Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 108
________________ ३२, वर्ष ४२, कि०३ अनेकान्त रक्षा में सन्नद्ध हो। ऐसा न हो कि बाड ही खेत को खा धारियों को मुनि, आचार्य या उपाध्याय नाम से छापते बैठे और हम हाथ मलते रहें। है। ये तो दुरगी नीति हुई -कथनी और करनी और। गत दिनो कुछ लोगो से उनकी नीति सम्बन्धी प्रश्न हमारी दृष्टि म तो मुनियो क प्रसगों को पत्र-पत्रिकाओ से पूछा गया था कि 'वीतरागी निर्ग्रन्थ गुरुओ के प्रति श्रद्धा- दूर रखने से भी साधुपद की रक्षा है। समाचार पत्रो में पूर्वक नमन करने के सम्बन्ध में उनकी क्या नीति है ?' प्रश्न उनके समाचार आदि उनके अह को बढ़ाते है। बड़ा तर्कसगत और आचरणीय है। हम ऐसे मार्ग-दर्शन की प्रशंसा करते है और अपील करते है कि प्रथम दर्शन ____ आज पैमे क! जोर है, अधिकांश व्यक्ति और त्यागी भी पैसे की ओर खिचे हुए है । कोई किसी बहाने और में-जब तक उनकी क्रियाओ को स्पष्ट दखा या सुना न कोई किसी बहाने लोगो की जेब खाली कराने में लगे है। हो, सभी निग्रन्थो को वदना व आहारादि जैसे सम्मानों से यश के भूखो को तो यश चाहिए, मो कई पैसे वाले अपना सम्मानित करना चाहिए। पर, बाद को देख लेना चाहिए मतलब साधते है, यश कमाते है- साधु के चारित्र से उन्हे कि वे मात्र वेश-घर तो नही-उनका मुनिरूप चारित्र मुनिरूप तो है-जैसा कि ऊपर वणित है ? कहा भी है, क्या लेना-देना ? साधु का चाहे शिथिलाचार बढ़े या उसे पापबध हो। कुछ श्रावको की कायरता तो इतनी बढ़ ----सम्यग्दृष्टी जीव भी 'सहदि असम्भाव अजाणमाणो।' चकी है कि वे धर्म-निन्दा के भय से कई वेषधारियो के हम समझते है कि दीक्षा के समय साधु वैराग्य भाव अनाचारों तक की लीपा-पाती मे लगकर दिगम्बरत्व को -साधुता मे होता है । जब श्रावक लि.सी अपरिग्रही को लाछिन करने को प्रश्रय दे रहे है ? उन्हें धर्मनिन्दा का अपार जनसमूह मे घिरे ऊंचे सिंहासन, स्टज पर ले जाने, भय है, धर्मलोप की चिन्ता नहीं-जबकि नीति कहती है भीड़ द्वारा जय-जयकार करने, समाचार पत्रों में उसके कि 'सडे फोडे को काटकर फेक देना चाहिए, ताकि वह गणगान करने, और तिरगे फोटुप्रो वाले उत्तम पोष्टरों में नासूर न बने । लोगों ने हमारी प्रार्थना है कि पैसे संबधी उसे अकित कराने आदि जैसे प्रतोपनो मे फंसाते है, तब समस्त क्रियाएँ दिगम्बरो के करने की नही --वे दिगम्बरों निश्चय ही वे उसे पदच्युत कराने के साधन जुटाते है। को इधर न घसीटे और स्वय ही धार्मिक उपकरणों की ऐसे में अपरिग्रही स्वय को पूजा और यश-कामना के गवस्था करे। माधुओ को धार्मिक या तीर्थो-सम्बन्धी जजाल में फंस जाता है-मोहित हो जाता है और पद चंदो का सकल्प भी वज्र्य है, सम्पत्ति कब्जा तो महा णप । से गिर जाता है। अतः श्रावको को ऐसे उपक्रमो का त्याग करना चाहिए क्योकि साधुओं को उक्त प्रपचों से आगे बढ़कर अहिंसा का नारा देने वालो को हम यह बवा लेने मे ही उनके पद की रक्षा है। माधु किसी जन भी स्मरण करा दें कि उनका परम कर्तव्य है कि वे समूह से न घिरे, उसके लिए निर्मित स्टेजो पर न बैठे, अपरिग्रहियों के सयमरूपी प्राणो की रक्षा करें। क्योंकि फोटओं के खिंचवाने मे विराम ले। यदि किमी को धर्म लौकिक दशप्रासा तो साधारण के भी होते है। अपरिग्रही लाभ लेना हो तो वह स्वय साधु के निवास स्थान पर का असाधारण-- मुख्य प्राण तो सयम है, जिससे उसका महाव्रत कायम रहता है। यदि महाव्रती के सयम का घात जाय और साधु उसे लम्बे चौडे भाषण न सुना--सूत्ररूप होता है, तो उसका महाव्रत मर जाना है और महाव्रती मे हित-मित वचन कहे; आदि । हम तो तब भी आश्चर्य की हिंमा हो जाती है। ऐसे मे जैनियो का 'अहिंसा परमो होता है, जव वर्तमान मे साधु-पद-दुर्लभ मानने वाले धर्मः' नारा कैसे मार्थक होता? जरा सोचिए । कतिपय लेखक और सम्पादक समाचारो में सभी वेष

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