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________________ २२बर्ष ४२, कि. २५७ २५८ २५६ २६१ अशुद्ध पच्चीस हजार से संख्या प्रतरांगुलों से जयगी स्त्रिवेदियों के अल्प होने के कारण का १६१ २६३ २१ योनिनियों का अवयवो के गुणकार है जो क्तव्यं । २६५ २६६ पच्चीस हजार योजन से संख्यात प्रतरांगुलों से जायगी स्त्रिवेदियो में सासादनसम्यग्दृष्टित्व आदि भावों के कारण का [यानी उनमें विशुद्धि लब्धि आदि हेतुओं का] मनुष्यनियो का अवयवी के प्रतिभाग है जो वत्तव्वं। [मणस अप्पज्जत्ताण पत्थि परत्थाण-प्पाबहुग । कथन करना चाहिए। [लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में (मिध्यादृष्टि गुणस्थान से व्यतिरिक्त शेष गुणस्थानों के अभाव के कारण) परस्थान अल्प-बहुत्व नहीं है ।] ही प्राप्त होती ते (परिशिष्ट पत्र २४) सूच्यंगुल को सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूल से २६६ कथन करना चाहिए प्राप्त ति २६७ २७१ २७८ तं له له 111 WWW. له सूच्यगुल के प्रथमवर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से आघ ॥६६॥ असंखेज्जगुणा असंख्यातगुणे असंख्यातगुण गो. जी. ६६५-७० घनांगुल गुणकार है। धनांगुल गुणकार है। ऊपर वाणव्यन्तरों से لم له له ل له ओघं ॥ संखेज्जगुणा सख्यातगुणे संख्यातगुणे गो. जो. ६३५-४० धनागुल प्रतिभाग है। धनांगल प्रतिभाग है। ऊपर अल्पबहुत्व अपने स्वस्थान अल्पबहत्व के समान है। वाणव्यन्तरो से प्रैवेयक तक परस्थान अल्पबहुत्व जानकर कहना चाहिए। सगसस्थाणभंगो। त्ति [परत्थाणप्पावहुग जाणिय णेयव्य] । उरि सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूईमेतसूचि-अंगुलपढमवग्मूलाणि । १८६ अवेयक तक अपने स्वस्थान के समान है। सगसत्थाणभंगो प्ति । उवरि २६० २९० २६२ सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई व ।
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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