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२६, वर्ष ४२, कि. ४
प्रमेकाम्त
हो.
आगम में पिच्छी के निम्न गुण बतलाए हैं
का उल्लेख है। तथाहि-'विगौरवादिक्षेपेण सपिच्छा'रजसेयारामगहणं मद्दवसुकुमारदा लघृत्तं च । जूलिशालिनः । (आ० मा० २१७२) साधु बन्दना के प्रसग जत्थेदे पंचगुणा त पडिलिहणं पसंसति'। में लिखा है-'पश्वर्धशय्ययाऽऽनम्य सपिच्छांजलिभालक'
-भ० आ० २/९८ (आचारसार २२१७) विजया०-'रजसः सचित्तस्य अचित्तस्य वा रवेदस्य उक्त सभी भाति दिगम्बरो मे भयर पिच्छी का अग्राहक, मदुस्पर्शता, सुकुमाय, लघुत्व चैते पंचगुणा सन्ति।' विधान है। और श्वेताम्बर आगमो मे श्वेताम्बर साधुओ
अर्थात् जो सचित्त और अचित्त रज-धूलि को ग्रहण के लिए पिच्छिा के स्थान पर रजोहरण रखने का म करे, पसीने से गीली न हो, कोमल स्पर्श वाली और विधान मिलता है। वहा रजोहरा के अनेक प्रकार स्तस्वयं में कोमल हो तथा हल्की हो ऐसी प्रतिलेखना लाए गए हैं। जैसे-औगिकम् (ऊन मी) औष्ट्रिकम् (पिच्छी) प्रशस्त कही गई है। क्योंकि सूक्ष्म जीवो की (ऊट के बालो की) स नकं (सन की) वल्कल (छाल से रक्षा करने में ऐसी पिच्छी ही समर्थ हो सकती है और बनी) मुंजदसा (मूंज की) कौलज्जदसा (रेशमी) आदि । उक्त गुरण मयूर पिच्छी मे ही पाए जाते है-इससे कोमल हमारी दृष्टि से रजोहरण के उक्त रूप किसी भी भांति उपकरण अन्य नही। मूलाचार के समयसार अधिकार मयूर पिच्छि के गुणों की समता नही कर सकत और ना में इसी गाथा को टीका में उक्त पांचों गुणो को बतलाकर ही उनमें पिच्छिका में बताए गए पांवो गुगा ही सम्भव लिखा है
हो सकते है। मयूर पिच्छी मे तो इतनी कोमलता होती ___ 'यत्रते पचगुणाः द्रव्ये सन्ति तत्प्रतिलेखन मयूरपिच्छ- है कि उसे आँख की पुतली मे फिराने पर भी कोई हानि ग्रहणं प्रशसन्ति आचार्या: गणधर देवादय इति ।'
नही होती। ऐगे गुण के कारण ही वह जीव रक्षा मे मुलाचार के समयसार अधिकार मे गाथा १७ मे समर्थ है। 'पडिलिहण'-प्रतिलेखन पद है । वहा वसुनन्दी आचार्य- जहां तक मयूर-विच्छ प्राप्त करने की विधि का प्रश्न कृत टीका में प्रतिलेखन शब्द का अर्थ 'मयूरपिच्छी' किया है कि साधु को पिच्छ (मयूख) की प्राप्ति कैसे हो? वह गया है-'दया प्रतिपालनस्यलिङ्ग मयूर पिच्छिका ग्रह- स्वयं मयूरपख न लाए--एकत्रित करे । श्रावक उसे णमिति ।' मयूर पिच्छिका ग्रहण दया-पालन का चिह्न पिच्छ दान दे १ गोभी तक तो हमारे देखन मे नही है। अमरकोश २१५१३१ मे 'शिखण्डस्तु पिच्छ वहनपुंसके' आया कि पिच्छ-मान नामक भी कोई दास हो। प्राचीन कर कर स्पष्ट किया है कि-पिच्छ शब्द मयूर पख का आरातीय आगमो मे भी कही उल्लेख हमारी दष्टि वाचक है। जैन आगमो मे इस पिच्छ शब्द का अनेक में नही आया। हो, इसके विपरीत ऐसा सिद्ध अवश्य हाता स्थलो पर उल्लेख मिलता है।
है कि प्राचीन काल में मुनिराज स्वय ही जगल से मयूर नदीन-दीक्षा देते समय आचार्य दीक्षित शिष्य को पंख चन लेते रहे हो। श्लाकवातिक मे 'अदत्तादान 'रणमोअरहनाण भो अन्तेवामिन्, षड् जीवनिकाय रक्षगाय स्तेयम्' सूत्र की व्याख्या में कहा गया हैमार्दवादि गणोपेतमिदं पिच्छिकोपकरणं गृहाण'-(क्रिया
'प्रमत्तगोगतो यत् स्यादत्तादानमात्मनः । कलाप पृ० ३३७) वोलकर पिच्छिका देता है। इसी
स्तेयं तत्सून दानादानयोग्यार्थगोचरम् ।। क्रियाकलाप मे दीक्षा ग्रहण की विधि में आचार्य द्वारा
तेन सामान्यठोऽदत्तमाददानस्य सन्मनः। पिच्छिका के दिए जाने का उल्लेख है
सरिन्निर्झरणाद्यम्भ. शुष्कगोमयखण्डजम्'सिद्धयोगिवद्भक्तिपूर्वक लिङ्गमर्यताम् ।
भस्मादि वा स्वयमुक्त पिच्छालाबुफलादिकम् । सुचारुया नाग्न्य पिच्छात्मक्षम्यता सिद्धभक्तितः ।।' प्रासुकं न भवेत् स्तेय प्रमत्तत्वस्य हानितः ।।' गुरु वन्दना के सम्बन्ध में भी पिच्छिका के उपयोग
-इलो० वा० ७।१५।१-३