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________________ आगम से चुने ज्ञान-कण संकलयिता : श्री शान्तिलाल जैन कागजी १. आत्मा ज्ञानकरि तादात्म्यरूप है, तोऊ एक क्षणमात्र भी ज्ञानकं नाही सेवै है। ये बड़ी भूल है। २. परद्रव्य मो स्वरूप नाहीं है। मैं तो मैं ही हु, परद्रव्य है सो परद्रव्य ही है। ३. परद्रष्यक पर जान्या फेरि परभावका ग्रहण नाही, सोही त्याग है, ऐसे यह जानना ही प्रत्याख्यान है। ४. क्रोधादिक अर ग्यान न्यारे-न्यारे वस्तु. है, ग्यान मे क्रोधादिक नाही, क्रोधादिक मे ग्यान नाही । ऐसा इनिका भेद ज्ञान होय तब एपणाका प्रज्ञान मिट । तब कर्मका बध भी न होय । ५. जो द्रव्यस्वभाव है, ताहि कोई भी नाही पलटाय सके है, यह वस्तु की मर्यादा है। ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाधीन है, किन्तु ज्ञेयो का परिणमन ज्ञान के आधीन नाहीं है। ७. जीव या आत्म-पदार्थ इन्द्रिय का विषय नाहीं है। ८. सम्यग्दर्शन और मम्यकचारित्र औपशामक, क्षायिक और क्षायोपशमिक रूप मे तीन-तीन प्रकार के होते हैं। ६. सम्यग्ज्ञान क्षायोपशमिक और क्षायिक रूप मे दो प्रकार का होता है। १०. मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र ये दोनो औरयि ही होते है। ११. मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक ही होता है। १२. जाननेमावत बध कटै नाही । बध तो काट्या कटं । १३. ससार देह भोगों से विरक्तता होना । श्रमीम इच्छा रुक कर सीमित होना । निरर्गल प्रवृत्ति का बन्द होना और यत्नाचार पूर्वक क्रिया का होना ये मोक्ष मार्ग है । १४. तीनों कालो में और तीनों लोकों में जीव को सम्यक्त्व के ममान कोई दूसरा कल्याणकारी नही है। १५. कोई भी कर्म बिना फल दिये निर्जीर्ण नही होता, ऐसा जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है; जयघवल पुस्तक ३ पृ. २४५। १६. अन्तरात्मा की गति मिथ्या दृष्टि कहा जाने । १७. ज्ञानी ऐसे जान है, जो गत्तारूप वस्तु का कदाचित् नाश नही और ज्ञान आप सत्तास्वरूप है। १८. बन्ध होने मे प्रधान मिथ्यात्व और अनंतानुबधी का उदय ही है। १६. जो जाने हैं मो करे नही है और जो करे है मो जाने नही है। २०. झुठा अभिप्राय सो ही मिथ्यात्व, मो ही बध का कारण जानना । क्या सयम धारण करने की चटापटी लगी है, क्या पर पदार्य के प्रति उदासीनता आई है, क्या पर पदार्थ में स्वामीपना छूटा है, का भय लगा रहता है, क्या वर्तमान पर्याय में और रहने का मन करता है, क्या संसारी अनुकूलता मे आनन्द आता है, क्या प्रतिकूलना मे भय लगता है, ये कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनके बारे में हमें खुद ही मोचना है और उसका उत्तर भी हमे अन्दर से ही मिलेगा। फिर इसका निर्णय कर मकेगे कि हमारे पास सम्यक्त्व है या नही? २२. प्रथम सम्यग्दर्शन के होते ही जीव के पर पदार्थों में उदासीनता आ जाती है और जब उदासीनता की भावना दृढतम हो जाती है तब आत्मा ज्ञानादृष्टा ही रहता है। २३. पर के सम्बन्ध से रागादिक ही होते हैं और रागादिकों के नाश के अर्थ ही हमारी चेष्टा है । २४. केवल बाह्य पदार्थों के त्याग से हो शान्ति का लाभ नहीं; जब तक मूर्छा की सत्ता न हटेगी। २१. आजीवन सदस्यता शुल्क । १०१.००० वार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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