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सल्लेखमा अथवा समाधिमरण
कम मंकेत मिलता है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने जाने वाली चर्यारूप प्रतिज्ञा का दिग्दर्शन करता है। स्पष्ट के लिए कोई प्रार्थना नही की जाती। पर जैनासल्लेखना है कि यहा सन्यास का वह अर्थ विवक्षित नहीं है, जो मे पूर्णतया आध्यात्मिक लाभ नथा मोक्ष-प्राप्ति को जैन-सल्लेखना का अर्थ है। सन्यास का यहा साधु-दीक्षा भावना स्पष्ट सन्निहित रहती है। लोकिक एषणाओ की कर्मत्याग-सन्यास नामक चतुर्थ आश्रम का स्वीकार है उसमे कामना नही होती। इतना यहा ज्ञातव्य है कि और सल्लेखना का अर्थ अन्त (मरण) समय में होने वाली निर्णयसिन्धुकार ने ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ के क्रिया-विशेष" (कषाय एव काय का कृशीकरण करते हुए अतिरिक्त आतुर अर्थात् मुमूर्ष (मरणाभिलाषी) और आत्मा को कुमरण से बचाना तथा आचरित सयमादि दु.खित अर्थात् चौरव्यानदि से भयभीत व्यक्ति के लिए भी आत्म-धर्म की रक्षा करना) है। अत. सल्लेखना जैन-दर्शन सन्यास का विधान करने वाले कतिपय मतों का उल्लेख की एक विशेष देन है, जिम में पारलौकिक एवं आध्यात्मिक किया है। उनम कहा गया है कि 'सन्यास लेने वाला जीवन को उज्ज्वलतम तथा परमोच्च बनाने का लक्ष्य आतुर अथवा दुःखिन यह सकल्प करता है कि 'मैंने जो निहित है। इसमे रागादि से प्रेरित होकर प्रवृत्ति न होने अज्ञान, प्रमाद या आलस्य दोष से बुरा कर्म किया, उसे के कारण वह शुद्ध आध्यात्मिक है। निष्कर्ष यह है कि मैं छोड़ रहा है और सब जीवो को अभय-दान देता है मल्लेखना आत्म-सुधार एवं आत्म-सरक्षण का अन्तिम तथा विचरण करते हुए किसी जीव की हिसा नही करूंगा और विचारपूर्ण प्रयत्न है। किन्तु यर कथन मन्यासी के मरणान्त-समय के विधि
(श्रीमती चमेलीबाई स्मृति-रेखाएँ) विधान को नही बतलाता, केवल सन्यास लेकर आगे की
सन्दर्भ-सूची
१. पडिद-पडिद-मरण पडिदय बाल-पडिद चेव । बाल-मरण चउत्थ पचमय बाल-बाल च ।।
-भ० आ०, गा०२६ । २. पडिदपंडिदमरण च पणिद बालपंडिद चेव । पदाणि तिणि मरणाणि जिणा णिच्च पससति ।।
--भ० आ०, गा० २७ । ३. वही, गा० २८, २९, ३० । ४. वही, गा० १९६७-२००५ । ५-६. डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दू सस्कार, पृ० ०६ । ७. वही, पृ० ३०३ । ८. वही, पृ० ३६३ तथा कमलाकर भट्ट कृत निर्णय
सिन्धु, पृ० ४४७ । ६. हिन्दू सस्कार, पृ० ३४६ । १० निर्णयसिन्धु, पृ० ४४७ ।
११. वैदिक साहित्य मे यह क्रिया-विशेष भगु-पतन,
अग्निप्रवेश, जल प्रवेश आदि के रूप में मिलती है। जैसाकि माघ के शिशुपाल वध की टीका मे उद्धत निम्न पद्य से जाना जाता है-- अनुष्ठानासमर्थस्य वानप्रस्थस्य जीर्यत । भग्वग्निजलसम्पातमरण प्रविधीयते।
-शिशुपाल वध ४-२३ को टीका किन्तु जैन सस्कृति में इस प्रकार की क्रियाओं को मान्यता नही दी गयी। प्रत्युत उन्हें लोकमढता बतलाया गया है, जो सम्यकदर्शन की अवरोधक है । यथा---
आपगासागरस्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोक मुढ निगद्यत ।।
-समन्तभद्र, रत्नकरण्डकथावका० । ।