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________________ मिथ्यात्व ही मिध्यात्व के बंध का कारण उपचार करने इनको भी सम्यग्दर्शन कहते है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर ही इनको व्यवहार से सम्यग्दर्शन करते है फिर गुण स्थान मे दर्शनमोह ( विपरीताभिनिवेश) के अभाव बिना व्यवहार-सम्यग्दर्शन, व्यवहार-सम् ग्ज्ञान रू. महाव्रतों का आचरण कहा से आ गया ? द्रव्यलिंगी तो मात्र बाह्य क्रियाये करता है। इसके अतिरिक्त आगम में अनेको जगह पर बताया है । कहा तक लिखे, तथा समयसार की गाथा १५५ मे भी परमार्थ स्वरूप मोदा का ही कारण बताया है । जीवादि मद्दहण मम्मत्त मिर्माधिगमणं । रायादि परिहरण चरण एमोदु मक्खि पहो । अर्थात नियमो के कारण दर्शन ज्ञान, तथा सम्यक्चारित्र है तथा पचास्तिकाय गाथा १०५ मे भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया है और यह भव्य जीव को होता है तथा गाया १५६ - १६१ मे निश्चय मोक्ष मार्ग के साधनको व्यवहार मार्ग कहा है, निश्चय और व्यवहार दो मोक्षमार्ग हैं, ऐसा नही कहा । इसके अतिरिक्त अष्ट महत्री पृ० ३३५ पर कहा है कि मिथ्यात्व के बध का कारण मिध्यात्व ही है तथा प० दौलतराम जी कहते हैं कि मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान तथा मिथ्यावारित्र के वश होकर संसार मे भ्रमण करता हुआ जीव दुःख सह रहा है ऐसे महादुखदायी मिथ्यात्व को बध का कारण कैसे न कहे तथा वी वाणी के लेख मे ये भी कहा है कि 'अभव्य व तत्त्व श्रद्धानी और तत्वज्ञानी होकर महाव्रत आचरण करके उसके आधार पर चारब्धियों को प्राप्त करता है जबकि प्रागम में ऐसा कही नहीं कहा। आगम में तो यह कहा है कि भव्य मिध्यादृष्टि जीव को प्रथम चार लब्धियो की प्राप्ति होने पर (तत्वज्ञान, आत्मज्ञान या सम्यग्दर्शन कहो, एक ही बात है) मा होने का कोई नियम नही है। हां, पाचवी करणलब्धि के होने पर सम्यग्दर्शन (तत्वज्ञान) अवश्य होता है। ब्धिमार इसका विशेष वर्णन है । सक्षेप मैं इसका वर्णन मो० मा० प्रकाण पृ० ३१७ पर इस प्रकार दिया है कि (१) ज्ञानावरणादिकमों का क्षयोपशम होने से मात्मा की ऐसी शक्ति का होना जिससे तत्वविचार कर महेश लब्धि, (२) कषाय की मदता का होना, जिसने तत्त्वविचार मे उपयोग लगावे (३) देना-वाणी के उपदेश का मिलना, (४) प्रायोग लब्धि पूर्व कर्मों की शक्ति घटकर अन्तः कोटाकोटिप्रमाण रह जाना और नवीन बघ अन्तःकोटाकोटि सागर प्रमाण संख्यातवां भाग होना । इतना होने पर भी यदि जीवादि सप्त तत्त्वों के विचार करने में उपयोग लगाने और अब तक करणलन्धि की प्राप्ति न हो जाय, विचार करता रहे, तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भव्य मिथ्यादृष्टि जीव को होती है और यदि उपयोग को जीवादि सात तत्वों के विचार मे न लगाकर अन्य जगह लगावे तो सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती । भव्य के ता सवाल ही नहीं, कि अमव्य म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र को प्रकट करने की योग्यता ही नहीं। वह को केवल भव्यमध्यादृष्टि जीव म होती है अगव्य म नहीं। तथा अभव्य जीव स्वर्ग आदि के सुखों को, जो प्राप्ति करता है उसका कारण शुभोपयोग से होने वाला पुण्य है न कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में होने वाला महाव्रत जैसा कि लेख का आशय है। वीरवारणी पृ० ३५० पर लिखा है कि कणलब्धि की प्राप्ति भेदज्ञानी होने पर ही होती है तथा भेदज्ञान की प्राप्ति क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना तथा प्रायोग लब्धियो की प्राप्ति होने पर ऐसा आगम में कही नहीं कहा । लेख में इमरा आगम प्रमाण भी नही दिया । मोक्ष मार्ग प्र० मे पृ० ३१८ पर कहा है कि चार लब्धि वाल के सम्यक्त्व होने का नियम नहीं हैं। हाँ, करणलब्धि वाले के सम्यक्त्व होन का नियम है, सके सम्यक्त्व होना होता है उसी जीव के करालब्धि होती है, अभव्य के करणलब्धि नहीं होती क्योकि मिध्यादृष्टि जीव के भेदज्ञान (आत्मज्ञान ) के अभाव में जितनी भी क्रियायें होती है वह सब मिथ्याचारित्र होता है। यदि वह क्रियायें शुभोपयोग रूप तो पुण्य का बध होता है और यदि अशुभोपयोग रूप होती है तब पाप का वध होता है । इसका जो पुण्य वध होता है, वह दृष्टी के पुण्य बध
SR No.538042
Book TitleAnekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1989
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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