जमाना खराब है और हमें स्मरण और समाचारो से विचलित मन ने विचार दिए-'हमारी।
है कि कभी विरोध को लक्ष्य कर, उस समय के सर्वोच्च श्रद्धा मच्चे मुनि-मार्ग में हैं और सच्चे मुनि आज भी है और सरल त्यागी वर्णी श्री पं० गणेशप्रसाद जी महाराज तथा हम भी कुन्दकुन्द के आदेशो-आदर्शों के समर्थक है। तक को एक बार इटावा से श्री ला० राजकृष्ण जैन को हम चाहते रहे हैं कि आज के सभी मुनियों मे हमारी
भेजे एक पत्र में यहां तक लिख देना पड़ा कि-'जैनमित्र श्रद्धा बनी रहे-हम उनके वर्तमान आचारो पर भी अंक २० मे जो लेख निरजनलाल के नाम से छपा है, आप शकित न हों। तब प्रसिद्ध अपवादो के निराकरणार्थ हम लोगो पढ़ा होगा। अब तो यहा तक आचार्य महाराज कई वर्षों से शास्त्रो मे इन प्रसगों की खोज में रहे कि के ये शिष्य लिखते है-'पीछी कमण्डलु छीन लो प्रादि ।' कहीं कुन्दकुन्द के चरित्र या आगमों मे ऐसे उल्लेख मिल पर, बहकाए मन की ऐसी अटपटी बातें हमारी बुद्धि जाय कि
को रास नहीं पाई। बुद्धि ने तो कुन्दकुन्द द्वारा प्ररूपित 'कोठियों, बगलो और गृहस्थो से सकुल ग्रहो मे ठह- 'आवश्यक' के लक्षण को ही आवश्यक और स्वीकार्य रना, चन्दा-चिट्ठा करना-कराना, भवन आदि बनवाना, समझा । अर्थात जो 'पर' किसी के वश मे न हो वही प्रसावधान होकर फोटू खिचवाना, नेताओ से घिरे रहना, वश, निर्मल और वन्दनीय दिगम्बर मुनि है और आवश्यक लम्बे काल जन-सकुल नगरो मे ठहरना, शीत-उष्णहर भी उसी के होते है। उपकरणो का प्रयोग करना, जत्र-मत्र, जादू-टोना, गण्डा- आवश्यक पालन में जो स्थिति मुनि की है, श्रावकों ताबीज आदि से जनता को सन्तुष्ट करना, कमंडलु का के षट-कर्मों के सम्बन्ध मे श्रावक की भी वैसी स्थिति पानी देना जैसे कार्य दिगम्बर मुनि को कल्प्य है अर्थात् वे
(शेष पृ० टा० ३ पर)