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________________ २६, वर्ष ४२, कि० १ अनेकान्त पारी को अपने उस घर का विनाश कभी इष्ट नही है, बड़ा बल दिया गया है । जैन लेखकों ने अकेले इसी विषय जिसमें उक्त बहुमूल्य वस्तुएँ रखी हुई हैं। • यदि कदाचित पर प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में अनेकों स्वतत्र उसके विनाश का कारण (अग्नि का लगना, बाढ़ आ ग्रन्थ लिखे हैं। आचार्य शिवार्य की 'भगवती आराधना' जाना या राज्य में विप्लव होना आदि) उपस्थित हो इस विषय का एक अत्यन्त प्राचीन और महत्त्वपूर्ण विशाल जाय तो वह उसकी रक्षा का पूरा उपाय करता है और प्राकृत-ग्रन्थ है। इसी प्रकार 'मृत्यु-महोत्सव', 'समाधिजब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ दिखाई नहीं देता, मरणोत्साहदीपक', समाधिमरणपाठ' आदि नामों से सस्कृत तो घर में रखे हुए बहुमूल्य पदार्थों को बचाने का भरसक तथा हिन्दी मे इसी विषय पर अनेक कृतियां उपलब्ध हैं। प्रयत्न करता है और घर को नष्ट होने देता है। उसी सल्लेखना का काल, प्रयोजन और विधि : तरह व्रत-शीलादि गुणो का अर्जन करने वाला व्रतीश्रावक या साधु भी उन व्रतादिगुणरत्नो के आधारभूत यद्यपि ऊपर के विवेचन से सल्लेखना का काल और शरीर की, पोषक आहार-औषधादि द्वारा रक्षा करता है, प्रयोजन ज्ञात हो जाता है तथापि उसे यहा और भी अधिक उसका नाश उसे इष्ट नहीं है। पर देववश शरीर में स्पष्ट किया जाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने उसके विनाश-कारण (असाध्य-रोगादि) उपस्थित हो जाय, सल्लेखना-धारण का काल (स्थिति) और उसका प्रयोजन तो वह उनको दूर करने का यथासाध्य प्रयत्न करता है। बतलाते हुए लिखा हैपरन्तु जब देखता है कि उनका दूर करना अशक्य है ओर उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । शरीर की रक्षा अब सम्भव नही है तो उन बहुमूला व्रत- धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । शीलादि आत्म-गुणों की वह सल्लेखना द्वारा रक्षा करता -रत्नकरण्डधा०५-१ है और शरीर को नष्ट होने देता है।' 'अपरिहार्य उपसर्ग, दुभिक्ष, बुढ़ापा और रोग-इन इन उल्लेखो से सल्लेखना की उपयोगिता, आवश्य- अवस्थाओ मे आत्मधर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का कता और महत्ता सहज म जानी जा सकती है। ज्ञात त्याग किया जाता है वह सल्लेखना है। होता है कि इसी कारण जैन-सस्कृति में सल्लेखना पर (क्रमश:) सन्दर्भ-सूची १. 'जातस्य हि ध वो मृत्युव जन्म मृतस्य च।' ६. (क) पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि ७-२२ । -गीता २-२७। (ख) गद्धपिच्छ, तत्त्वार्थसूत्र ७-२२ । २-३. संमारासचित्ताना मृत्युभीत्यै भवेन्नणाम् । ७. अकलकदेव, तत्त्वार्थवात्तिक ७-२२ । मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिताम् ।। ८. एगम्मिभवग्गहणे समाहिमरणणजो मदो जीवो। -मृत्युमहोत्सव १७ __ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमत्तूण ॥ -भ० आ० । ४. मृत्युमहोत्सव श्लोक १० । ६. सल्लेहणाए मूल जो वच्चइ तिब्वभत्तिराइण । ५. जीणं देहादिक सर्वं नूतन जायते यतः । भोत्तण य देवसुख सो पावदि उत्तम ठाण ।।-वही। स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातास्थितियथा। १०. आशाधर, सागारधर्मामृत, ८-६ । -वही १५ ११. बहो, ८-१० । वासांसि जीर्णानि यथा बिहाय, १२. आदर्श सल्लेखना, पृ० १६ । नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । १३. मृत्युमहोत्सव, श्लोक १, २३ । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि १४. आचार्य समन्तभद्र, रत्नक. श्रावका० ५.१ । सयाति नवानि देही ।।-गीता २-२२ १५. पूज्यपाद, सर्वार्थसि०७-२२ ।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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