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गतांक से आगे
सल्लेखना अथवा समाधिमरण
9 डा० दरबारीलाल कोठिया
स्मरण रहे कि जैन व्रती-धावक या साधु की दृष्टि (विवेक) का लाभ हो।' मे शरीर का उतना महत्त्व नही है जितना आत्मा का है, जैन सस्कृति मे मल्लेखना का यही आध्यात्मिक उद्देश्य क्योकि उसने भौतिक दृष्टि को गौण और आध्यात्मिक एव प्रयोजन स्वीकार किया गया है। लौकिक भोग या दष्टि को उपादेय माना है। अतएव वह भौतिक शरीर की उपभोग या इन्द्रादि पद की उसमे कामना नहीं की गई है। उक्त उपसर्गादि सकटावस्थाओ में, जो साधारण व्यक्ति
मुमुक्षु श्रावक या साधु ने जो अब तक व्रत-तपादि पालन को विनित कर देने वाली होती है, आत्मधर्म से च्युत न का घोर प्रयत्न किया है. कष्ट सहे है, पात्म-शक्ति बढाई होता हआ उसकी रक्षा के लिए माम्यभावपूर्वक शरीर का रक्षा के लिए साम्यभावपूवक शरार का है और असाधारण आत्म ज्ञान को जागृत किरा हे उस पर
और अपार उत्सर्ग कर देता है। वास्तव में इस प्रकार का विवेक,
सुन्दर कलश रखने के लिए वह अन्तिम समय में भी प्रमाद बद्धि और निर्मोहभाव उसे अनक वर्षों को चिरन्तन अभ्यास नही करना ,
नही करना चाहता। अतएव वह जागृत रहता हुआ और साधना द्वारा ही प्राप्त होता है। इसी से सल्लेखना गल्लेखना मे प्रव होना है। एक असामान्य असिधारा-व्रत है, जिसे उच्च मन:स्थिति के मल्लेख नावस्था में उमे कैसी प्रवृत्ति करना चाहिए व्यक्ति ही धारण कर पात है। मच बात यह है कि शरीर और उसकी विधि क्या है? इस सम्बन्ध में भी जैन लेखको और आत्मा के मध्य का अन्तर (शरीर जड़, हेय पोर ने विस्तृत और विशद विवेचन किया है। आचार्य समन्तअस्थायी है तथा आत्मा चेतन, उपादेय और स्थायी है) भद्र ने सल्लेखना की निम्न प्रकार विधि बतलाई है।' जान लेने पर सल्लेखना-धारण कठिन नहीं रहता। उस सल्लेखना-धागे सबसे पहले इष्ट वस्तुओ मे राग, अन्तर का ज्ञाता यह स्पष्ट जानना है कि शरीर का नाश अनिष्ट वस्तओमेद्वेष, स्त्री-पुत्रादि प्रियजनो मे ममत्व अवश्य होगा, उसके लिए आवनश्वर फलदायी धर्म का और धनादि मे स्वामित्व का त्याग करके मन को शुद्ध नाश नही करना चाहि!, क्योकि शरीर का नाश हो जाने माने के नात अपने परिवार ur il.ra पर तो दूसरा शरीर पुनः मिल सकता है। परन्तु आत्म- व्यक्तियो मे जीवन में हए अपराधो को क्षमा कराये और धर्म का नाश हो जाने पर उसका पुन. मिलना दुर्लभ है।" स्वय भी ले प्रिय वचन बोलकर क्षमा करे । अतः जो शरीर-मोही नही होते वे आत्मा और अनात्मा के
इसके अनन्तर वह स्वय किये, दूसरो से कराये और अन्तर को जानकर समाधिमरण द्वारा यात्मा से परमात्मा अनुमोदना किये हिंसादि पापो की निश्छन भाव मे आलोकी ओर बढ़ते हैं। जैन सल्लेग्ना मे यही तत्त्व निहित है। चना (उन पर खेद प्रकाशन) करे तया मृत्युपर्यन्त महाव्रतो इसी से प्रत्येक जैन देवोपासना के अन्त में प्रतिदिन यह का अपने मे आरोप करे। पवित्र कामना करता है। -
इसके अतिरिक्त आत्मा को निबंल बनाने वाने शोक, 'हे जिनेन्द्र ! आपके जगत बन्धु होने के कारण मैं आपके भय, अवसाद, ग्लानि, कलुषता और आकुलता जैसे आत्मचरणो की शरण में आया है। उसके प्रभाव से मेरे सब विकारो का भी परित्याग करे तथा आत्मबल एव उत्साह दुःखो का अभाव हो, दुःखों के कारण ज्ञानावरणादि कर्मों को प्रकट करके अमृतोपम शास्त्रवचनो द्वारा मन को का नाश हो और कर्मनाश के कारण ममाधिमरण की प्रसन्न रखे। प्राप्ति हो ना समाधिमरण के कारणभूत सम्यकबोध इस प्रकार कषाय को शान्त अथवा क्षीण करते हुए