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दिगम्बर साधु को मोर-पिच्छी?
अदत्तवस्तु के आदान (ग्रहण करने) मे जहाँ प्रमत्त और किसी मयूर पंख द्वारा ही किया जाता रहा होगा। योग (प्रमाद) है वहाँ नोरी है और जब प्रमाद का क्योंकि सूत या धागा और सन भी मुनि के लिए परिग्रह योग नहीं है वहाँ चोरी नहीं है। इसलिए प्रमाद होता है--मुनि को उसका वर्जन अनिवार्य है। वर्तमान (राग-कषायादि) के न होने मे मुनिको मरिता, झरने माधुओं की पीछियाँ तो दृढ़बध वाली और इतनी सघन होती आदि के प्रासुक जल, गोमयखण्डज-भस्म आदि मयूर है कि उनके बन्धन-स्थल का परिमार्जन भी कठिन होपिच्छ और प्रासुक अलावु-फल (तवी) आदि के लेने में उनमे सूक्ष्म त्रस जीवो की उत्पत्ति भी सम्भव हो। पोछियों चोरी का दोष नही होता है। अर्थात् इससे सिद्ध होता है कि का गुन्थन सम्भवत: सन या धागे से भी होता हो तब भी मनियों को उक्त वस्तुओ के स्वत: ग्रहण क ने का विधान आश्चर्य नही। रहा है और उसमे चोरी नही मानी गई है। फलतः
हमे तब खेद होता है जबकि अहिंसा का ढोल
पीटने वाले कुछ लोग जीव रक्षा के प्रचार में पानी में मुनिगण उक्त वस्तुओं की भांति मयूरपखो को भी
माइक्रोस्को। लगाकर जीवराशि दिखाने की बात कर जगल से स्वयं ग्रहण करते रहे है। उनो जंगलो मे रहने । से यह सहज साध्य भी रहा । पर, आज बड़े नगरो की
जनता को वैसी हिंसा के वर्जन को कहें और वे सघन रूप बडी मारतो तक मे मीनो पहाव डाने हुओं को सब स गूथा महाव्रती का पिच्छो पर माइक्रोस्कोप लगाकर शक्य नही। ऐसे में साभद है कि कमी ऐसे ही साधुओ ने
उसमे सम्भावित जीव राशि का कभी निरीक्षण भी न करें। श्रावको को मयूरपखो के लिए प्रेरित किया हो और ऐमा
आज के बहुत से साधु तो धागो से निर्मित सीतलपाटी प्रचलन चल पड़ा हो कि भान । मुनियो की पिच्छी का
जैसी चटाइयों का प्रयोग भी खुलेआम करने लगे है। प्रबन्ध करे, आदि। फिर श्रावक भी क्या ? उसे तो
शायद ये सब उन साधुओं द्वारा धागे को परिग्रह से बाह्य जहाँ जैमी सुविधा दिखी वैसे मयूरपच्छी का प्रबन्ध करने
मानने पर ही सम्भव : पा हो। कई साधु तो तेल की का कम बना लिण और इसके लिए उसे बाजार अधिक
मालिश भी कराते हैं, जबकि तैलयुक्त उनके शरीर और सरल और उपयुक्त दिखा---उसने मयूरपख खरीद कर
आमन पर सूक्ष्म त्रम जीवो के चिपकने की सम्भावना से सब प्रान्ध करना प्रारम्भ कर दिया। अतः पक्की जान
इन्कार नहीं किया जा सकता। कारी कर लेनी चाहिए कि वे मयूरपख जैनी के स्वयं द्वारा
कोई लाग 'गुद्ध-पिच्छ' शब्द का अर्थ ऐसा करने लगे ही जंगल से उठाए गए है ? वरना, वको न श्री मैनका जा
हैं कि पिच्छी मे गुद्धता होने से कुन्दकुन्द या उमास्वामी के, बड़े व्यापार में अहिंमा में पक्का मदेह ही है --अवश्य
का नाम गृद्ध-पिच्छ पड़ा होगा । सो यह भ्रान्ति है । भला
जो आचार्य 'समयसार' मे रहे हो या जिन्होने तत्शे का ही मयूर को पीडित किया जाता होगा।
निरूपण किया हो उनमें गृद्धता कैसे सम्भव है ? फिर, अब रह जाती है पोछी के पखों की संख्या की बात । उक्त शब्द का उक्त अर्थ करना व्याकरण-सम्मत भी नहीं कि एक पीछी म पखा का परिमाण कितना हो? हम जंता। यदि उक्त अर्थ रहा होता तो "पिच्छगद्ध' रूप नही मालम कि आज कौन सा परिमाण प्रचलित है ? पर अधिक उपयुक्त होना। अर्थात् पिच्छ में जो गृद्ध हो वह हमारे ख्याल से ४००-५०० पख तो एक पीछी म होते हो पिच्छगद्ध होता है। पर यहाँ न तो गद्धता अर्थ है और ना होंगे ? किम्वदन्ती तो ऐसी है कि जब कुन्दकुन्द स्वामी ही गिद्ध अर्थ है। अपितु यह शब्द किसने प्रयुक्त किया की पीछी गिर गई तो उन्होने मृद्ध पख से कार्य चलाया। और किस भाव मे किया ये वही जाने ? दूसरी बात गुद्ध तो क्या उन्हें वह पंख एक ही मिला था म दो, चार, (पक्षी) के पखो को पिच्छ नही कहा जाता। वे तो सरकृत हजार गा पांच सौ, आदि । विचार करने से तो यही में गरुत्, पक्ष, छद, पर, पता और तनुरूह नामो से कहे फलित होता है कि साधुगण स्वयं ही परिमित पखो का जाते है तथा सभी पक्षियों के पखो के लि। भी उक्त शब्द चयन कर बांध लेते रहे होगे और वह बन्धन भी शिथिल निर्धारित है। तथाहि-'गरुत्पक्षण्छदा: पत्र पतत्रं च