________________
दर्शन-पाहुड : एक चिन्तन
0 डॉ० कस्तूरचंद्र 'सुमन'
प्राध्यात्मिक क्षेत्र में भगवान महावीर के पश्चात् हुए नामोल्लेखों का तात्पर्य भी यही है। इससे आचार्य की आचायों में आचार्य कुन्दकुन्द का योगदान सदैव स्मर्णीय चौबीसों तीर्थंकरों को नमस्कार करन की भावना अभिरहेगा। उन्होने अपने आध्यात्मिक जीवन मे जो अनुभव व्यक्त होती है। आचार्य अकलकदेव ने भी इसी प्रकार प्राप्त किये, उन्हें अपने तक ही सीमित बनाये रखना उन्हें लघीयस्तोत्र के आदि मे ऋषम और महावीर का नामइष्ट नही रहा : उन्होने अपने अनुभवो को युक्तिमो के स्मरण कर चौबीसो तीथंकरो को नमन किया है।' द्वारा ग्रन्थों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया है ।
रचना का उद्देश्य-प्रस्तुत रचना का उद्देश्य आत्म उनके ग्रन्थ आज जीवों के कल्याण मे कारण बने हुए है।
कल्याण मे प्रवृत्ति और भव-बन्धनकारी प्रवृत्तियो से आचार्य-प्रणीत 'पाहुड' ग्रथो मे सर्वप्रथम रखा गया।
नित्ति के उपाय बताकर जीवो को मोक्षमार्ग मे सयोन 'दर्शनपाहड' प्रथ है । इसमे मात्र छत्तीस गाथाएं है किन्तु
जित करना रहा ज्ञात होता है।
त उनमें प्रतिपादित विषय आत्मकल्याण की दृष्टि से हृदय
___धर्म, भर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में दो पाही है। इस का अध्ययन-मनन और चिन्तन करने से
साध्य और दो उनके साधन हैं। इनमे काम और मोक्ष मुमुक्षु को अपन कर्तव्य और अकर्तव्य का सहज ही बोध
साध्य है। इनके साधन है अर्थ और धर्म । आचार्य कुन्दहो जाता है और वह बोधि की प्राप्ति मे लग जाता है।
कुन्द ने मोक्ष के लिए धर्म को उपादेय बताया। उन्होंने इसमे प्रथम गाथा मे बषभदेव और वर्द्धमान की
इमीलिए ग्रंथके आरम्भ में ही धर्म का मूल समझा देना वन्दना की गयी है । शेष गाथाओ मे सम्यक्त्व का महत्त्व
आवश्यक समझा था । उन्होने कहा कि जिस धर्म गे जीव (गाथा २-१२), सम्यक्त्व का म्वरूप-(गाथा १६-२१)
को ससार के दुःखी से उत्तम सुख की ओर ले जाया जा सम्यक्त्व के कारण (गाथा १४-१८) और कर्तव्याकर्तव्य
मकता है उस कर्मविनाशक धर्म' का मूल दर्शन ।' का बोध (गाथा २२-३६) कराया गया है। इस प्रकार
उनका उद्देश्य था दर्शन सम्बन्धी विवेचना प्रस्तुत करना । अल्पकाय होते हुए भी अध्यात्म के क्षेत्र में इसका बड़ा
ग्रथ को विषय वस्तु मे ज्ञान होता है कि आचार्य अपने महत्त्व है। यदि यह कहा जाय कि आचार्य ने 'गागर में
उद्देश्य मे सफल रहे है। सागर' भर दिया है तो काई अतिशयोक्ति न होगी।
दर्शन का अर्थ- - सामान्यतः दर्शन के तीन अर्थ मंगलाचरण में आचार्य की अव्यक्त भावना- प्राप्त होते है-(१) दृश् धातु मे ल्यूट प्रत्यय के संयोजन आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रस्तुत प्रथ मे तीर्थकर वृषभदेव और से निष्पन्न अर्थ देखना। (२) जिसके द्वारा देखा जाबे। वर्द्धमान को नमस्कार किया है।'
(३) षड्दर्शन-बोद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक गाथा में प्रयुक्त 'जिन-वर' शब्द मे 'व' और ' और जैमिनी । अन्तस्थ वर्ण है। कोशकारो द्वारा मान्य अन्तस्थ वर्णों के आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन की व्याख्या उक्त दर्शन के 'य र ल व' क्रम में 'र' वर्ण दूसरे और 'व' वर्ण चौथे सामान्य अर्थों से भिन्न की है। भिन्नता का कारण है क्रम में आने से 'वर' शब्द चौबीस सख्या का प्रतीक ज्ञात उनकी प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति और जीव कल्याण हितैषी होता है। प्रस्तुत गाथा मे आदि और अन्तिम तीर्थ रो के भावना । उनकी दृष्टि में दर्शन का अर्थ था-"सम्यक्त्व,