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________________ ऋषभ के समय और भरत-भारत आदि के नामकरण की हैं। अतः नव-निर्माण के लिए समाज को सोचना चाहिए खोज, गणित के बहु आयामी प्रश्नों के हल की खोज। और पडित पद का सन्मान कायम रहना चाहिए । कोई ऋषभ और शिव को एक व्यक्तित्व सिद्ध करने की स्मरण रहे कि ज्ञानसाधना मे सतर्क आचारवान् पंडित खोज मे है, तो कोई ऋषभ के काल को ईसापूर्व ५६२२- का दर्जा किसी आचारहीन साधु से कही श्रेष्ठ है। जैसे ४०१६ बतला कर जैनियों को पुनर्विचार के लिए प्रेरित एक सच्चे साधु को मुनि-मार्ग मे स्थिरता के लिए पहिले करने में लगा है। गोया, प्रकारान्तर से वह चेलज दे से तो परीषहो के सहने का अभ्यास करना होता है वैसे रहा हो कि जब ऋषभ का काल लगभग ५००० वर्ष है ही सच्चे पण्डित को अपने पाण्डित्य-पद की रक्षार्थ तंगतब बीच के शेष तीथंकरो के समय को अवकाश ही कहाँ ? दस्त रहने का अभ्यस्त होना जरूरी है-उसे आगत कोई महावीर के समय को विवादास्पद बना रहे है। कष्टो को सहते रहना चाहिए। यदि कष्ट न आएं तो कुन्दकुन्द के समय के विवाद मे तो हम आए दिन ही पढ़ उन्हें बुलाकर उनका मुकाबला करना चाहिए। ऐसे मे ही रहे है। किन्ही २ साधुओ की प्रवृत्ति भी बाह्य (पर-) उसका पद प्रतिष्ठित रह सकता है। अन्यथा, सम्भव है कि शोधों में ही है खेद; पंसा-सग्रह उसे मजबूर कर विलासी और उच्छल बनादे पता नही, लोग क्यो स्व-शोधपरक जैन सिद्धान्त को और वह अपनी ज्ञान-साधना से च्युन होकर चरित्र-भ्रष्ट जड-शोधो से जोड़ रहे है। जगह-जगह विभिन्न नामो के तक हो जाय। या अपंडितो के झुण्ड मे जा बैठे-जैसा शोध-सस्थान खोल रहे है। हमे तो ऐसा भी सन्देह हो कि प्रायः हो रहा/हो गया/हो चुका है। यदि हमारा रहा है कि निकट भविष्य में कोई ऐसा शोध-सस्थान न विद्वान् भर्तृहरि महाराज के 'त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुः, खोलना पड़ जाय जो इस खोज को करे कि उपलब्ध तथा प्रज्ञाभिमानोन्नता.' जैसे पाठ को पून. पून: दोहराता रहे कथित प्रागमों में जिनवारणी कोन सी है और पंडितबारगी तो उसका पद पुन, सुरक्षित हो सकता है। कौन-सी है ? क्योकि आज जिसके मन मे जो जैसा आ प्रसग मे तगस्ती उपलक्षण है। इसमे अर्थ और यश रहा है-टीकाओ, व्याख्याओ मे वैसा ही लिख रहा है दोनो की कामनाएं भी सम्मिलित है। जब कोई अभिनदन और सभी को जिनवाणी रूप में पढ़ा जा रहा है, आदि। करता है या कराता है, अभिनन्दन ग्रंथ के साधन जुटातासभी प्रश्नो के हल खोजने चाहिए। जुटवाता है, पुरस्कार और भेंट आदि देता-लेता है, तब विद्वानों के बारे में दोनो ही पक्ष गिर जाते है-देने वाला 'मैं गृहीता से ऊंचा नि:सन्देह जैनधर्म की रक्षा और प्रचार मे विद्वानोह-मैंने उसका सन्मान किया और लेने वाला 'इसने मुझे का पूरा भाग है, इसे भुलाया नहीं जा सकता। आज ऊंचा उठाया अत: इसकी हर बात का मुझे समर्थन करना हमारा जो अस्तित्व है और कुछ तन कर खड़े हो सकते चाहिए' आदि जैसे भाव होने के कारण स्व-पद में स्थिर है वह इन्ही की कृपा का फल है। इन्होने आड़े समयो मे नही रह पाते। भी धर्म की रक्षा की है। समाज इनके उपकारों से उऋण हमारी दृष्टि से तो यदि जीव सम्यग्दृष्टि है तो वह नही हो सकता। हमे तब दुख होता है जब समाज विद्वान् स्वर्ग मे अवश्य पाश्चात्ताप करता होगा कि उसका अस्थायी को जायज दैनिक आवश्यकताओ की पूर्ति करने से जी और निरर्थक अभिनन्दन किसी पाप में निमित्त क्यों बना? चुराता है और उसे अधीन समझने के बाद भी उतना क्या अभिनन्दन ग्रन्थ मे व्यय होने वाली विपुलराशि किन्ही नही देता जिससे वह ससन्मान गुजारा कर सके। फलतः असहाय जरूरतमन्दों की आवश्यकतापूति कर उन्हें सुखवह अन्य मार्ग निकाल लेता है-उसका दोष नही। हो, समृद्ध न बनातो? या कितने ही गृहीता तो इस भव मे उसका इतना मात्र दोष हो तो हो कि वह गृहस्थी के प्रति 'जहाँ मिले तवा, परात, वहां गांवें सारी रात' जैसी अपनी जिम्मेदारी समझता है। स्मरण रहे-अब नए प्रवृत्ति वाले भी हो सकते है । फलत: उक्त सभी प्रसंगो को विद्वानो का निर्माण रुद्ध है और पुराने धीरे-धीरे वीत रहे सोचकर विद्वान् प्रवृत्ति करे, तभी कल्याण सम्भव है। कागज प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से । आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० २० वार्षिक मूल्य।६).०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे -
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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