Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 119
________________ वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण डॉ० जयकुमार जैन हैं। मस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार के अनुशीलन से सरि द्राविड सघीय थे, अतः उनके दक्षिणात्य होने की पता चलता है कि भारतवर्ष में सुरभारती के सेवक सम्भावना की जाती है। द्रविड देश को वर्तमान आन्ध्र वादिराज नाम वाले अनेक विद्वान् हुए है। इनमें पार्श्वनाथ प्रदेश और तमिलनाडु का कुछ भाग माना जा सकता है। चरित-यशोधर गरिनादि के प्रणेता वादिराजसूरि सुप्रसिद्ध जन्मभमि, माता-पिता आदि के विषय मे प्रमाण उपलब्ध है, जो न्यायविनिच्चय पर विवरण नाम्नी टीका के भी न होने पर भी उनकी कृतियो के अनन्य प्रस्ति पद्यो में रचयिता है । प्राकृत निबन्ध मे इन्ही वादिराज को विषय ज्ञान होता है कि वादिराजसूरि के गुरु का नाम श्री बनाया गया है। उनको सम्पूर्ण कृतियो का भले ही या है। उनका सम्पूण कृतिया का मल हा मतियार और मतिसागर और गुरू के गुरू का नाम श्रीपालदेव था। के गरू विधिवत् अध्ययन न हो पाया हो, परन्तु उनके सरम एकीभाव स्तोत्र मे धार्मिक ममाज, न्यायविनिश्चय विवरण से पशस्तिलक चम्पू के संस्कृत टीकाकार श्रृतसागरमूरि ताकिक समाज और पार्श्वनाथ चरित-यशोधरचरितादि से ने वादिराज और वादीसिंह को सोमदेवाचार्य का शिष्य साहित्य समाज सर्वथा सुपरिचित है। जहां एक ओर बतलाते हुए लिखा है कि -"स वादिराजोऽपि श्री मोमउन्हे महान् कवियो मे स्थाज प्राप्त है, वहा दूसरी ओर देवाचार्यस्य शिष्यः।" "वादीभमिहोप मदीय शिष्यः, श्रेष्ठ ताकिको को पक्ति में भी उत्तम स्थान पाने वाल वादिराजोऽपि मदीय शिष्य" इत्युक्तत्वात् । इसके पूर्व श्रुतसागरसूरि ने "उक्तं च वादिराजेन" कहकर एक पद्य वादिराजसूरि द्राविड संघीय अरुगल शाखा के उद्धत किया है, जो इस प्रकार हैआचार्य थे। द्राविड सघके अनेक प्राचीन शिलालेखों में "कर्मणा कवलितो सोऽजा तत्पुरान्तर जनांगमवाटे । द्रविड़, मिड़, द्रविण, द्रविड, द्रमिल, दविल, दरविल कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्य शुभधाम न जोव. ॥' मादि नामो मे उल्लेख पाया जाता है। ये नामगत भेद कही लेखको के प्रमादजन्य है तो कही भाषा वैज्ञानिक यह श्लोक वादिराजसूरिकृत किसी भी ग्रन्थ में नही विकासजन्य । प्राचीनकाल में चे, चोल और पाण्ड्य इन मिलता है और न ही अन्य वादिराजविरचित ग्रन्थो मे ही। सोमदेवमूरि के नाम से उल्लिखित "वादीभसिंहोऽपि तीन देशो के निवामियो को द्राविड़ कहा जाता था । केरल मदीयशिष्य. वादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' वाक्य का के प्रमि आचार्य महाकवि उल्लूर एस. परमेश्वर अय्यर दाविड़ शब्द का विकाम विठाम या विशिष्टता अर्थ के उल्लेख भी उनकी किसी भी रचना (यश०, नीतिवा०, बाचक तमिष शब्द से निम्नलिखित क्रमानुसार मानते अध्यात्मतरंगिणी) मे नही है। अतः वादिराज का सोम देवाचार्य का शिष्यत्व सर्वथा असगत है। यशस्तिलक हैं-तमिष, ममिल, दमिल, द्रमिल, द्रमिड़, द्रविड़, द्राविड़।' चम्पू का रचनाकाल चैत्र शुक्ला त्रयोदशी शक स. ८८१ (९५६ ई०) है जबकि वादिराज के पार्श्वनाथचरित का महाकवि वादिराज ने किम जन्मभूमि एव किस कुल प्रणयनकाल शक सं. ९३७ (१०२५ ई०) है। इस प्रकार को अलकृत किया-~-इस सम्बन्ध में कोई भी आन्तरिक दोनो ग्रन्थों के रचनाकाल का ६६ वर्षों का अन्तर भी या बाह्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। यतः वादिराज- दोनो के गुरूशिष्यत्व मे बाधक है।

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