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वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
शाकटायन व्याकरण की टीका "रूपसिदि" के रच- कारण यह हो सकता है, कि कीथ, विन्टरनित्म आदि पिना दयापाल मुनि वादिराज के सतीर्थ (सहाध्यायी या कुछ पाश्चात्य इतिहासज्ञों ने कनसेन वादिराज कृत २९६ मधर्मा) थे। मल्लिषेण प्रशस्ति मे वादिगज के सतीथों में, पद्यात्मक एव ४ सर्गात्मक यशोधरचरित नामक काव्य का पुष्पसेन और श्रीविजय का भी नाम प्राया है। किन्तु उल्लेख किया है। किन्तु यह भ्रामक है। विभिन्न शिलाइन दोनों का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। हुम्मुच के इन लेखों में कनसेन वादिराज और वादिराज का पृथक्-पृथक शिलालेखों मे द्राविड़ सघ को परम्पग इस प्रकार दी गई। उल्लेख है। एक अन्य शिलालेख में जगदेकमल्ल वादि
राज का नाम वर्धमान कहा गया । वादिराज सूरि मौनिदेव
द्वारा विरचित एकीभाव स्तोत्र (कल्याणकल्पद्रुम) पर
नागेन्द्रसूरि द्वारा विरचित एक टीका उपलब्ध होती है। विमलचन्द्र भट्टारक
टीकाकार के प्रारम्भिक प्रतिज्ञा बाक्य मे स्पष्ट रूप से कनकसेन वादिराज (हेममेन)
वादिराज का दूसरा नाम वर्धमान कहा गया है
"श्रीमद्वादिराजापरनामवर्धमानमुनीश्वरविरचितस्य
परमाप्तस्तवस्यातिगहनगभीरस्य सुखावबोधार्थ भव्यासु दयापाल पुष्पसेन वादिराज श्रीविजय जिघृक्ष,पारतन्त्रै नभूषणभट्टारकरूपरुद्धो नागचन्द्रसूरिय
थाशक्ति छायामात्रमिदं निबन्धनमभिधत्ते।"" किन्तु यह गुणसेन
टीका अत्यन्न अर्वाचीन है। टीका की । क प्रति झालरापटन के सरस्वती भवन मे है । यह प्रति वि. स. १६७६
(१६१६ ई०) मे फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मण्डलाचार्य श्रेयाशदेव कमलभद्र अजितसेन (वादीभसिंह) कुमारसेन
यश:कीति के ब्रह्मदास ने वैराठ नगर आत्म पठनार्थ
लिखी थी।" यहा वादिराज के गुरू का नाम कनकसेन वादिराज हमसेन) कहा और अन्यत्र मतिमागर निर्दिष्ट है। यतः वादिराज ने पाश्र्वनाथचरित की प्रशस्ति तथा इसका समाधान यही हो सकता है कि कचित् मतिसागर यशोधरचरित के प्रारम्भ में अपना नाम वादिराज ही पादिराज के दीक्षा गुरू थे और कनकसेन वादिराज कहा है, अत: जब तक अन्य कोई प्रबल प्रमाण नही (हमसेन) विद्या गुरू। श्री नथू राम प्रेमी का भी यही मिलता है, तब तक हमे वादिराज ही वास्तविक नाम मन्तव्य है। साध्वी सघमित्रा जी ने वादिराज जी के स्वीकार करना चाहिए । सतीर्थ का नाम अनेक बार दयालपाल लिखा है। जो
वादिराज सूरि के समय दक्षिण भारत मे चालुक्य सम्भवत' मुद्रण दोष है क्योकि उनके द्वारा प्रदत्त सन्दर्भ
नरेश जयसिंह का शासन था। इनके राज्यकाल की मल्लिशेणप्रशस्ति में भी दयापाल मुनि हो आया है।
सीमाये १०१६-१०४२ ई. मानी जाती है ।२१ महाकवि वादिराज कवि का मूलनाथ था या उपाधि--इस । विल्हण ने चालुक्य वश की उत्पत्ति देन्यो के नाश के लिए विषय में पर्याप्त वैमत्य है। श्री नाथ राम प्रेमी को मान्यता ब्रह्मा की चुलुका (चुल्ल ) में बताई है। उन्होने चालुक्य है कि उनका मूल नाम कुछ और ही रहा होगा, वादिराज वश की परम्परा का प्रारम्भ हारीन से करते हुए उनकी को उनकी उपाधि है। और कालातर में वे इस नाम से वशावली का निर्देश इस प्रकार किया है-- मानव्य, तेलप. प्रसिद्ध हो गये। टी० ए० गोपीनाथ राव ने वादिराज सत्याश्रय, जयसिंहदेव ।" जयसिंहदेव के उत्तराधिकारी का वास्तविक नाम कनकसे वादिराज माना है।" इसका आहवमल्ल द्वारा अपनी राजधानी कल्याण नगर बसाकर