Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 89
________________ दिगम्बर-मुनि ... बाबूलाल जैन, कलकत्ते वाले आगमानुसार छठे-सातवे गुणस्थानवर्ती ही मुनि होते जिन लोगो के सम्यकदर्शन नही है और मुनिपना हैं, जिनके कषायों को तीन चौकड़ी अनन्तानुबन्धि, अप्र- धारण कर लिया है उनके कर्मफल के अलावा और कही त्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण का तो अभाव हो ठहरने को जगह नहीं है, क्योकि स्वभाव की प्राप्ति तो गया हो और मात्र केवल सज्वलन कषाय का उदय हो। हुई नही इसलिए एक कर्मफल से हटकर दूसरे कर्मफल में तीन चौकडी के अभाव से उतनी वीतरागना अर्थात निवत्ति ठहर जाता है परन्तु कर्म-चेतना और कर्मफल चेतना मे हुई और एक चौकडी के सद्भाव से प्रवृति होती है। वह हा लगा रहता है। इस प्रकार कर्मफल में है प्रवृति अट्ठाईस मूल गुणों की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर अहम् भाव को प्राप्त करता है, उसी को धर्म मानकर सकती है। अगर अट्ठाईस मूल गुणो की मर्यादा का लोप अहकार मे ग्रसित रहता है, जब अहकार को ठेस लगती होता है तो फिर एक चौकडी की जगह दो चौकडी का है तो क्रोध मे पागल हो जाता है और जब अहकार की काम चालू हो जाता है और गुणस्थान छठे से पांचवां हो पुष्टि भक्तो के द्वारा, अखबार में नई-नई पोज की फोटो जाता है, यद्यपि बाहरी भेष नग्न दिगम्बर ही रहता है। के द्वारा, राजनैतिक लोगो के द्वारा अथवा सभा-सोसा. यदि एक अन्तर्महत में छठे से मातवे में नहीं जाते है तो इटियो द्वारा होती है, तब अह और गहग हो जाता है। भी छठा गुणस्थान मिटकर पांचवां हो जाता है। सातवें नही होने पर मायाचारी के द्वारा अह को पुष्ट किया जाता है इस प्रकार कर्म-चेतना में लगा रहता है। इस मे जाने का अर्थ है निर्विकल्प चेतना का अनुभव होना। प्रकार ज्ञान-चेतना का अनुभव न करके कर्म-चेतना का किमी प्रवृत्ति को करना और रोकने का नाम छठा-सातवा भोग करता है, जिससे चारो चौकडियो का बध होता नही है। रात्रि मे सोते हुए भी मुनि के अन्तर्महुतं में छठे रहना है। परिणामो मे सरलता नहीं रहती--पाखण्ड मे सातवा होना ही चाहिए। उसकी अवस्था आचार्यों ने और मायाचारी जीवन का स्तर बन जाती है। इस ऐसी बताई है जैसी उसी मुसाफिर की दशा, जो रात्रि प्रकार आप ही अपने जीवन का नारकीय जीवन बना मे स्टेशन पर रत्नो का पिटारा लिए बैठा है और अपकी लेता है। गृहस्थ के इतना मायाचार और पाखण्ड तो ले रहा है माथ-साथ में पिटारे पर हाथ रखे है और नही था इसलिए जीवन कदाचित् मरल हो सकता था उसको सम्भालता भी जा रहा है। ऐसे मुनि को आचार्यो अन्त मैं शान्ति का अनुभव कर लेता था। अब तो ऐसा ने चलता-फिरता सिद्ध की उपमा दी है। जैसे लुहार की हो गया कि माप के मुह मे छछुन्दर आ गया, न निगला संडासी क्षण मे आग मे और क्षण में पानी में होती है, जाता है और न छोड़ा जाता है । कषाय तो मिटी नहीजैसे हिन्डोले में झूलता आ आदमी, जो कभी ऊपर की मेटने का उपाय किया भी नही और भेष निष्कषाय का तरफ जाता है और कभी नीचे की तरफ आता है। ऐसा बना लिया, इसलिए वह कषाय बाहर आने के लिए नये. ही वह दिगम्बर मुनि क्षण मे आत्मानुभव का स्वाद लेता नये बहाने बनाकर बाहर आती है और उसको धर्म का है क्षण मे बाहर आता है तो २८ मून गुणों में पांच समिति चोला पहनाय कर अपने को ठगा जाता है और साथरूप प्रवृति होती है उसके बाहर प्रवृति होने के लायक साथ मे समाज और अजान भक्त भी ठगाई मे आ जाते कषाय ही नहीं रही। हैं । अनजान भक्तो को सस्ता धर्म मिल गया, जो पैसे से

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