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सुख का उपाय
पं० मुन्नालाल जैन प्रभाकर
संसार के सभी जीव सुख चाहते हैं । वह सुख क्या है परिणमन करना या न करना इसके आधीन है और इसके और कहां है, इसके लिए छ ढाला में कहा है-'आतम लिए जीव स्वतंत्र है। उस समय जीव भेद ज्ञान का को हित है, सुख सो सुख आकुलता बिन कहहिए। आकु- सहारा लेकर ऐसा विचार करे कि संसार में जितने लता शिव माहि न तातें शिव भग लाग्यो चहिए ।' अर्थात् पदार्थ हैं वे सब अपनी-अपनी सत्ता लिए हुए अखण्ड रूप सुख नाम की कोई वस्तु नही, दुख के अभाव का नाम से विराजमान हैं एक अश भी अन्य का अन्य में नहीं ही सुख है । दुःख का स्वरूप आकुलता है और आकुलता जाता। यदि एक पदार्थ भी अन्य रूप हो जावे तो ससार मोक्ष मे नही है। इसलिए मोक्ष के मार्ग मे लगना चाहिए। का ही अभाव हो जावे, किन्तु ऐसा नहीं है। इसलिये क्योंकि पर द्रव्य का जो सयोग इस जीव के साथ अनादि जब यह जोव सात तत्वो के स्वरूप का विचार करता है काल से लगा है, उससे अपने को छुड़ाना चाहिए। वह तब जीव की इस ज्ञान शक्ति के द्वारा दर्शन मोह सम्बध अभेद रत्नत्रय के द्वारा ही छूट सकता है। जब (मिथ्यात्व) का गलन होता है। ऐसा जीव के विचार तक पुद्गल कर्म आत्मा से पृथक् नही होगे तब तक आत्मा और दर्शनमोह के गलित होने का निमित्त नैमित्तिक के साथ विसंवाद ही बना रहेगा। और जब अपने गुण सम्बन्ध है। इसके द्वारा वस्तु के सम्यक् आकार का पर्यायो से जो एकत्वपना है वह आ जायगा तब सुखी हो श्रद्धान, रुचि, प्रतीति या स्व का स्वाद लेना, हो जाता है जायगा । ऐसा कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार मे कहा है। जिसको सम्यग्दर्शन कहते है। यह सम्यग्दर्शन दर्शनमोह एकत्यपना कैसे प्राप्त हो उसका उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्- (मिथ्यात्व) के अभाव मे एक साथ ही पूर्ण होता है क्यो ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की एव ता बताई है । वह सम्यग्- कि यह जीव (आत्मा) अनादि वस्तु स्वभाव रूप से विपदर्शन कैसे हो इसके लिए सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित सात रोत होकर निज स्वभाव रूप से च्युत हो रहा था। अब तत्त्व और छः द्रव्यो का विचार करना चाहिए कि यह इसे सात तत्त्वों के विचार मे उपयोग लगाने से निज ससार छ द्रव्यो का समूह है जिनमे धर्म, अधर्म, आकास आत्मद्रव्य की सिद्धि तो हो गई, परन्तु अभी ज्ञान गुण तथा काल चार द्रव्य तो शुद्ध ही है तथा इनमें सदृश सम्पूर्ण शुद्ध नही हुआ। ज्ञान गुण की कुछ पर्यायें शुद्ध परिणमन ही होता है और जीव तथा पुद्गल इन दो द्रव्यो अवश्य हुयी। धीरे-धीरे समस्त ज्ञान गुण शुद्ध होगा। में विसदश परिणमन होता है। क्योंकि इन द्रव्यों में ज्ञान गुण का काम जानना मात्र है। और जानना मात्र विभाव शक्ति हैं। उसके द्वारा जीव तथा पुद्गल परस्पर आश्रा बन्ध का कारण नहीं है अपितु ज्ञान गुण का एक दूसरे का निमित्त पाकर विभाव भावो को प्राप्त होते विसदृश परिणमन ही बन्ध का कारण है और उस विसदश हैं। जिससे कमों का आश्रव होता है जिसके कारण जीव परिणमन का कारण उपयोग का पर पदार्थ मे जाना है। संसार में भ्रमण करता है। और जब यह जीव यह क्योकि अनादिकाल से यह जीव पर पदार्थ को जान कर विचार करता है कि यह विभाव भाव मेरे निजी भाव उनमे राग-द्वेष रूप परिणाम करता है और इसके ये नहीं है। हां, मेरे अन्दर पर-कर्म के निमित्त से हुए हैं। संस्कार अनादि से चले आ रहे है। इन संस्कारों को इसलिए सर्वथा मेरे नहीं है और इन विभाव भावों के रोकना आसान नहीं है। इसीलिए आगम में अपने उपयोग अनुसार मुझे परिणमन नहीं करना चाहिए। उस समय को अपने में लगाने का उपदेश दिया है। जब