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३०, बर्ष ४२, कि०३
अब रह जाती है रत्नत्रय में सुख न होने की बात । सो इस पर हम विशेष न लिखकर इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि जब सिद्धात्माओं में पूर्ण शुद्ध-जान का सद्भाव निश्चित है तब उस ज्ञान से उसकी सुखरूप पर्याय को पृथक् कैसे माना जा सकता है ? आचार्यों ने सुख को ज्ञान की पर्याय माना है-'सुखं तु ज्ञानदर्शनयोः पर्यायः तत एव सुखस्यापि क्षयो न भवति ।' - तत्त्वार्थवृत्ति, भुतसागरी-१०१४, इसे पाठक विचारें कि क्या ज्ञान से उसकी सुखपर्याय पृथक हो सकती है या पा रत्नत्रय मे सुख नहीं है।
अतः इसे लिपि वर्ण-माला मात्र से नहीं जोड़ा जा सकता और न यह ही कहा जा सकता है-'गुरु अपनी भाषा मे लिपिबद्ध करते है वह शास्त्र कहलाता है।' एतावता इस युग में भी शास्त्रकार वीतराग देव ही है इसीलिए-इसे वीतराग वाणी कहते है। तथाहि-"शिष्यते शिक्यतेऽनेनेति शास्त्र तच्चाविशेषित सामान्येन सर्वमपि मत्यादिज्ञानमुच्यते, सर्वेणापिज्ञानेन जन्तूना बोधनात् । अतो विशेषस्थापयितुमाह-आगमरूपशास्त्रमागम-शास्त्रं श्रुतज्ञानमित्यर्थः ।
-अभि० रा०पृ०६५ सासिज्जह जेण तहि सत्थं ति चा:विसेसिय नाणं । प्रागम एव य सत्थं, प्रागमसत्य तु सयणाणं ॥"
--विशेषा० ५५६ ३. भव्यत्वभाव रत्नत्रयरूप में परिणत नही होता,
अत: भव्यत्व के अभाव होने पर रत्नत्रय का भी अभाव मान लेना मिथ्या है, क्योकि मुक्तात्मा मे सम्यक्त्व और ज्ञान-गुण सदाकाल ही विद्यमान रहते हैं। इसी प्रसग से ज्ञानदर्शन की पर्याय होने से सुख भी रत्नत्रय मे गभित है-ऐसा सिद्ध होता
निष्कर्ष-- १. आगम-जिनबाणी है, जो गुरु को मार्ग बताती है,
इसलिए उसका दर्जा गुरु से ऊपर है और इसलिए
'देवशास्त्र-गुरु' क्रम ठीक है। 'णिच्छित्ती आगमदो, प्रागम चेठा तदो जेट्ठा।'
-प्रव० सार २३२ 'आगमहीणो समणो, णेवप्पाणं पर वियाणादि ।'
-प्रब० सार २३३ २. 'शास्त्र' यह नाम ज्ञान से सम्बन्धित है और उस दिव्यध्वनि से सम्बन्धित है जो बोध देती है ।
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-कलिकालविर्षे तपस्वी मृगवत् इधर उधर ते भयवान होय वन ते * नगर के समीप बसें हैं, यह महाखेदकारी कार्य भया है। यहाँ नगर
समीप ही रहना निषेध्या, तो नगरविर्षे रहना तो निषिद्ध भया ही। --चेला चेली पुस्तकनि करि मूढ़ सन्तुष्ट हो है भ्रान्ति रहित ऐसा ज्ञानी *
उसे बंध का कारण जानता संता इनकरि लज्जायमान हो है। -पापकरि मोहित भई है बुद्धि जिनकी ऐसे जे जीव जिनवरनि का लिग धारि पाप कर हैं, ते पापमूर्ति मोक्षमार्ग विष भ्रष्ट जानने ।
-मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ० २२२ *xxxxxxxxxxxxxkkakkkkkkkk***