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१०, वर्ष ४२, कि०३
अनेकान्त
सयम और आत्मा के उत्तम मा आदि निजधर्म रूप वस्तु थी तो वह था ज्ञान । परन्तु सम्यक्त्व को उन्होने निर्ग्रन्थ ज्ञानमयी मोक्षमार्ग का दर्शन कराने वाला। ज्ञान से भी बढ़कर माना था क्योकि ज्ञान और चारित्र
यहा मोक्षमार्ग का दर्शक होने से दर्शन का अर्थ रत्न- सम्यक्त्व बिना नहीं होते और मोक्ष बिना चारित्र के नही त्रय नही है । दर्शन का अर्थ है- सम्यक्त्वमयी दर्शन और होता।" उन्होने जीव को सिद्ध होने मे सम्यक्त्व महित मम्यक्त्व का स्वरूप है-आगमोक्त षद्रव्य, नव पदार्थ, ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र चारो की अपेक्षा की है। पंचास्तिकाय और सप्त तत्त्व पर श्रद्धा ।' आचार्य ने इसे उनकी मान्यता थी कि जो बहुत शास्त्रों के पारगामी व्यवहार सम्यग्ज्ञान और आत्मिक श्रद्धान को निश्चय होकर भी मम्यक्त्व मे रहित है, वे भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र सम्यग्दर्शन बताया है।
और तप की आराधनाओ से रहित होकर ससार मे ही कुन्दकुन्द के दार्शनिक विचार-कून्द कून्द की भ्रमते है ।" आस्था प्रदर्शन में न रहकर दर्शन में थी। वे जानते थे सम्यक्त्व का महत्त्व दर्शाते हुए उन्होंने कहा है कि कि दर्शन दिखाने की वस्तु नही है। दिखाने से सुख नहीं सम्यक्त के बिना करोड़ा वर्ष तक उग्र तप करने पर भी दुःख ही प्राप्त होते है। बिना भावो के क्रियाएँ सुख कारी बोधि-सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र की नहीं होती।' इसीलिए उन्होने दर्शन को भावपूर्वक धारण प्राप्ति नहीं होती।" दर्शन बृक्ष की जड के समान है। करने के लिए कहा ।"
जट के न रहने से जैसे वक्ष की शाखाएं नही बढती, ऐसे कुन्दकुन्द पहले आचार्य है जिन्होने मानवो का तल- ही दर्शन के बिना जीव मुनत नही हाता । तीर्थकरो के स्पर्शी अध्ययन किया था। वे समझ गये थे कि शक्ति के पचकल्याणक भी विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर ही होते बाहर धारण किया गया दर्णन स्थिर नही रह सकेगा। है। इमीलिए उन्होने उघोषणा की थी कि जिननी शक्ति हो, सम्यक्त्वी के कर्तव्य-अवार्य में सम्यक्त्वी को उतना ही दर्शन धारण करना चाहिए। यदि शक्ति न हो तीन देव ही आराध्य बताये है। उन
तीन देव ही आराध्य बताये है। उनकी दुष्टि में चौसठ तो उस पर श्रद्धान अवश्य रखे क्योकि केवली जिनेन्द्र का चमरों और चातीस अतिशयो से युक्त प्राणियो के हित. वचन है कि सम्यक्त्व श्रद्धावान के ही होता है । कारी और कर्मक्षय के कारण अहंन्न प्रथम देव है।" जरा
इस उद्घोषणा का फल यह हुआ कि चारित्र से और मरण-व्याधि के हर्ता, सर्वदुःख,-क्षय कर्ता, विषय-सुख शिथिल या च्युत हो जाने पर भी श्रद्धा बनी रहने से जीव दूर करने के लिए समन तुल्य औषधि स्वरूप जिनवाणो पुनः ग्रात्मकल्याण में प्रवृत्त हुए। मुनि माघनन्दि का दूसरा" और तीगर गुरु है । गुरुओम प्रथम निर्ग्रन्थ साधु उदाहरण इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है।
दूसरे उत्कृष्ट धावक और तीसरे आयिकाओ का उल्लेख आवार्य की मान्यताएँ शाश्वत है। दर्शन को मोक्ष किया गया है।" का प्रथम सोपान होने को मान्यता" आज भी प्रचलित कुन्दकुन्द की दष्टि में वन्द्य और अवन्द्यहै । ५० दौलत राम द्वारा दर्शन को मोक्ष-महल की प्रथम प्राचार्य ने उत्पन्न हुए बालक के समान सहज उत्पन्न मीढी कहा जाना इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय उदाहरण निर्विकारी निर्घन्ध रूप को वन्द्य कहा है। उनकी मान्यता है।" उनको मान्यता थी कि दर्शन से जो जीव च्युत हो है कि जो ऐसे सहज उत्पन्न रूप को देखकर मात्सर्य से जाते है वे सासारिक दुखो से मुक्त नहीं हो पात । समार नमन नही करता वह सयमी भी क्यों न हो, तो भी मिथ्या मे ही भटकते रहते है। उनको मुक्ति की प्राप्ति नही दृष्टि ही है" सम्यक्त्व राहत है जो शील व्रतधारी दिगबर होती। चारित्र से च्युन तो सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं, साधुओ को नमन नही करते। क्योकि वे पुन दर्शन धारण कर लेते है।५।।
आचार्य भी दृष्टि मे वस्त्रविहीन वे साधु भी वन्ध आचार्य की दृष्टि में मनुष्य के लिए यदि कोई मार- नही, जो अमयमी है। आचार्य ने देह, कुल और जाति