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समन्वय में अपने को न भूलें
पर्वराज दशलक्षण के उपरान्त आने वाला क्षमावणी पर्व जन-जन के मानस की शुद्धि और धर्म की स्थिरता के लिए होता है । सब भाई-बहिन परस्पर में एक दूसरे के प्रति सरल भाव रखे यही इस पर्व का उद्देश्य है। हमारा दिगम्बर जैन समाज इस पर्व की पूर्ण सार्थकता सदा काल करते रहें. ऐसी हमारी भावना है। साथ ही हम यह भी चाहेंगे कि हम इस क्षमावणी के उपलक्ष्य में किसी भावादेश-वश परस्पर गले मिलने के लिए अपनी भुजाएँ इतनी न फैला दें, कि वे हमारी मान्यताओं का उल्लघन हो कर जायें अपनी मान्यताएं तो हमे सभी भाँति सुरक्षित ही रखनी हैं।
हमे खेद होता है जब कोई कर्णधार या कोई दिο जैन समिति जैसी दिगम्बर सस्था परस्पर मिलनप्रदर्शन के किसी प्रसन मे अपनी मान्यताओं को तिलांजल तक दे देते हों, जब कि उनका कर्तव्य अपनी धर्म मान्य ताओ की वाड मे रहते हुए मानवता का पालन करना हो । उदाहरण के लिए जैसे-दिगम्बर जैन महासमिति पत्रिका के दिनाक १५ सितम्बर १९८६ के सम्पादकीय मे भ० महावीर के विषय मे लिखा गया है- "चन्द्रकोशिक सर्प डक मारता है । ग्वाला कानों मे कीलें ठोकता है तो गोशालक तेजोलेश्या छोड़ता है किन्तु महावीर के हृदय में उनके प्रति न क्रोध है, न घृणा है और न नफरत !" "पराजित संगमदेव जब जाने लगा तब महावीर की आखो मे आँसू आ गए। उन्होने इसका कारण पूछने पर सगम से कहा- तूने मुझे सुनार की तरह उपसर्गों की अग्नि से तपाकर तेजस्वी बनाया, निर्मल बनाया, मेरी आत्मा कम से हल्की हो गई।"
पाठक देखें कि क्या दि० मान्यता ऐसी है ? वहाँ न तो महावीर के कानो मे कीलें ठोकी गई और ना ही कोई
श्री विमल प्रसाद जैन
तेजोलेश्या छोड़ी गई और न महावीर को आंखों में कभी सू आए । यह सम्भव ही नहीं कि उत्तम संहनन, धीरस्वभावी महावीर के कभी आँसू आएँ या उनके कामों में कीलें ठुक सके।
ऐसे ही इससे पहले इसी प्रकार का एक लेख भा दि० जैन परिषद के प्रमुख पत्र 'वीर' के २२ मई १९०६ के अंक में मूर्ति स्थापन एवं प्रतिष्ठा पचकल्याणकों के विरोध में प्रकाशित हुआ जबकि हमारे आगमों मे पंचकल्याणको और मूर्ति प्रतिष्ठाओ के विधान हैं और हम सभी मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान की पूजा करने के अध्यासी है? क्या ऐसे लेखों से हम मन्दिरो के भी विरोधी न हो जायेंगे ? लेख के अश निम्न प्रकार है
"जब अन्य केवलियो के पचकल्याणक नही होते, फिर मूर्ति का पवकल्याणक करना कहाँ तक युक्ति सगत होगा ? क्या मूर्ति के मुख से दिव्यध्वनि निकलती है ? फिर मूर्ति का पंचकल्याणक करना किम धर्मशास्त्र तथा सिद्धान्त के अन्तर्गत आता है ? जड़मूर्ति के द्वारा धर्म प्रभावना की जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? काल्पनिक पंचकल्याणक महोत्सव का आयोजन मृग मरीचिका के पीछे भाग-दौड़ के समान है ।'
हमारे लिखने का तात्यं किसी से वैर-विरोध नही। हम तो दिगम्बरत्व की रक्षा मे श्रेय समझकर ही सब लिख रहे है। ताकि दिगम्बरत्व की रक्षा के उद्देश्य को लेकर निर्मित भारतवर्षीय सस्थाएँ इस बात का ध्यान रथे कि उनके द्वारा कोई ऐसी बात लिखी या कही न जाए जो दिगम्बर मान्यता को अमान्य हो । इन्ही सद्भावनाओं के साथ !
२१, दरियागंज, नई दिल्ली-२