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________________ विचारकों के लिए : आवश्यक और दिगम्बर मुनि 1) पप्रचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त' एक बार हमने लिखा था--- काल मनाए जा सकते हैं। ऐसे निमित्तों से यदि जैनत्व "हम इकट्ठा करने में रहे और सब कुछ खो दिया।" को समझने और जीवन में उतारने के सही उपक्रम किए यह एक ऐसा तथ्य है जिसे लाखो-लाखों प्रयत्नो के बाद जाय तो ऐसे बहानों से स्थान-स्थान पर जो समारोह होते भी झुठलाया नहीं जा सकता। हम जैसे-जैसे, जितना है-हो रहे है व कुन्दकन्द की कृतियो के विषय में और परिग्रह बढ़ाते रहे, वैसे वैसे जैन हमसे उतना दूर खिसकता उनके जीवनाचार के तथ्य उजागर करने की जो पुनरागया और आज स्थिति यह है कि हम जैन होने के साधन- वृत्तिया हो रही है; उनसे अवश्य लाभ उठाया जा सकता भूत मुनि और श्रावकोचित् भाचार विचार मे भी शन्य है। यदि कुन्दकुन्द जैसे आचार को जीवन मे उतारा जाय, जैसे हो गए। उनके उपदेशानुरूप आचरण किया जाय तो जैनत्व को लोगों ने जडों को खोजें की उन्होंने सारा ध्यान अब भी बचाया जा सकता है। परना, आज जैनत्व टूट-सा जड़ों पर शोध प्रबन्धो के लिखने मे केन्द्रित किया, उन्हें चुका है। लोग आज निस मात्रा मे जय-जयकार करने के प्रकाशित कराया और उन पर विविध लौकिक पारि- अभ्यासी बन चुके है यदि कही उसके शतांश भी कुन्दकुन्दतोषिक, डिग्रिया पाते रहे। आत्मा की कया करने वाले वत आचार-विचार के अनुसा होते तो जैन की जैसी बड़े-बड़े वाचक भी परिग्रह सचयन में लगे रहे और वे चिन्तनीय दशा प्राज है वैमी न होती। भी साधना, दान आदि के विविध आयामों के नाम से विध आयामा क नाम से कुछ लोग कुन्दकुन्द को अध्यात्म उपदेष्टा होने के नाते विविध रूपो में परिग्रह संचयन और मान-पोषण आदि में अध्यात्म मात्र को ही आगे ला रहे है और व्यवहार शुभालीन रहे। जिससे वीतरागता का प्रतीक निर्ग्रन्थत्व-जैनत्व चार का लोप कर रहे है । पर, ध्यान से देखा जाय तो लुप्त होता रहा। हमारी दृष्टि मे 'अपरिग्रहबाद' को कुन्दकुन्द ने व्यवहार का भी वैमा ही प्ररूपण किया है अपनाने के सिवाय जैन के सरक्षण का अन्य उपाय नही। जैसा कि अध्यात्म का। उन्होने समयसार की भांति और अपरिग्रहवाद की मीढ़ी पर चढने के लिए शुद्ध- अष्टपाड भी रचे है। अष्ट पाहो मे वाह्याचार पर श्रावकाचार और साध्वाचार का पालन आवश्यक है।" जितना खुलकर लिखा गया है, शायद ही अन्यत्र हो । बात आचार्य कुन्दकुन्द की है। यद्यपि इनके समय इनमे श्रावको, मुनियो दोनो के आचारो का खुलकर वर्णन आदि के विषय मे श्री नाथूराम प्रेमी, डॉ० पाठक, डॉ० है। यदि मानसिक शिथिलाचारी होने के कारण कोई ए. चक्रवर्ती, प० जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ० उपाध्ये और व्यक्ति इन्द्रिय भोगो की सामग्री से चिपका रहे-परिग्रह डॉ० ज्योति प्रसाद प्रभूति विद्वानों के अपने मत रहे है को कृश न कर सके और वाह्य में अपने को धर्मात्मा तथापि वर्तमान मनीषियो के सद्विचार और प्रेरणानुसार बताने के लिए कोरे अध्यात्म की चर्चा करने लगे, तो उसे इन दिनो देश मे कुन्दकुन्द का (निश्चित) हिसहस्राब्दी मार्ग से भटका ही कहा जायगा। आज अध्यात्म के नाम वर्ष मनाया जा रहा है-हम इसका स्वागत करत है। पर एक छलावा जैसा भी होने लगा है। हमने अध्यात्म बहाना चाहे जो भी हो-हम समय आदि को, आदर्श के गीत गाने वालों में प्रायः ऐसों को अधिक देखा है जो जीवन और गुणो जितना महत्त्व भी नहीं देते। हमारी आकण्ठ परिग्रह और मोह माया में डूबे हो। उनमें ऐसे दृष्टि से तो महापुरुषो के निमित्त से धार्मिक उत्सव सदा- भी कितने ही हो, जिन पर अपार सम्पत्ति हो और आगे
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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