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४, वर्ष ४२; कि०४
त्यनेकान्त
अर्थात् भले ही कोई होन जाति का हो, सौन्दर्य ४. कुशील व ५. परिग्रह । इनका यथाशक्ति त्याग करना विहीन कुरूप हो, विकलांग हो, झुर्रियों से युक्त वृद्धावस्था ही श्रावकाचार है तथा सर्व देश त्याग करना ही मुनिको भी प्राप्त क्यों न हो? इन विरूपों के होने पर भी यदि आचार । जैनधर्म को यह आनार व्यवस्था वस्तुतः मर्वोदय वह उत्तमशील का धारक हो तथा उसके मानवीय गुण का अमर नाम माना जा सकता है क्योंकि उन दोनों में न जीवित हो तब भी उस विरूप का मनुष्य-जन्म श्रेष्ठ माना केवल मानव के प्रति, अपितु समस्त प्राणि-जगत् के प्रति गया है।
भी सद्भावना सुरक्षा एवं उसके विकास की प्रक्रिया मे आत्मगुण के विकास का अर्थ कुन्दकुन्द ने यही माना
उसके सहयोग की पूर्ण कल्याण कामना निहित रहती है । है कि जिससे व्यक्ति अपना अपने परिवार, समाज एव अत: यदि जैनाचार का मन, वचन एवं काय से निर्दोष देश का कल्याण कर सके। यही सार्वकालिक एव सार्व- पालन होने लगे तो मारा ससार स्वत: ही सुधर जाएगा। भौमिक सत्य है। सम्राट अशोक तब तक ' प्रियदर्शी" एवं कोर्ट-कचहरियो एवं थानो की भी आवश्यकता नही सर्वन: लोकोपचारी न बन सका और तब तक वह भारत रहेगी। उनमे वाले पड जायेगे। पुलिस, सेना, तोप एव माता के गले का हार न बन सका, जब तक उमने कलिग तलवारो की भी फिर क्या आवश्यकता? युद्ध में सहस्रो सैनिको की हत्या के अपराध के प्रायश्चित
इण्डियन-पनत-कोड मे वणित अपराध-कर्मों तथा में अपनी तलवार तोड़कर नही फेक दी और अहिंसक
पूर्वोक्त ५ पापों का यदि विधिवत् अध्ययन किया जाए, जीवन व्यतीत नही करने लगा। मोहनदास करमचन्द्र
तो उनमे आश्चर्यजनक समानता दृष्टिगोचर होती है। गांधी, तब तक महात्मा एवं राष्ट्रपति नहीं बन सके, जब
उक्त इण्डियन पैनल कोड में भी पांच बातों का बिभिन्न तक उन्होंने महर्षि जनक, तीर्थकर महावीर एव गोतम बुद्ध
धारा मे वर्गीकरण कर नके लिए विविध दण्डो की की भूमि का स्पर्श कर अहिंसा, सत्य ब्रह्मचर्य एव अपरि
व्यवस्था का वर्णन किया गया है। अन्तर केवल यही है ग्रह को अपने जीवन मे नही उतार लिया।
कि एक में प्रायश्चिन, साधना, आत्म-सयम तथा आत्मजीबन के सन्तुलन एवं सरसता के लिए ज्ञान एव
शुद्धि के द्वारा अपराध-कर्मों से मुक्ति का विधान है, तो साधना अथवा तप के समन्वय पर कुन्दकुन्द ने विशेष बल दूसरे में कारागार की सजा, अर्थदण्ड एवं पलिस की मारदिया क्योकि एक के बिना दूसरा अन्धा एवं लगडा है। पोट आदि में अपरा
पोट आदि मे अपराध-कर्मों की प्रवृत्ति को छुड़ाने के प्रयत्न पारस्परिक सयमन के लिए एक को दूसरे की महती आव. को व्यवस्था है। श्यकता है।
आदर्शवादी दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो स्वस्थ कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है :
समाज एव कल्याणकारी राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से कुन्दसवरहियं जं णाणं णाणविजुतो तवो कि अकयत्थो। कुन्द द्वारा निशित जैनाचार अथवा सर्वोदय का सिद्धांत तम्हा णाण तवेण संजुतो लहह णिव्वाण ||मोक्ख० ५६ आज भी उतना ही प्रासगिक है, जितना कि आज से
अर्थात् तप रहित ज्ञान एव ज्ञान रहित तप ये दोनो २००० वर्ष पूर्व । विश्व की विषम समस्याओ का समाही निरर्थक है (अर्थात एक के बिना दूसरा अधा एवं धान उमो से सम्भव है। लगड़ा है) अतः ज्ञान एव तेप से युक्त साधक ही अपने आचार्य कुन्दकुन्द ने तीसरा महत्वपूर्ण कार्य किया यथार्थ लक्ष्य को प्राप्त करता है।
राष्ट्रीय अखण्डता एव एकता का। वे स्वय तो दाक्षिणात्य पूर्व-परम्परा प्राप्त कर आचार्य कुन्दकुन्द ने संसार की थे। उन्होने वहां की किसी भाषा में कुछ लिखा या नही, समस्त समाज-विरोधी दुष्प्रवृत्तियो एव अनाचारो को पांच उसको निश्चित सूचना नही है। तमिल के पंचम वेव के भागो मे विभक्त किया :-१. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, रूप में प्रसिद्ध "थिरुकुरल" नामक काव्य-ग्रन्थ का लेखन