Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 102
________________ २६, ४२, कि०३ अनेकान्त हमें यह भी सन्देह है कि कही कुछ लोग स्व-प्रतिष्ठा २. अरहत द्वारा कथित, गणधर द्वारा ग्रथित आगम की चाह में नित नई-नई बातें गढ़कर धर्म-मार्ग का लोप ही न कर दें? शास्त्र की व्याख्या में एक वाचक का ३. सूत्रार्य (आगम) जिनेन्द्र द्वारा कथित है। कहना है कि-'तीर्थंकर की वाणी को गुरु अपनी भाषा ४, जो सूत्र जिनेन्द्र ने कहे हैं, वे प्रागम है। मे लिपिबद्ध करते है, वह शास्त्र कहलाता है।' यानी ५. जो जिनेन्द्र ने कहा है वह आगम है। जैसे, उनकी दृष्टि से लिपिबद्ध काल से पूर्व-जब उस ६. जिन मार्ग मे जैसा जिनेन्द्र ने कहा है, वह आगम देशना को लिपिबद्ध नहीं किया गया था, तब शास्त्र ही नही हो? केवल देव और गुरु ही हो। जब कि आगम, ७. केवली जिन मे कहे गये ग्यारह अंग पूर्ण क्षुतज्ञान सिद्धान्त, शास्त्र, प्रथ कुछ भी कहो, जन मान्यतानुसार ये सभी ज्ञान और दिव्य ध्वनि-रूप मे अनादि विद्यमान ८. जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्राय: अतीरहे है। और तीथंकरों द्वारा ध्वनित होते रहे है। न्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाला है, अचित्य स्वभावी है और युक्ति से परे है, उसका नाम आगम की परिभाषाएँ जो उपलब्ध हैं उनमें कुछ इस आगम है। प्रकार है ६. आप्त के वचन आगम है। १. 'तस्स मुहग्गद वयणं पुन्वावरदोसविरहियं सुद। १०. आगम आप्त का कहा हुआ और अनुल्लष्य है। भागममिदि परिकहिय (नियमसार ८) ११. रागद्वेष रहित सर्वज्ञ से कहा गया आगम है। २. 'अरहतभासियत्थं गणधरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।' सुत्त पा..१ १२. प्राप्त वचनादि द्वारा निबधित पदार्थ ज्ञान आगम ३. 'सुत्तत्थं जिणभणिय'-सुत्तपाहुड ५ । ४. 'ज सुत्तं जिण उत्त'- ६ उक्त लक्षण आग। के है और आगमभिद्धान्तः ग्रंथ. ५. 'उवइट्ठ परमजिणवरिंदेहि १० शास्त्रम्'-(नाममाला) ये सभी नाम भो आग के है और आगम परम्परा तथा स्वरूपत. अनादि है। ऐसे में ६. 'जिणमग्गे जिणवरिदेहि जह भणिय'-बो०पा०२ ७. 'केवलिजिणपण्णत्त एयादस अंग मयल सुयणाणं' प्रसिद्ध कर देना कि 'गुरु अपनी भाषा में लिपिबद्ध करते -भाव पा० ५२ है, वह शास्त्र कहलाता है' बडे महान् साहस की बात ८. 'आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिदियत्थविसओ अचितियसहाओ जुत्ति स्मरण रहे मूलत:-आगम, सिद्धान्त, ग्रन्थ और गोयरादोदो'-धब० पु. ६, पृ० १५१ शास्त्र (ओर श्रुत भी) सभी नाम ज्ञानमयी उसी दिव्य६. 'आप्त वचनं ह्यागमः'-रत्न-टो-५ ध्वनि के सूचक है, जिसके मूलकर्ता सर्वज्ञदेव (तीर्थकर) १०. 'आप्तोपजमनुल्लंघ्य'-रत्नक० है-अन्य कोई नही। इस भाति पूरे आगमो का अव. ११. 'आगमः सर्वज्ञन निरस्तरागद्वेषेण प्रणीतः' तरण तीर्थकर से ही होता है और पूरा आगम ज्ञानरूप है। फलतः-लिपिबद्ध होने के बाद उसकी संज्ञा 'शास्त्र' १२. 'आप्तवचनादि निबंधनमज्ञानमागमः' होती है यह कथन निःसार और लोगों में भ्रान्ति उत्पादक -परीक्षामु० ३/६६ न्याय दो०, पृ० ११७ है। अर्थात् - चूंकि जनसाधारण गहराई में न जाकर लोकानुकरण १. तीर्थकर द्वारा प्ररूपित पूर्वापर दोषों से रहित करता है और आज आगम के लिए प्रायः 'शास्त्र' शब्द और शुद्ध वचनो को आगम कहा माता है। अधिक प्रचलित है । जब लोग जानेंगे कि लिपिबद्ध होने

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