Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 25
________________ सुख का उपाय इस जीव का उपयोग अपने मे जाता है तब विकारी परिणमन का प्रश्न ही नहीं खड़ा इतना अवश्य है कि छद्यस्थ का उपयोग ज्यादा अपने में नहीं टिकता परन्तु अपने अपने मे ले जाने का अभ्यास निरन्तर करते रहने से घातिया कर्मों के आश्रवबन्ध में विराम हो जाता है और पहिले के कर्मों का अभाव होता जाता है और इसी रीति से अनंत चतुष्टय रूप केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है। आगम में कहा भी है राग-द्वेष रूप होता हाँ अन्तर्मुहूर्त से उपयोग को भावयेद् भेद विज्ञान मिदमन्निधारा, तावत् यावत् परश्च्युित्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठति अर्थात् सम्यग्दर्शन (भेद विज्ञान) की भावना तब तक भावनी चाहिए जब तक ज्ञान स्वयं ज्ञान रूप ( केवल ज्ञान ) में प्रगट न हो जाय। जब तक इस जीव के साथ चारित्र मोहका सम्बन्ध है तब तक चाहे सम्यग्दृष्टी हो अथवा मिथ्या दृष्टि रागद्वेष हर्ष विषाद आदि विकारो का अनुभव होता है । हां, इतना अवश्य है कि मिथ्या दृष्टि जीव उन विकारी भावो के अनुसार परिणत हो जाता है, उनको जानकर उनको अपना मान लेता है। क्योकि उसके भेद ज्ञान का अभाव है । निन्तु भेद ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टी) भेद ज्ञान के बल से उनको जानता हुआ भी अपना नही मानता । ऐसा विचार करता है कि वे औपाधिक भाव है कर्म के उदय से हो रहे है मेरे निजी भाव नही है । उस समय विकारी भावो से होने वाली परिणति रुक जाती है आश्रव बंध में विराम लग जाता है और अपनी षट्गुनी हानि वृद्धि के बल से ज्ञान गुण कुछ निर्मल हो जाता है। बारम्बार अपने ज्ञान गुण ( उपयोग ) को अपनी आत्मा के स्वरूप की तरफ ले जाने से सवं मोह भी क्षय हो जाता है । और उसी षट्गुनी हानि वृद्धि के बल से समस्त घातिया कर्मों के नाश हो जाने से अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं। जिससे ज्ञान गुण पूर्ण शुद्धता को प्राप्त हो जाता है। इससे गुण तथा पर्याय तो शुद्ध हो गई परन्तु द्रव्य मे अभी भी मलिनता रहती है क्यों कि घातिया कर्मों के सदभाव रहने से आत्मा के प्रदेशों में कम्पता रहती है इसलिए द्रव्य मे भी अशुद्धता रहती है। इस कम्पना के कारण से जो आश्रव बध होता है उसमे २१ 1 कषायो के अभाव होने से एक समय मात्र की स्थिति होती है। उन अघातिया कर्मों का नाश कापू के समाप्त होने पर आपोआप हो जाता है। उस समय टकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावी एक अकेला आत्मा रह जाता है द्रव्य, गुण तथा पर्याय तीनों शुद्धता को प्राप्त हो जाते हैं । यही सिद्ध अवस्था कहलाती है। ऐसा धारमा हमेशा के लिए सुखी हो जाता है ऐसे सुख की प्राप्ति धर्म से होती है। कहा भी है - 'धर्म करत संसार सुख धर्म करत निर्वाण । धर्म पन्थ साधे बिना नर तियंच समान || श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी प्रवचन सार में कहा है। कि स्वरूप मे जो आचरण है उसी को स्वसमय प्रवृत्ति हैं, वही चारित्र है वही मोह क्षोभ रहित आत्मा के परिणाम साम्यभाव है तथा उसी को आत्मा का अभेद रत्नत्रय धर्म कहते है। स्वामी समंतभद्राचार्य ने भी कहा है'सद्वृष्टिज्ञानव्रतानि धर्मं धर्मेश्वरः विदुः । अर्थात् सम्यग् - दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र ही धर्म है और इससे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या परित्र अधर्म तथा संसार-मार्ग है उस धर्म स्वरूप अभेद रहनत्रयात्मक परमात्म स्वरूप आत्मा के एकत्व का आगम तर्क तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा दिखाने का कुन्दकुन्द आचार्य ने प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि वह आत्मा कैसी है तथा उसी आत्मा के स्वकीय स्वरूप का सवेदन कहा है। अहमिक्को, खलु शुद्धो दंसणा णाम- मइओ सदा रूबी गवि अस्थि मज्झ किचिवि अण्ण परमाणु मितं पि ||३८|| ऐसे आत्मा के स्वरूप के अनुभव के लिए कुछ काल की मर्यादा करके समस्त आरभ परिग्रह का त्याग करके एकांत स्थान मे जहां किसी प्रकार के बाह्य आडम्बर का समागम न हो पद्मासन लगाकर चितवन करें कि मैं एक हूं, अकेला हूं, मेरा कोई साथी सगा नही है, और अन्य द्रव्य का मेरे मे किंचित् भी समावेश नहीं है, मैं सभी अन्य ग्रन्थों से भिन्न हूं, दर्शन, ज्ञानमय हूं, अरूपी हू और अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है । ऐसी वस्तुस्थिति मे भी यह जीव अनादि काल से कर्म (मोह) मे लगा हुआ है। जिसके कारण चतुर्गति मे भ्रमण करता दुखी हो रहा है कर्म के कारण से पर द्रव्यो का समागम तथा वियोग होता है तथा जिन पर पदार्थों

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