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प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनकी साहित्य-सृजन में वृष्टि
साहित्य और तत्त्वज्ञान विषयक साहित्य । समयसार आ. भगवान् महावीर की आचार्य परम्परा से प्राप्त थी, किन्तु कुन्दकुन्द की विशुद्ध आध्यात्मिक रचना है। इस ग्रंथ का जिन सरल शब्दों मे गाथाओं के माध्यम से उन्होने प्रस्तुत प्रणयन भारतवर्ष के उस अतीत काल में हुआ है, जब किया है, वह स्तुत्य है। आध्यात्मिक विद्या पर सर्व साधारण जनों का अधिकार एक आदर्श आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित होने के बावनही था, अपितु वह विद्या कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों जद आचार्य कुन्दकुन्द एक स्थान पर कहते है कि यदि मे सिमटकर रह गई थी तथा जिसे वे ब्रह्मविद्या के नाम उनके कथन मे कही पूर्वापर विरोध हो तो ममयज्ञ-आत्मज्ञ से अभिहित करते थे। उनकी दृष्टि मे यह गढ़विद्या थी। ठीक कर लें।' यह कथन उनके निरभिमानी होने का अत. वे इसके रहस्यो को कुछ तथा कथित ब्रह्मज्ञानियों तक सूचक है। किन्तु इस बात से भी वे प्राणियो को सावधान ही सीमित रखना चाहते थे। उस ब्रह्मविद्या को साधारण करने से नहीं चूकते है कि ईविश कुछ लोग सुन्दर कार्य जनों से सुरक्षित रखने के लिए संस्कृत भाषा का कवच के की निन्दा करते हैं। अतः उनके वचनो को सुनकर जिनरूप मे योग किया जाता था, जो सर्वजनगम्य नहीं थी। मार्ग में अभक्ति न करें, जिनमार्ग की अवहेलना न करें।'
वस्तुतः जीव मात्र को आत्म-विकास का जन्मसिद्ध- आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा निबद्ध गाथाएं जहां समनसर्गिक अधिकार है। और न्याय प्राप्त इस अधिकार का वाय रूप से ग्रन्थविशेष का प्रतिनिधित्व करती है, वही सार्थक प्रयोग तभी सम्भव है, जब हमे अपने पूर्वजो द्वारा एक-एक गाथा मुक्तको का रूप भी धारण करती है । उस किये गये सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और विशेषकर गाथा को आप कही भी किसी भी रूप में प्रस्तुत करे, वह आध्यात्मिक प्रयोगो का लाभ समाज के द्वारा विरासत में अपने में समाहित समग्र अर्थ को एक साथ कह देगी। प्राप्त हुआ हो, अन्यथा यदि हमे अपने पूर्वजों द्वारा विरा- उसके लिए किसी पूर्वापर प्रसग की आवश्यकता नहीं है। सत मे ज्ञान प्राप्त नही होता है तो हम विकास के प्रथम प्रवचनसार की एक गाथा देखिएसोपान से आगे नहीं बढ़ सकते हैं।
आगम चक्खू साहू इदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । वह एक ऐसा समय था जब इन आध्यात्मिक गूढ़ देवा य ओहि चक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ।।" रहस्यों को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने पर न केवल अर्थात् साधु के लिए आगम नेत्र है, समस्त ससारी उन ब्रह्मवादियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता था, अपितु जीवों के लिए इन्द्रियाँ ही नेत्र है, देवताओं के लिए अवधिराजदण्ड भी प्राप्त होता था, जो कभी-कभी मृत्युदण्ड के ज्ञान नेत्र है और सिद्ध भगवान् सब ओर से नेत्र वाले है। रूप मे भी परिवर्तित हो जाता था। ऐमी नाजुक परि- इसी प्रकार प्रवचनसार की एक अन्य गाथा देखिए . स्थितियो मे जनता की भाषा प्राकृत भाषा में जनता के जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। चहेते आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा जनता के लिए आध्यात्मिक तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥" विद्या का उपदेश सचमुच एक क्रान्तिकारी कदम था, जो अर्थात् जो कम अज्ञानी व्यक्ति के सौ हजार करोड़ आचार्य कुन्दकुन्द के अदम्य शौर्य, साहस, निर्भयता और पर्यायों में विनष्ट होते हैं, वे ही कर्म ज्ञानी व्यक्ति के मन, आत्मशक्ति को प्रकट करता है। उनका व्यक्तित्व हिमालय वचन, काय की क्रिया के विरोध रूप त्रिगुपित सयुक्त होने के शिखरों की तरह उत्तुंग, सागर की गहराइयों की तरह १२ उच्छ्वास मात्र मे विनष्ट हो जाते है । गम्भीर और आकाश की तरह विराट् था। वे असाधारण इस प्रकार की सैकड़ो गाथाएं उदाहरण के रूप में वैदुष्य के धनी थे। वे मुनियों में मुनिपुङ्गव और प्राचार्यो प्रस्तुत की जा सकती हैं। के आचार्य थे। इसीलिए उनके प्रति बहुमान व्यक्त करने आचार्य कुन्दकुन्द के ये चिन्तन मूत्र निश्चय ही हिन्दू के लिए हम उन्हे आज भी भगवान् कुन्दकुन्द के नाम से शास्त्रों में उल्लिखित 'ऋषयः कान्तदर्शिनः' की लोकोक्ति सम्बोधित करते हैं।
को सार्थक करते हैं और एक श्रेष्ठ ऋषि की अनुभूतियो यद्यपि आचार्ष कुन्दकुन्द को यह समग्र ज्ञान-राशि को उजागर करते हैं।