Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 129
________________ आथिक समस्याओं का हल-अपरिग्रह डॉ० सुपार्श्व कुमार जैन विश्व समाज को सभी क्रियायें अर्थ अर्थात् धन से पदार्यों को जानने की आवश्यकता ही नहीं रहती क्योंकि सम्बन्धित हैं। जो समाज या राष्ट्र जितना अधिक धनी वे स्वत: ही ज्ञेय हो जाते है। किन्तु आत्मा के अतिरिक्त है, वह उतना ही अधिक व्याकुल और असन्तोषी है। अन्य समस्त ज्ञेयों को जानकर भी व्यक्ति अज्ञेय ही रहता प्राचीन और अर्वाचीन प्राय: सभी अर्थशास्त्री अर्थ को ही है। विकास का स्वरूप-मापक मानते हैं, अतः प्रत्येक देश सर्वशक्तिशाली एव विकसित बनने के लिए और भी अधिक आज विश्व मे वर्ग संघर्ष की जो दावाग्नि प्रज्वलित अर्थ-प्राप्ति का इच्छुक दिखाई पडता है। फलस्वरूप । हो रही है, विषमताये बढ़ रही है, असन्तोष और ईया विश्व-समाज मे इस अर्थ-प्राप्ति के लिए अशान्ति एव जन्म ले रही है, धनी व निर्धन, श्रम व पूजी, नियोजक व संघर्ष व्याप्त है। नियोजित आदि के मध्य जो अन्तर बढ़ता जा रहा है, अर्थ शब्द ऋ धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है मानव, मानव का शोषण कर रहा है तथा हिंसक घटनायें, बेईमानी, चोरी-उकैती, व्यभिचार व अपहरण तथा युद्धो पाना, प्राप्त करना या पहुचना। अत: अर्थ का तात्पर्य की विभीषिकाये धधक रही है--उन सबका मूल कारण है-जो पाये, प्राप्त करे या जिसे पाया जाये या प्राप्त यह है कि समाज-विश्व के लोग प्रत्येक वस्तु को अपनी किया जाये। इस प्रकार हीरे, जवाहरात, स्वर्ण, रजत सम्झकर उसे येन-केन-प्रकारेण प्राप्त करना चाहते हैं। आदि बहुमूल्य धातुयें, वैधानिक मुद्रा तथा भौतिक सम्पत्ति मादि सभा अर्थ कहलाते है। यह तो भौतिकी दृष्टिकोण यह तो स्पष्ट है कि विश्व मे सम्पत्ति एवं भोगोपभोग की है। किन्तु जैनाचार्यों ने इसके अतिरिक्त अर्थ को आध्या सामग्री अर्थात् आवश्यकता पूर्ति के साधन कम है और त्मिक दृष्टिकोण से भी परिभाषित किया है। आ० और जन-समाज बहुत अधिक असीमित माना जा सकता कुन्दकुन्द ने द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायो को 'अर्थ" नाम है। इन सबसे अधिक है--व्यक्ति की तृष्णा या मर्छासे कहा है, उनमें गुण-पर्यायों वाला प्रात्मा द्रव्य है।' दया भाव । मूर्छा अर्थात् "यह मेरा है, यह वस्तु मेरी है" "अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति अर्थो नव पदार्थ"-जो ऐसा ममत्व परिणाम की परिग्रह कहलाता है। कुबेर के जाना जाता है वह अर्थ है, जो नव पदार्थ रूप है। "अर्यते समान वैभव होते हुए भी जिसमे किचित् भी लालसा, गम्यते जायते इत्यर्थ " जो जाना जाये सो अर्थ है। तृष्णा या मूर्छा नही है, वह अपरिग्रह-समान है। इसके "अर्थध्येयो द्रव्यं पर्यायो वा" अर्थध्येय को कहते है, इससे विपरीत जो अकिंचन है किन्तु कुबेर के वैभव को पाने की द्रव्य और पर्याय लिये जाते है। इस कथन से यह स्पष्ट लालसा रखता है, वह महापरिग्रही के समान है। इससे होता है कि वास्तव में आत्मा ही अर्थ है और यही प्राप्तव्य स्पष्ट होता है कि मात्र बाहरी पदार्थों का सचय परिग्रह है। धन स्वरूप अर्थ की उपादेयता उन्ही के लिए है जो नही है किन्तु उनके प्रति जो लगाब 'अटैचमैण्ट' है, जोगानु शारीरिक-ऐन्द्रिक सुख प्राप्त करना चाहते है, किन्तु जो भूति है तथा उनको प्राप्त करने की सतत वाच्छा है, वह मोक्षार्थी हैं उनके लिए तो इसका पारमार्थिक तात्पर्य ही ऐसी स्थिति मे परिग्रह नाम पा जाता है। यह मूर्छा ही ग्योजनीय है क्योकि इस त्रिलोक मे समस्त ज्ञेयों में आत्मा पांचो प्रकार के पापो का मूल स्रोत है। जो परिग्रही है तथा वरूपी अर्थ ही एकमात्र ज्ञेय है। इसे जानकर अन्य परिग्रह के अर्जन, सम्बर्धन एवं संरक्षण के प्रति जो सदैव

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