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________________ २८४२ ० ४ तनूरुहम् -' अमरकोश मयूर के पिच्छ को पंख नहीं कहा जाता और उक्त नामों से भी सम्बोधित नहीं किया जाता। मोर के पिछ को शिखण्ड, पिच्छ और वह नाम ही दिए गए है- 'शिखण्डस्तु पिन्छ वहँ नपुंसके' - अमरकोश | फलतः गृद्ध के साथ पिच्छ शब्द उपयुक्त नही है और पिच्छ के साथ युद्ध शब्द उपयुक्त नहीं है। पिच्छ और पंख दोनों ही नाम भिन्न प्राणियों के लिये निश्चित है अतः मयूर पिच्छ को पख कहा जाने का प्रचलन ठीक नहीं । तथा यह भी सोचने की बात है कि गिद्ध पक्षी का पक्ष जो सर्वथा कठोर कर्कश होता है, वह पिच्छ जैसे कोमल उपकरण के कार्य की पूर्ति कैसे करेगा ? उसके प्रयोग मे तो सूक्ष्म जीवो की हिंसा ही अधिक सम्भावित है। उक्त सभी प्रसग विचारणीय है । आजकल देखने में आ रहा है कि साधुवर्ग की पिच्छी का उपयोग सूक्ष्मत्रस जीवों की रक्षा की अपेक्षा स्थूल पचेन्द्रिय जीवो की रक्षा में अधिक हो रहा है। साधुवण स्त्रीलिंग और पुलिंग का भेद किये बिना सर्वसाधारण को पोछी हुआ (मार) कर आशीर्वाद देने में लगे हैं। उनके मनेकान्त १. प्रवचनसार, गा० ७८ २. धवला १३-३, ५, ५, ५०-२८१ ३. रावार्तिक १-२-६-१६ न होने से वह पापो से तो दबता ही है बल्कि उसका व्यव हार विनम्र व सरल होने के कारण आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार अपरिग्रही मानवीय भौतिकी व आध्यात्मिक तीनों लक्ष्यों की पूर्ति करता है । अन्त मे जैन समुदाय का वर्तमान समाज देश में पास दो ही चीजें सुरक्षित है भाग्योदय के लिए रामवाण श्रौषधि पोछी और आरोग्यता प्रदायक वेदनाहर रस जैसा कमण्डलु का पानी । और लोग हैं कि उनमें होड़ लगी है इन्हें अधिक-से-अधिक मात्रा में प्राप्त करने की आरि साधु भी क्या करें? वह कोई तीर्थंकर तो नही जो पहिले अपना हित करे। प्राज तो अधिकांश साधु का धेय मानों परोपकार करना मात्र बनकर रह गया है— कही यंत्र-मंत्र दान से और कहीं पीछी-कमण्डल जैसे उपकरण से उसे अपने आत्महिन से प्रयोजन नहीं और ठीक भी है कि जब इस काल मे यहाँ मोक्ष नही तो आत्मा से ही क्या प्रयोजन ? फिर, आत्मा की चर्चा के ऊपर तो आज परिग्रहियों का राज्य है— उन्होने ही आत्म चर्चा को पकड़ रखा है। खैर, ( पृ० १८ का शेषाश ) ४. सर्वादि १-४४-४५५ ५. "मूर्च्छा परिग्रहः" - उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र ७-१७ पोछी के सम्बन्ध मे उक्त प्रचलित प्रक्रिया को प्राचीन शास्त्रों में देखना चाहिए और तदनुरूप पीछी का निर्माण और उपयोग होना चाहिए जैसी आगमाज्ञा हो वैसा करना चाहिए। हमारा कोई आग्रह नही । सर्वाधिक महत्व है क्योकि अधिकाश वाणिज्य इनके हाथो मे है और समाज मे दहेज आदि जैसी भयावह समस्याओ का जनक है। यदि इसने अपनी करनी और कथनी मे अन्तर रखा तो भावी पीढ़ी इसे माफ नहीं करेगी । जैन कालेज क्वार्टर्स, नेहरू रोड, बड़ौत २५० ६११ सन्दर्भ सूची ६. अमृतचन्द्राचार्य पुरुषपाय ११७ ७. अमृतचन्द्राचार्य पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ११६ ८. उमास्वामी - तत्त्वार्थसूत्र, ७-२७,२६ ६. उमास्वामी - तत्त्वार्थसूत्र, ६-१७
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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