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८, वर्ष ४२, कि० ४
अनेकान्त
उसे बनाने का उल्लेख विक्रमांकदेवचरित में किया गया प्राचार्य बलदेव उपाध्याय ने पार्श्वनाथचरित का है।" जिससे स्पष्ट होता है कि उनके पूर्व शासक की प्रणयन सिंहचक्रेश्वर चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजराजधानी अन्यत्र थी। पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति मे धानी मे शक सं०६६. में लिखा है। उनका यह कथन महाराज जयसिंह की राजधानी "कट्टगातीरभूमों" कहा पार्श्वनाथचरित के नगमात वधि चार और रन्ध्र-नव गया है। किन्तु दक्षिण में कट्टगा नामक कोई नदी नहीं की वितरित गणना (अकाना वामा गति.) ९४७ शक सं० है। हाँ, बादामी से लगभग १८-१६ कि० मी० दूर त5 से विरुद्ध, अतएव असगत है। एक और विचित्र बात कटगरी नामक स्थान जरूर है जो कोई प्राचीन नगर जान मनोज पडता है। ऐसा लगता है कि प्रमादवश "कट्टगेरीतिभूमौ" विटा ने भी वाटिराज को नही पती व
विद्वान् ने भी वादिराज को कही दसवी, कही ग्यारहवी के स्थान पर हस्तलिखित प्रति मे "कट्टगातीरभूमो" लिखा और कही-कही तेरहवी शताब्दी तक पहुंचा दिया है । गया है। कटगेरी नामक उक्त स्थान पर चालुक्य विक्रमा- डा. जैन ने यशोधरच रत का उल्लेख करते हुए १०वी दित्य (द्वितीय) का एक कन्नड़ी शिलालेख भी मिला है, शताब्दी", एकीभाव स्त्रोत के प्रसग में ११वी शताब्दी, जिससे स्पष्ट है कि चालुक्य राजाओ का कट्टगेरी स्थान से
पा० ना० च० के सम्बन्ध मे भी ११वी शताब्दी", तथा सम्बन्ध रहा है। यही कट्टगेरी जयसिंहदेव की राजधानी
न्यायविनिश्चय विवरण टीका के उल्लेख में १३वी होना चाहिए।
शताब्दी" का समय वादिगज के साथ लिखा है। स्पष्ट पार्श्वनाथचरित के अतिरिक्त न्यायविनिश्चय विवरण है कि वादिराजसूरि का तेरहवी शती म लिखा जाना या एव यशोधर चरित की रचना भी जयसिंह की राजधानी मे तो मुद्रणगत दोष है अथवा डा. जैन ने काल-निर्धारण में ही सम्पन्न हई थी। न्यायविनिश्चय विववरण" मे तो पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति का उपयोग नहीं किया है इसका उल्लेख किया ही गया है, यशोधरचरित मे भी तथा पूर्वापरता का ध्यान रखे बिना एक ही व्यक्ति को जयसिंह पद का प्रयोग करके बड़े कौशल के साथ इमकी ११वी से १३वी शताब्दी तक स्थापित करने का विचित्र सूचना दी गई है । यथा--
प्रयास किया है।" "व्यातन्वन्जयसिंहता रणमुखे दीधं दधो धारिणीम् ।"
अनेक शिलालेखों तथा अन्यत्र वादिराजसूरि की "रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ।"" अतीव प्रशसा की गई है। मल्लिषेण प्रशस्ति मे अनेक पद्य
इनकी शसा मे लिखे गये है। यह प्रशस्ति १०५० शक किसी भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण द्वारा वादिराज
स० (११२८ ई०) मे उत्कीर्ण की गई थी जो पार्श्वनाथका जन्मकाल ज्ञात नही हो सका है। परन्तु यत. उन्होने
वस्ति के प्रस्तर स्तम्भ पर अकित है। यहा वादिराज को पार्श्वनाथचरित की रचना शक स. ६४७ कार्तिक शुक्ला
मान् कवि, शादी और विजेता के रूप मे स्मरण किया तृतीय को की थी", अतः उनका जन्म समय ३०-४० वर्ष
गया है। एक स्थान पर तो उन्हे जिन राज के मभान मानकर ९८५-६६५ ई. के लगभग माना जा सकता है।
कग गया है । इस प्रशस्ति + "सिंह पमर्यपीठविभव" पंच वस्ति के ११४७ ई० उत्कीर्ण शिलालेख मे वादिराज
विशेषण से ज्ञात होता है कि महाराज जयसिंह द्वारा को गगवंशीय राजा राजमल्ल (चतुर्थ) सत्यवाक् का गुरू
उनका आमन पूजित ।। इनने कम समय मे इतनी बताया गया है। यह गजा ६७७ ई० मे गद्दी पर बैठा
अ धक प्रशसा पाने का मौभाग्य कम ही कवियों अथवा था। समरकेमरी चामुण्डराय इसका मन्त्री था। अतः
आचार्यों का मिला है। वादिराज का समय इसमे पूर्व ठहरता है। इन आधारो पर वादिराज का समय ६५..१०५० ई. के मध्यवर्ती काव्य पक्ष की अपेक्षा वादिराजयूरिफा ताकिक मानने में कोई असंगति प्रतीत नही होती है।
(न्याय) पक्ष अधिक ममृद्ध है। आचार्य ब. ६व उपाध्या